गुरुवार, 29 नवंबर 2007

पंडित मालिकराम भोगहा का साहित्यिक अवदान


पंडित मालिकराम भोगहा का साहित्यिक अवदान
पुण्यतिथि : 30 नवंबर पर विशेष
पंडित मालिकराम भोगहा का साहित्यिक अवदान

प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ प्रदेश अनेक अर्थों में अपनी विशेषता रखता है। यहां ऐतिहासिक और पुरातात्विक अवशेषों का बाहुल्य है जो अपनी प्राचीनता और वैभव सम्पन्नता की गाथाओं को मौन रहकर बताता है लेकिन इसके प्रेरणाास्रोत और विद्वतजन गुमनामी के अंधेरे में खो गये। उन दिनों आत्मकथा लिखने की पिपासा नहीं होने से कुछ लिख छोड़ने की परम्परा नहीं रही। दूसरी ओर उनकी कृतियां और पांडुलिपियां पर्याप्त सुरक्षा के अभाव में चूहे और दीमक का भोजन या तो बन गये हैं या बनते जा रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस ओर देशोद्धार के सम्पोषकों ने ध्यान नहीं दिया। उनकी उपेक्षा नीति के कारण अंचल के अनेक मेघावी कवि, लेखक और कला मर्मज्ञ गुमनामी के अंधेरे में खो गये। इसी अज्ञात परम्परा के महान कवि-लेखकों में पंडित मालिकराम भोगहा भी थे जिन्हें प्रदेश के प्रथम नाटककार होने का गौरव प्राप्त होना चाहिए था, मगर आज उन्हें जानने वाले गिने चुने लोग ही हैं। छत्तीसगढ़ ऐसे अनेक स्वनामधन्य कवि-लेखकों से सुसम्पन्न था। देखिये पंडित शुकलाल पांडेय की एक बानगी :-
रेवाराम गुपाल अउ माखन, कवि प्रहलाद दुबे, नारायन। बड़े बड़े कवि रहिन हे लाखन, गुनवंता, बलवंता अउ धनवंता के अय ठौर॥ राजा रहिन प्रतापी भारी, पालिन सुत सम परजा सारी। जतके रहिन बड़े अधिकारी, अपन जस के सुरूज के बल मा जग ला करिन अंजोर॥
पंडित मालिकराम भोगहा इनमें से एक थे। छत्तीसगढ़ गौरव में पंडित शुकलाल पांडेय लिखते हैं :-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन। बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन। हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर। विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर। विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट कवि। हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि॥
महानदी के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण और छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी शिवरीनारायण नवगठित जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 60 कि.मी.,बिलासपुर से 64 कि.मी.,रायपुर से 120 कि.मी. बलौदाबाजार होकर और रायगढ़ से 110 कि.मी. सारंगढ़ होकर स्थित है। यहां वैष्णव परम्परा के मठ और मंदिर स्थित है। कलिंग भूमि के निकट होने के कारण वहां की सांस्कृतिक परम्पराओं से पूरी तरह प्रभावित यह नगर भगवान जगन्नाथ का मूल स्थान माना गया है। उड़िया कवि सरलादास ने 14 वीं शताब्दी में लिखा था कि भगवान जगन्नाथ को शबरीनारायण से पुरी ले जाया गया है। यहां भगवान नारायण गुप्त रूप से विराजमान हैं और प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को सशरीर विराजते हैं। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। कदाचित् इसी कारण इसे ''गुप्तधाम'' माना गया है। यहां भगवान नारायण के अलावा केशव नारायण, लक्ष्मीनारायण, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा, राम लक्ष्मण जानकी, राधाकृष्ण, अन्नपूर्णा, चंद्रचूढ़ और महेश्वर महादेव, बजरंगबली, काली, शीतला और महिषासुरमर्दिनी आदि देवी-देवता विराजमान हैं। प्राचीन साहित्य में यहां मतंग ऋषि का गुरूकुल आश्रम होने का उल्लेख मिलता है। यहीं श्रीराम और लक्ष्मण शबरी के जूठे बेर खाकर उन्हें मोक्ष प्रदान किये थे। यहीं भगवान श्रीराम ने आर्य समाज का सूत्रपात किया था। शबरी से भेंट को चिरस्थायी बनाने के लिए ''शबरी-नारायण'' नगर बसा है। यहां की महत्ता कवि गाते नहीं अघाते। देखिए कवि की एक बानगी :-
रत्नपुरी में बसे रामजी सारंगपाणी हैहयवंशी नराधियों की थी राजधानी। प्रियतमपुर है शंकर प्रियतम का अति प्रियतम, है खरौद में बसे लक्ष्मणेश्वर सुर सत्तम शिवरीनारायण में प्रकट शैरि-राम युत हैं लसे जो इन सबका दर्शन करे वह सब दुख में नहिं फंसे।
प्राचीन काल में यहां के मंदिरों में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों का कब्जा था। उनके गुरू ''कनफड़ा बाबा और नगफड़ा बाबा'' कहलाते थे और जिसकी मूर्ति यहां आज भी देखी जा सकती है। नवीं शताब्दी के आरंभ में रामानुज वैष्णव सम्प्रदाय के स्वामी दयाराम दास तीर्थाटन करते रतनपुर आये। उनकी विद्वता और चमत्कार से हैहयवंशी राजा प्रसन्न होकर उन्हें अपना गुरू बना लिए। उनके निवेदन पर स्वामी जी शबरीनारायण में वैष्णव मठ स्थापित करना स्वीकार कर लिए। जब वे शबरीनारायण पहुंचे तब उनका सामना तांत्रिकों से हुआ। उनसे शास्त्रार्थ करके उन्हें यहां से जाने को बाध्य किये। इस प्रकार यहां वे वैष्णव मठ स्थापित किये और वे इस मठ के प्रथम महंत हुए। आज मठ के 14 महंत हो चुके हैं जो एक से बढ़कर एक ईश्वर भक्त और चमत्कारी थे। वर्तमान में राजेश्री रामसुन्दरदास जी यहां के महंत हैं। यहां के मंदिरों की पूजा-अर्चना करने वाले पुजारी ''भोगहा'' उपनाम से अभिसिक्त हुए। यहां की महिमा श्री मालिकराम भोगहा के मुख से सुनिए :-
आठों गण सुर मुनि सदा आश्रय करत सधीर जानि नारायण क्षेत्र शुभ चित्रोत्पल नदि तीर देश कलिंगहि आइके धर्मरूप थिर पाई दरसन परसन बास अरू सुमिरन तें दुख जाई।
सन् 1861 में जब बिलासपुर जिला पृथक अस्तित्व में आया तब उसमें तीन तहसील क्रमश: बिलासपुर, शिवरीनारायण और मुंगेली बनाये गये। सुप्रसिद्ध साहित्यकार ठाकुर जगमोहनसिंह सन् 1882 में तहसीलदार होकर शिवरीनारायण आये। उनका यहां आना इस क्षेत्र के साहित्यकारों के लिए एक सुखद घटना थी। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य उन्हें इतना भाया कि उन्होंने इसे अपनी रचनाओं में समेटने का भरपूर प्रयास किया। बनारस में ''भारतेन्दु मंडल'' की तर्ज पर उन्होंने यहां ''जगमोहन मंडल'' की स्थापना कर यहां के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर उन्हें लेखन की एक नई दिशा प्रदान की। उनकी रचनाओं में कई स्थानों पर 'जगन्मोहन मंडल' का उल्लेख है। यहां के आनरेरी मजिस्ट्रेट पं. यदुनाथ भोगहा के अनुरोध पर उनके चिरंजीव मालिकराम भोगहा को उन्होंने अपने शागिर्दी में साहित्य लेखन करना सिखाया। पं. मालिकराम जी ने उन्हें अपना गुरू माना है। वे लिखते हैं :-
प्रेमी परम रसिक गुणखान। नरपति विजयसुराघवगढ़ के, कवि पंडित सुखदान॥ जय जन वंदित श्री जगमोहन, तासम अब नहिं आन। जग प्रसिद्ध अति शुद्ध मनोहर, रचे ग्रंथ विविधान॥ सोई उपदेश्यो काव्य कोष अरू, नाटक को निरमान। ताकि परम शिष्य ''मालिक'' को, को न करे सनमान॥

तब इस अंचल के अनेक स्वनामधन्य साहित्यकार यहां आकर साहित्य साधना किया करते थे। उनमें पं. अनंतराम पांडेय(रायगढ़), पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय (बालपुर), पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय (परसापाली), श्री वेदनाथ शर्मा (बलौदा), पं. हीराराम त्रिपाठी (कसडोल), पं. मालिकराम भोगहा, श्री गोविंद साव, (सभी शिवरीनारायण), श्री बटुकसिंह चौहान (कुथुर-पामगढ़), जन्मांध कवि नरसिंहदास वैष्णव (तुलसी), शुकलाल पांडेय और पं. लोचनप्रसाद पांडेय भी यहां सु जुड़े रहे। तब यह नगर धार्मिक, सांस्कृतिक तीर्थ के साथ साहित्यिक तीर्थ भी कहलाने लगा। कौन हैं ये मालिकराम भोगहा ? छत्तीसगढ़ में उनका साहित्यिक अवदान क्या था ? शिवरीनारायण मंदिर के पुजारी और भोगहापारा के मालगुजार पंडित यदुनाथ भोगहा का उल्लेख एक सज्जन व्यक्ति के रूप में ठाकुर जगमोहनसिंह ने सन् 1884 में प्रकाशित अपने सज्जनाष्टक में किया है :-
बन्दो आदि अनन्त शयन करि शबरनारायण रामा। बैठे अधिक मनोहर मंदिर कोटि काम छबिधामा॥ जिनको राग भोग करि निसुदिन सुख पावत दिन रैनू। भोगहा श्री यदुनाथ जू सेवक राम राम रत चैनू॥ है यदुनाथ नाथ यह सांचों यदुपति कला पसारी। चतुर सुजन सज्जन सत संगत सेवत जनक दुलारी॥ दिन दिन दीन लीन मुइ रहतो कृषि कर्म परवीना। रहत परोस जोस तजि मेरे हैं द्विज निपट कुलीना॥
भोगहा जी बड़े सुहृदय, भक्त वत्सल और प्रजा वत्सल थे। सन् 1885 में यहां बड़ा पूरा (बाढ़) आया था जिसमें जन धन की बड़ी हानि हुई थी। इस समय भोगहा जी ने बड़ी मद्द की थी। शिवरीनारायण तहसील के तहसीलदार और कवि ठाकुर जगमोहनसिंह ने तब ''प्रलय'' नाम की एक पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक के 'समर्पण' में वे भोगहा जी के बारे में लिखते हैं :-''भोगहा जी आप वहां के प्रधान पुरूष हो। आपकी सहायता और प्रजा पर स्नेह, जिसके वश आपने टिकरीपारा की प्रजा का प्राणोद्धार ऐसे समय में जब चारों ओर त्राहि त्राहि मची थी, किया था-इसमें सविस्तार वर्णित है। यह कुछ केवल कविता ही नहीं वरन सब ठीक ठाक लिखा है।'' देखिये उनका पद्य :-
पुरवासी व्याकुल भए तजी प्राण की आस त्राहि त्राहि चहुँ मचि रह्यो छिन छिन जल की त्रास छिन छिन जल की त्रास आस नहिं प्रानन केरी काल कवल जल हाल देखि बिसरी सुधि हेरी तजि तजि निज निज गेह देहलै मठहिं निरासी धाए भोगहा और कोऊ आरत पुरवासी॥ 52 ॥ कोऊ मंदिर तकि रहे कोऊ मेरे गेह कोऊ भोगहा यदुनाथ के शरन गए लै देह शरन गए लै देह मरन तिन छिन में टारयौ भंडारो सो खोलि अन्न दैदिन उबारयौ रोवत कोऊ चिल्लात आउ हनि छाती सोऊ कोउ निज धन घर बार नास लखि बिलपति कोऊ॥ 53 ॥
श्री यदुनाथ भोगहा को मालगुजार, माफीदार और पुजारी बताया गया है। बाढ़ के समय उन्होंने बड़ी मद्द की थी। टिकरीपारा (तब एक उनकी मालगुजारी गांव) में स्वयं जाकर वहां के लोगों की सहायता की थी। ठाकुर साहब ने लिखा है :-''ऐसे जल के समय में जब पृथ्वी एकार्णव हो रही थी, सिवाय वृक्षों की फुनगियों के और कुछ दिखाई नहीं देता था और जिस समय सब मल्लाहों का टिकरीपारा तक नौका ले जाने में साहस टूट गया था, आपका वहां स्वयं इन लोगों को उत्साह देकर लिवा जाना कुछ सहज काम नहीं था। यों तो जो चाहे तर्क वितर्क करें पर जिसने उस काल के हाल को देखा था वही जान सकता है।'' एक दोहा में इसका उन्होंने वर्णन किया है :-
पै भुगहा हिय प्रजा दुख खटक्यौं ताछिन आय। अटक्यों सो नहिं रंचहू टिकरी पारा जाय॥ 63 ॥ बूड़त सो बिन आस गुनि लै केवट दस बीस। गयो पार भुज बल प्रबल प्रजन उबारयौ ईश॥ 64 ॥ इस सद्कार्य से प्रभावित होकर ठाकुर जगमोहनसिंह ने इनकी प्रशंसा अंग्रेज सरकार से की थी और उन्हें पुरस्कार भी देने की सिफारिश की थी मगर अंग्रेज सरकार ने ध्यान नहीं दिया था। उन्होंने लिखा है :- ''आपका इस समय हमारी सरकार ने कुछ भी सत्कार न किया-यद्यपि मैंने यथावत् आपकी प्रशंसा अपने अधिकार के सम्बंध में श्रीयुत् डिप्टी कमिश्नर बिलासपुर को लिखी थी तथा सोच का स्थान है कि उस पर भी अद्यापि ध्यान न हुआ-'नगार खाने में तूती की आवाज कौन सुनता है ?' आदि आपकी सहायता, प्रजागण पर स्नेह और उनका उपकार जगत ने स्वीकार किया और उनकी भी प्रीति आप पर निष्कपटता के साथ है तो इससे बढ़ के और पारितोषिक नहीं। क्यों कि 'धनांनि जीवितन्नजैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत तन्निमित्ते वरं त्यागि विनाशे नियते सति' और भी 'विभाति काय: करूणा पराणाम्परोपकारैर्नतु चन्दनेन' ऐसा प्राचीन लोग कह आये हैं।' इस प्रकार उनकी प्रशंसा कर ठाकुर साहब ने उनके सुखी रहने की कामना की है :-
सुखी रहैं ये सब पुरवासी खलगन सुजन सुभाए। श्री यदुनाथ जियै दिन कोटिन यह मन सदा कहाए॥ 109 ॥
पंडित मालिकराम भोगहा का जन्म बिलासपुर जिले (वर्तमान जांजगीर-चांपा जिला) के शिवरीनारायण में संवत् 1927 में हुआ। वे सरयूपारी ब्राह्मण थे। उनके पिता पं. यदुनाथ भोगहा यहां के नारायण मंदिर के प्रमुख पुजारी, मालगुजार और आनरेरी मजिस्ट्रेट थे। जब मालिकराम बहुत छोटे थे तभी उनकी माता का देहावसान हो गया। मातृहीन पुत्र को पिता से माता और पिता दोनों का प्यार और दुलार मिला। उनकी सम्पूर्ण शिक्षा दीक्षा तहसीलदार ठाकुर जगमोहनसिंह के संरक्षण में हुई। संस्कृत, अंग्रेजी और उर्दू के अलावा उन्होंने संगीत, गायकी की शिक्षा ग्रहण की। आगे चलकर मराठी और उड़िया भाषा सीखी। उन्होंने कम समय में ही अलौकिक योग्यता हासिल कर ली। मालिकराम जी धीरे धीरे काव्य साधना करने लगे। पहले उनकी कविता अवस्थानुरूप श्रृंगार रस में हुआ करती थी। बाद में उनकी कविताएं अलंकारिक थी। उनकी कविताएं सरस और प्रसाद गुण युक्त थी। उनकी कुछ कविताओं को ठाकुर जगमोहनसिंह ने अपनी पुस्तकों में सम्मिलित किया है। देखिए उनकी एक कविता : -
लखौं है री मैंने रयन भयै सोवै सुख करी। छकी लीनी बीनी मधुर गीत गावै सुर भरी। मिटावै तू मेरे सकल दुख चाहे छनिक में। न लावै ज्यों बेरी अधर रस सोचे तनिक में॥
मालिकराम जी अपना उपनाम ''द्विजराज'' लिखा करते थे। उनकी अलंकारी भाषा होने के कारण लोग उन्हें ''अलंकारी'' भी कहा करते थे। शिवरीनारायण के मंदिर के पुजारी होने के कारण ''भोगहा'' उपनाम मिला। उनके वंशज आज भी यहां मंदिर के पुजारी हैं।
मालिकराम जी, ठाकुर जगमोहनसिंह के प्रिय शिष्य थे। उसने भोगहा जी को अपने साथ मध्य प्रांत, मध्य भारत, संयुक्त प्रांत और पंजाब के प्रसिद्ध स्थानों की यात्रा करायी जिससे उन्हें यात्रा अनुभव के साथ विद्यालाभ भी हुआ। बाल्यकाल से ही मालिकराम जी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। वे हमेशा धार्मिक ग्रंथों का पठन और मनन किया करते थे। किशोरावस्था में उन्होंने वेद, उपनिषद और दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया। ब्रह्यचर्य रहकर चतुर्मास का पालन करना, पयमान को जीवन का आधार समझना, नित्य एक हजार गायत्री मंत्र का जाप करना, योग धर्म में पथिक होकर भी सांसारिकर् कत्तव्यों से जूझना और अपनी सुशिक्षा तथा सच्चरित्र के द्वारा लोगों में धर्मानुराग उत्पन्न कर परमार्थ में रत रहना वे परम श्रेष्ठ समझते थे। इन्हीं गुणों के कारण मालिकराम जी आदर्श गृहस्थ के पावन पद के अधिकारी हुये। वे अक्सर कहा करते थे-'' ब्रह्यचर्य व्रत और गायत्री मंत्र में ऐसी शक्ति है जिससे मनुष्य देवतुल्य बन सकता है।'' वे स्त्री शिक्षा और पत्नीव्रत पर लाोगें को उपदेश दिया करते थे। उनके इस उनदेश का लोगों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता था। बैसाख पूर्णिमा संवत् 1964 को उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया। इससे उन्हें बहुत धक्का लगा। वे अक्सर कहा करते थे-'' मेरी आध्यात्मिक उन्नति का एक कारण मेरी पत्नी है। उनके सतीत्व और मनोदमन को देखकर मैं मुग्ध हो जाता हूं। उनका वियोग असहनीय होता है :-
मेरे जीवन की महास्थली में तू थी स्निग्ध सलिल स्रोत। इस भवसागर के तरने में तेरा मन था मुझको पोत॥
कहीं पत्नीव्रत में विघ्न उपस्थित न हो और चित्त की एकाग्रता जो दृढ़ अध्यावसाय से प्राप्त हुई है, कहीं विचलित न हो जाये, कुछ तो इस आशंका से और कुछ अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। समय आने पर उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई लेकिन जन्मते ही वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। नवजात पुत्र की मृत्यु से वे बहुत व्यथित हुये। वे अस्वस्थ रहने लगे और सूखकर कांटा हो गये। उपचार से उन्हें कोई विशेष लाभ नहीं हुआ और अंतत: वे 38 वर्ष की अल्पायु में 30 नवंबर सन् 1909 को स्वर्गवासी हुए। यह जानते हुये भी कि शरीर नश्वर है, न अतीव वेदना से भर उठा। उन्हीं के शब्दों में :-
जो जन जन्म लियो है जग में सो न सदा इत रैहैं। जग बजार से क्रय विक्रय कर अंत कूच कर जैहैं। तद्यपि जे सज्जन विद्वज्जन असमय ही उठ जावै। तिनके हेतु जगत रोवत है गुनि गुनि गुण पछतावै।
पंडित लोचनप्रसाद पांडेय उन्हें शोकांजलि देते हुए लिखते हैं :-
हे प्राणियों की प्रकृति जग में मरण यह सब जानते। यह देह है भंगुर इसे भी लोग हैं सब मानते। पर मृत्यु प्रियजन की जलाती हा ! न किसके प्राण है ? किसका न होता प्रिय विरह से भ्रष्ट सारा ज्ञान है ? भवताप तापित प्राण को चिरशांति का जो स्रोत है। भवसिंधु तरने हेतु जिसका हृदय पावन पोत है। चिर विरह ऐसे मित्र का हो सह्य किसको लोक में ? छाती नहीं फटेगी किसकी हाय ! उसके शोक में ? शोकाश्रुप्लावित नेत्र होते हैं रूक जाता गला। कर कांपता है फिर लिखें हम इस दशा में क्या भला ? इस समय तो रोदन बिना हमसे नहीं जाता रहा। हा हन्त मालिकराम ! धार्मिक भक्त ! हा द्विजराज ! हा !
पं. मालिकराम जी एक उत्कृष्ट कवि और नाटककार थे। उन्होंने रामराज्यवियोग, सती सुलोचना और प्रबोध चंद्रोदय (तीनों नाटक), स्वप्न सम्पत्ति (नवन्यास), मालती, सुर सुन्दरी (दोनों काव्य), पद्यबद्ध शबरीनारायण महात्म्य आदि ग्रंथों की रचना की। उनका एक मात्र प्रकाशित पुस्तक रामराज्यवियोग है, शेष सभी अप्रकाशित है। यह नाटक प्रदेश का प्रथम हिन्दी नाटक है। इसे यहां मंचित भी किया जा चुका है। इस नाटक को भोगहा जी ने ठाकुर जगमोहनसिंह को समर्पित किया है। वे लिखते हैं :-'' इस व्यवहार की न कोई लिखमत, न कोई साक्षी और न वे ऋणदाता ही रहे, केवल सत्य धर्म ही हमारे उस सम्बंध का एक माध्यम था और अब भी वही है। उसी की उत्तेजना से मैं आपको इसे समर्पण करने की ढिठाई करता हूं। क्योंकि पिता की सम्पत्ति का अधिकारी पुत्र होता है, विशेष यह कि पिता, गुरू आदि उपमाओं से अलंकृत महाराज के स्थान पर मैं आपको ही जानता हूं। जिस तरह मैंने अपना सत्य धर्म स्थिर रख, प्राचीन ऋण से उद्धार का मार्ग देखा, उसी तरह यदि आप भी ऋणदाता के धर्म को अवलम्ब कर इसे स्वीकार करेंगे तो मैं अपना अहोभाग्य समझूंगा..।''
भोगहा जी के बारे में पं. लोचनप्रसाद पांडेय लिखते हैं :-'' पूज्य मालिकराम मेरे अग्रज पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय के बड़े स्नेही मित्र थे। उनमें बड़ी घनिष्ठता थी। मालिकराम जी हमारे प्रदेश के एक सुप्रसिद्ध और दर्शनीय पुरुष थे। उनकी सच्चरित्रता और धार्मिकता की प्रशंसा हम क्या अंग्रेज अधिकारी और पादरी तक किया करते थे। कई पादरी उनकी आध्यात्मिक उन्नति से मुग्ध होकर उनका मान करते थे। मालिकराम जी का हृदय बालकों के समान कोमल और पवित्र था। वे बालकों के साथ बातचीत करके खुश होते थे। ग्रामीण किसानों और उन आदमियों से जिन्हें हम असभ्य कहकर घिनाते थे, उनसे बड़े प्रेम और आदर के साथ मिला करते थे। वे ग्रामीण भाषा में गीत गाकर और हावभाव के साथ बोला करते थे जिससे हजारों नर नारियां मोहित उठ उठते थे। उनकी साहित्य सेवा और मातृ भाषानुराग आदर्श था। स्वदेश भक्ति तो उनके नस नस में भरी हुई थी। उनकी विद्वता और काव्य शक्ति की प्रशंसा अनेक विद्वानों ने की है। ऐसे आदर्श और गुणवान पुरूष का अल्प अवस्था में उठ जाना हमारे देश का दुर्भाग्य है। उनकी मृत्यु से छत्तीसगढ़ का एक सपूत हमसे छिन गया।'' अस्तु :-
जिसका पवित्र चरित्र औरों के लिये आदर्श है।

वह वीर मर कर भी न क्या जीवित सहस्रों वर्ष है॥
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रचना, लेखन, फोटो और प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)

मंगलवार, 27 नवंबर 2007

छत्तीसगढ़ और पंडित शुकलाल पांडेय


छत्तीसगढ़ और पंडित शुकलाल पांडेय

प्रो. अश्विनी केशरवानी
भव्य ललाट, त्रिपुंड चंदन, सघन काली मूँछें और गांधी टोपी लगाये साँवले, ठिगने व्यक्तित्व के धनी पंडित शुकलाल पांडेय छत्तीसगढ़ के द्विवेदी युगीन साहित्यकारों में से एक थे.. और पंडित प्रहलाद दुबे, पंडित अनंतराम पांडेय, पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी, गोविंदसाव, पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, वेदनाथ शर्मा, बटुकसिंह चौहान, पंडित लोचनप्रसाद पांडेय, काव्योपाध्याय हीरालाल, पंडित सुंदरलाल शर्मा, राजा चक्रधरसिंह, डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र और पंडित मुकुटधर पांडेय की श्रृंखला में एक पूर्ण साहित्यिक व्यक्ति थे। वे केवल एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि एक संस्था थे। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और छत्तीसगढ़ी भाषा में बहुत सी रचनाएं लिखीं हैं। उनकी कुछ रचनाएं जैसे छत्तीसगढ़ गौरव, मैथिली मंगल, छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया ही प्रकाशित हो सकी हैं और उनकी अधिकांश रचनाएं अप्रकाशित हैं। उनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ियापन की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। छत्तीसगढ़ गौरव में ''हमर देस'' की एक बानगी देखिये :-
ये हमर देस छत्तिसगढ़ आगू रहिस जगत सिरमौर।
दक्खिन कौसल नांव रहिस है मुलुक मुलुक मां सोर।
रामचंद सीता अउ लछिमन, पिता हुकुम से बिहरिन बन बन।
हमर देस मां आ तीनों झन, रतनपुर के रामटेकरी मां करे रहिन है ठौर॥
घुमिन इहां औ ऐती ओती, फैलिय पद रज चारो कोती।
यही हमर बढ़िया है बपौती, आ देवता इहां औ रज ला आंजे नैन निटोर॥
राम के महतारी कौसिल्या, इहें के राजा के है बिटिया।
हमर भाग कैसन है बढ़िया, इहें हमर भगवान राम के कभू रहिस ममिओर॥
इहें रहिन मोरध्वज दानी, सुत सिर चीरिन राजा-रानी।
कृष्ण प्रसन्न होइन बरदानी, बरसा फूल करे लागिन सब देवता जय जय सोर॥
रहिन कामधेनु सब गैया, भर देवै हो लाला ! भैया !!
मस्त रहे खा लोग लुगैया, दुध दही घी के नदी बोहावै गली गली अउ खोर॥
सबो रहिन है अति सतवादी, दुध दही भात खा पहिरै खादी।
धरम सत इमान के रहिन है आदी, चाहे लाख साख हो जावै बनिन नी लबरा चोर॥
पगड़ी मुकुट बारी के कुंडल, चोंगी बंसरी पनही पेजल।
चिखला बुंदकी अंगराग मल, कृष्ण-कृषक सब करत रहिन है गली गली मां अंजोर॥
''छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया'' जो ''कॉमेडी ऑफ इरर'' का अंग्रेजी अनुवाद है, की भूमिका में पांडेय जी छत्तीसगढ़ी दानलीला के रचियता पंडित सुन्दरलाल शर्मा के प्रति आभार व्यक्त करते हुए छत्तीसगढ़ी में लिखने का आह्वान करते हैं। उस समय पढ़ाई के प्रति इतनी अरूचि थी कि लोग पेपर और पुस्तक भी नहीं पढ़ते थे। पांडेय जी तब की बात को इस प्रकार व्यक्त करते हैं- ''हाय ! कतेक दुख के बात अय ! कोन्हो लैका हर कछू किताब पढ़े के चिभिक करे लागथे तो ओखर ददा-दाई मन ओला गारी देथे अउ मारपीट के ओ बिचारा के अतेक अच्छा अअउ हित करैया सुभाव ला नष्ट कर देथे। येकरे बर कहेबर परथे कि इहां के दसा निचट हीन हावै। इहां के रहवैया मन के किताब अउ अखबार पढ़के ज्ञान अउ उपदेस सीखे बर कोन्नो कहे तो ओमन कइथे-
हमन नइ होवन पंडित-संडित तहीं पढ़ेकर आग लुवाट।
ले किताब अउ गजट सजट ला जीभ लमा के तईहर चाट॥
जनम के हम तो नांगर जोत्ता नई जानन सोरा सतरा।
भुखा भैंसा ता ! ता ! ता !! यही हमर पोथी पतरा !!!
''भूल भुलैया'' सन् 1918 में लिखा गया था तब हिन्दी में पढ़ना लिखना हेय समझा जाता था। पंडित शुकलाल पांडेय अपनी पीड़ा को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं-''जबले छत्तिसगढ़ के रहवैया मन ला हिन्दी बर प्रेम नई होवे, अउ जबले ओमन हिन्दी के पुस्तक से फायदा उठाय लाइ नई हो जावे, तबले उकरे बोली छत्तीसगढ़ीच हर उनकर सहायक है। येकरे खातिर छत्तीसगढ़ी बोली मां लिखे किताब हर निरादर करे के चीज नो हे। अउ येकरे बर छत्तीसगढ़ी बोली मां छत्तीसगढिया भाई मन के पास बडे बड़े महात्मा मन के अच्छा अच्छा बात के संदेसा ला पहुंचाए हर अच्छा दिखतय। हिन्दी बोली के आछत छत्तीसगढ़ी भाई मन बर छत्तीसगढ़ी बोली मां ये किताब ला लिखे के येही मतलब है कि एक तो छत्तीसगढ़ ला उहां के लैका, जवान, सियान, डौका डौकी सबो कोनो समझही अउ दूसर, उहां के पढ़े लिखे आदमीमन ये किताब ला पढ़के हिन्दी के किताब बांच के अच्छा अच्छा सिक्षा लेहे के चिभिक वाला हो जाही। बस, अइसन होही तो मोर मिहनत हर सुफल हो जाही...'' वे आगे लिखते हैं- ''मैं हर राजिम (चंदसूर) के पंडित सुन्दरलाल जी त्रिपाठी ला जतके धन्यवाद देवौं, ओतके थोरे हे। उनकर छत्तीसगढ़ी दानलीला ला जबले इहां के पढ़ैया लिखैया आदमी मन पढ़े लागिन हे, तब ले ओमन किताब पढ़े मा का सवाद मिलथे अउ ओमा का सार होथे, ये बात ला धीरे धीरे जाने लगे हावै। येही ला देख के मैं हर विलायत देस के जग जाहीर कवि शेक्सपियर के लिखे ''कॉमेडी ऑफ इरर'' के अनुवाद ल ''भूल भुलैया'' के कथा छत्तीसगढ़ी बोली के पद्य मां लिख डारे हावौं।''
पंडित शुकलाल पांडेय के शिक्षकीय जीवन में उनकी माता का जितना आदर रहा है उतना ही धमधा के हेड मास्टर पंडित भीषमलाल मिश्र का भी था। भूल भुलैया को उन्हीं को समर्पित करते हुए वे लिखते हैं :-
तुहंला है भूल भुलैया नीचट प्यारा।
लेवा महराज येला अब स्वीकारा॥
भगवान भगत के पूजा फूल के साही।
भीलनी भील के कंदमूल के साही॥
निरधनी सुदामा के जो चाउर साही।
सबरी के पक्का पक्का बोइर खाई॥
कुछ उना गुना झन, हाथ ल अपन पसारा।
लेवा महराज, येला अब स्वीकारा॥
ऐसे प्रतिभाशाली कवि प्रवर पंडित शुकलाल पांडेय का जन्म महानदी के तट पर स्थित कला, साहित्य और संस्कार की त्रिवेणी शिवरीनारायण में संवत् 1942 (सन् 1885) में आषाढ़ मास में हुआ था। उनके पिता का नाम गोविंदहरि और माता का नाम मानमति था। मैथिली मंगल खंडकाव्य में वे लिखते हैं :-
प्रभुवर पदांकित विवुध वंदित भरत भूमि ललाम को,
निज जन्मदाता सौरिनारायण सुनामक ग्राम को।
श्री मानमति मां को, पिता गोविंदहरि गुणधाम को,
अर्पण नमन रूपी सुमन हो गुरू प्रवर शिवराम को॥
उनका लालन पालन और प्राथमिक शिक्षा शिवरीनारायण के धार्मिक और साहित्यिक वातावरण में धर्मशीला माता के सानिघ्य में हुआ। उनके शिक्षक पं. शिवराम दुबे ने एक बार कहा था-''बच्चा, तू एक दिन महान कवि बनेगा...।'' उनके आशीर्वाद से कालांतर में वह एक उच्च कोटि का साहित्यकार बना।
सन् 1903 में नार्मल स्कूल रायपुर में प्रशिक्षण प्राप्त कर वे शिक्षक बने। यहां उन्हें खड़ी बोली के सुकवि पं. कामताप्रसाद गुरू का सानिघ्य मिला। उनकी प्रेरणा से वे खड़ी बोली में पद्य रचना करने लगे। धीरे धीरे उनकी रचना स्वदेश बांधव, नागरी प्रचारिणी, हितकारिणी, सरस्वती, मर्यादा, मनोरंजन, शारदा, प्रभा आदि प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी। सन् 1913 में सरस्वती के मई के अंक में ''प्राचीन भारत वर्ष'' शीर्षक से उनकी एक कविता प्रकाशित हुई। तब पूरे देश में राष्ट्रीय जनजागरण कोर् कत्तव्य माना जाता था। देखिये उनकी एक कविता :-
हे बने विलासी भारतवासी छाई जड़ता नींद इन्हें,
हर कर इनका तम हे पुरूषोत्तम शीघ्र जगाओ ईश उन्हें।
पंडित जी मूलत: कवि थे। उनकी गद्य रचना में पद्य का बोध होता है। इन्होंने अन्यान्य पुस्तकें लिखी हैं। लेकिन केवल 15 पुस्तकें ही प्रकाश में आ सकी हैं, जिनमें 12 पद्य में और शेष गद्य में है। उनकी रचनाओं में मैथिली मंगल, छत्तीसगढ़ गौरव, पद्य पंचायत, बाल पद्य पीयुष, बाल शिक्षा पहेली, अभिज्ञान मुकुर वर्णाक्षरी, नैषद काव्य और उर्दू मुशायरा प्रमुख है। छत्तीसगढ़ी में उन्होंने भूल भुलैया, गींया और छत्तीसगढ़ी ग्राम गीत लिखा है। गद्य में उन्होंने राष्ट्र भक्ति से युक्त नाटक मातृमिलन, हास्य व्यंग्य परिहास पाचक, ऐतिहासिक लेखों का संग्रह, चतुर चितरंजन आदि प्रमुख है। उनकी अधिकांश रचनाएं अप्रकाशित हैं और उनके पौत्र श्री रमेश पांडेय और श्री किशोर पांडेय के पास सुरक्षित है।
''छत्तीसगढ़ गौरव'' पंडित शुकलाल पांडेय की प्रकाशित अनमोल कृति है। मध्यप्रदेश साहित्य परिषद भोपाल द्वारा सन् 1972 में इसे प्रकाशित किया गया है। इसकी भूमिका में पंडित मुकुटधर जी पांडेय लिखते हैं:-'' इसमें छत्तीसगढ़ के इतिहास की शृंखलाबद्ध झांकी देखने को मिलती है। प्राचीन काल में यह भूभाग कितना प्राचुर्य पूर्ण था, यहां के निवासी कैसे मनस्वी और चरित्रवान थे, इसका प्रमाण है। छत्तीसगढ़ की विशेषताओं का इसे दर्पण कहा जा सेता है। इसकी गणना एक उच्च कोटि के आंचलिक साहित्य में की जा सकती है। ''हमर देस'' में छत्तीसगढ़ के जन जीवन की जीवन्त झांकी उन्होंने प्रस्तुत की है। देखिये उनकी यह कविता :-
रहिस कोनो रोटी के खरिया, कोनो तेल के, कोनो वस्त्र के, कोनो साग के और,
सबे जिनिस उपजात रहिन है, ककरों मा नई तकत रहिन है।
निचट मजा मा रहत रहिन है, बेटा पतो, डौकी लैका रहत रहिन इक ठौर।
अतिथि अभ्यागत कोन्नो आवें, घर माटी के सुपेती पावे।
हलवा पूरी भोग लगावें, दूध दही घी अउ गूर मा ओला देंव चिभोर।
तिरिया जल्दी उठेनी सोवे, चम्मर घम्मर मही विलोवे,
चरखा काते रोटी पावे, खाये किसान खेत दिशि जावे चोंगी माखुर जोर।
धर रोटी मुर्रा अउ पानी, खेत मा जाय किसान के रानी।
खेत ल नींदे कहत कहानी, जात रहिन फेर घर मा पहिरे लुगरा लहर पटोर।
चिबक हथौरी नरियर फोरे, मछरी ला तीतुर कर डारैं।
बिन आगी आगी उपजारैं, अंगुरि गवा मा चिबक सुपारी देवें गवें मा फोर।
रहिस गुपल्ला वीर इहें ला, लोहा के भारी खंभा ला।
डारिस टोर उखाड़ गड़े ला, दिल्ली के दरबार मा होगे सनासट सब ओर।
आंखी, कांन पोंछ के ननकू, पढ़ इतिहास सुना संगवारी तब तैं पावे सोर।
जब मध्यप्रदेश का गठन हुआ तब सी.पी. के हिन्दी भाषी जिलों में छत्तीसगढ़ के जिले भी सम्मिलित थे। छत्तीसगढ़ गौरव के इस पद्य में छत्तीसगढ़ का इतिहास झलकता है :-
सी.पी. हिन्दी जिले प्रकृति के महाराम से,
थे अति पहिले ख्यात् महाकान्तार नाम से।
रामायण कालीन दण्डकारण्य नाम था।
वन पर्वत से ढका बड़ा नयनाभिराम था।
पुनि चेदि नाम विख्यात्, फिर नाम गोड़वाना हुआ।
कहलाता मध्यप्रदेश अब खेल चुका अगणित जुआ॥
तब छत्तीसगढ़ की सीमा का विस्तार कुछ इस प्रकार था :-
उत्तर दिशि में है बघेल भू करता चुम्बन,
यम दिशि गोदावरी कर पद प्रक्षालन।
पूर्व दिशा की ओर उड़ीसा गुणागार है,
तथा उदार बिहार प्रान्त करता बिहार है।
भंडारा बालाघाट औ चांदा मंडला चतुर गण,
पश्चिम निशि दिन कर रहे आलिंगन हो मुदित मन॥
ऐसे सुरक्षित छत्तीसगढ़ राज्य में अनेक राजवंश के राजा-महाराजाओं को एकछत्र राज्य वर्षो तक था। कवि अपनी कृति इनका बड़ा ही सजीव चित्रण किया है। देखिये उसकी एक बानगी :-
यहां सगर वंशीय प्रशंसी, कश्यप वंशी,
हैहहवंशी बली, पांडुवंशी अरिध्वंशी,
राजर्षितुल्यवंशीय, मौर्यवंशी सुख वर्ध्दन,
शुंगकुल प्रसू वीर, कण्ववंशी रिपु मर्दन,
रणधीर वकाटक गण कुलज, आंध्र कुलोद्भव विक्रमी।
अति सूर गुप्तवंशी हुए बहुत नृपति पराक्रमी॥
था डाहल नाम पश्चिम चेदि का।
यहीं रहीं उत्थान शौर्य की राष्ट्र वेदिका।
उसकी अति ही रन्ध्र राजधानी त्रिपुरी थी।
वैभव में, सुषमा में, मानों अमर पुरी थी।
रघुवंश नृपतियों से हुआ गौरवमय साकेत क्यों।
त्रिपुरी नरपतियों से हुई त्रिपुरी भी प्रख्यात् त्यों॥
कहलाती थी पूर्व चेदि ही ''दक्षिण कोसल''
गढ़ थे दृढ़ छत्तीस नृपों की यहीं महाबल।
इसीलिए तो नाम पड़ा ''छत्तीसगढ़'' इसका।
जैसा इसका भाग्य जगा, जगा त्यों किसका।
श्रीपुर, भांदक औ रत्नपुर थे, इसकी राजधानियां।
चेरी थी श्री औ शारदा दोनों ही महारानियां॥
नदियां तो पुण्यतोया, पुण्यदायिनी और मोक्षदायी होती ही हैं, जीवन दायिनी भी हैं। कदाचित् इसीलिए नदियों के तट पर बसे नगर ''प्रयाग'' और ''काशी'' जैसे संबोधनों से पूजे जाते हैं। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में महानदी के तट पर स्थित अनेक नगर स्थित हैं जिन्हें ऐसे संबोधनों से सुशोभित किये जाते हैं। देखिये कवि की एक बानगी :-
हरदी है हरिद्वार, कानपुर श्रीपुर ही है।
राजिम क्षेत्र प्रयाग, शौरिपुर ही काशी है।
शशिपुर नगर चुनार, पद्मपुर ही पटना है।
कलकत्ता सा कटक निकट तब बसा घना है।
गाती मुस्काती नाचती और झूमती जा रही,
हे महानदी ! तू सुरनदी की है समता पा रही॥
छत्तीसगढ़ में इतना मनमोहक दृश्य हैं तो यहां कवि कैसे नहीं होंगे ? भारतेन्दु युगीन और उससे भी प्राचीन कवि यहां रहे हैं जो प्रचार और प्रचार के अभाव में गुमनाम होकर मर खप गये...आज उसका नाम लेने वाला कोई नहीं है। ऐसी कवियों के नाम कवि ने गिनायें हैं :-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट कवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम मीर मालिक सुकवि॥
तेजनाथ भगवान, मुहम्मद खान मनस्वी।
बाबू हीरालाल, केशवानंद यशस्वी।
श्री शिवराज, शिवशंकर, ईश्वर प्रसाद वर।
मधु मंगल, माधवराव औ रामाराव चिंचोलकर।
इत्यादिक लेखक हो चुके छत्तीसगढ़ की भूमि पर॥
''धान का कटोरा'' कहलाता है हमारा छत्तीसगढ़। यहां की भूमि जितनी उर्वर है, उतना ही यहां के लोग मेहनती भी हैं। इसीलिये यहां के मेला-मड़ई और तीज त्योहार सब कृषि पर आधारित हैं। अन्न की देवी मां अन्नपूर्णा भी यहीं हैं। कवि का एक पद्य पेश है :-
डुहारती थी धान वहन कर वह टुकनों में।
पीड़ा होती थी न तनिक सी भी घुटनों में ।
पति बोते थे धान, सोचते बरसे पानी।
लखती थी वह बनी अन्नपूर्णा छवि खानी।
खेतों में अच्छी फसल हुई है। मेहनती स्त्रियां टुकनों में भरकर धान खलिहानों से लाकर ढाबा में भर देती हैं। उनका मन बड़ा प्रसन्न है, तो संध्या में सब मिलकर नाच-गाना क्यों न हो, जीवन का रस भी तो इसी में होता है :-
संध्या आगम देख शीघ्र कृषि कारक दम्पत्ति।
जाते थे गृह और यथाक्रम अनुपद सम्पत्ति।
कृषक किशोर तथा किशोरियां युवक युवतीगण।
अंग अंग में सजे वन्य कुसुमावलि भूषण।
जाते स्वग्राम दिशि विहंसते गाते गीत प्रमोद से।
होते द्रुत श्रमजीवी सुखी गायन-हास विनोद से॥
पंडित जी ऐसे मेहनती कृषकों को देव तुल्य मानने में कोई संकोच नहीं करते और कहते हैं :-
हे वंदनीय कृषिकार गण ! तुम भगवान समान हो।
इस जगती तल पर बस तुमही खुद अपने उपमान हो॥
इस पवित्र भूमि पर अनेक राजवंशों के राजा शासन किये लेकिन त्रिपुरी के हैहहवंशी नरेश के ज्येष्ठ पुत्र रत्नदेव ने देवी महामाया के आशीर्वाद से रत्नपुर राज्य की नींव डाली।
हैहहवंशी कौणपादि थे परम प्रतापी।
किये अठारह अश्वमेघ मख धरती कांपी।
उनके सुत सुप्तसुम्न नाम बलवान हुये थे।
रेवा तट अश्वमेघ यज्ञ छ: बार किये थे।
श्री कौणपादि निज समय में महाबली नरपति हुये।
सबसे पहिले ये ही सखे ! छत्तीसगढ़ अधिपति हुए॥
बरसों तक रत्नपुर नरेशों ने इस भूमि पर निष्कंटक राज्य किया। अनेक जगहों में मंदिर, सरोवर, आम्रवन, बाग-बगीचा और सुंदर महल बनवाये...अनेक नगर बसाये और उनकी व्यवस्था के लिये अनेक माफी गांव दान में दिये। अपने वंशजों को यहां के अनेक गढ़ों के मंडलाधीश बनाये। आगे चलकर इनके वंशज शिवनाथ नदी के उत्तर और दक्षिण में 18-18 गढ़ के अधिपति हुये और समूचा क्षेत्र ''36 गढ़'' कहलाया। सुविधा की दृष्टि से रायपुर रत्नपुर से ज्यादा उपयुक्त समझा गया और अंग्रेजों ने मुख्यालय रायपुर स्थानांतरित कर दिया। तब से रत्नपुर का वैभव क्रमश: लुप्त होता गया।
रत्नपुर से गई रायपुर उठ राजधानी।
सूबा उनके लगे वहीं रहने अति ज्ञानी।
छत्तीसगढ़ के पूर्व वही सूबा थे शासक।
शांति विकासक तथा दुख औ भीति विनाशक।
आज जब छत्तीसगढ़ राज्य पृथक अस्तित्व में आ गया है तब सबसे पहिले कृषि प्रधान उद्योगों को विकसित किया जाना चाहिये अन्यथा धान तो नहीं उगेगा बल्कि हमारे हाथ में केवल कटोरा होगा...?
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रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा (छ. ग.)

शुक्रवार, 23 नवंबर 2007

संतो की धरतीःछत्तीसगढ़



प्रो. अश्विनी केशरवानी
युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्न-'कौन सा मार्ग मनुष्य को अनुसरण करना चाहिए', के जवाब में कहा 'संतो दिक्' अर्थात् संतो के द्वारा बताये गए मार्ग का अनुसरण मनुष्य को करना चाहिए। वस्तुत: संत ही वे दीप हैं जो मनुष्यों का पथ प्रदर्शन करते हैं। उनके द्वारा बताये गये मार्ग उनके ध्येय प्राप्त करने में सहायता करते हैं। 'आत्मनो मोक्षाय, जगत हिताय च' संत मोक्ष की कामना के साथ समाज उद्धार की कामना भी करते हैं। यद्यपि संतों का सर्वप्रथम प्रेम ईश्वर के प्रति होता है इसके बावजूद यह समाज की भलाई और सर्वजन कल्याण की भावना से ओतप्रोत होता है। संतों में ज्ञान और पराभक्ति दोनों होता है। संतों का ज्ञान परमात्मा के विषय में निजी अनुभवों से संपृक्त होता है। वह जगत में सर्वत्र भगवान को देखता है। उसका प्रेम मंदिर में स्थित मूर्ति तक सीमित नहीं होता बल्कि समस्त विश्व में प्रवाहित है। उसका प्रेम विश्वजनीन है। उसमें सर्वोच्च दर्शन, तीव्र भक्ति और संपूर्ण अहंकार शून्यता अंतर्निहित है।छत्तीसगढ़ प्रदेश ऐसे अन्यान्य संतों की जन्मस्थली और कार्यस्थली रही है। सतयुग में महर्षि मतंग ऋषि का गुरूकुल आश्रम शिवरीनारायण क्षेत्र में था। यहाँ शबरी निवास करती थी। उनका उद्धार करने के लिए श्रीराम और लक्ष्मण यहाँ आये थे। उनकी स्मृति में शबरीनारायण बसा है। पंडित मालिकराम भोगहा द्वारा रचित श्री शिवरीनारायण माहात्म्य का एक उध्दरण देखिये :-जो प्रसन्न तुम मो पर रघुवर देहु मोहि वरदान यही मेरे नाम सहित प्रभु जी के नाम उचारें सकल महीकमल नयन ! अब मेरे हित तुम रचहु चिता निज रूचि अनुसार पंचभूत तनु जारि भुवन तुव जाऊं सकल पाप करि छारे॥महानदी की उद्गम स्थल सिहावा में श्रृंगी ऋषि का आश्रम था जहाँ वे अपनी पत्नी शांता के साथ रहते थे :- चंदमुखी शांता सुख दायिनि पतीभक्ति नित प्रति पारायनिसेवा करत सुमति हरषाई श्रृंगी ऋषि की कपट बिहाई(देश) निकट गिरि कंक सुहाई तहां उटज मुनि सुभग बनाईशांता सहित रहत सुखदाई नृप आदिक पूजत तहं जाईते॥ इसी प्रकार महानदी के किनारे कसडोल के पास स्थित तुरतुरिया में महर्षि बाल्मिकी का आश्रम था जहाँ लव और कुश का जन्म हुआ था। प्रसिद्ध तीर्थ राजिम भी महर्षि मुचुकुंद की तपस्थली था जहाँ महाराजा सगर के हजारों पुत्र भस्म हो गये थे। कांकेर में कंक ऋषि का आश्रम था। सरगुजा की पहाड़ी में कालिदास के रहने की पुष्टि होती है। प्रसिद्ध दार्शनिक और बौध्द धर्म की महायान शाखा के संस्थापक नागार्जुन भी यहीं हुए थे। तभी तो कवि शुकलाल पांडेय छत्तीसगढ़ गौरव में गाते हैं :- यहीं हुए भवभूति नाम संस्कृत के कविवरउत्तार रामचरित्र ग्रंथ है जिनका सुंदरवोपदेव से यहीं हुए हैं वैयाकरणीहै जिनका व्याकरण देवभाषा निधि तरणीनागार्जुन जैसे दार्शनिक और सुकवि ईशान सेकोशल विदर्भ के मध्य में हुए उदित शशिभान से।
नागार्जुन :- नागार्जुन को बौध्द धर्म की महायान शाखा का संस्थापक माना जाता है। उन्हें सम्राट कनिष्क और सातवाहन राजवंश के समकालीन माना जाता है। हुएनसांग ने 'भारत भ्रमण वृत्तांत' में नागार्जुन को कोसल निवासी बताया है। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ को प्राचीन काल में दक्षिण कोसल कहा जाता था। राहुल सांकृत्यायन ने भी 'राहुल यात्रावली' में नागार्जुन को दक्षिण कोसल का निवासी माना है। डॉ. दिनेश चंद्र सरकार और पंडित लोचन प्रसाद पांडेय ने उन्हें छत्तीसगढ़ के श्रीपुर का निवासी माना है। नागार्जुन जिस 'महामयूरी' विद्या के साधक थे, उसका उललेख बस्तर के एक लोकगीत में मिलता है :-सिरी परवते मयूर डाके, मयूर डाके।बाई के चलिबो ठोड़िया नाके, ठोड़िया नाके।गोटे जिया माकू देवी, काय बाई गोटे जिया माकू देवी।बाई खाये रेखी रेखी काय बाई खाय रेखी रेखी॥इस लोकगीत में श्री पर्वत मयूर और माकू देवी का उल्लेख है। माकू देवी 'मामकी' का अपभ्रंश है जो रत्नकेतु ध्यानी बुध्द की शक्ति है। मयूर 'महामयूरी' देवी को कहा जाता है। श्रीपर्वत वही स्थान है जहाँ नागार्जुन ने 12 वर्षो तक वट यक्षिणी की साधना करके सिध्दि प्राप्त की थी।श्रीपर्वत (श्रीशैल) बस्तर की सीमा से लगा आंध्र प्रदेश में स्थित है। कदाचित् यह क्षेत्र प्राचीन काल में दक्षिण कोसल अथवा दंडकारण्य का भाग रहा हो। नागार्जुन ने अपने ग्रंथ 'रस रत्नाकर' में इस पर्वत पर सिध्दि प्राप्त करने का उल्लेख किया है :-श्री शैल पर्वत स्थायी सिध्दो नागार्जुनो महान्।सर्व सत्वोपकारी च, सर्व भाग्य समन्वित:॥प्रार्थितो ददते शीघ्र यश्च पश्यति याद्शम्।दृष्टता त्यागं भोगं च सूतकस्य प्रसादत:॥सत्वानां भोजनार्थाय सोधिता वट यक्षिणी।द्वादशानि च वर्षाभि महाक्लेष: कृतोमया॥तत्कात दृष्ट द्रव्याणं दिव्यावाणी मयाश्रुता।अदृष्ट प्रार्थिता पश्चात् दृष्टा त्वंभव साम्प्रतम्॥नागार्जुन एक महान दार्शनिक और प्रखर संत ही नहीं बल्कि रस सिध्दि योगी और आयुर्वेदाचार्य थे। ध्यान के माध्यम से उन्होंने अनेक आध्यात्मिक सिध्दियां प्राप्त की थी। छत्तीसगढ़ में जन्में नागार्जुन को ज्ञान विज्ञान, योग और तंत्र ने अमर बना दिया। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध धार्मिक नगर शिवरीनारायण प्राचीन काल में प्रसिद्ध तांत्रिक पीठ था।
महाप्रभु बल्लभाचार्य :- छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध तीर्थ राजिम के उत्तार में 14 कि. मी. पर चम्पारण्य ग्राम स्थित है जहाँ पंचकोशी यात्रा का एक पड़ाव चम्पकेश्वर महादेव का है। महानदी के तट पर मनोरम दृश्य से परिपूर्ण इस ग्राम में महाप्रभु बल्लभाचार्य का जन्म एक दैवीय घटना थी। उत्तार भारत से दक्षिण भारत जाने का मार्ग शिवरीनारायण, राजिम और चम्पारण्य से गुजरता था। श्री लक्ष्मण भट्ट और उनकी गर्भवती पत्नी इल्लमा इस रास्ते से दक्षिण भारत की यात्रा कर रहे थे। तभी उनके गर्भ से बालक बल्लभ का जन्म हुआ। बच्चा निर्जीव प्रतीत हो रहा था। उसे एक पेड़ के नीचे पत्तों पर लिटाकर ईश्वरोपासना में लीन हो गए। प्रात: उन्होंने देखा कि बालक अपने अंगूठे को चूसता हुआ मुस्कुरा रहा था। यही बालक आगे चलकर वैष्णव भक्ति की शुध्दाद्वैत धारा का प्रवर्तक हुआ जिसे आज पुष्टि मार्ग के नाम से जाना जाता है। यही बालक आगे चलकर महाप्रभु बल्लभाचार्य के नाम से विख्यात् हुआ। उन्होंने वेदांत की तर्क संगत सरल व्याख्या की है। उन्हें भगवान विष्णु का अंशावतार माना जाता है। उन्होंने उत्तार भारत में वैष्णव पंरपरा के मार्ग को पुष्ट किया। चम्पारण्य में ''श्रीमद् बल्लभाचार्य धर्म संस्कृति शोध अन्वेषण संस्थान'' की स्थापना पूज्यपाद गोस्वामी मथुरेश्वर द्वारा की गयी है। कवि शुकलाल पांडेय भी गाते हैं :- जन्मभूमि बल्लभाचार्य की है चम्पाझर बसे शंभू अभ्यंकर प्रयलंकर शंकर॥
बलभद्रदास :- रायपुर के दूधाधारी मठ के संस्थापक महात्मा बलभद्र दास थे। चूंकि वे अन्न जल के बजाय केवल दूध ग्रहण किया करते थे अत: उनका नाम 'दूधाधारी' पड़ गया। हालाँकि उनका जन्म राजस्थान के जोधपुर जिलान्तर्गत आनंदपुर (कालू) में पंडित शंभूदयाल गौड़ के पुत्र के रूप में हुआ था, लेकिन उनकी कार्यस्थली छत्तीसगढ़ का रायपुर था। बचपन से ही वे बड़े चमत्कारी थे। वे भ्रमण करते हुए पहले महाराष्ट्र और फिर छत्तीसगढ़ आ गए। उनके चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेक राजा-महाराजा उनके शिष्य हो गए। भंडारा जिले के पावनी में महंत गरीबदास द्वारा निर्मित श्रीरामजानकी मंदिर में वे बहुत दिनों तक रहे। यहीं उन्होंने गरीबदास को अपना गुरू बनाया और बालमुकुंद से बलभद्रदास हो गए। उनके पास एक शेर और शेरनी था। शेर का नाम नरसिंह और शेरनी का नाम लक्ष्मी था। 17 वीं शताब्दी के आरंभ में वे रायपुर आ गए। तब यहाँ भोंसलों का शासन था। उनकी चमत्कारी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें रायपुर में रहने की प्रार्थना भोंसले राजा ने की और एक मठ का निर्माण सन् 1640 में कराया जिसके वे पहले महंत हुए। इस मठ को 'दूधाधारी मठ' कहा जाता है। लोग उनके संपर्क में आते गये और शिष्य बनते गये। आगे चलकर इस मठ में सेठ दीनानाथ अग्रवाल ने श्रीरामजानकी का भव्य मंदिर बनवाया। छत्तीसगढ़ का यह एकलौता मंदिर है जहाँ श्रीरामजानकी के अलावा लक्ष्मण्, भरत, शत्रुघन और हनुमान की भव्य झांकी है। तब से लेकर आज तक इस मठ के क्रमश: बलभद्रदास, सीतारामदास, अर्जुनदास, रामचरणदास, सरजूदास, लक्ष्मणदास, बजरंगदास, और वैष्णवदास महंत हुए और वर्तमान में राजेश्री रामसुदरदास यहाँ के महंत हैं।
अर्जुनदास :- स्वामी अर्जुनदास जी शिवरीनारायण मठ के ग्यारहवीं पीढ़ी के महंत थे। वे शिवरीनारायण तहसील के आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट भी थे। बिलासपुर जिलान्तर्गत (वर्तमान रायपुर) ग्राम बलौदा में संवत् 1867 में उनका जन्म हुआ। 18 वर्ष की आयु तक विद्याध्ययन किया और फिर वे मठ मंदिर में पुजारी नियुक्त होकर 23 वर्ष की आयु में इस मठ के महंत बने। वे बड़े आस्तिक थे। बचपन से ही नदी से कंकड़, पत्थर लाकर उनकी पूजा किया करते थे। आपको हनुमान जी की बड़ी कृपा मिली थी। श्रीराम की उपासना में सदा दृढ़ रहते हुए रामायणादि और भगवत्कथा के श्रवण में सदा लीन रहते थे। उनके मुख से निकली हुई हर बात सत्य होती थी। उनके आशीर्वाद से संवत् 1927 में अकलतरा के जमींदार श्री सिदारसिंह और लवन के पंडित सुधाराम को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। तत्पश्चात् स्वामी जी की प्रेरणा से सिदारसिंह ने अपने भाई श्री गरूड़सिंह की सहायता से संवत् 1927 में श्रीराम लक्ष्मण और जानकी जी का मंदिर बनवाया। इसी प्रकार पंडित सुधाराम ने भी मठ परिसर में संवत् 1927 में एक हनुमान जी का मंदिर बनवाया। इसी प्रकार श्री रामनाथ साव ने स्वामी जी की प्रेरणा से चंद्रचूड़ महादेव मंदिर के बगल में संवत् 1927 में एक महादेव जी का मंदिर बनवाया। इस मंदिर में भगवान विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति भी है। आज उनके वंशज श्री मंगलप्रसाद, श्री तीजराम और श्री जगन्नाथ प्रसाद केशरवानी इस मंदिर की देखरेख और पूजा-अर्चना कर रहे हैं। स्वामी जी की प्रेरणा से भटगाँव के जमींदार श्री राजसिंह ने मठ प्रांगण में जगन्नाथ मंदिर की नींव संवत् 1927 में डाली, जिसे उनके पुत्र श्री चंदनसिंह ने पूरा कराया और भोग रागादि की व्यवस्था की। इसी समय भटगाँव के जमींदार ने योगी साधु-संतों के निवासार्थ जोगीडीपा में एक भवन का निर्माण कराया जिसे आज जनकपुर के नाम से जाना जाता है। रथयात्रा में आज भी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी एक सप्ताह यहाँ विश्राम करते हैं। संवत् 1928 में यहाँ श्री बैजनाथ साव, चक्रधर, बोधराम और अभयराम ने एक हनुमान जी का भव्य मंदिर बनवाया। महंत अर्जुनदास जी यहाँ एक सुंदर बगीचा लगवाया था। वे यहाँ प्रतिदिन आया करते थे। द्वार पर एक शिलालेख है जिसमें हनुमान मंदिर बनाने का उल्लेख है। उन्होंने संवत् 1923 से 1927 तक नारायण मंदिर के चारों ओर पत्थर से पोख्तगी कराकर मंदिर को मजबूती प्रदान कराया। यही नहीं बल्कि इधर उधर बिखरे मूर्तियों को दीवारों में जड़वाकर सुरक्षित करवा दिया। आज यहाँ का मंदिर परिसर जीवित म्यूजियम जैसा प्रतीत होता है। संवत् 1929 में मठ परिसर में पूर्व महंतों की समाधि में छतरी बनवायी। फाल्गुन शुक्ल पंचमी, संवत् 1944 को रायपुर के छोगमल मोतीचंद ने मठ परिसर में द्वार से लगा एक सूर्य मंदिर का निर्माण कराया। रायपुर के डिप्टी कमिश्नर श्री इलियट साहब ने 12 गाँव की माफी मालगुजारी संवत् 1915 स्वामी जी को दिया। संवत् 1920 में डिप्टी कमिश्नर चीजम साहब की अनुमति से उन्होंने यहाँ एक पाठशाला खुलवाया। यह पाठशाला महानदी के तट पर स्थित माखनसाव के कुलदेव महेश्वर महादेव मंदिर के पास स्थित थी। संवत् 1933 (जनवरी सन् 1877 ई.) में राज राजेश्वरी को महारानी की उपाधि मिलने पर उन्होंने स्वामी जी को एक प्रशंसा पत्र देकर सम्मानित किया था। इस प्रकार 44 वर्ष इस मठ के महंत रहकर 75 वर्ष की आयु में मठ प्रबंधन का सारा भार अपने शिष्य श्री गौतमदास को सौंपकर उन्होंने पौष कृष्ण अष्टमी दिन मंगलवार संवत् 1942 को स्वर्गारोहण किया।
गौतमदास :- शिवरीनारायण मठ के 12 वें महंत स्वामी गौतमदास जी हुए जो स्वामी अर्जुनदास जी के परम शिष्य थे। वे शिवरीनारायण तहसील के आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट थे। गौतमदास जी का जन्म बिलासपुर (वर्तमान रायपुर) जिलान्तर्गत बलौदा ग्राम में श्री गंगादास और श्रीमती सूर्या देवी के पुत्र रत्न के रूप में माघ शुक्ल द्वादशी संवत् 1892 रविवार को अच्युत गोत्रीय वैष्णव कुल में हुआ। बलौदा इनकी गौटियाई गाँव था जहाँ अच्छी खेती होती थी। 9 वर्ष की आयु तक वे अपने माता पिता के पास रहे। उसके बाद दीक्षित होकर विद्याध्ययन करने के लिए शिवरीनारायण आ गये। उनके गुरू स्वामी अर्जुनदास जी ने उनकी शिक्षा की व्यवस्था मठ में ही करा दी। सात वर्ष तक उनको संस्कृत और नागरी भाषा में शिक्षा मिली। तत्पश्चात् गीतादि और कर्मकांड में शिक्षा ग्रहणकर निपुण हुए। संवत् 1910 में महंत अर्जुनदास जी ने अपना सम्पूर्ण कार्यभार उन्हें सौंप दिया, यहाँ तक कि सरकार के दरबार में भी उन्हें जाने का अधिकार उन्होंने दिया। फिर वे मठ की देखरेख करने लगे। महंत अर्जुनदास जी की प्रेरणा से बनने वाले सभी मंदिर उन्हीं की देखरेख में बने। उन्होंने अपने गुरू का 34 वर्ष तक साथ निभाया। उनके मृत्योपरांत 50 वर्ष की अवस्था में वे संवत् 1936 में इस मठ के महंत बने। उन्होंने शिवरीनारायण में रथयात्रा, श्रावणी, झूलोत्सव, और माघी मेला लगाने की दिशा में समुचित प्रयास किया जिसे उनके शिष्य महंत लालदास जी ने व्यवस्थित रूप प्रदान किया। उन्होंने टुन्ड्रा में एक तालाब खुदवाकर सुन्दर बगीचा लगवाया। इसी प्रकार शिवरीनारायण में प्रमुख बाजार से लगा एक सुन्दर बगीचा लगवाया। इसे ''फुलवारी'' के नाम से जाना जाता है। उनका सम्पूर्ण समय ईश्वरोपासना, श्रीराम के भजन और श्रीहरि कथा श्रवण में व्यतीत होता था। धर्म्म व्यवहार में उनकी इतनी दृढ़ता थी कि अस्वस्थ होने पर भी धर्मानुकूल व्यवहार करने में वे कभी नहीं चुकते थे। वे धर्माभिमानी और धर्मात्मा पुरूष थे। प्रयाग, काशी, गया, जगन्नाथपुरी और अयोध्या आदि तीर्थयात्रा उन्होंने की थी। वे सनातन धर्म के रक्षार्थ निरंतर कटिबध्द रहे। शिवरीनारायण में सबसे पहले उन्होंने ही नाटकों के मंचन को प्रोत्साहित किया जिसे महंत लालदास जी ने प्रचारित कराया। उन्होंने अपने भाई श्री जयरामदास के पुत्र श्री लालदास जी को अपना शिष्य बनाकर मठ का महंत नियुक्त किया।
महंत लालदास जी :- शिवरीनारायण मठ के 13 वें महंत स्वामी लालदास जी हुए। बिलासपुर (वर्तमान रायपुर) जिलान्तर्गत ग्राम बलौदा के श्री जयरामदास जी के पुत्र के रूप में आषाढ़ शुक्ल 11, संवत् 1936 में उनका जन्म हुआ। वे महंत गौतमदास जी के भतीजे थे। माघ शुक्ल 5, संवत् 1940 को श्री लालदास का विद्याध्ययन आरंभ हुआ और चैत्र शुक्ल 8, संवत् 1945 को संस्कारित होकर विधिवत दीक्षित हुए। वे संत सेवी, भागवत भक्त और समाज के उत्थान के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे। यहाँ त्योहारों और पर्वो में विशेष धूम उन्हीं के कारण होने लगी थी। सावन में झूला उत्सव, रामनवमीं, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, रथयात्रा, विजियादशमी यहाँ बड़े धूमधाम से मनाया जाता था जिसमें आस पास के गांवों के बड़ी संख्या में लोग सम्मिलित होते थे। यहाँ रामलीला, कृष्णलीला और नाटक का मंचन बहुत अच्छे ढंग से होता था जिसे देखने के लिए राजा-महाराजा, जमींदार और मालगुजार तक आते थे। महंत गौतमदास जी के समय यहाँ एक ''महानद थियेटिकल कम्पनी'' नाम से नाटक मंडली बनी थी जिसके द्वारा धार्मिक नाटकों का मंचन किया जाता था। इस नाटक मंडली को आर्थिक सहायता मठ के द्वारा मिला था। मठ के मुख्तियार श्री कौशल प्रसाद तिवारी ने भी ''बाल महानद थियेटिकल कम्पनी'' के नाम से एक नाटक मंडली बनायी थी। आगे चलकर महानद थियेटिकल कम्पनी और बाल महानद थियेटिकल कम्पनी को एक करके ''महानद थियेटिकल कम्पनी'' बनी। इस कम्पनी के मैनेजर श्री कौशल प्रसाद तिवारी थे। यहाँ मनोरंजन के यही साधन थे। समय समय पर यहाँ संत समागम, यज्ञ आदि भी होते थे। कदाचित् इन्हीं सब कारणों से महंत लालदास जी सबके आदरणीय और पूज्य थे। वे आयुर्वेद के अच्छे ज्ञाता थे। औषधियों का निर्माण वे स्वयं कराते थे और जरूरत मंद लोगों को नि:शुल्क देते थे। उन्होंने शिवरीनारायण को ''व्यावसायिक मुख्यालय'' बनाने के लिए बड़ा यत्न किया। दूर दराज के व्यावसायियों को आमंत्रित कर यहाँ बसाया और सुविधाएं दी, उन्हें व्यापार हेतु प्रोत्साहित किया। प्रमुख बाजार स्थित दुकानें उनकी दूर दृष्टि का ही परिणाम है। यहाँ के माघी मेला जो पूरी तरह व्यवस्थित होती है, इसे व्यवस्थित रूप प्रदान करने का सारा श्रेय महंत लालदास को ही जाता है। मठ के मुख्तियार श्री कौशलप्रसाद तिवारी महंत जी की आज्ञा से महंतपारा की अमराई में मेला के लिए सीमेंट की दुकानें बनवायी जो आज टूटती जा रही है। उन्होंने महानदी के तट पर संत-महात्माओं के स्नान-ध्यान के लिए अलग ''बावाघाट'' का निर्माण कराया। नि:संदेह ऐसे परम ज्ञानी, संत, कुशल प्रशासक और दूर दृष्टा महंत का यह क्षेत्र सदैव ऋणी रहेगा। उन्होंने दूधाधारी मठ रायपुर के महंत श्री वैष्णवदास जी को अपना शिष्य बनाकर इस मठ का महंत नियुक्त किया जो उनके 24 अगस्त सन् 1958 को मृत्योपरांत मठ का कार्यभार सम्हाला। इस प्रकार शिवरीनारायण मठ और रायपुर के दूधाधारी मठ के बीच एक नया संबंध स्थापित हुआ।
गुरूघासीदास :- छत्तीसगढ़ में गुरू घासीदास का आविर्भाव उस समय हुआ जब इस क्षेत्र का धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पूरी तरह दूषित हो गयी थी। एक ओर जहाँ राजनीतिक एकता का अभाव था, सर्वत्र अशांति थी, वहीं दूसरी ओर सामाजिक विघटन और कटुता भरा वातावरण था। मराठा शासन के कारण चारों ओर भय, आतंक असुरक्षा और अशांति थी। शासन के नाम पर मराठा आततायियों तथा उनके स्थानीय उच्च वर्गीय अनुयायियों का अत्याचार अपनी पराकाष्ठा पर था। धार्मिक, आध्यात्मिक तथा सात्विकता की भावना का पूरी तरह आभाव था। सम्पूर्ण क्षेत्र में विषमता, दमन, अराजकता और मिथ्याभिमान विद्यमान था। ऐसी परिस्थितियों में निश्चित रूप से किसी युग पुरूष की आवश्यकता थी जो इस व्यवस्था में सुधार ला सके। ऐसे समय में गुरू घासीदास का जन्म एक वरदान था। उन्होंने अपने अंतर्मन के विश्वास और सतनाम के दिव्य संदेश से सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के दिग्भ्रमित लोगों को सही रास्ता दिखाया।रायपुर जिला गजेटियर के अनुसार गुरू घासीदास का जन्म 18 दिसंबर सन् 1756 को एक श्रमजीवी परिवार में बलौदाबाजार तहसील के अंतर्गत महानदी के किनारे बसे गिरौदपुरी ग्राम में हुआ। यह गाँव छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी शिवरीनारायण से मात्र 11 कि.मी. दूर है। इनके पिता का नाम मंहगू और माता का नाम अमरौतिन बाई था। घासीदास का विवाह सिरपुर के अंजोरी की पुत्री सफुरा बाई से हुआ था। उनके चार पुत्र क्र्रमश: अमरदास, बालकदास, आगरदास, अड़गड़िया दास और एक पुत्री सुभद्रा थी। अपने पाँचों भाईयों में घासीदास मंझले थे। इनके बचपन का नाम घसिया था। वे संत प्रकृति के थे। उनके साथ अनेक अलौकिक घटनाएं जुड़ी हुई है। प्रारंभ से ही घासीदास का मन घरेलू तथा अन्य सांसारिक कार्यो में नहीं लगता था। फिर भी उन्हें अपने पिता के श्रम में भागीदार बनना ही पड़ता था। एक बार इस क्षेत्र में भीषण आकाल पड़ा जिससे उन्हें अपने परिवार के आजीविका के लिये दर दर भटकना पड़ा। अंत में वे परिवार सहित उड़ीसा के कटक शहर पहुंचे। यहाँ वे मजदूरी करने में अपना मन लगा पाते, इसके पूर्व ही उनकी मुलाकात बाबा जगजीवनदास से हुई। बाबा जगजीवनदास उस समय उड़ीसा के सुप्रसिद्ध संत माने जाते थे। घासीदास ने उनसे सतनाम की शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने उनके मन को जगाया और उन्हें बताया कि उनका जन्म सांसारिक कार्यो के लिये बल्कि लोगों को सद्मार्ग दिखाने के लिये हुआ है। कटक से लौटकर घासीदास सोनाखान के बीहड़ वन प्रांतर में जोंक नदी के किनारे तप करने लगे। यहाँ उन्हें सत्य की अनुभूति हुई और उन्हें सिध्दि मिली। इसके पश्चात् वे भंडारपुरी में आश्रम बनाकर सांसारिक भोग विलास का परित्याग कर जन कल्याण में अपना जीवन समर्पित कर दिया।समकालीन विचार कमजोर और पिछड़े वर्ग के जीवन दर्शन को जितना गुरू घासीदास ने प्रभावित किया है, उतना किसी अन्य ने नहीं किया है। उन्होंने केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि देश के अन्य भागों में लोगों को जो सतनाम का संदेश दिया है वह युगों युगों तक चिरस्मरणीय रहेगा। इसके अतिरिक्त उन्होंने समता, बंधुत्व, नारी उद्धार और आर्थिक विषमता को दूर करने के लिये एक समग्र क्रांति का आव्हान किया। वे एक समदर्शी संत के रूप में छत्तीसगढ़ में सामाजिक चेतना लाने में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनका आध्यात्मिक और दार्शनिक व्यक्तित्व के बारे में कहा जाता है कि वे हिमालय की भांति उच्च और महान थे। पंथी गीत में भी गाया जाता है :-श्वेत वरण अंग सो है, सिर कंचन के समान विशाला।श्वेत साफा, श्वेत अंगरखा, हिय बिच तुलसी के माला।एहि रूप के नित ध्यान धरौ, मिटे दुख दारूण तत्काला।श्वांस त्रास जम के फांस मिटावत हे मंहगू के लाला॥
गहिरा गुरू :- छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिलान्तर्गत लैलूंगा के वनों के बीच स्थित गहिरा ग्राम में संवत् 1966 में बुड़कीनंद व सुमित्रा बाई के पुत्र के रूप में जन्में रामेश्वर कंवर ही आगे चलकर गहिरा गुरू के नाम से प्रसिद्ध हुए। अल्पायु में ही अपने पिता के स्नेह से वंचित रामेश्वर बचपन से ही वनों में समाधि लगाने लगा था। वहाँ न तो स्कूल था न ही कोई शिक्षक, अत: शिक्षा-दीक्षा से वंचित रहा। उन्होंने केवल साधना की और सत्य को जाना। तीन दशक तक साधना के बाद जब वे लोगों के बीच आये तब उन्होंने लोगों को मांस, मदिरा का परित्याग कर सामाजिक सेवा करने का उपदेश दिया। वनवासी धीरे धीरे उनके अनुयायी बनते गये। कैलास गुफा उनका निवास और लोगों के लिए एक तीर्थ बन गया। 35 वर्ष की आयु में वे पूर्णिमा के साथ पाणिग्रहण किया। धीरे धीरे उनकी ख्याति चारों ओर फैल गयी और नेता, अभिनेता सभी उनके दर्शन लाभ के लिए गहिरा आश्रम आने लगे। यहाँ संस्कृत विद्यालय खोला गया। सामर बहार, श्री कैलास नाथेश्वर गुफा और श्री कोट में संचालित संस्कृत विद्यालय में लगभग 800 विद्यार्थी अध्ययनरत हैं। सम्प्रति सांकरवार में इस आश्रम का मुख्यालय है। उनकी सेवा के कारण मध्यप्रदेश शासन द्वारा 1986 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2005 में छत्तीसगढ़ शासन द्वारा सामाजिक सेवा पुरस्कार प्रदान किया है।
अवधूत भगवान राम :-बिहार प्रांत के भोजपुर जिलान्तर्गत गुण्डी ग्राम में बैजनाथसिंह के पुत्र के रूप में भाद्र शुक्ल सप्तमी, संवत् 1994 को भगवान का जन्म हुआ। उनके जन्म को उनके पिता ने भगवान का अवतरण समझकर उन्हें ''भगवान'' नाम दिया। उनकी प्रवृत्तिायां बाल्यकाल से ही असामान्य थी। सात वर्ष की आयु में उन्होंने घर का परित्याग कर दिया और भिक्षा मांगकर जीवन यापन करने लगा। 15 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने महरौड़ा श्मशान में अघोरसिध्दि प्राप्त की। उन्होंने अघोरपीठ क्रीं कुंड वाराणसी के पीठाधीश्वर बाबा रामेश्वर राम से दीक्षा ली। एक बार जशपुर के राजा को वे बनारस में श्मशान में मिल गये। उन्होंने बालक भगवान से जशपुर चलने की प्रार्थना की। पहले तो उन्होंने जशपुर जाने से इंकार कर दिया। लेकिन राजा के बहुत अनुनय विनय करने पर वे जशपुर चलने को राजी हो गये और जशपुर रियासत के नारायणपुर में उनका सर्वप्रथम आश्रम बना। प्राचीन औघड़ संतों ने देश और समाज के सामने जो उग्र रूप प्रस्तुत किया था इससे लोगों के मन में अघोर पंथ के प्रति अनेक भ्रांतियां उत्पन्न हो गयी थी जिससे भय का वातावरण निर्मित हो गया था। अवधूत भगवान राम ने समाज के सामने ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया जिससे उनकी न केवल भ्रांतियां दूर हुई बल्कि उनके अनुयायी होते गये। उनके सत्संग से मन के विकार दूर हो जाते और मन को शांति मिलती थी। उन्होंने जीवन के आध्यात्मिक संग्रह को दलित, पीड़ित और शोषित मानवता को समर्पित कर दिया। उनके आशीर्वाद से जशपुर के राजवंश चला। हमारे देश के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री चंद्रशेखर, श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री राजीव गांधी उनके भक्त ही नहीं बल्कि अनुयायी भी थे। आगे चलकर उन्होंने जशपुर के गमरीया और सोगड़ा में अपना आश्रम बनाया। उन्होंने 1961में 'श्री सर्वेश्वरी समूह' और 1962 में 'अवधूत भगवान राम कुष्ठ आश्रम' की स्थापना की। वे अघोरेश्वर थे। वे हमेशा कहते थे-'औघड़ वह भूना हुआ बीज है जो कभी अकुंरित नहीं होता। इसलिए मैं किसी देव का अवतार नहीं हूँ। आप जितना जानते हैं उसी पर अमल करें तो बहुत अच्छा होगा।' इसी उद्धोष के साथ उन्होंने 29 नवंबर 1992 को महानिर्वाण किया।
राजमोहिनी देवी :- सरगुजा का प्राकृतिक सौंदर्य ऋषि-मुनियों की कार्यस्थली के रूप में प्रख्यात् रही है। रामगिरी की पहाड़ी में कालीदास ने अन्यान्य रचनाओं का सृजन किया था। यहीं सरगुजा की माता के नाम से राजमोहिनी देवी ने भी ख्याति प्राप्त की है। सरगुजा जिला मुख्यालय अम्बिकापुर से 85 कि. मी. दूर गोविंदपुर में विवाहोपरांत राजमोहिनी देवी का पदार्पण हुआ। जंगली फल-फूल, कंद मूल आदि के उपर उनका जीवन आधारित था। जंगल से लकड़ी इकठ्ठा करके उसे बाजार में बेचकर जीवन की नैया जैसे तैसे चल रही थी। इसी बीच उनके दो पुत्र बल्देव और मनदेव तथा एक पुत्री राम बाई का जन्म हुआ। पति रणजीतसिंह का 1986 में देहावसान हो गया।दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करते उन्हें दिव्य अनुभूतियां हुई और उनका झुकाव साधना की बढ़ने लगा और उन्हें अंतत: सत्य की प्राप्ति हुई। एक घटना का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि पानी नहीं बरसने के कारण अकाल की स्थिति निर्मित हो गयी। लोग दाने दाने के लिए मोहताज होने लगे। कुछ लोग गाँव से पलायन करने की तैयारी करने लगे। मैं जंगल में लकड़ी इकठ्ठा कर रही थी तभी मुझे एक साधु मिले। कुशल क्षेम पूछने के बाद उन्होंने मुझे कहा कि तुम्हारा जन्म लकड़ी इकठ्ठा करने के लिए नहीं हुआ है, तुम्हे घर घरमें सादगी का अलख जगाना है, मांस-मदिरा से मुक्त समाज बनाना है...इनमें जागृति लाना है। जब तक उनकी बातों को समझ पाती, वे अंतर्ध्यान हो गये। मैं घर न लौटकर गाँव के बाहर एक पेड़ के नीचे बैठकर ध्यानस्थ हो गयी। मेरा ध्यान तब टूटा जब गाँव के सभी स्त्री पुरूष और बच्चे वहाँ इकठ्ठा होकर मुझे गाँव चलने को कह रहे थे, उनमें मेरे बच्चे भी थे। लेकिन मैं तो मोह माया से बहुत दूर हो गयी थी। मेरे मांस-मदिरा का परित्याग और सादगीपूर्ण जीवन जीने की बात कहने पर सबने अकाल से छुटकारा दिलाने की बात कही। ईश्वर की कृपा हुई और झमाझम पानी गिरने लगा और समय आने पर अच्छी फसल हुई। सबने मेरी बात मान ली और मांस मदिरा छोड़कर सादगी से जीवन यापन करने लगे। इस घटना से प्रभावित होकर दूसरे गाँव वाले भी साथ होने लगे। इस प्रकार उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी। गुनपुर गाँव के किसान रामकिशन और रामगहन द्वारा दी गयी तीन एकड़ पच्चीस डिसमिल जमीन में उनका आदिवासी सेवा आश्रम स्थित है। सरगुजा के अलावा रायगढ़, बिलासपुर, शहडोल, पेंड्रारोड, सीधी और छोटा नागपुर के पलामू तक उनके अनुयायी फैले हुए हैं। उन्हें भारत सरकार द्वारा ''पद्मश्री'' की उपाधि प्रदान की गयी है। लोग उन्हें ''माता जी'' के नाम से संबोधित करते हैं। 07 जनवरी 1994 को वह ब्रह्यलीन हो गयी मगर उनका प्रेरणादायी संदेश आज भी उन सबका पथ प्रदर्शन कर रही है।
तपसी बाबा :- उत्तरप्रदेश के ग्राम गुरूद्वारा, जिला देवरिया में 1838 ईसवीं में जन्में बालमुकुन्ददास जी अल्पायु में चमत्कारों से परिपूर्ण थे। बचपन से ही उन्होंने अपने घर का परित्याग कर संतों का सत्संग करने लगे। तीर्थाटन करते हुए वे चांपा आ गए। यहाँ उन्होंने हसदो नदी के तट पर श्मशान में स्थित एक छोटे से मंदिर को अपना निवास बनाया। उस समय यहाँ के जमींदार दादू रूद्रशरणसिंह थे। उनकी चमत्कारों से अन्यान्य लोग प्रभावित हुए और धीरे धीरे उनसे जुड़ने लगे। सर्वप्रथम उन्होंने हनुमान जी का मंदिर श्री नकछेड़ साव के सहयोग से बनवाया। नगर के प्रसिद्ध सेठ जगन्नाथ प्रसाद डिडवानिया तपसी बाबा की प्रेरणा से धर्मशाला, कुंआ, बगीचा और जगमोहन मंदिर का निर्माण कराया। मंदिर में बिना भोग लगे वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे। राय साहब बनवारीलाल को नया जीवन तपसी बाबा से ही मिला था। उन्होंने उनकी प्रेरणा से संत निवास का निर्माण कराया। उनकी प्रेरणा से ही डोंगाघाट का फर्शीकरण संभव हो सका।तपसी बाबा विद्वान, परोपकारी और भविष्य दृष्टा थे। हनुमान और अन्नपूर्णा जी की विशेष कृपा थी। श्रध्दालु भक्त, दर्शनार्थी, भूखे, भूले भटके लोगों को आप अवश्य सहायता करते थे। अन्नपूर्णा जी की कृपा से आपका भंडार कभी खाली नहीं होता था। हनुमान जी का चरणामृत सबके लिए अमृत तुल्य और संजीवनी था। आपके दर्शन लाथ करने वालों में म. प्र. के तत्कालीन मुख्य मंत्री द्वय श्री कैलासनाथ काटजू और श्री भगवंतराव मंडलोई, सांसद श्री अमर सहगल, श्री बिसाहूदास महंत, श्री बलिहास सिंह, जीवनलाल साव आदि थे। तपसी बाबा की प्रेरणा से उन्होंने बापू बालोद्यान का निर्माण कराया। उनका अधिकांश समय ध्यान, योग और भगवत्भजन में व्यतीत होता था। अपने चेले श्री शंकरदास को मंदिर का दायित्व सौंपकर 21 मई 1967 को चिर निद्रा में लीन हो गए। श्रध्दालुओं ने उनकी मूर्ति बनवाकर मंदिर परिसर में स्थापित करायी तथा उनकी समाधि स्थल को केराझरिया के रूप में विकसित कराय जो आज एक पर्यटक के रूप में विकसित होते जा रहा है। ऐसे अन्यान्य संतों ने छत्तीसगढ़ की पावन भूमि को अपनी तपस्थली और कार्यस्थली बनाया है। तभी तो पंडित शुकलाल पांडेय ने 'छत्तीसगढ़ गौरव' में गाते हैं :-धर्मात्मा-हरिभक्त जितेन्द्रिय पर उपकारीयथालाभ संतोष शील मुनिगण पथचारीनिर्लोभी गत बैर ग्राम उपदेशक वन्दितसदाचरण रत शान्त तपस्वी सद्गुण मंडितवाग्मी सुविवेकी नीतिरत मातामर्ष साधव महाछलकपट हीनऔ दम्भगत ब्राह्यण बसते यहाँ ॥ प्रो. अश्विनी केशरवानी राघव, डागा कालोनी,चांपा-495671 (छ.ग.)

पिथमपुर के कलेसरनाथ

पिथमपुर के कलेसरनाथ
: छत्तीसगढ़ी रचना:
हमर छत्तीसगढ़िया लिखवइया म प्रोफेसर अश्विनी केसरवानी ह अलगे किसिम के लिखवइया हवय। ओ हर मर-खप गे हे ओमन ल खोज खोज के निकालथे अउ ओखर बारे म लिखथे। जुन्ना जुन्ना लिखइया कवि, सतजुगी-कलजुगी मंदिर-देवालय, हमर तिज-तिहार अउ का का ल बतांव, सब्बोच म लिख डारे हे। तिरेपन बच्छर पहिली महंत दयानंद भारती ह 1953 म पिथमपुर के महत्ताम ल संसकिरित म लिखे रहिस ओला खोज के निकाल डारिस अउ ओला 'पिथमपुर के कलेसरनाथ' (पीथमपुर के कालेश्वरनाथ) नाम से बिलासपुर के बिलासा प्रकासन ह छापिस हे। पिथमपुर के महत्ताम ल कोनो नइ जानय। ऐला बताय बर ये किताब हर बढ़िया हवय। अइसन बढ़िया काम करे बर ओखर बड़ई करे म बढ़िया लागत हे। भोला बबा ओला आसिरबाद अउ बरकत दिहि।छत्तिासगढ़ प्रांत म घलो बड़कन जियोतिरलिंग जइसन काल ल जितवइया भोला बबा के मंदिर-देवालय हवय जेखर दरसन, पूजा-पाठ अउ अभिसेक करे म सब पाप धुल जाथे। अइसनहे एक ठन मंदिर जांजगीर-चापा जिला म हसदो नदिया के तिर म बसे पिथमपुर म हवय। महासिवरात्रि म अउ चइत परवा से अम्मावस तक 15 दिन इहां मेला भरथे अउ धूल पंचमी के दिन इहां भोला बबा के बरात लिकलथे जेला देखे बर देस भर के साधु मन इहां आथे। घिवरा के लिखवइया नरसिंगदास वैष्णव भोला बबा के बरात ल देख के गीत लिखे हे :-आईगे बरात गांव तीर, भोला बाबा जी केदेखे जाबो चला गिंया, संगी ला जगावा रे।डारो टोपी, मारो धोती, पांव पायजामा कसि,गल गलाबंद अंग, कुरता लगावा रे।हेरा पनही दौड़त बनही, कहे नरसिंहदासएक बार हहा करही, सबे कहुं घिघियावा रे॥कोऊ भूत चढ़े गदहा म, कोऊ कुकुर म चढ़ेकोऊ कोलिहा म चढ़ि चढ़ि आवत..।कोऊ बिघवा म चढ़ि, कोऊ बछुवा म चढ़िकोऊ घुघुवा म चढ़ि हांकत उड़ावत।सर्र सर्र सांप करे, गर्र गर्र बाघ करेहांव हांव कुत्ता करे, कोलिहा हुवावत।कहें नरसिंहदास, शंभु के बरात देखि,जांजगीर के कवि सिरि तुलाराम गोपाल ह पिथमपुर ल सतजुगी गांव कथे अउ कुथुर-पामगढ़ के गीत लिखवइया सिरि बुटु सिंह चउहान ह कथे कि इहां पुन्नी म नहाय अउ पूजा-पाठ करे ले देवता धाम जाथे। ऐखरे बर इहां सब्बो झन आके नदिया म नहाके कलेसर भोला बबा के धूप, दिया जला के बेलपान, धतुरा, गांजा-भांग अउ फूलपान चढ़ाथे। अइसन करके मानता माने ले ओ हर पूरा हो जाथे फेर ओहर दूसर साल भूइयां नापत इहां आते अउ कलेसर भोला बबा के पूजा करथे। बहुत झन कथे-'इहां आय ले पेट पिरा ह थिरा जाथे।' काबर कि इहां के हिरासाय तेली के अइसनहे करे ले ओखर पेट पिरा थिरा गिस। गजट म उड़िया राज के खरियार के राजा ल इहां पेट पिरा ल थिराय बर आय रहिन करके लिख हे। ऐमा राजा के नाम नइ लिखे हे। लेकिन ये किताब म असवनी ह लिखे हवय कि ओला खरियार के युवराज जे. पी. सिंहदेव चिट्ठी लिखे हे कि हमर बबा राजा बिर बिक्रम सिंहदेव ह पेट पिरा के खातिर पिथमपुर नइ गे रहिस, ओ हर लइका के आसिरबाद मांगे गे रहिस। ऊहां कलेसर भोला बबा के पूजा करिन अउ मनौती मानिस कि ओखर लइका होही त इहां एक ठन मंदिर बनवाही। ओखर दू ठन नोनी अउ दू ठन बाबु होइस । ओ हर पिथमपुर म एक ठन मंदिर बनवाइस अउ देवता बइठाय नइ पाइस अउ मर गे त इहां के पुजारी मन ओ मंदिर म गौरी मइया ल बइठाइस। अइसनहे कतुक गोठ बात ल ए किताब म लिखे हवय। पिथमपुर के कलेसर बबा के महिमा ल कोनो नइ जानय। बुटु सिंह ओखर महिमा ल गाथे :-हसदो नदिया के तिर म कलेसरनाथ भगवान।दरसन जउन ओखर करिहि, आ बइकुंठ जाही॥फागुन महिना के पुन्नी, जउन ऊंहा नहाइन।कासी जइसन फल पाही, अइसनहे गाथे वेद अउ पुरान॥बारहो महिना के पुन्नी म जउन इहां नहाहि।ओ हर सीधा बइकुंठ जाही, अइसनहे गाथे बरनत सिंह चउहान॥इहां के मंदिर के बनवइया के नाम पथरा म लिखाय हवय। कच्छ कुम्भारिया के जगमाल गांग जी ठिकेदार ह कारतिक सुदि दू, संबत् 1755 म गोकुल मिसतिरि कर ए मंदिर ल बनवाय रहिस। मंदिर ह ओतका जुन्ना नइ लागय। अइसन लागथे ए मंदिर के साज-तुने के काम करा गे हे। चापा के लिखवइया छबिनाथ दूवेदी महराज ह 110 बच्छर पहिली संसकिरित भासा म 'कलेसर इस्तोत्र' लिखे रहिन जेमा ओ हर संबत 1940 म कलेसर बबा ह जनमिस अउ मंदिर ह चार बच्छर म (संबत 1949 से संबत 1953) म बनिस। पिथमपुर के हिरासाय तेली ल भोला बबा ह सपना दे के कहिन-'घुरूवा ले मोला निकालबे त तोर पेट के पिरा ह थिरा जाही।' हिरा ह ओसनहे करिस अउ ओखर पेट पिरा थिरा गे। ओहर इहां एक चउरा म भोला बबा के लिंग ल बइठाइस अउ पूजा करिस, सबके सामने म ओखर पेट के पिरा हर थिरा गे। ऐला सब्बो झन देखिन, दूरिहा गांव के लइकन-पिचकन, किसान, मोटियारी अउ माइ लोगन इहां आइन अउ पूजा करिन। फेर ऐला सब जान डारिस। चापा के जिमिदार हर ओखर भोगराग बर जोंगिस। इहां के मंदिर ल बनवाइन, ओमा संगमरमर लगवाइन अउ पूजा करे बर पुजारी रखिस। मेला अउ महासिवरात्रि म जिमिदार ऊंहा जाबेच करे। इहां एक ठन मठ रहिस हे जेखर महंत बैरागी मन रहिन। ए किताब म अस्सी बच्छर म दस झन महंत मन के नाम लिखे हे। ए किताब म अइसन अइसन गोठ-बात लिखे हे जेला बुढ़वा बबा मन तक नइ जानय। ए पाती ये किताब ह सहेज के रखे लाइक हे।इहां के मेला म रंग रंग के दुकान, सिनेमा-सरकस, अउ झुला आथे। खाये-पिये के जिनिस, बरतन-भाड़ा, टिकली-चुनरी, सोना-चांदी, सिल-लोढ़ा अउ कपड़ा के दुकान आथे। मेला घुमे बर लइकन-पिचकन, किसान-किसानिन सब आथे। कभु कभु लइकन मन के बिहाव लग जाथे। अइसन दूसर जगह कहां होथे, सब भोला बबा के किरपा हे। हमर मन म पिरा होथे कि इहां आय के रद्दा हर बड़ खराब हे। गंगा जइसे हसदो नदिया के तिर म फैक्टरी लगे हे जेखर जहर से नदिया के पानी जहर जइसन हो गे हे। ऐला रोके बर लागही। हमर छत्तासगढ़िया सरकार ह पिथमपुर ल पर्यटन इस्थल बना देथिस त बढ़िया हो जाथिस। अइसहे लिखवइया जइसे हमरो कहना हे। किताब म मंदिर अउ देवता मन के बहुत बढ़िया फोटू छापे हे अउ ओर पचाहे। अइसहे अउ जगह मन के बारे म केसरवानी जी हर लिखही, भोला बबा ओला ऐखर बर आसिरबाद देवे।
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प्रांजल केसरबानी बोरीबली, मुम्बई

कहां खो गया मेरा गांव

कहां खो गया मेरा गांव

प्रो. अश्विनी केशरवानी
शबरीनारायण, जी हां ! लोग मुझे इसी नाम से जानते हैं। लोग मेरे नाम का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि जहां शबरी जैसी मीठे बेर चुनने वाली भीलनी और साक्षात् भगवान नारायण का वास हो, उस पतित पावन स्थान को ही शबरीनारायण कहते हैं। मेरी पवित्रता में चार चांद लगाती हुई चित्रोत्पला-गंगा (महानदी) बहती है। हालांकि वह गंगा के समान पवित्रता को समेटे हुए है। इसी महानता के कारण उसे महानदी कहते हैं। इससे मेरा मान बढ़ा है। कवि श्री धनसाय विदेह के मुख से :-
धन्य धन्य शबरीनारायण महानदी के तीर।जहां कभी पद कमल धरे थे रामलखन दो वीर।।धन्य यहां की वसुन्धरा, धन्य यहां की धूल।धन्य सहां की शबरीनारायण का दर्शन सुखमूल।।
महानदी की पवित्रता से इंकार कैसा ? लेकिन उसकी धार के साथ आ रही रेती से नदी उथली होती जा रही है, दोनों तट पर मिट्टी के कटाव बढ़ने से नदी का पार चौड़ा होता जा रहा है और थोड़ी बरसात हुई नहीं कि पानी बस्ती के भीतर। एक बार, दो बार नहीं बल्कि कई बार महानदी में आई बाढ़ से प्रलय जैसा दृश्य उपस्थित होता रहा है और ठाकुर जगमोहनसिंह जैसे कवि की लेखनी चलने लगती है:-
शबरीनारायण सुमिर भाखौ चरित रसाल।महानदी बूड़ो बड़ो जेठ भयो विकराल।।अस न भयो आगे कबहुं भाखै बूढ़े लोग।जैसी वारिद वारि भरि ग्राम दियो करि सोग।।शिव के जटा बिहारिनी बड़ी सिहावा आय।गिरि कंदर मंदर सबै टोरि फोरि जल जाय।।
सन १८६१ में जब बिलासपुर जिला बना तब बिलासपुर के अलावा दो अन्य तहसील क्रमश: शबरीनारायण और मुंगेली बनाया गया। इसके पूर्व न्यायालयीन कार्य क्रमश: खरौद और नवागढ़ में होता था। अंग्रेजों ने तब यहां पुलिस थाना, प्राइमरी स्कूल आदि खुलवाया था। तब मैं भोगहापारा और महंतपारा में बटा था। तहसील कार्यालय पंडित यदुनाथ भोगहा के भवन में लगता था। यदुनाथ भोगहा, महंत अर्जुनदास और माखन साव यहां आनरेरी बेंच मजिस्‍ट्रेट थे। महंत अर्जुनदास के बाद महंत गौतम दास और माखन साव के बाद खेदूराम साव यहां के आनरेरी मजिस्ट्रेट नियुक्त हुये थे। विजयराघवगढ़ के राजकुमार ठाकुर जगमोहनसिंह यहां के तहसीलदार थे। वे सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी थे। ठाकुर साहब ने न केवल इस क्षेत्र के नदी-नालों, अमराई, वन पर्वतादिक को घूमा बल्कि उन्हें अपनी रचनाओं में समेटा भी है। इसके अलावा वे यहां के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर उन्हें लेखन की दिशा प्रदान की और इसे सांस्कृतिक के साथ ही साहित्यिक तीर्थ की मान्यता दिलायी। उस समय पंडित अनंतराम पाण्डेय (रायगढ़), पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पाण्डेय (बालपुर), पंडित मेदिनी प्रसाद पाण्डेय (परसापाली), वेदनाथ शर्मा (बलौदा), ज्वालाप्रसाद तिवारी (बिलाईगढ़), काव्योपाध्याय हीरालाल (धमतरी) आदि यहां काव्य साधना के लिए आया करते थे। यहां भी पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी, गोविन्द साव और पंडित शुकलाल पाण्डेय जैसे उच्च कोटि के साहित्यकार हुए। कुथुर के श्री बटुकसिंह चौहान और तुलसी के जन्मांध कवि नरसिंहदास वैष्णव ने इसे अपनी साधना स्थली बनायी। प्राचीन साहित्य में यह उल्लेख मिलता है कि ठाकुर जगमोहन सिंह ने यहां काशी के ''भारतेन्दु मंडल`` की तर्ज में ``जगमोहन मंडल'' की स्थापना की थी। वे यहां सन् १८८२ से १८८७ तक रहे और लगभग एक दर्जन पुस्तकें लिखकर प्रकाशित करायी। कुछ पुस्तकें अधूरी थी जिसे वे कूचविहार स्टेट में रहकर पूरा किया था। पंडित मुकुटधर पाण्डेय ने भी एक जगह लिखा है कि ``मेरे पूज्याग्रज श्री पुरूषोत्तम पाण्डेय नाव की सवारी से शबरीनारायण जाया करते थे। वहां के पंडित मालिकराम भोगहा से उनकी अच्छी मित्रता थी। भोगहा जी भी अक्सर बालपुर आया करते थे। आगे चलकर लोचनप्रसाद जी ने भोगहा जी को गुरूतुल्य मानकर उनकी लेखन शैली को अपनाया था।``अंग्रेज जमाने के पुलिस थाने में आज तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। शायद सरकार को पुरानी चीजों को मौलिक रूप में सहेज कर रखने की आदत हो गयी है। उस समय इस थाने का कार्य क्षेत्र बहुत विशाल था, आज उसमें कटौती कर दी गयी है..जगह जगह पुलिस थाना और चौकी बना दिया गया है। मीडिल स्कूल अब हाई स्कूल अवश्य हो गया है, संस्कृत पाठ शालाएं बंद हो गई हैं और कन्या हाई स्कूल, सरस्वती विद्यालय और कान्वेंट स्कूल आदि खुल गये हैं। स्कूलों की गिरती दीवारें, टूटते छप्पर, वहां का हाल सुनाने के लिए पर्याप्त है। स्कूलों में शिक्षक की कमी तो लगभग सभी स्कूलों में है, तो यहां कैसे नहीं होगी ? एक बार मुझे यहां के गौरवशाली स्कूल में जाने का सौभाग्य मिला और वहां की स्थिति देखकर वह बात याद आ गयी जिसमें कहा गया है कि``... स्वयं अभावों में रहकर बच्चों के अच्छी पढ़ाई की कल्पना कैसे की जा सकती है ?`` यहां तो शिक्षक ही घंटी बजाता है, झाड़ू लगाता है और टूटी-फूटी कुर्सी में बैठता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है, हमारे समाज का साहित्य आज ऐसी स्थिति में पहुंच गया है कि अगर हम समय रहते उचित कदम नहीं उठाते हैं तो हमारे समाज की विकृति हमारी नौनिहालों के भविष्य को नष्ट कर देगी ?
महानदी अपनी विनाश लीला दिखाने में कभी पीछे नहीं रही। महानदी में एक गंगरेल बांध और दूसरा हीराकुंड बहुद्देशीय बांध बनाया गया है जिससे बाढ़ में कमी अवश्य आयी है। लेकिन सन् १८८५ और १८८९ में जो विनाशकारी बाढ़ आयी थी जिससे यहां के तहसील के कागजात बह गये थे और अंग्रेज अधिकारी शबरीनारायण को बाढ़ क्षेत्र घोषित कर पूरा गांव खाली करने का आदेश दे दिया था। मगर भगवान नारायण के भक्त इस गांव को खाली नहीं किये... बल्कि उनकी आस्था भगवान नारायण के उपर बढ़ गयी। तहसील मुख्यालय तो चाम्पा के जमींदार की सहमती से जांजगीर में स्थापित कर दिया गया। आज जांजगीर जिला मुख्यालय बन गया है लेकिन शबरीनारायण के हिस्से में ले देकर उप तहसील मुख्यालय ही आ सका है।कितनी विडंबना है कि लोग मेरे नाम की पवित्रता और धार्मिक महत्ता का बखान करते अघाते नहीं है, लेकिन मेरे नाम का कोई पटवारी हल्का नहीं है। मेरा अस्तित्व महंतपारा और भोगहापारा के रूप में है। प्राचीन काल में यह क्षेत्र दंडकारण्य फिर दक्षिण कोसल और आज छत्तीसगढ़ का एक छोटा सा भाग है। जब दंडकारण्य के इस भाग को खरदूषण से मुक्ति मिल गयी तब यहां मतंग ऋषि का गुरूकुल आश्रम था जहां शबरी परिचारिका थी।... और शबरी को दर्शन देकर कृतार्थ करने भगवान श्रीराम और लक्ष्मण यहां आये थे। द्वापरयुग में यह एक घनघोर वन था। तब इस क्षेत्र को सिंदूरगिरि कहा जाता था। इसी क्षेत्र में एक कुंड के किनारे बांस पेड़ों के बीच भगवान श्रीकृष्ण के मृत शरीर को जरा नाम का शबर लाकर उसकी पूजा-अर्चना करने लगा। बाद में पुरी (उड़ीसा) में भव्य मंदिर का निर्माण कार्य पूरा हुआ तब आकाशवाणी हुई कि ``दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में शिव गंगा का संगम के निकट बांस के घने वनों के बीच रखी मूर्ति को लाकर स्भापित करो..`` आगे चलकर उस मूर्ति को पुरी में भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किये। उनके यहां ये चले जाने के बाद उनका नारायणी स्वरूप यहां गुप्त रूप से विद्यमान रहा। तब से इसे ``गुप्तधाम`` के रूप में ``पांचवां धाम`` होने का सौभाग्य मिला। उस पवित्र कुंड को ''रोहिणी कुंड`` कहा गया। इस कुंड को श्री बटुक सिंह चौहान ने एक धाम माना है जबकि सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने ''शबरीनारायण माहात्म्य'' में उसे मुक्ति धाम बताया हैं :-
रोहिणि कुंडहि स्पर्श करि चित्रोत्पल जल न्हाय।योग भ्रश्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय ।।भगवान नारायण की पूजा-अर्चना में यहां का भोगहा परिवार ६० पुश्तों से करते आ रहे हैं। उनको ``भोगहा`` उपनाम भगवान को भोग लगाने के कारण ही मिला है। आगे चलकर भोगहापारा उनकी मालगुजारी हुई। भोगहा जी ने माखन साव के परिवार को हसुवा से यहां बसाया। इस क्षेत्र के सभी राजा-महाराजा, जमींदार और मालगुजारों से भोगहा जी की मित्रता थी। उन्हीं के कहने पर सोनाखान के जमींदार रामाराय ने अपने बारापाली गांव को भगवान नारायण मंदिर में चढ़ा दिया था। ये सब माफी गांव हैं और मठ के अधीन हैं।
यहां के सभी मंदिरों की भोग रागादि की व्यवस्था मठ से होती है। श्रद्धालुओं द्वारा जितने भी गांव मंदिर में चढ़ाए गये उनकी देखरेख भी मठ के द्वारा होती है। प्राचीन काल में शबरीनारायण नाथ सम्प्र्रदाय के तांत्रिकों गढ़ था। नारायण मंदिर के दक्षिणी द्वार पर दो छोटे मंदिर है,उसी में कनफड़ा बाबा और नाकफड़ा की मूर्ति है जो नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों के गुरू थे। स्वामी दयाराम दास तीर्थाटन करते रत्नपुर आये। उनसे प्रभावित होकर रत्नपुर के राजा उन्हें शबरीनारायण क्षेत्र में निवास करने की प्रार्थना की और कुछ माफी गांव दिए। यहां आकर उन्होंने तांत्रिकों से शास्त्रार्थ किया और इस क्षेत्र को छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। उन्होंने ही यहां वैष्णव पीठ की स्थापना की। इस मठ के वे पहले महंत हुए। तब से आज तक १४ महंत एक से बढ़कर एक थे। वर्तमान में श्री रामसुन्दरदास यहां के महंत हैं। महंतों ने इस क्षेत्र में धर्म के प्रति जागृति पैदा की, अंचल की परम्पराओं को संरक्षित किया। उनकी मालगुजारी महंतपारा में माघ पूर्णिमा को मेला का आयोजन करना, उसकी व्यवस्था करने में महंत का अविस्मरणीय योगदान रहा है। भोगहा जी भी भोगहापारा में मेला लगाने की कोशिश की मगर उनको सफलता नहीं मिली। बहरहाल, यहां का मेला सुव्यवस्थित होता है। पहले यहां का मेला एक माह तक लगता था लेकिन अब १५ दिन तक लगता है। मान्यता है कि माघ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ यहां विराजमान होते हैं। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। कदाचित् इसी कारण यहां श्रद्धालुओं की अपार भीड़ होती है। यहां के मेला को ''छत्तीसगढ़ का महाकुंभ'' कहा जाता है। हालांकि महाकुंभ हर १२ वर्ष में लगता है लेकिन यहां महाकुंभ जैसी भीड़ हर वर्श होती है।हां तो मैं कह रहा था... पहले ले देकर महंतपारा और भोगहापारा को मिलाकर ग्राम पंचायत बनाया गया और सरपंच बने श्री तिजाऊप्रसाद केशरवानी। ११ वर्ष तक तन मन से उन्होंने नगर की सेवा की, कई शासकीय दफ्तर खुलवाये, स्कूल भवन, पंचायत भवन, भारतीय स्टैट बैंक भवन, बिजली आफिस भवन आदि का निर्माण करवाये। नदी के बढ़ते कटाव को रोकने के लिए पाट बनवाये, सब्जी बाजार लगवाये। मवेशी बाजार की वसूली का अधिकार जनपद पंचायत जांजगीर से प्राप्त कर पंचायत की आय में बृद्धि की। नदी में तरबूज और खरबूज की खेती करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया। मैं बचपन से ही यहां के बिजली खम्भों में ट्यूब लाइट और मरकरी देखते आ रहा हंू। ग्राम न्यायालय गांवों में आज लागू हुआ है जबकि शिवरीनारायण में बहुत पहले से ही लागू है।...न जाने कितने परिवारों को बिखरने और टूटने से बचाया है श्री तिजाऊप्रसाद ने, लेकिन आज अपने ही परिवार को बिखरने ने नहीं बचा पा रहे हैं। इसके बाद श्री सुरेन्द्र तिवारी सरपंच बने। नया खून, नया जोश..लोगों को भी उनसे बहुत आशाएं थी। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हां, उसके बाद यह नगरपालिका बना और प्रथम नगरपालिका अघ्यक्ष बनने का सौभाग्य हासिल किया श्री विजयकुमार तिवारी ने। जन्म भर की कांग्रेस की सेवा करने का पुरस्कार था यह। सन् १९८० में यहां भयानक बाढ़ आयी और खूब तबाही मचायी..कई स्वयं सेवी संस्थाएं आसूं पोंछने आये, कई नेता आये और अनेक घोषणाएं भी की मगर मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री अर्जुन सिंह ने महानदी में पुल निर्माण की जो घोषणा की थी वह अवश्य पूरी हो गयी है जिससे यहां विकास का मार्ग खुल गया है। यहां की जनता उनके प्रति आभारी है। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री श्री विद्याचरण शुक्ल ने महानदी के कटाव को रोकने के लिए दोनों ओर तटबंध निर्माण कराने की घोषणा की थी, लेकिन वे उनके कार्यकाल में उनकी घोषणा पूरा नहीं हो सका। छत्तीसगढ़ शासन की जागरूकता से महानदी के तट में घाट का निर्माण कराया जा रहा है जिससे निश्चित रूप से कटाव रूकेगा।....लेकिन जर्जर सड़कें, गंदगियों की भरमार, बीमार अस्पताल, नगर पंचायत का खस्ता हाल, बनारस की याद दिलाते यहां के गंदगियों से भरे घाट और आपस में लड़ते-मरते लोग आज की उपलब्धि है। श्री बल्दाऊ प्रसाद केशरवानी ने अपने दादा श्री प्रयागप्रसाद केशरवानी की स्मृति में उनके जीते जी एक चिकित्सालय का निर्माण कराया, उसमें श्री देवालाल केशरवानी ने अपने दादा स्व. श्री पचकौड़प्रसाद साव की स्मृति में विद्युतीकरण कराया तो लोगों को अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग होने का अहसास हुआ। डॉ. एम. एम. गौर को लोग अब भूल गये हैं लेकिन उन्हीं की प्रेरणा और सहयोग से ऐसा संभव हुआ था। उनके बाद डॉ. बी. बी. पाठक, फिर डॉ. शुक्ला, डॉ. आहूजा, डॉ. बी. पी. चंद्रा, डॉ. वर्मा, डॉ. जितपुरे और डॉ शकुन्तला जितपुरे, डॉ. बोडे आये और चले गये मगर आज यह नगर एक अद्द डॉ. के लिए तरस रहा है। दानदाता की बात निकली है तो कहना अनुचित नहीं होगा कि लोगों ने दान के नाम पर नगर को बहुत छला है। श्री जगन्नाथ प्रसाद केशरवानी शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय और २० बिस्तर वाला जुगरीबाई प्रसूती गृह का शिलान्यास क्रमश: श्री विद्याचरण शुक्ला और कु. बिमला वर्मा ने किया था। इस अस्पताल में ऑपरेशन थियेटर के निर्माण की घोषणा श्री गणेशप्रसाद नारनोलिया ने की थी। श्री परसराम केशरवानी और श्री तिजराम केशरवानी ने अपने बच्चों की स्मृति में एक एक कमरा पेइंग वार्ड के लिये बनवाने की घोषणा की थीे। मगर घोषणाएं तो वाहवाही के लिए होती हैं, उसे पूरा करना जरूरी नहीं होता ? दानदाताओं के द्वारा दान में दिया गया भवन शासन लेता जरूर है मगर उसकी देखभाल नहीं करता और भवन जर्जर होकर गिर जाता है..। शासन आज ऐसे पब्लिक सेक्टर के शासकीय कार्यालयों को जनभागीदरी से संचालित करता जा रहा है तो दान में दिये गये भवनों की सुरक्षा, उसकी देखभाल आदि की जिम्मेदारी शासन क्यों नहीं लेता। इससे लोगों में दान के प्रति झुकाव कम हुआ है। यही हाल स्कूल भवनों का है। एक तो ८० प्रतिशत स्कूलों के अपने भवन नहीं हैं और जहां है उसकी देखरेख नहीं हो पा रहा है। शासन की यह नीति कहां तक उचित है ? अस्पताल में न डॉक्टर है, न स्कूलों में शिक्षक...न जाने कैसा होगा मेरा भविष्य ?भगवान नारायण के अनेक रूप जैसे केशवनारायण ,लक्ष्मीनारायण, राधाकृृष्ण, जगन्नाथ के मंदिर यहां हैं। इसी प्रकार औघड़ दानी शिव के अनेक रूप जैसे महेश्वरनाथ, चंद्रचूड़ महादेव, श्रीराम लक्ष्मण जानकी मंदिर, मां अन्नपूर्णा मंदिर, मां काली मंदिर आदि अन्यान्य मंदिर दर्शनीय है। महानदी का मुहाना बड़ा मनोरम है। छत्तीसगढ़ शासन शिवरीनारायण को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया है जिसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। यहां की जनता उनके प्रति आभारी है। इस महाकंुभ के अवसर पर सारे जगत को जगन्नाथ धाम का दर्शन कराने वाला और मोक्ष देने वाला है..तभी तो कवि हीराराम त्रिपाठी गाते हैं :-
होत सदा हरिनाम उच्चारण रामायण नित गान करै।अति निर्मल गंग तरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरै।।शबरी बरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरै।जहां जीव चारू बखान बसै सहज भवसिंधु अपार तरै।।
रचना, लेखन और प्रस्तुति
प्रो. आश्विनी केशरवानी राघव, डागा कालोनी, चांपा (छ.ग.)

शिवरीनारायण मठ के महंत राजेश्री रामसुंदर दास द्वारा गादी पूजा




शिवरीनारायण मठ के महंत राजेश्री रामसुंदर दास द्वारा गादी पूजा



प्रो. अश्विनी केशरवानी
शिवरीनारायण में दशहरा की संध्या मठ के महंत राजेश्री रामसुंदर दास ने मठ के बाहर स्थित गादी पूजा की और बाद में उसमें विराजमान हुए। मठ मंदिर के पुजारी और मुख्तियार के अलावा नगर के अन्यान्य गणमान्य नागरिकों ने उन्हें श्रीफल, शाल और रूपये आदि भेंट कर प्राचीन परंपरा का निर्वहन किया। इसके पूर्व मठ से महंत राजेश्री रामसुंदर दास जी बाजे-गाजे के साथ जनकपुर जाकर सोनपत्तिा की पूजा अर्चना की और लौटकर गादी पूजा की।


छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक तीर्थ शिवरीनारायण प्राचीन काल में दक्षिणापथ और जगन्नाथ पुरी जाने का मार्ग था। लोग इसी मार्ग से जगन्नाथ पुरी और दक्षिण दिशा में तीर्थ यात्रा करने जाते थे। उस समय यहां नाथ संप्रदाय के तांत्रिक रहते थे और यात्रियों को लूटा करते थे। एक बार आदि गुरू दयाराम दास तीर्थाटन के लिए ग्वालियर से रत्नपुर आए। उनकी विद्वता से रत्नपुर के राजा बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरू बनाकर अपने राज्य में रहने के लिए निवेदन किया। रत्नपुर के राजा शिवरीनारायण में तांत्रिकों के प्रभाव और लूटमार से परिचित थे। उन्होंने स्वामी दयाराम दास से तांत्रिकों से मुक्ति दिलाने का अनुरोध किया। आदि स्वामी दयाराम दास जी शिवरीनारायण्ा गये। वहां उन्हें भी तांत्रिकों ने लूटने का प्रयास किया मगर वे सफल नहीं हुए, उनकी तांत्रिक सिध्दि स्वामी जी के उपर काम नहीं की। तांत्रिकों ने स्वामी दयाराम दास को शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और फिर दोनों के बीच शास्त्रार्थ हुआ जिसमें तांत्रिकों की पराजय हुई और जमीन के भीतर एक चूहे के बिल में प्रवेश कर अपनी जान की भीख मांगने लगे। स्वामी जी ने उन्हें जमीन के भीतर ही रहने की आज्ञा दी और उनकी तांत्रिक प्रभाव की शांति के लिए प्रतिवर्ष माघ शुक्ल त्रयोदस और विजयादशमी (दशहरा) को पूजन और हवन करने का विधान बनाया। आज भी शिवरीनारायण में शबरीनारायण मंदिर परिसर में दक्षिण द्वार के पास स्थित एक गुफानुमा मंदिर में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिक गुरू कनफड़ा और नगफड़ा बाबा की पगड़ी धारी मूर्ति स्थित है। साथ ही बस्ती के बाहर एक नाथ गुफा भी है। शिवरीनारायण में 9वीं शताब्दी में निर्मित और नाथ सम्प्रदाय के कब्जे में बरसों से रहे मठ में वैष्णव परंपरा की नींव डाली। शिवरीनारायण के इस मठ के स्वामी दयाराम दास पहले महंत हुए। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं और 15 वें महंत राजेश्री रामसुंदरदास जी वर्तमान में हैं। इस मठ के महंत रामानंदी सम्प्रदाय के हैं।

जिस स्थान में दोनों के बीच शास्त्रार्थ हुआ था वहां पर एक चबुतरा और छतरी बनवा गया। बरसों से प्रचलित इस पूजन परंपरा को ''गादी पूजा'' कहा गया। क्योंकि पूजन और हवन के बाद महंत उसके उपर विराजमान होते हैं और नागरिक गणों द्वारा गादी पर विराजित होने पर महंत को श्री फल और भेंट देकर उनका सम्मान किया जाता है। इस परंपरा के बारे में कोई लिखित दस्तावेज नहीं है मगर महंती सौंपते समय उन्हें मठ की परंपराओं के बारे में जो गुरू मंत्र दिया जाता है उनमें यह भी शामिल होता है। इस मठ में जितने भी महंत हुए सबने इस परंपरा का बखूबी निर्वाह किया है। इस मठ में अब तक 15 महंतों के नाम इस प्रकार है- 1. स्वामी दयाराम दास, 2. स्वामी कल्याण दास, 3. महंत हरिदास 4. महंत बालक दास, 5. महंत महादास, 6. महंत मोहनदास, 7. महंत सूरतदास, 8. महंत मथुरा दास, 9. महंत प्रेमदास, 10. महंत तुलसीदास, 11. महंत अर्जुनदास, 12. महंत गौतमदास, 13. महंत लालदास 14. राजेश्री महंत वैष्णवदास और 15 वें महंत राजेश्री रामसुंदरदास ।

शिवरीनारायण के मठ को महानदी के पार स्थित एक छोटे से ग्राम बलौदा ने चार महंत दिया है। बलौदा से पहले महंत के रूप में महंत अर्जुनदास जी, दूसरे महंत के रूप में महंत गौतमदास जी, तीसरे महंत के रूप में महंत लालदास जी और चौथे महंत के रूप में महंत दामोदरदास जी मिले हैं। महंत अर्जुनदास और महंत गौतमदास जी शिवरीनारायण तहसील के आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट थे। श्री दामोदरदास जी की असामयिक निधन होने के कारण वे यहां की महंती नहीं सम्हाल सके और महंत लालदास जी ने श्री वैष्णवदास जी को अपना चेला बनाकर इस मठ की महंती सौंपी। आगे चलकर उन्हें रायपुर के दूधाधारी मठ के महंत का भी दायित्व सौंपा गया। इस मठ में आज तक गुरू-चेला की परंपरा है जिसका निर्वाह इस मठ के महंतों द्वारा की जा रही है।

छत्तीसगढ़ के मेला और मड़ई

छत्तीसगढ़ के मेला और मड़ई

प्रो.अश्विनी केशरवानी
इतिहास इस बात का साक्षी है कि छत्तीसगढ़ की भूमि आदि काल से ही अपनी परंपरा, समर्पण की भावना, सरलता और कला एवं संस्कृति की विपुलता के कारण पूरे देश के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। यहाँ के लोगों का भोलापन, यहाँ के शासकों की वचनबध्दता और प्रकृति के दुलार का ही परिणाम है कि यहाँ के लोग सुख को तो आपस में बाँटने ही हैं, दुख में भी विचलित न होकर हर समय एक उत्सव का सा माहौल बनाए रखते हैं। किसी प्रकार का दबाब उनकी उत्सवप्रियता में कमी नहीं ला पाता। झुलसती गर्मी में इनके चौपाल गुंजित होते हैं, मुसलाधार बारिश में इनके खेत गमकते हैं तथा कड़कड़ाती ठंड में इनके खलिहान झूमते हैं। 'धान का कटोरा' कहे जाने वाले इस क्षेत्र के लोगों के रग रग में पायी जाने वाली उत्सवप्रियता, सहजता और वचनबध्दता को वे कई तरीकों से प्रकट करते हैं। मड़ई और मेला इनमें प्रमुख है। देव स्थानों और तीर्थ नगरों में जहाँ मेला लगता है वहीं गाँवों में 'साजू' से सजे रावतों की टोली के साथ विभिन्न ग्राम देवों की पताका लिए मड़ई का जुलूस निकलता है तो उनकी मिल जुलकर रहने की प्रवृत्ति और उनकी सांस्कृतिक भव्यता का इंद्रधनुषी माहौल किसी को सम्मोहित कर देने के लिए पर्याप्त होता है। मेला की तिथि जहाँ निश्चित होती है वहीं मड़ई अलग अलग गाँवों में अलग अलग तिथियों में होती है। अपवाद स्वरूप कुछ गाँवों में बहुत सालों से एक ही तिथि में मड़ई का आयोजन होता है। आइये इन्हें जानें :-

माघ पूर्णिमा को लगने वाले मेला :-
छत्तीसगढ़ में माघ पूर्णिमा को एक साथ कई स्थानों में लगता है। इनमें शिवरीनारायण, राजिम, सिरपुर, रतनपुर, सेतगंगा, बेलपान, सेमरसल, कुदुरमाल, रूद्री और सिहावा प्रमुख है।

शिवरीनारायण :-
जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 65 कि.मी., बिलासपुर से 64 कि.मी. पर स्थित छत्तीसगढ़ का प्रमुख सांस्कृतिक और धार्मिक नगर शिवरीनारायण महानदी, जोंक और शिवनाथ नदी के संगम पर स्थित है। इसे 'गुप्त प्रयाग' भी कहा जाता है। यहाँ भगवान नारायण, भगवान जगन्नाथ, श्रीराम लक्ष्मण और जानकी, लक्ष्मीनारायण, अन्नपूर्णा, राधाकृष्ण, काली, हनुमान जी, चंद्रचूड़ और महेश्वर महादेव, शीतला माता का भव्य मंदिर दर्शनीय है। भगवान नारायण के चरण को स्पर्श करती 'रोहणी कुंड' स्थित है। इसका दर्शन, आचमन मोक्षदायी है। यहाँ का रथयात्रा जगन्नाथ पुरी जैसा ही दर्शनीय है। प्रतिवर्ष यहाँ माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक मेला लगता है जिसे 'छत्तीसगढ़ का महाकुंभ' कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि माघ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ पुरी से यहाँ आकर विराजते हैं। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। सन् 1861 से 1891 तक यह तहसील मुख्यालय था जिसके तहसीलदार सुपसिध्द साहित्यकार ठाकुर जगमोहनसिंह थे। उस काल में यहाँ भारतेन्दु युगीन अनेक साहित्यकार यहाँ साहित्यिक साधना करने आते थे। उस काल में यह छत्तीसगढ़ का साहित्यिक तीर्थ बन गया था।

राजिम :-
रायपुर से 48 कि.मी. दक्षिण पूर्व में महानदी, पैरी और सोढुल नदी के संगम में स्थित राजिम को 'छत्तीसगढ़ का प्रयाग' कहा जाता है। प्राचीन काल में इस नगर को पदमपुर कहा जाता था। यहाँ भगवान राजीव लोचन, श्रीराम लक्ष्मण और जानकी, साक्षी गोपाल, राजिम तेलिन और कुलेश्वर महादेव का मंदिर महानदी के बीच में है। शिवरीनारायण में भगवान नारायण का दर्शन करने के बाद राजिम में साक्षी गोपाल का दर्शन जरूरी है अन्यथा दर्शन अधूरी मानी जाती है। प्रतिवर्ष यहाँ माघ पूर्णिमा से 15 दिवसीय मेला भरता है। कुछ वर्षों से पर्यटन विभाग द्वारा राजिम महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। महाशिवरात्रि में भी यहाँ दर्शनार्थियों की भीड़ होती है।

सिरपुर :-
नवगठित महासमुंद जिलान्तर्गत रायपुर से 83 कि.मी., राजिम से 65 कि.मी., और आरंग से 24 कि.मी. दूर महानदी की पूर्वी तट पर सिरपुर स्थित है। यहाँ 5वीं से 8वीं शताब्दी के मध्य दक्षिण कोशल की राजधानी थी। 9वीं से 10वीं शताब्दी के मध्य यह बौध्द धर्म का एक प्रमुख केंद्र था। 7वीं शताब्दी में चीनी यात्री व्हेनसांग यहाँ आये थे। यहाँ ईंटों से निर्मित लक्ष्मण मंदिर, श्रीराम का भग्न मंदिर और बौध्द विहार दर्शनीय है। इसके अलावा गंधेश्वर महादेव, राधाकृष्ण, चंडी मंदिर और खुदाई से प्राप्त संग्रहालय में रखी प्रतिमाएं दर्शनीय है। यहाँ भी माघ पूर्णिमा एवं महाशिवरात्रि को एक दिवसीय मेला लगता है।

रतनपुर :-
बिलासपुर से 21 कि.मी. की दूरी पर हैहयवंशी कलचुरी राजाओं की प्राचीन वैभवशाली राजधानी रत्नपुर थी। मराठा राजाओं ने भी यहाँ शासन किया है। इसे छत्तीसगढ़ का प्रमुख शक्ति पीठ कहा जाता है। यहाँ महामाया देवी की भव्य मूर्ति दर्शनीय है। इसके अलावा भैरव बाबा, रामटेकरी में श्रीराम जानकी मंदिर, बूढेश्वर महादेव, जगन्नाथ मंदिर, किले का भग्नावशेष, कंठीदेवल मंदिर और बीस दुवरिया दर्शनीय है। यहाँ से 5 कि.मी. दूरी पर कटघोरा रोड में खूँटाघाट जलाशय है। यहाँ माघ पूर्णिमा से 15 दिवसीय मेला लगता है। दोनों नवरात्रि में दर्शनार्थियों की अपार भीड़ होती है। यहाँ बस और टैक्सी से जाया जा सकता है।

सेतगंगा :-
मुंगेली से 17 कि.मी. पर पंडरिया मार्ग में एक छोटा सा नगर सेतगंगा टेसुवा नाला के तट पर स्थित है। यहाँ रामजानकी का भव्य मंदिर है जिसके गर्भगृह में अनेक देवताओं की मूर्ति है और द्वार पर रावण की मूर्ति है। मंदिर के बाहर मिथुन मूर्तियाँ हैं। यहाँ के कुंड को नर्मदा कुंड कहा जाता है। यहाँ प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को तीन दिवसीय मेला लगता है। यहाँ देवताओं की सभा का दृश्य दर्शनीय है।

बेलपान :-
बिलासपुर जिलान्तर्गत बिलासपुर से 30 कि.मी. और तखतपुर से 12 कि.मी. की दूरी पर शिवजी का एक प्रसिध्द मंदिर है। यहाँ इस कुंड से छोटी नर्मदा नदी का उद्गम हुआ है जो आगे जाकर मनियारी नदी में मिल जाती है। इस नदी में अस्थि विसर्जित की जाती है। यहाँ एक प्रसिध्द शिव मंदिर है जिसका निर्माण सन 1757 से 1786 मे बीच बिम्बा जी भोसले ने कराया। यहाँ प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को सात दिवसीय मेला लगता है।

रूद्री और सिहावा :-
रायपुर से 155 कि. मी. एवं धमतरी से 65 कि.मी. पर सिहावा स्थित है। धमतरी जिलान्तर्गत रूद्री में रूद्रेश्वर महादेव और सिहावा में कर्णेश्वर महादेव का मंदिर है। महानदी का उद्गम स्थल सिहावा है जहाँ प्राचीन काल में श्रृंगी ऋषि का आश्रम था। माघ पूर्णिमा को यहाँ मेला लगता है और महाशिवरात्रि को यहाँ दर्शनार्थियों की खूब भीड़ होती है।

कुदुरमाल :-
कोरबा जिलान्तर्गत उरगा से दो कि.मी. पर कबीर पंथियों का तीर्थ स्थल कुदुरमाल है यहाँ कबीर पंथ के धर्म गुरूओं की समाधि है। प्रतिवर्ष यहाँ माघ पूर्णिमा को मेला लगता है और संत समागम होता है।

महाशिरात्रि को लगने वाला मेला :- छत्तीसगढ़ में शैव परंपरा के द्योतक अन्यान्य शिव मंदिर हैं जहाँ सावन मास में श्रावणी और महाशिवरात्रि में मेला लगता है। इन मंदिरों में खरौद के लक्ष्मणेश्वर महादेव, राजिम का कुलेश्वर महादेव, शिवरीनारायण का चंद्रचूढ़ और महेश्वर महादेव, कनकी का कनकेश्वर महादेव, रूद्री का रूद्रेश्वर और सिहावा का कर्णेश्वर महादेव, नवागढ़ का लिंग्वा महादेव, पीथमपुर का कालेश्वर महादेव, मल्हार का पातालेश्वर महादेव, सिरपुर का गंधेश्वर महादेव, जांजगीर में सेंधवार महादेव, पाली, चांटीडीह और महादेवघाट (रायपुर) में एक दिवसीय मेला लगता है।

पीथमपुर मेला :- जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत चांपा से 8 कि.मी. और जांजगीर से 13 कि.मी. की दूरी पर हसदेव नदी के तट पर पीथमपुर स्थित है। यहाँ कालेश्वर महादेव का प्रसिध्द मंदिर है जिसके दर्शन और पूजा अर्चना से पेट रोग से जहाँ मुक्ति मिलती है वहीं वंश-वृध्दि का आशीर्वाद भी मिलता है। प्रतिवर्ष यहाँ फाल्गुन प्रतिपदा (होली के दूसरे दिन) से 15 दिवसीय मेला लगता है। धूल पंचमी के दिन यहाँ शिवजी की परंपरागत बरात निकलती है जिसमें सम्मिलित होने के लिए नाबा साधु यहाँ आते हैं।

श्रावण मेला :- श्रावण मास में तुर्री, कनकी, खरौद और परसाही में मेला लगता है।

कुटी घाट मेला :-
बिलासपुर-शिवरीनारायण मार्ग पर लीलागर नदी के तट पर भगवान श्रीरामचंद्र जी कुटिया बनाकर कुछ दिन विश्राम किये थे उन्हीं की स्मृति में यहाँ 26 जनवरी को तीन दिवसीय मेला लगता है जो छत्तीसगढ़ का प्रथम मेला होता है।

मालखरौदा का ईसाई मेला :-
जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत मालखरौदा ब्लाक मुख्यालय में छत्तीसगढ़ का बहुत पुराना चर्च है जहाँ प्रतिवर्ष 25 दिसंबर से एक सप्ताह का मेला लगता है।

रामनामी मेला :-
पौष एकादशी से त्रयोदशी तक चलने वाला तीन दिवसीय प्रसिध्द रामनामी मेला प्रतिवर्ष एक बार महानदी के इस पार और दूसरे साल महानदी के उस पार लगता है। इस मेले में रामनामी भजन, संत समागम और वैवाहिक रस्म होते हैं।

तुरतुरिया मेला :-
रायपुर जिलान्तर्गत कसडोल विकास खंड के ग्राम तुरतुरिया में पौष पूर्णिमा (छेरछेरा) को एक दिवसीय मेला लगता है। प्राचीन काल में यहाँ बाल्मिकी आश्रम था जहाँ लव और कुश का जन्म हुआ था। यहाँ बौध्द विहार ही है।

डभरा का रात्रिकालीन मेला :-
जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत डभरा विकास खंड मुख्यालय में प्रसिध्द श्री चक्रधारी मंदिर में प्रतिवर्ष रामनवमीं को सात दिवसीय रात्रिकालीन मेला लगता है।

गिरौदपुरी का भजन मेला :-
सतनाम के प्रवर्तक गुरू घासीदास की जन्म स्थली गिरौदपुरी में प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल पंचमी से सप्तमी तक तीन दिवसीय मेला लगता है। इस मेला में पंथ के अनुयायियों के द्वारा 'खड़ाऊ पूजा' की जाती है। इसी प्रकार दशहरा के दिन भंडारा और तेलासी में ध्वजारोहण और गुरू पूजा की जाती है।

रायगढ़ का जन्माष्टमी मेला :-
रायगढ़ जिला मुख्यालय में प्रसिध्द गौरीशंकर मंदिर में प्रतिवर्ष जन्माष्टमी मेला का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर मंदिर परिसर में आकर्षक झांकियाँ लगायी जाती है। दर्शनार्थियों की अपार भीड़ होती है। अनुक मनोरंजन के साधन और दुकानें लगाई जाती है। रायगढ़ आजादी के पूर्व एक फ्यूडेटरी स्टेट्स था। तब यहाँ गणेश मेला लगता था जिसमें अनेक कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करके पुरस्कृत होते थे। वर्षों से यहाँ चक्रधर समारोह आयोजित किया जा रहा है।

सिवनी (नैला) में संतोषी मेला :-
जांजगीर-चांपा जिला मुख्यालय से लगे गांव सिवनी में सा दिवसीय संतोषी मेला लगता है।

लुथरा शरीफ मेला :-
बिलासपुर से बलौदा मार्ग में बिलासपुर से 32 कि.मी. पर लुथरा शरीफ है जहाँ मुस्लिम संत हजरत बाबा सैय्यद इंसान की दरगाह है। यहाँ हजारों-लाखों दर्शनार्थी मत्था टेकने और चादर चढ़ाने आते हैं। इससे उनकी मुराद पूरी होती है।

करगी रोड का कोटेश्वर मेला :-
बिलासपुर जिला मुख्यालय से बिलासपुर-कटनी रेल्वे मार्ग में 32 कि.मी. तथा बिलासपुर-लोरमी सड़क मार्ग में 35 कि.मी. पर स्थित करगीरोड (कोटा) में सागर तालाब के पास स्थित प्रसिध्द कोटेश्वर महादेव मंदिर के पास महाशिवरात्रि के दिन कोटेश्वर मेला लगता है।

मड़वारानी मेला :-
चांपा-कोरबा मार्ग में स्थित मड़वारानी की पहाड़ी में दशहरा के बाद तीन दिवसीय मेला लगता है।

श्याम कार्तिक मेला :-
जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से पांच कि.मी. पर स्थित ग्राम सरखों में कार्तिक शुक्ल छट से कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा तक 10 दिवसीय श्याम कार्तिक की मर्ति स्थापित कर पूजा अर्चना की जाती है। विसर्जन के दिन एक दिवसीय मेला लगता है।

नवरात्रि मेला :-
छत्तीसगढ़ में शाक्त परंपरा के द्योतक अनेक देवियों का मंदिर है जहाँ दर्शनार्थियों की अपार भीड़ होती है। लेकिन डोंगरगढ़, चंद्रपुर, खोखरा, चैतुरगढ़ और रतनपुर में मेला लगता है।

नाग नथाई मेला :-
छत्तीसगढ़ के अन्यान्य गाँवों में वसंत की शुरूवात में रामलीला, कृष्णलीला और नाटकों का मंचन किया जाता है। अंतिम दिन तालाब में नाग नाथने का मंचन किया जाता है जिसे देखने के लिए हजारों एकत्रित होते हैं।

भटगांव मेला :&
रायपुर जिलाऔर बिलाईगढ़ तहसील के अन्तर्गत भटगांव से 06 कि.मी. पर जंगल में स्थित भटगांव जमींदार परिवार की कुलदेवी जेवरा दाई की मंदिर में चैत्र पूर्णिमा को विशेष पूजा अर्चना की जाती है। मानता मानने वाले जमीन में लोट मारते यहाँ आते हैं और बलि देकर मानता पूरा करते हैं। फिर भटगांव में 10 दिवसीय मेला लगता है।

सरसीवां मेला :-
रायपुर जिला के अंतिम छोर में सरसीवां नगर स्थित है। यहाँ से तीन कि.मी. पर महानदी के तट पर रामनामियों का तीर्थ उड़काकन स्थित है। दो हजार की आबादी वाले इस गांव में श्रीराम का मूर्ति विहीन मंदिर है जहाँ केवल राम नाम का अंकन है। यहाँ रामनवमी को विशेष पूजा अर्चना की जाती है। तत्पश्चात् सरसीवां में 10 दिवसीय मेला लगता है।
0 प्रो.अश्विनी केशरवानी

बढ़ते बाल मजदूर

बढ़ते बाल मजदूर

-प्रो. अश्विनी केशरवानी
आज विश्व में लगभग 11 करोड़ बाल मजदूर हैं जो अत्यंत भयावह परिस्थितियों से गुजर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार समिति द्वारा ऐसे बच्चों का सर्वेक्षण किया गया। इस रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि किस प्रकार से विश्व के अविकसित राष्ट्रों में बच्चों का शोषण हो रहा है, और उन्हें अपना व अपने मां-बाप का पेट भरने के लिये जानवरों से भी बदतर जिन्दगी बसर करनी पड़ रही हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार 97 प्रतिशत बाल मजदूर तीसरे विश्व में अर्थात् अविकसित राष्ट्रों में है। इन देशों में बाल मजदूरों की संख्या सबसे अधिक है जहां पर कुपोषण और अशिक्षा अधिक है। जहां पर कुपोषण और अशिक्षा अधिक है। योजना आयोग के एक अनुमान के अनुसार भारत में 5 से 15 वर्ष की आयु के बाल मजदूरों की संख्या गत 3 वर्षों में 1 करोड़ 75 लाख से बढ़कर 2 करोड़ हो गई है। 1981 की जनगणना के अनुसार आंध्रप्रदेश में सबसे ज्यादा बाल मजदूर है। इसके बाद मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार ओर कर्नाटक का नंबर आता है।
बंबई के बाल मजदूर जूते साफ करने, होटलों में बर्तन धोने, कार साफ करने, कूड़ा बीनने आदि का काम करते हैं। इनमें से 25 प्रतिशत बच्चे 6 से 8 वर्ष के होते हैं, 48 प्रतिशत बच्चे 10 से 12 वर्ष के होते हैं तथा 27 प्रतिशत बच्चे 13 से 15 प्रतिशत के होते हैं। यूनिसेफ के एक सर्वेक्षण के अनुसार अकेले भारत में लगभग 2 करोड़ बच्चों को अपने जीवन यापन करने के लिए दिन भर काम करना पड़ता है। ये बच्चे अव्यवस्थित व्यवसायों में लगे हुए हैं जहां इनके मालिक इनका शोषण करते हैं। ये बच्चे पूरी तरह से मालिकों की दया पर जीते हैं। अधिक शारीरिक श्रम और मार खाना इनकी नियति है।
कश्मीर के कालीन यूरोप में बहुत पसंद किए जाते हैं। इन्हें निर्यात करने वाले व्यापारी इन कालीनों में 200 से 300 प्रतिशत तक लाभांश लेते हैं। लेकिन इन्हें बनाने वालों के साथ गुलाम जैसा व्यवहार किया जाता है। कालीन बुनते समय उड़ने वाली धूल और देशों के कण सांसों के साथ शरीर में प्रवेश कर जाते है जिससे इन बच्चों को फेफड़े की बीमारियां हो जाती है।
अफीम की मादकता से सराबोर मंदसौर जिले के स्लेट-पेंसिल उद्योग में दस हजार से भी अधिक मजदूर सिलिकोसिस रोग से पीड़ीत नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। देश के तीन चौथाई बच्चों को किसी भी भाषा की वर्णमाला सिखाने में इस उद्योग में काम करने वाले करीब पच्चीस हजार बच्चे आज स्कूल जाने को तरस रहे हैं। वे अपने माता-पिता का सहारा बनकर या तो स्लेट पत्थर ढो रहे हैं या स्लेट पैक कर रहे हैं, किन्तु कारखाना मालिकों की अधिक धन कमाओं वृत्तिा के कारण मजदूरों के परिवारों की दुर्दशा हो रही है, इस जिले को जितना राजस्व धन अफीम से उपलब्ध होता है उससे कहीं अधिक स्लेट पेंसिल उद्योग से प्राप्त होता है। मंदसौर और मल्हारगढ़ तहसीलों में 60 प्रतिशत मजदूर हैं। कृषि एवं अन्य मजदूरों के बाद सबसे ज्यादा मजदूर इस उद्योग में है। स्लेट पेंसिल की खुदाई से लेकर उसकी कटाई करने तक से उड़ने वाली सिलिकान डाई आक्सॉइड फेफड़ों में प्रवेश करने के कारण मजदूरों को सिलिकोसिस रोग होता है।
बाल मजदूरों पर की जा रही ज्यादतियों का यह मर्ज सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी फैला हुआ है। मोरक्को में 8 से 12 वर्ष तक के बच्चों को सप्ताह में 72 घंटे काम करना पड़ता है तथा उनके काम करने की परिस्थितियां बहुत खराब होती है। स्पेन के कालीन उद्योग में 2.5 लाख मजदूर 14 साल से कम आयु के हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार हमारे देश में परिवार की कुल आमदनी का 23 प्रतिशत हिस्सा बाल मजदूरों की कमाई से आता है। इसके बावजूद भी उन्हें उचित मजदूरी नहीं दी जाती। टयूनीशिया, डकार, स्विस, काहिरा, आबिदजान आदि देशों में तो खुलेआम लड़कियों की भी बाल मजदूर के रूप में खरीद फरोख्त की जाती है। दिन में इन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ती है और रात में अपने मालिक की वासना पूर्ति का शिकार बनना पड़ता है। कोलंबिया और बोलिविया में 3 वर्ष के बच्चों की बिक्री होती है। ब्राजील में भी गरीब मां-बाप अपना कर्ज चुकाने के लिये बच्चों को बेच देते हैं। थाइलैंड में भी यही हालत है। बच्चा बिक जाने के बाद कानूनी तौर पर अपने मालिक की संपत्ति हो जाती है और उसका मालिक मनमाने तरीके से उसका उपयोग करता है। बैंकाक का एक दुकानदार हर साल लगभग 20 हजार बच्चे खरीदता और बेचता है जो 7 से 15 वर्ष की आयु के होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार इन सब परिस्थितियों का बच्चों के मानसिक व शारीरिक विकास पर बहुत बुरा असर पड़ता है।
किसी भी राष्ट्र का भविष्य उसके बच्चों के उपर निर्भर करता है। हमारे देश में 30 करोड़ बच्चों में से 4 करोड़ 44 लाख बच्चे अब तक मजदूर बन चुके हैं और विभिन्न प्रकार के धंधों में लगे हुए हैं। दूसरे शब्दों में हमारे देश का हर सातवां बच्चा बाल मजदूरों की श्रेणी में आता है। केन्द्रीय श्रम मंत्रालय के अनुसार इस समय देश के सभी क्षेत्रों और सेवाओं में कार्यरत बाल मजदूरों में से 63 प्रतिशत किशोर, 22 प्रतिशत उससे कम आयु के और शेष मासूम बच्चे हैं। श्रमिक लड़कियों का अनुपात लड़कों से अधिक हैं।
बाल मजदूरों का शोषण प्राय: उन सभी देशों में हो रहा है जहां उनकी थोड़ी बहुत उपयोगिता की गुंजाइश है। शहरों और महानगरों में घरों से लेकर छोटे-मोटे उद्योगों में जूता, माचिस, बीड़ी, दर्री, कालीन आदि उद्योगों में कपड़े की रंगाई-छपाई और बुनाई मेंर्र्, ईट-भट्ठा, पत्थर खदानों, भवन निर्माण, बर्तन उद्योग, होटलों, सामान उठाने और यहां तक कि भीख मांगने के काम में भी बच्चों को उपयोग किया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार भारत, बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान, इण्डोनेशिया, थाइलैंड, मलेशिया, फिलीपीन्स आदि ऐसे एशियाई देश है जहां बाल मजदूर की संख्या अधिक होने के साथ-साथ उनका शोषण भी अधिक होता है।
'इंटरनेशनल कान्फेडरेशन ऑफ फी ट्रेड यूनियन' की ताजा रिपोर्ट मे बताया गया है कि पिछड़े और विकसशील देशों में भी बाल मजदूर की समस्या है जहां इनका शोषण बदस्तूर जारी है। विकसित राष्ट्रों में कृषि कार्यों में बाल मजदूरों का उपयोग किया जाता है। बावजूद इसके वहां उनको बहुत कम मजदूरी दी जाती है। उसे 12 से 16 घंटे तक काम कराया जाता है। राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि बंबई में कार्यरत बाल मजदूर अपनी कमाई का 23 प्रतिशत राशि अपने घर भेजते हैं। मुंबई में 68.2 प्रतिशत बाल मजदूरों को 100 रूपये मासिक, कलकता में 2.5 प्रतिशत बाल मजदूर ऐसे हैं जिनकी मासिक आय 50 से 100 रूपयों के बीच है। दिल्ली में 50 रूपए मासिक मिलता है। कलकता में 20.6 प्रतिशत बाल मजदूरों को कोई वेतन नहीं मिलता। इन्हें दो से पांच महीने तक प्रशिक्षणकाल मानकर सिर्फ भोजन दिया जाता है। यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि 73.13 प्रतिशत बाल मजदूरों को किसी प्रकार की छुट्टी नहीं मिलती और गलती हो जाने पर मार खानी पड़ती है। अधिक श्रम के कारण ये बच्चे मानसिक रूप से पिछड़ जाते हैं और अभाव व हीनता के कारण अपराधी प्रवृत्तिा के हो जाते हैं।
सरकार ने बाल मजदूरों को शोषण रोकरने के लिये कई कानून बनाए हैं। जिसमें बच्चों से मजदूरी कराने पर पाबंदी लगाई गई है। लेकिन ये सब कानून महज कागजी प्रतीत होते हैं। क्योंकि बाल मजदूरों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। 1948 के भारतीय कारखाना अधिनियम के तहत 14 वर्ष या उससे कम उम्र के बच्चों से काम नहीं लिया जा सकता और 1961 के प्रशिक्षार्थी अधिनियम के तहत् 14 वर्ष या उससे कम उम्र के बच्चों को व्यावसायिक प्रशिक्षण नहीं दिया जा सकता लेकिन हाथ करघा और कुटीर उद्योगों में ऐसे बच्चे कार्यरत हैं।
बाल मजदूर को पूर्ण रूप से समाप्त करने का अर्थ होगा लाखों बच्चों से उनकी रोजी-रोटी को छिन लेना और ये तब अपराध से जुड़ने को मजदूर होंगे। यद्यपि इस समस्या को जड़ से समाप्त नहीं किया जा सकता लेकिन यदि प्रयास किये जाएं तो कुछ सीमा तक हम उन्हे राहत दिला सकते है। बाल मजदूर (निषेध और विनियमन) अधिनियम 1986 में प्रावधान हैं कि ऐसे बच्चों को उनके कार्यावधि को कम करके पढ़ने के लिए सुविधाएं तथा उचित मजदूरी दी जाए।
यूनिसेफ द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट ''विश्व में बच्चों की स्थिति के अनुसार'' विश्व में अस्त्रों और सैनिक व्यवस्था पर छ: सप्ताह में जितना खर्च किया जा रहा है यदि उसे स्त्रियों और बच्चों के समुचित आहार, बच्चे के जन्म से पूर्व मां की देखरेख, बच्चों की प्राथमिक शिक्षा, सफाई आदि पर खर्च किया जाए तो दुनिया के 50 करोड़ स्त्री-बच्चों को राहत मिल सकती है।
वैज्ञानिकों के अनुसार भी इंसान के मस्तिष्क तथा शरीर का 50 प्रतिशत विकास पांच वर्ष की आयु में पूरा होता है। शेष 50 प्रतिशत विकास उसके 15-20 सालों में पूरा होता है। साथ में उसे भरपूर आहार और स्वस्थ वातावरण मिलता रहे। विकास और समृद्धि के लिये न केवल पूंजी और मशीनें चाहिए, न कच्चा माल और मंडियां चाहिए बल्कि चाहिए उसके लिए मजदूरों और कारीगरों के सबल और कुशल हाथ। इसलिए बच्चों के स्वास्थ्य तथा शिक्षण प्रशिक्षण पर कुछ वर्षो में खर्च किये गए रूपये आगे चलकर हजारों गुना ब्याज दे सकते हैं।
वस्तुत: मजदूरों के लिए जितने भी नियम कानून बनाए जाते हैं। उनसे मजदूरों का कुछ भला तो ही नहीं पाता बल्कि मालिक और मजदूरों के बीच के लोगों की कमाई अवश्य हो जाती है। जब तक सरकार और समाज के जागरूक लोग उन बुनियादी मसलों पर गौर करके उसका निराकरण नहीं करेंगे तो बच्चों का शोषण होता रहेगा। यह बात भी सही है कि इस देश में बाल मजदूरों की समस्या जड़ से समाप्त नहीं की जा सकती लेकिन सुविधाएं दी जा सकती है।
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रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)

चांपा का कोसा अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लेकिन बदहाल है कोसा बुनकर


चांपा का कोसा अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लेकिन बदहाल है कोसा बुनकर

- प्रो. अश्विनी केशरवानी
चांपा, छत्तीसगढ़ प्रदेश के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 200 में स्थित दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे का ऊर्जा नगरी के जोड़ने वाला एक महत्वपूर्ण जंक्शन है जो 22.2 अंश उत्तरी अक्षांश और 82.43 अंश पूर्वी देशांश पर स्थित है। समुद्र सतह से 500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हसदो नदी के तट पर बसा यह नगर अपने प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। कोरबा रोड में मड़वारानी की पहाड़ियां, मदनपुर की झांकियां, बिछुलवा नाला, केरा झरिया, हनुमान धारा और पीथमपुर के छोटे-बड़े मंदिर चांपा को दर्शनीय बनाते हैं। यहां का रामबांधा देव-देवियों के मंदिरों से सुशोभित और विशाल वृक्षों से परिवेष्ठित और राजमहल का मनोरम दृश्य है। यहां मित्रता के प्रतीक समलेश्वरी देवी और जगन्नाथ मठ उड़िया संस्कृति की साक्षी हैं। डोंगाघाट स्थित श्रीराम पंचायत, वीर बजरंगबली, राधाकृष्ण का भव्य मंदिर, तपसी बाबा का आश्रम, मदनपुर की महामाया और मनिकादेवी, हनुमान धारा में हनुमान मंदिर, पीथमपुर का कलेश्वरनाथ का मंदिर और कोरबा रोड में मड़वारानी का मंदिर छत्तीसगढ़ी संस्कृति कर जीता जागता उदाहरण है। कवि श्री विद्याभूषण मिश्र की एक बानगी पेश है :-
जहां रामबांधा पूरब में लहराता है
पश्चिम में केराझरिया झर झर गाता है।
जहां मूर्तियों को हसदो है अर्ध्य चढ़ाती
भक्ति स्वयं तपसी आश्रम में है इठलाती
सदा कलेश्वरनाथ मुग्ध जिस पर रहते हें
तपसी जी के आशीर्वचन जहां पलते हैं
वरद्हस्त समलाई देवी का जो पाते
ऐसी नगर की महिमा क्या भूषण गाये।
प्राचीन काल में चांपा एक जमींदारी थी। जमींदार स्व. नेमसिंह के वंशज अपनी जमींदारी का सदर मुख्यालय मदनपुरगढ़ से चांपा ले आये थे। रामबांधा, लच्छीबांधा और दोनों ओर से हसदो नदी से घिरा सुरक्षित महल का निर्माण के साथ चांपा जमींदारी का अपना एक उज्जवल इतिहास है।
चांपा में कोसा व्यवसाय :-
चांपा, छत्तीसगढ़ प्रदेश का एक महत्वपूर्ण नगर है। आज इसे कोसा, कांसा, कंचन की नगरी कहा जाता है। मध्य भारत पेपर मिल की स्थापना और कागज के उत्पादन से एक नाम और जुड़ गया है। प्रकाश स्पंज आयरन लिमिटेड के अलावा चांपा के आसपास अनेक औद्योगिक प्रतिष्ठान के आने से यह औद्योगिक नगर बन गया है। यहां के गलियों में जहां कोसे की लूम की खटर पिटर सुनने को मिलता है वहीं सोने-चांदी के जेवरों के व्यापारी अवश्य मिल जायेंगे। यहां की तंग और संकरी गलियों में भव्य और आलीशान भवन से यहां की भव्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है। चांपा जमींदार के द्वारा आर्थिक सम्पन्नता के लिए व्यवसायी परिवारों को यहां आमंत्रित कर बसाया गया था। इनमें श्री गंगाराम श्रीराम देवांगन, श्री पतिराम लखनलाल देवांगन, श्री गणेशराम शालिगराम देवांगन, श्री नंदकुमार देवांगन, श्री रामगुलाम नोहरलाल देवांगन, श्री बहोरनलाल महेशराम देवांगन, श्री चतुर्भुज मनोहरलाल देवांगन, श्री मोतीराम माखनलाल देवांगन, श्री सदाशिव तिलकराम देवांगन, श्री दाऊराम देवांगन, श्री बिहारीलाल रंजीतराम देवांगन, श्री नारायण प्रसाद बेनीराम देवांगन और श्री परागराम पीलाराम देवांगन का परिवार प्रमुख है। इसके अलावा अनेक देवांगन परिवार भी यहां आकर बसे। इनमें प्राय: सभी कोसा बुनकरी का कार्य करते थे। बुनकर परिवारों का सही आंकड़ा देवांगन समाज के लोग भी नहीं बता सके। लेकिन एक अनुमान है कि नगरपालिका क्षेत्र में लगभग 1300 से 1500 परिवार निवास करते हैं और लगभग 5000 मतदाता हैं। हर मुहल्ले का मुखिया 'मेहर' कहलाता है। कुछ लोगों का बुनकरी के साथ कोसा का व्यवसाय अच्छा चलने लगा और वे महाजन कहलाने लगे और जैसे कहावत है कि 'पैसा पैसा कमाता है.. पैसे की आवक हुई और वे 'साव' कहलाने लगे। ऐसे लोग पैतृक बुनकरी के बजाय दुकान चलाने लगे। वे कोसे बुनकरी का कच्चा समान बुनकर परिवारों को देकर ग्राहकों की आवश्यकतानुसार कपड़ा बनवाकर बाजार में बेचने लगे। धीरे धीरे कपड़ों के डिजाइन में परिवर्तन होने लगा... सिंथेटिक कपड़ों के समान रंगीन, कसीदाकारी युक्त, उड़िया बार्डर और ब्लीच्ड कपड़ों का आकर्षण लोगों को कोसा कपड़ों की ओर खींचने लगा। आज सभी मौसम में कोसा सूटिंग, शटिंग, धोती-कुर्ता, सलवार सूट और साड़ियों का विशाल कलेक्शन बाजार में उपलब्ध है। इन्हें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेचकर आर्थिक सम्पन्नता हासिल की जा रही है। आज देश के सभी बड़े शहरों कलकत्ता, मुम्बई, नेपाल, चेन्नई, बेंगलोर, हैदराबाद, सिकंदराबाद, अहमदाबाद, नागपुर, जबलपुर, इंदौर, भोपाल, विशाखापट्टनम, दिल्ली, जयपुर, आदि में चांपा के कोसे का व्यवसाय फैला हुआ है।
कोसा व्यवसाय और श्री बिसाहूदास महंत :-
अविभाजित मध्यप्रदेश में तहसील स्तर में केवल चांपा में ही इंडस्ट्रियल ईस्टेट बनाया गया था। तब यहां छोटे मोटे उद्योग के अलावा कोसा, कांसा और सोने-चांदी के जेवर बनाने का कार्य कुटीर उद्योग के रूप में प्रचलित था। लोग अपने घरों में कोसे की साड़ियां, धोती और कुर्ते का कपड़ा बनाकर बाजार में बेचते थे। उस समय कोसा कपड़े के खरीददार नहीं होते थे। कुछ सेठ-महाजन ही पूजा-पाठ के समय इसका उपयोग करते थे। कदाचित इसी कारण इसका ज्यादा प्रचलन नहीं था। चांपा से 14 कि. मी. की दूरी पर स्थित सारागांव के श्री बिसाहूदास महंत चांपा विधानसभा के पहले विधायक फिर मध्यप्रदेश शासन में केबिनेट मंत्री बने। चांपा की गलियों और घरों में कोसा कपड़ों को बनते उन्होंने देखा था। कुछ देवांगन (बुनकर) परिवार से उनका बहुत ही अच्छा सम्बंध था। वे अक्सर उन्हें कोसा व्यवसाय को अन्य शहरों में भी फैलाने की सलाह दिया करते थे। लेकिन बुनकर परिवार आर्थिक रूप से सक्षम नहीं थे और कोसा कपड़ा की बनावट उतना आकर्षक भी नहीं था जिसे वे अन्य शहरों में ले जाते ? हां कुछ लोग कोसा कपड़ा/धोती और साड़ी को पवित्र तथा पूजा-पाठ में प्रयुक्त होने वाला कपड़ा मानने के कारण चांपा से खरीदकर अवश्य ले जाते थे। लेकिन श्री बिसाहूदास महंत जी के सद्प्रयास से ही चांपा के कोसा व्यवसायी यहां के कोसा कपड़ों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ले जाने में सफल हो गये। इसके लिए मध्यप्रदेश शासन में टेक्टाइल कारपोरेशन की स्थापना भी करायी थी जिसके माध्यम से कोसा कपड़ों को बाजार मिला और यह पूरे देश में लोकप्रिय हो गया। यहां के व्यवसायी नवीनतम तकनीक को अपनाकर कोसा के कपड़ों को आकर्षक डिजाइनों में बाजार में प्रस्तुत किया जिसे लोगों ने बहुत पसंद किया। आज कोसा अनेक आकर्षक डिजाइनों में सिंथेटिक कपड़ों के समान चांपा के बाजार में मिलने लगा है। आज कोसा कपड़ा न केवल पूजा-पाठ के समय पहनने वाला कपड़ा रह गया है वरन अनेक अवसरों, आयोजनों में पहनने का कपड़ा हो गया है।
चांपा के बुनकर परिवार :-
आज चांपा में अपना देवांगन समाज है। जांजगीर-चांपा जिले के चांपा, सिवनी, उमरेली, सक्ती, बाराद्वार, ठठारी, बेलादुला, मालखरौदा, जांजगीर, बलौदा, आदि में देवांगन परिवार रहते हैं। केवल चांपा में ही लगभग एक हजार देवांगन (बुनकर) परिवार निवास करते हैं। इनमें से अधिकांश परिवार कोसा कपड़े का बुनकरी का कार्य करते हैं। यहां के हर गली-मुहल्ले में हाथ करघे की खट खट सुनने को मिल जायेगी। बुनकर लोग पान ठेला, सब्जी, दूध, गल्ला-किराना, सोने-चांदी और कपड़े आदि का व्यवसाय करने लगे हैं। ऐसे लोगों का कहना है कि इस व्यवसाय में उन्हें उतनी आमदनी नहीं होती जिससे उनके परिवार का गुजारा चल सके। कुछ लोग नौकरी भी करने लगे हैं और अच्छे पदों पर पदस्थ हैं। श्री संतोष कुमार देवांगन अनुविभागीय अधिकारी, राजस्व के पद पर पत्थलगांव में पदस्थ हैं। श्री छतराम देवांगन बलौदा विधानसभा के विधायक और छ. ग. शासन में संसदीय सचिव और श्री मोतीलाल देवांगन चांपा विधानसभा के विधायक हैं। श्री कमल देवांगन छत्तीसगढ़ राज्य हाथकरघा विकास एवं विपणन सहकारी संघ मर्यादित, रायपुर के अध्यक्ष हैं। कुछ लोग अपने पैतृक व्यवसाय के अलावा अन्य व्यवसाय को अपनाने लगे हैं। इसके बावजूद चांपा के कोसा कपड़ों की मांग अमरीका, यूरोप, जर्मनी, इटली, फ्रांस, चीन, नेपाल, कनाडा, इंग्लैंड और स्विटजरलैंड आदि में बहुतायत में हैं। कुछ व्यापारी यहां से सीधे कोसा के कपड़े सीधे विदेश भेजते हैं और कुछ दूसरे व्यापारी के माध्यम से भेजते हैं।
बदहाल बुनकर :-
इतने अच्छे कोसा के कपड़ों को बनाने वाले बुनकरों की हालत बहुत अच्छी नही है। रात दिन कड़ी मेहनत करने वाले बुनकर अपने परिवार के पेट की आग को शांत करने में अक्षम हैं। ऐसे एक बुनकर ने बताया कि रेशम संचालनालय के सिवनी कार्यालय से आम बुनकरों को कोसे का धागा नहीं मिल पाता क्योंकि वहां भी महाजनों का कब्जा है। मजबूरी में उन्हें महाजनों से धागा खरीदकर कपड़ा बुनना पड़ा है। पिछले साल सिवनी में पंद्रह लाख कोसा फल आया था लेकिन आम बुनकर को एक भी फल नहीं मिल पाया, उसे महाजन और उनके संपर्क में रहने वाले बुनकर खरीद लिए। दलालों के माध्यम से कोसा फल खरीदने पर उन्हें शासन की दर से तीन गुने अधिक दर में कोसा फल खरीदना पड़ता है। आज अधिकांश कोसे के व्यवसायी कोसा फल अथवा धागा वजन करके देता है और ग्राहकों की मांग के अनुरूप बुनकर कपड़े की बुनाई करके केवल मजदूरी पाता है। एक अन्य बुनकर ने बताया कि उन्हें पैंतीस मीटर कपड़े की मजदूरी सिर्फ सात सौ रूपये, एक शाल की बुनाई मात्र सत्तर रूपये, एक साड़ी की बुनाई सिर्फ ढाई सौ रूपये मिलता है। यही कपड़े राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में चार से दस गुने अधिक दामों में बेचे जाते हैं।
कोसे की इल्लियां :-
शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय चांपा में टसर टेक्नालॉजी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. अश्विनी केशरवानी ने बताया कि सामान्यतया कोसा की इल्लियां साल, सागौन, शहतूत और अर्जुन की पत्तियों को खाकर ककून बनाती हैं। ककून से धागा निकालकर कपड़े की बिनाई की जाती है। ये निम्न प्रकार के होते हैं :-
1- मलबरी कोसा :- यह छोटे आकार का मुलायम कोसा होता है। इसका रंग सफेद, पिला, केसरिया और हल्का पीला होता है।
2- तसर कोसा :- इसके रेशे का रंग भूरा, पीला, काला व सफेद होता है।
3- मूंगा कोसा :- यह मलबरी कोसे के समान होता है। इसके रेशे का रंग सुनहरा होता है। इसका सर्वाधिक उत्पादन आसाम में होता है। रंग के आधार पर इसे गोल्डन सिल्क भी कहा जाता है।
4- ऐरी कोसा :- इसका रंग पीला व सफेद होता है। इसका उत्पादन देश के पूर्वी प्रदेश आसाम, त्रिपुरा, मेघालय के अलावा उत्तरप्रदेश, में होता है।
5- पोली कोसा :- यह सामान्य आकार से बड़े व छोटे आकार में पाये जाते हैं। जब कोसा की तितली के द्वारा कोसा फल (ककून) बनाने के बाद वह उसे छेदकर बाहर निकल आती है जिससे ककून पोली हो जाती है। इसीलिए इसे पोली कोसा कहा जाता है।
6- रैली कोसा :- इसका रंग काला और आकार बड़ा होता है। इसके धागे को ही रैली धागा कहा जाता है। साल, महुवा आदि पेड़ों पर इसका उत्पादन किया जाता है।
7- मोमरा कोसा :- जिसमें कोसे का धागे कम मात्रा में और बड़ी मुश्किल से निकलता है उसे मोमरा कोसा कहते हैं।
कोसा और रोजगार :-
रोजगार की दृष्टि से कृषि के बाद हाथ करघा उद्योग को महत्वपूर्ण माना गया है। इससे रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या पूरे देश में लगभग दो करोड़ है। इसी प्रकार कुल राष्ट्रीय आय में हाथ करघा उद्योग का लगभग सात प्रतिशत होता है। पूरे देश में लगभग एक करोड़ हाथ करघा और पावर लूम हैं। इससे लगभग दो करोड़ व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त है। पूरे छत्तीसगढ़ में रायगढ़, जशपुर, सरगुजा, कोरिया, जगदलपुर, बिलासपुर, कोरबा और जांजगीर-चांपा और पाली में ककून का उत्पादन होता है। कोसे के फल (ककून) से लगभग 1000 से 1200 मीटर धागा निकलता है। आजकल कोसे के धागे की जगह कोरिया से एक विशेष प्रकार के धागा जो कोसे के धागे के समान होता है, उपयोग किया जाता है।
सरकारी योजनाएं :-
राज्य और केंद्रीय शासन की ऐसी बहुत सी योजनाएं हैं जिनकी जानकारी सहकारी और स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम लोगों को देने का प्रावधान है लेकिन बुनकरों का कहना है कि ऐसा नहीं होता। जो उनके संपर्क में रहता है उन्हें ही इसकी जानकारी मिल पाती है। इसीलिए वे इस योजनाओं का लाभ नहीं ले पाते। ऐसी संस्थाओं में भी बड़े महाजनों और दलालों का कब्जा होता है। श्री कमल देवांगन, अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ राज्य हाथकरघा विकास एवं विपणन सहकारी संघ मर्यादित, रायपुर ने एक साक्षात्कार में बताया कि जांजगीर-चांपा जिला में 25 और पूरे प्रदेश में पहले केवल 80-85 बुनकर सहकारी समितियां विपणन संघ से जुड़ी थी लेकिन अभी 127 समितियां कार्यरत हैं। चांपा में पांच समिति क्रमश: तपसी बाबा कोसा बुनकर सहकारी समिति, जय अम्बे कोसा बुनकर सहकारी समिति, गंगा यमुना कोसा बुनकर सहकार समिति, कबीर कोसा बुनकर सहकारी समिति और जागृति कोसा बुनकर सहकारी समिति कार्यरत हें। इन समितियों के माध्यम से बुनकरों को शासन से मिलने वाली सुविधाएं बुनकरों को प्रदान की जाती हैं। उन्होंने बताया कि पूरे देश में चांपा से 5वीं, 8वीं, 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षाओं में 60 से 90 प्रतिशत अंक पाने वाले विद्यार्थियों को माननीय डॉ. रमनसिंह के कर कमलों से पुरस्कार प्रदान किया जावेगा। प्रदेश का विपणन संघ न केवल कोसा बुनकर बल्कि सभी प्रकार के हाथकरघा बुनकरों के उत्थान के लिए प्रयास कर रही है। उनका प्रयास है कि प्रदेश का कोई भी बुनकर खाली न रहे।
कोसे की तकनीकी एवं शिक्षा देने वाली संस्थाएं :-
चांपा में हेंडलूम टेक्नालॉजी का एक राष्ट्रीय संस्थान खोला गया है। इसी प्रकार यहां के शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में बी. एस-सी. टसर टेक्नालॉजी और एड आन कोर्स के रूप में सेरीकल्चर विषय में सर्टिफिकेट कोर्स खोला गया है। इन संस्थानों एवं विषयों को खुलवाने में चांपा विधानसभा के विधायक श्री मोतीलाल देवांगन एवं मध्यप्रदेश शासन के पूर्व मंत्री श्री बलिहार सिंह का योगदान रहा है। निश्चित रूप से इन संस्थानों और विषयों के खुलने से न केवल चांपा बल्कि छत्तीसगढ़ प्रदेश के विद्यार्थियों को लाभ होगा। उन्हें डिग्री के साथ नई तकनालॉजी का ज्ञान होगा जिससे कोसा कपड़ों की बुनकरी में नयापन आयेगा।
कोसा व्यवसाय और पुरस्कार :-
देश के सिध्दहस्त बुनकरों को राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किये जाते हैं। खुशी की बात है कि छत्तीसगढ़ के लगभग एक दर्जन बुनकरों को राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। श्री सुखराम देवांगन को कोसा दुपट्टा बनाने की कला में उल्लेखनीय योगदान के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। इसके पूर्व श्री पूरनलाल देवांगन को 1993 में एवं उनके पुत्र श्री नीलांबर प्रसाद देवांगन को 2002 में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। कोसा कपड़े पर उत्कृष्ट डिजाइन के लिए श्री ओमप्रकाश देवांगन को मुख्य मंत्री डॉ. रमन सिंह ने एक लाख रूपये नगद, शील्ड और प्रशंसा पत्र देकर सम्मानित किया है।
बुनकरों के लिए क्या करें :-
बुनकरों के उत्थान के लिए निम्नलिखित कार्य किया जाना समीचीन होगा :-
1- छत्तीसगढ़ के हाथ करघा उद्योग के विकास एवं विस्तार हेतु देश के प्रमुख शहरों में विक्रय केंद्र (एम्पोरियम) खोला जाना चाहिए।
2- छत्तीसगढ़ में सूती एवं कोसा कपड़ों के निर्यात की अपार संभावनाएं हैं। इसे ध्यान में रखते हुए एक विकसित रंगाई, छपाई एवं प्रोसेसिंग इंस्टीटयूट खोला जाना चाहिए।
3- छत्तीसगढ़ के अधिकांश बुनकर आज भी अपने परंपरागत तरीके से बुनाई करते हैं जबकि आज के वैज्ञानिक युग में फिनिशिंग वर्क की मांग अधिक है। अत: यहां के बुनकरों के लिए उन्नत किस्म के उपकरणों की आवश्यकता है। समय समय पर बुनकरों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम रखा जाना चाहिए।
4- स्वदेशी और निर्यात बाजार में चांपा के कोसा और हाथ करघा वस्त्रों को नई तकनीक देने के लिए बुनकर सेवा संघ चांपा में स्थापित की जानी ताकि बुनकरों में कलस्तर तकनीक को विकसित किया जा सके।
5- केंद्रीय योजनाओं की सही जानकारी सर्व सुलभ कराते हुए उसके सफल क्रियान्वयन कर हाथ करघा उद्योग को अधिकाधिक रोजगारमूलक बनाया जाये।
6- हाथ करघा बुनकरों को यार्न की उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु सूती हाथ करघा सघन क्षेत्र रायपुर में एन. एच. डी. सी. के सूती यार्न बैंक की स्थापना की जानी चाहिए।
7- छत्तीसगढ़ में निर्यात संभावनाओं को देखते हुए रायपुर में हैंडलूम एक्सपोर्ट प्रमोशन काऊंसिल कार्यालय शीघ्र की जानी चाहिये।
8- कोसा उत्पादों की बिक्री के लिए नियमित बाजार की आवश्यकता को देखते हुए रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़ और दुर्ग आदि शहरों में दिल्ली हाट के तर्ज पर छत्तीसगढ़ हाट की स्थापना की जानी चाहिये।
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रचना, आलेख, फोटो एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा (छ.ग.)

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