रविवार, 13 जनवरी 2008

देवगणों के जागने का पर्व मकर संक्रांति

देवगणों के जागने का पर्व मकर संक्रांति प्रो. अिश्वनी केशरवानी संपूर्ण भारत में मकर संक्रांति विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में मनाया जलाता है। इस दिन अंधेरा होते ही आग जलाकर अग्नि पूजा करते हुए तिल, गुड़, चांवल और भूने हुए मक्का की आहूति दी जाती है। इस सामग्री को तिलचौली कहा जाता है। इस अवसर पर लोग मूंगफली, तिल की गजक, रेविड़यां आपस में बांटकर खुिशयां मनाते हैं। बहुएं घर घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी मांगते हैं। नई बहू और नवजात बच्चे के लिए लोहड़ी को विशेष महत्व होता है। इसके साथ पारंपरिक मक्के की रोटी और सरसों की साग का भी लुत्फ उठाया जाता है। महाराष्ट्र प्रांत में इस दिन ताल-गूल नामक हलवे के बांटने की प्रथा है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं :- `लिळ गूळ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला` अथाZत् तिल गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो। इस दिन महिलाएं आपस में तिल, गुड़, रोली और हल्दी बांटती हैं। बंगाल में भी इस दिन स्नान करके तिल दान करने की विशेष प्रथा है। असम में बिहु और आंध्र प्रदेश में भोगी नाम से मकर संक्रांति मनाया जाता है। तामिलनाडु में मकर संक्रांति को पोंगल के रूप में मनाया जाता है। पोंगल सामान्यत: तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन कूड़ा करकट इकठ्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की जाती है। पोंगल मनाने के लिए स्नान करके खुले आंगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनाई जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है। उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं। इस दिन बेटी और जमाई राजा का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है। छत्तीसगढ़ में मकर संक्रांति को खिचड़ी अऊ तिलगुजिहा के तिहार कहा जाता है। इस दिन नदियों में स्नान के बाद तिल और खिचड़ी के दान के बाद खाने की प्रथा है।
पृथ्वी का एक रािश से दूसरी रािश में प्रवेश `संक्रांति` कहलाता है और पृथ्वी का मकर रािश में प्रवेश करने को मकर संक्रांति कहते हैं। सूर्य का मकर रेखा से उत्तरी कर्क रेखा की ओर जाना उत्तरायण और कर्क रेखा से दक्षिण मकर रेखा की ओर जाना दक्षिणायन कहलाता है। जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होने लगता है तब दिन बड़े और रात छोटी होने लगती है। इस समय शीत पर धूप की विजय प्राप्त करने की यात्रा शुरू हो जाती है। उत्तरायण से दक्षिणायन के समय में ठीक इसके विपरीत होता है। वैदिक काल में उत्तरायण को `देवयान` तथा दक्षिणायन को `पितृयान` कहा जाता था। मकर संक्रांति के दिन यज्ञ में दिये गए द्रव्य को ग्रहण करने के लिए देवतागण पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। इसी मार्ग से पुण्यात्माएं शरीर छोड़कर स्वागाZदि लोकों में प्रवेश करती हैं। इसीलिए यह आलोक का पर्व माना गया है।
धर्मशास्त्र के अनुसार इस दिन स्नान, दान, जप, हवन और धार्मिक अनुष्ठानों का विशेष महत्व है। इस अवसर पर किया गया दान पुनर्जन्म होने पर सौ गुना अधिक मिलता है। इसीलिए लोग गंगादि नदियों में तिल लगाकर सामूहिक रूप से स्नान करके तिल, गुड़, मूंगफली, चांवल आदि का दान करते हैं। इस दिन ब्राह्मणों को शाल और कंबल दान करने का विशेष महत्व होता है।
इलाहाबाद में माघ मास में गंगा-यमुना के रेत में पंडाल बनाकर कल्पवास करते हैं और नित्य गंगा स्नान करके दान आदि करके किला में स्थित अक्षयवट की पूजा करते हैंं। प्रलय काल में भी नष्ट न होने वाले अक्षयवट की अत्यंत महिमा होती है। इस अवसर पर उसकी पूजा-अर्चना से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
मकर संक्रांति के अवसर पर गंगा सागर में भी बड़ा मेला लगता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन यशोदा जी ने श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए व्रत की थी। इस दिन गंगा सागर में स्नान-दान के लिए लाखों लोगों की भीढ़ होती है। लोग कष्ट उठाकर गंगा सागर की यात्रा करते हैं। वषZ में केवल एक दिन-मकर संक्रांति को यहां लोगों की अपार भीढ़ होती है। इसीलिए कहा जाता है-`सारे तीरथ बार बार लेकिन गंगा सागर एक बार।`
इस पर्व में शीत के प्रकोप से छुटकारा पाने के लिए तिल को शरीर में मलकर नदी में स्नान करने का विशष महत्व बताया गया है। तिल उबटन, तिल हवन, तिल का व्यंजन और तिल का दान, सभी पाप नाशक है। इसलिए इस दिन तिल, गुड़ और चीनी मिले लड्डु खाने और दान करने का विशष महत्व होता है। यह पुनीत पर्व परस्पर स्नेह और मधुरता को बढ़ाता है।
मकर संक्रांति में अर्द्धकुम्भ स्नान :-
कुंभ स्नान स्वास्थ्य की दृिष्ट में उत्तम है। `मृत्योर्मामृतम्गमय` का संदेश देने वाले कुंभ और सिंहस्थ स्नान की परंपरा अति प्राचीन है। हर 12 वें साल में प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में महाकुंभ और छठवें वषZ में अर्द्ध कुंभ होता है।सहस्रं कार्तिके स्नानं, माघे स्नान शतानि च।बैशाखे नर्मदा कोटि: कंभ स्नाने तत् फलम्।।अथाZत् कार्तिक मास में एक हजार और माघ मास में सौ बार गंगा स्नान से तथा बैसाख में नर्मदा में एक करोड़ बार स्नान करने से जो पुण्य मिलता है वह माघ मास में महाकुंभ के अवसर पर मात्र अमावस्या पर्व में स्नान करने से मिल जाता है। प्रति छ: वषZ में प्रयाग में अर्द्ध कुंभ होता है और इस वषZ प्रयाग में अर्द्ध कुंभ का संयोग है। प्रयागराज तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। इससे पवित्र तीर्थस्थल अन्य कोई नहीं है। तभी तो कहा गया है :- प्रयाग राज शादुZलं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्। तत् पुण्यतमं नास्त्रि त्रिषु लोकेषु भारत्।।प्रयागराज में सूर्य पुत्री यमुना, भागीरथी गंगा और लुप्त रूपा सरस्वती के संगम में जो व्यक्ति स्नान-ध्यान करता है, कल्पवास करके पूजा-अर्चना करता है, गंगा की मिट्टी को अपने माथे पर लगाता है, वह राजसू और अश्वमेघ यज्ञ का फल सहज ही प्राप्त करता है।
गंगा तीर नागा साधुओं का जमावड़ा :-पूरे शरीर में भस्म लगाये, नंगे वदन, लंबी दाढ़ी और बड़ी बड़ी लटें वाले नागा साधुओं की भीढ़ गंगा के तीर अर्द्ध कुंभ और महाकुंभ के अवसर पर विशेष रूप से होती है। आठवीं शताब्दी में आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा नागा अखाड़ा का निर्माण किया गया था, जिसका उद्देश्य अपने अनुयायी बनाना और शत्रुओं के खिलाफ आंदोलन करना प्रमुख था। आगे चलकर नागा साधुओं के भी कई समूह बन गये। कुंभ पर्व में जब ये एकत्रित होते हैं तब इनके आपसी मन मुटाव इनके झगड़े का कारण होता है। इन साधुओं के द्वारा कुंभ पर्व में शाही स्नान किया जाता है। जब इन साधुओं की भीढ़ शाही स्नान के लिए गंगा तीर की ओर बढ़ती है तब इनके हट के कारण आपसी झगड़े होते हैं और सीधे सादे श्रद्धालु बेमौत मारे जाते हैं।
मकर संक्रांति से मांगलिक कायोZ की शुरूवात :- पौष मास में देवगण सो जाते हैं और इस मास में कोई भी मांगलिक कार्य नहीं होते। लेकिन माघ मास में मकर संक्रांति के दिन से देवगण जाग जाते हैं और ऐसा माना जाता है कि इस दिन से मांगलिक कार्य-उपनयन संस्कार, नामकरण, अन्नप्राशन, गृह प्रवेश और विवाह आदि सम्पन्न होने लगते हैंं।
मकर संक्रांति में पतंग उढ़ाने की वििशष्ट परंपरा :- मकर संक्रांति को पतंग उड़ाने की विशेष परंपरा है। देशभर में पतंग उड़ाकर मनोरंजन करने का रिवाज है। पतंग उड़ाने की परंपरा का उल्लेख श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास जी ने भी किया है। बाल कांड में उल्लेख है- `राम इक दिन चंग उड़ाई, इंद्रलोक में पहुंची गई।` त्रेतायुग में ऐसे कई प्रसंग हैं जब श्रीराम ने अपने भाईयों और हनुमान के साथ पतंग उड़ाई थी। एक बार तो श्रीराम की पतंग इंद्रलोक में पहुंच गई जिसे देखकर देवराज इंद्र की बहू और जयंत की पत्नी उस पतंग को पकड़ ली। वह सोचने लगी-`जासु चंग अस सुन्दरताई। सो पुरूष जग में अधिकाई।।` पतंग उड़ाने वाला इसे लेने अवश्य आयेगा। बहुत प्रतीक्षा के बाद भी पतंग वापस नहीं आया तब श्रीराम ने हनुमान को पतंग लाने भेजा। जयंत की पत्नी ने पतंग उड़ाने वाले के दशZन करने के बाद ही पतंग देने की बात कही और श्रीराम के चित्रकूट में दशZन देने के आश्वासन के बाद ही पतंग लौटायी। `तिन तब सुनत तुरंत ही, दीन्ही छोड़ पतंग। खेंच लइ प्रभु बेग ही, खेलत बालक संग।।` इससे पतंग उड़ाने की प्राचीनता का पता चलता है। भारत में तो पतंग उड़ाया ही जाता है, मलेिशया, जापान, चीन, वियतनाम और थाईलैंड आदि देशों में पतंग उड़ाकर भगवान भास्कर का स्वागत किया जाता है।
प्रो. अिश्वनी केशरवानीराघव, डागा कालोनी, चांपा (छ.ग.)

3 टिप्‍पणियां:

रवि रतलामी ने कहा…

वाह अश्विनी भाई, आपने फ़ॉन्ट रूपांतरित कर लिया और प्रकाशित भी कर लिया. शानदार कार्य. मात्राओं को सुधारने के लिए रचनाकार में बाजू पट्टी में दिए हिन्दी टूलकिट डाउनलोड की लिंक है उसे इंस्टाल कर लें और उसमें दिए गए ट्यूटोरियल के अनुसार रेमिंगटन कुंजी पट से हिन्दी की गलतियों को सुधार सकते हैं. कोई समस्या आए तो अवश्य पूछें.

Pankaj Oudhia ने कहा…

बने जानकारी दे हस। आपला हमन दूसर ब्लाग मे घलो पढत रहिथन।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

बने दिन बने जानकारी दे हस गा सियान!!
अऊ रवि जी के कहे ल मालूम चलथ हे कि ते हां अब खुद फॉन्ट बदले बर सीख गे हवस ए तौ अऊ बने बात हरे न!
बधाई!