गुरुवार, 10 जुलाई 2008

भारतेन्दु युगीन साहित्यकार गोविंद साव

भारतेन्दु युगीन साहित्यकार गोविंद साव
भारतेन्दु युगीन साहित्यकार गोविंद सावप्रो. अश्विनी केशरवानीछत्तीसगढ़ में भारतेन्दु युगीन कवि, आलोचक और उपन्यासकार ठाकुर जगमोहनसिंह का साहित्यिक वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण योगदान था। उन्होंने सन~ 1880 से 1882 तक धमतरी में और सन~ 1882 से 1887 तक शिवरीनारायण में तहसीलदार और मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य किया है। यही नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को जगन्मोहन मंडल बनाकर एक सूत्र में पिरोया और उन्हें लेखन की सही दिशा भी दी। जगन्मोहन मंडल कांशी के भारतेन्दु मंडल की तर्ज में बनी एक साहित्यिक संस्था थी। इसके माध्यम से छत्तीसगढ़ के साहित्यकार शिवरीनारायण में आकर साहित्य साधना करने लगे। उस काल के अन्यान्य साहित्यकारों के शिवरीनारायण में आकर साहित्य साधना करने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में हुआ है। इनमें रायगढ़ के पं. अनंतराम पांडेय, रायगढ़-परसापाली के पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय, बलौदा के पं. वेदनाथ श्‍वर्मा, बालपुर के मालगुजार पं. पुरूसोत्तम प्रसाद पांडेय, बिलासपुर के जगन्नाथ प्रसाद भानु, धमतरी के काव्योपाध्याय हीरालाल, बिलाईगढ़ के पं. पृथ्वीपाल तिवारी और उनके अनुज पं. गणेश तिवारी और शिवरीनारायण के पं. मालिकराम भोगहा, पं. हीराराम त्रिपाठी, गोविंदसाव, महंत अर्जुनदास, महंत गौतमदास, पं. विश्‍वेस्‍वर वर्मा, पं. ऋषि श्‍वर्मा और दीनानाथ पांडेय आदि प्रमुख थे। शिवरीनारायण में जन्में, पले बढ़े और बाद में सरसींवा निवासी कवि शुकलाल प्रसाद पांडेय ने छत्तीसगढ़ गौरव में ऐसे अनेक साहित्यकारों का नामोल्लेख किया है :-नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद, बज गिरधर।विश्वनाथ, बिसाहू, उमर नृप लक्षमण छत्‍तीस कोट कवि।हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि।।इस प्रकार उस काल में शिवरीनारायण सांस्कृतिक के साथ ही साहित्यिक तीर्थ भी बन गया था। द्विवेदी युग के अनेक साहित्यकारों- पं. लोचनप्रसाद पांडेय, पं. शुकलाल पांडेय, नरसिंहदास वैष्‍णव, सरयूप्रसाद तिवारी मधुकर, ज्वालाप्रसाद, रामदयाल तिवारी, प्यारेलाल गुप्त, छेदीलाल बैरिस्टर, पं. रविशंकर शुक्ल, सुंदरलाल आदि ने शिवरीनारायण की सांस्कृतिक-साहित्यिक भूमि को प्रणाम किया है। मेरा जन्म इस पवित्र नगरी में ऐसे परिवार में हुआ है जो लक्ष्मी और सरस्वती पुत्र थे। पं. शुकलाल पांडेय ने छत्तीसगढ़ गौरव में मेरे पूर्वज गोविंदसाव को भारतेन्दु युगीन कवि के रूप में उल्लेख किया है-रामदयाल समान यहीं हैं अनुपम वाग्मी।हरीसिंह से राज नियम के ज्ञाता नामी।गोविंद साव समान यहीं हैं लक्ष्मी स्वामी।हैं गणेश से यहीं प्रचुर प्रतिभा अनुगामी।श्री धरणीधर पंडित सदृश्‍य यहीं बसे विद्वान हैं।हे महाभाग छत्तीसगढ़ ! बढ़ा रहे तब मान हैं।।हालांकि गोविंद साव की कोई रचना आज उपलब्ध नहीं है लेकिन शिवरीनारायण के साहित्यिक परिवेश में उन्होंने कोई न कोई रचना अवश्‍य लिखी होगी। मुझे साहित्यिक अभिरूचि उनकी विरासत में मिला है। मैं भगवान शबरीनारायण, हमारे कुलदेव महेश्‍वरनाथ महादेव और कुलदेवी माता शीतला का आशीर्वाद तथा चित्रोत्पलागंगा के संस्कार को प्रमुख मानता हूं। उन्हीं के आशीर्वाद से आज प्रदेश के साहित्य जगत में मैं अपनी पहचान बना सकने में समर्थ हो सका हूं। शिवरीनारायण का साहित्यिक परिवेश ठाकुर जगमोहनसिंह की ही देन थी। उन्होंने यहां दर्जन भर पुस्तकें लिखी और प्रकाशित करायी। शबरीनारायण जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक स्थल के लोग, उनका रहन-सहन और व्यवहार उन्हें सज्जनाष्टक आठ सज्जन व्यक्तियों का परिचय लिखने को बाध्य किया। भारत जीवन प्रेस बनारस से सन~ 1884 में सज्जनाष्टक प्रकाशित हुआ। वे यहां के मालगुजार और पुजारी पंडित यदुनाथ भोगहा से अत्याधिक प्रभावित थे। भोगहा जी के पुत्र मालिकराम भोगहा ने तो ठाकुर जगमोहनसिंह को केवल अपना साहित्यिक गुरू ही नहीं बनाया बल्कि उन्हें अपना सब कुछ समर्पित कर दिया। उनके संरक्षण में भोगहा जी ने हिन्दी, अंगेजी, बंगला, उड़िया और उर्दू और मराठी साहित्य का अध्ययन किया, अनेक स्थानों की यात्राएं की और प्रबोध चंद्रोदय, रामराज्यवियोग और सती सुलोचना जैसे उत्कृष्ट नाटकों की रचना की जिसका सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया। इसके मंचन के लिए उन्होंने यहां एक नाटक मंडली भी बनायी थी। माखन वंश के श्री बलभद्र साव के सुपुत्र और श्री सूरजदीन साव के अनुज श्री विद्याधर साव के नेतृत्व में यहां एक ष्‍केशरवानी नवयुवक नाटक मंडली बना था जिसके माध्यम से न केवल माखन वंश के नवयुवकों बल्कि नगर के नवोदित कलाकारों मंच मिला और अनेक नाटकों का सफलता पूर्वक मंचन किया गया। ठाकुर जगमोहनसिंह ने सज्जनाष्‍टक में माखन साव के बारे में लिखा है :-माखन साहु राहु दारिद कहं अहै महाजन भारी।दीन्हो घर माखन अरू रोटी बहुविधि तिनहो मुरारी।।लच्छपती मुइ शरन जनन को टारत सकल कलेशा।द्रव्यहीन कहं है कुबेर सम रहत न दुख को लेशा।दुओधाम प्रथमहि करि निज पग कांवर आप चढ़ाई।चार बीस शरदहु के बीते रीते गोलक नैना।लखि अंसार संसार पार कहं मुंदे दृग तजि नैना।।छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित मालगुजारों में माखनसाव की गिनती होती थी। इस उद्धरण से स्पष्‍ट है कि वे एक महाजन थे जिनके घर में लक्ष्मी जी और कुबेर जी का वास था। वे न केवल धीर-गंभीर और प्रजाप्रिय थे बल्कि धार्मिक और भक्तवत्सल भी थे। उन्होंने महानदी के तट पर अपने कुलदेव महेश्‍वरनाथ महादेव का एक भव्य मंदिर का संवत~ 1890 में निर्माण कराया था। इस मंदिर के बारे में ठाकुर जगमोहनसिंह ने अपने खंडकाव्य प्रलय में लिखा है :-बाढ़त सरित बारि छिन-छिन में। चढ़ि सोपान घाट वट दिन मे।शिवमंदिर जो घाटहिं सौहै। माखन साहु रचित मन मोहै।।84।।चटशाला जल भीतर आयो। गैल चक्रधर गेह बहायो।पुनि सो माखन साहु निकेता।। पावन करि सो पान समेता।।87।।उनकी धार्मिकता और भक्ति को डां. भालचंद राव तैलंग ने ष्‍ष्‍छत्तीसगढ़ी, हल्बी, भतरी बोलियों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययनष्‍ष्‍ के अर्थतत्व पृ. 200 मे उल्लेख किया है। विशेष घटना के कारण ष्‍ष्‍खिचकेदारष्‍ष्‍ को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा है-ष्‍ष्‍रतनपुर का मंदिर जहां पहले माखन साव ने एक साधु को खिचड़ी परोसी थी और जहां पकी हुई खिचड़ी से भरी पत्तल को फोड़कर शिवजी प्रकट हुए थे। इस उद्धरण को रामलाल वर्मा द्वारा लिखित रायरतनपुर महात्म्य पृ 22 से लिया गया है।ऐसे पवित्र आत्मा माखन साव के अनुज श्री गोविंद साव के जगन्नाथपुरी की यात्रा और मनौती के रूप में जन्में उनके एकलौते पुत्र जगन्नाथ साव की धर्मप्रियता पर भी किसी को संदेह नहीं है। कदाचित~ यही कारण है कि आज भी गोविंदसाव के वंशजों का मुंडन संस्कार जगन्नाथपुरी में किये जाने का विधान है। मेरे पिता जी, मेरा और मेरे बच्चों का मुंडन संस्कार भी पुरी में हुआ था। जगन्नाथ साव के एक मात्र पुत्र पचकौड़ साव हुए। माखन वंश में उनकी विद्वता की साख थी और इस वंश के लंबरदार आत्माराम भी उनकी दबंगता से प्रभावित थे। उन्हें साजापाली और दौराभाटा में खेती-किसानी का दायित्व सौंपा गया था जिसे उन्होंने अपने चचेरे भाई महादेव साव के सहयोग से बखूबी निभाया। शिवरीनारायण में महादेव-पचकौड़ साव के नाम से व्यापार होता था और जब गांवों में व्यापार की शुरूवात हुई तब 05 वर्ष बाद शिवरीनारायण का खाता बंद कर साजापाली-दौराभाठा में महादेव-पचकौड़ साव के नाम से खाता शुरू किया गया जो मालगुजारी उन्मूलन तक चलता रहा। गलत बातों का वे दबंगता से विरोध करते थे साथ ही मांगने पर उचित सलाह भी देते थे। आजादी के कुछ महिने बाद 17.10.1947 को उन्होंने स्वर्गारोहण किया। पचकौड़ साव के एक मात्र पुत्र राघव साव का जन्म चैत्र शुक्ल 2, संवत~ 1972 को रात्रि 10 बजकर 33 मिनट को हुआ। उनका राशि नाम दुर्गाप्रसाद रखा गया था। परिवार की धार्मिकता का संस्कार उन्हें मिला और इसी परिवेश में परवरिश होने के कारण धार्मिकता उनके जीवन का एक अंग हो गया। उन्होंने अपने जीवन में लगभग दो घंटे पूजा अवश्‍य किया करते थे। चारों धाम-बद्रीनाथ, द्वारिकाधाम, रामेश्‍वरम~ और जगन्नाथपुरी की पूरी यात्रा उन्होंने की थी। गया श्राद्ध, प्रयाग और काशी श्राद्ध करने के साथ गंगासागर और बाबाधाम की यात्रा भी उन्होंने की। जीवन भर वे सात्विक रहे- सादा जीवन और उच्च विचार को उन्होंने अपनाया।...और इलाहाबाद के महाकुंभ में एक माह का कल्पवास करने के बाद अपने भरे पूरे परिवार को शुक्रवार, दिनांक 24.11.1989 को दोपहर एक बजे 74 वर्ष जीवन का सुख भोगकर स्वर्गारोहण किया। उन्होंने मुझे रामायण और महाभारत की कहानियां सुनाकर धार्मिक वृत्ति से न केवल जोड़ा बल्कि मुझे रचनात्मक लेखन की प्रेरणा दी। मुझे इस दिशा में प्रेरित करने वाले माखन वंश के अंतिम लंबरदार श्री सूरजदीन साव भी थे। सर्व प्रथम विश्‍व हिंदु परिषद द्वारा आयोजित निबंध प्रतियोगिता में गीता के प्रसंगों पर निबंध लिखकर पुरस्कृत होकर लेखन की मैंने शुरूवात की। इस निबंध के लेखन में मुझे मेरे दादा श्री राधवप्रसाद के साथ ही श्री सूरजदीन साव का पूर्ण सहयोग मिला। वृद्ध प्रपितामह के साहित्यिक विरासत और महानदी का संस्कार पाकर मेरी लेखनी अविचल चलने लगी।ऐसा पहली बार हुआ और गोविंदसाव के वंश में एक-एक पुत्र की परंपरा टूटी और राघवप्रसाद के चार पुत्र क्रमश: देवालाल, सेवकलाल, होलीदास और हेमलाल हुए। होलीदास तो बचपन में ही काल कवलित हो गए लेकिन शेष तीनों पुत्रों ने अपने वंश को बढ़ाने में सफल हुए। देवालाल के एक मात्र पुत्र अश्‍वीनी कुमार और पुत्री मीना बाई हुई। सेवकलाल के दो पुत्र संजय कुमार और नरेन्द्र कुमार तथा चार पुत्री मंजुलता, अंजुलता, स्नेहलता और मधुलता हुई। हेमलाल के दो पुत्र अतीत और अमित कुमार और एक मात्र पुत्री अल्पना हुई। इस प्रकार राघवप्रसाद के तीन पुत्र और पांच पौत्र हुए और उनकी वंश परंपरा बढ़ी। राघवप्रसाद के ज्येष्‍ठ पुत्र के रूप में देवालाल का 05. 07. 1934 को जन्म हुआ। उनकी प्राथमिक शिक्षा शिवरीनारायण में और हाई स्कूल की शिक्षा सारंगढ़ और बिलासपुर में हुई। उच्च शिक्षा न कर पाने का उन्हें अफसोस अवश्‍य हुआ था लेकिन मात्र 17 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने घर-परिवार की जिम्मेदारी उठा लिए थे। अपने भाई-बहनों की शिक्षा दीक्षा से लेकर उनके विवाह और नौकरी लगाने तक तथा उनके बच्चों के भी विवाह आदि में पूरा सहयोग देकर अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन किया। देवालाल धीर, गंभीर और सुलझे हुए व्यक्ति थे। कदाचित~ उनके इसी व्यक्तित्व के कारण वे न केवल माखन वंश के बल्कि समाज और शिवरीनारायण, बेलादूला और साजापाली में अत्यंत लोकप्रिय थे। उन्होंने न जाने कितने परिवार को टूटने से बचाया और टूटे परिवार को जोड़ा है। वे अपनी पीढ़ी के एक मात्र व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी पैत्रिक वृत्ति महाजनी को अपनाया। उन्होंने शिवरीनारायण के विकास में अमूल्य योगदान दिया है। आज की पीढ़ी उनके योगदान को शायद न समझ सके। लेकिन यह सत्य है कि शिवरीनारायण में गाम पंचायत के सफलतम सरपंच जहां माखन वंश के श्री तिजाउप्रसाद थे वहीं उनकी इस सफलता के पीछे यहां के उदितनारायण सुलतानिया, देवालाल केशरवानी, गोवर्धन शर्मा, सेवकराम श्रीवास और मोहम्मद अहमद खां का विशेष योगदान था। उनके कार्यकाल में ही यहां शिक्षा का विस्तार हुआ, अनेक स्कूल भवन बने, बिजली और सड़कें बनी, सब्जी बाजार लगने की शुरूवात हुई और जनपद पंचायत जांजगीर से साप्ताहिक मवेशी बाजार और छत्तीसगढ़ के महाकुंभ कहाने वाले मेले की व्यवस्था गाम पंचायत की मिली। इस नगर में चिकित्सा सुविधा के लिए देवालाल ने मंत्रियों और अधिकारियों से मिलकर अपने बहनोई श्री बलदाउ प्रसाद केशरवानी को प्रेरित कर जहां ष्‍प्रयाग प्रसाद केशरवानी शासकीय चिकित्सालयष्‍ की स्थापना करायी और डाक्टरों के रहने-खाने की सुविधा उपलब्ध करायी। इस चिकित्सालय में विद्युत व्यवस्था उन्होंने अपने दादा श्री पचकौड़ साव की स्मृति में कराया था। शासकीय प्राथमिक कन्या शाला को मात्र अपने मित्र श्री गणेश प्रसाद नारनोलिया से शर्त लगाकर खुलवाया था जो आज शासकीय मिडिल कन्या स्कूल के रूप में संचालित है। मध्यप्रदेश शासन के मंत्रियों सर्वश्री डा. रामाचरण राय, श्री वेदराम, श्री बिसाहूदास महंत, श्री चित्रकांत जायसवाल, श्री बी. आर. यादव, भंवरसिंह पोर्ते, डा. कन्हैयालाल शर्मा, श्री रेशमलाल जांगड़े, श्रीधर मिश्रा, मुख्य मंत्री श्री श्‍यामाचरण शुक्ल, और केंदिय मंत्री श्री विद्याचरण शुक्ल से उनकी गहरी पहचान थी। आये दिन उनका कार्यक्रम शिवरीनारायण में कराकर नगर को विकास के मार्ग में ले जाना उनका ध्येय था। खरौद को नगर पालिका बनाये जाने पर नगरवासियों के अनुरोध पर उन्होंने मंत्रियों से अपनी पहचान का लाभ उठाकर शिवरीनारायण को भी नगरपालिका दर्जा तीन बनवाने में सफलता हासिल की। महानदी के रेत में महाराष्‍ट्र के किसानों को तरबूज बोने के लिए उन्होंने बुलवाया जिससे पंचायत की आमदनी बढ़ी। पूरे छत्तीसगढ़ में एकलौता शिवरीनारायण नगर था जहां बिजली के खम्भों में मरकरी बल्ब लगे थे। यही नहीं बल्कि उन्होंने शबरीनारायण मंदिर के गर्भगृह में ष्‍केशरवानी महिला समाजष्‍ द्वारा संकल्पित चांदी के पत्तर से बना दरवाजा को सन 1960 में जीवन मिस्त्री के सहयोग से कलकत्ता से बनवाया था। अपने कुलदेव महेश्‍वरनाथ मंदिर में भोगराग की व्यवस्था करायी। सारंगढ़ और शिवरीनारायण में केशरवानी धर्मशाला के निर्माण में अर्थसंचय में उनका अमूल्य सहयोग था। अपने भाईयों, बहनों को उन्होंने न केवल सत्पथ पर चलने की प्रेरणा दी बल्कि समाज के लिए भी एक मिशाल स्थापित की। अपने परिवार के श्री सूरजदीन साव, श्री विद्याधर साव, श्री तिजाउ प्रसाद, श्री साधराम साव, श्री रामचंदसाव, श्री ईतवारी साव, श्री गिरीचंद साव, श्री मुरीतराम साव, श्री जगदीश प्रसाद, श्री गौटियाराम के प्रिय पात्र रहे वहीं श्री पराउराम, श्री गोरेलाल, श्री शोभाराम के गहरे मित्र रहे। जीवन भर सत्पथ रहकर नि:स्वार्थ सेवा भाव से कार्य करते हुए जीवन के अंतिम समय में उन्होंने भगवत्भजन में अपना मन लगाया... और 67 वर्ष की अवस्था में भौतिक सुख सुविधा का परित्याग कर 16. 04. 2001 को पंच तत्व में विलीन हो गये।राघव साव के द्वितीय पुत्र सेवकलाल ने जहां बैंकिंग सेवा में अपना जीवन सफर तय किया वहीं तृतीय पुत्र हेमलाल ने व्यापार को अपनाया जिसे उन्होंने पुत्र अतीत कुमार के सहयोग से संचालित कर रहे हैं। सेवकलाल के दोनों पुत्र संजय और नरेन्द कुमार टेंट हाउस के व्यापार में संलग्न हैं। देवालाल के पुत्र अश्विनी कुमार शासकीय महाविद्यालय चांपा में प्राध्यापक हैं। उन्होंने अपनी अभिरूचि के अनुसार छत्तीसगढ़ के इतिहास, पुरातत्व और परंपराओं के उपर लिखकर प्रादेशिक और राष्‍ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित किया और अपने वंश को गौरवान्वित किया है। धर्मयुग, अणुवत और नवनीत हिन्दी डाइजेस्ट जैसे राष्‍ट्रीय पत्रिका में बाल मनोविज्ञान विषय पर और कादम्बिनी, दैनिक हिन्दुस्तान में स्वतंत्र स्तम्भ लेखन किया। देश और प्रदेश के सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी है। वे जांजगीर-चांपा जिले और प्रदेश के गिने चुने राष्‍ट्रीय लेखकों में से एक हैं। अपने क्षेत्र के उपर लिखकर अपने जन्म को सार्थक बनाने का प्रयास उन्होंने किया है। शिवरीनारायण, पीथमपुर के उपर शोध गंथ लिखकर वहां के माहात्म्य को प्रकाशित कर सद~कार्य किया है। छत्तीसगढ़ के बिखरे और खंडहर होते मंदिरों और लुप्त हो रही परंपराओं पर कलम चलाकर लोगों का ध्यान आकर्ष्‍शित किया है। छत्तीसगढ़ के भारतेन्दु कालीन गुमनाम साहित्यकारों को प्रकाश में लाने का उनका सराहनीय प्रयास है। उनके इस रचनात्मक और सार्थक लेखन के लिए विभिन्न संगठनों से सम्मानित होकर अपने वंश को गौरवान्वित करने वाले अकेले हैं। आज वे छत्तीसगढ़ राज्य केशरवानी वैश्‍य सभा के अध्यक्ष रहे और सम्प्रति प्रदेश सभा के संरक्षक हैं। प्रदेश के अनेक नगर सभाओं के द्वारा उन्हें ष्‍समाज के गौरवष्‍ के रूप में सम्मानित होने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। उनकी धर्मपत्नी कल्याणी देवी भी एक स्वतंत्र लेखिका हैं और लायनेस क्लब चांपा और नगर केशरवानी महिला सभा की अध्यक्ष, प्रदेश केशरवानी महिला सभा की कोषाध्यक्ष और अखिल भारतीय केशरवानी वैश्‍य महिला महासभा की राष्‍ट्रीय महामंत्री हैं। उनके दो पुत्र प्रांजल कुमार कम्प्यूटर साफ~टवेयर इंजीनियर के रूप में टाटा कंसलटेन्सी सर्विसेस मुम्बई में पदस्थ है वहीं अंजल कुमार नेट प्वाइंट के संचालक है। हेमलाल के दो पुत्रों में अतीत कुमार जहां अपने पिता जी के साथ व्यापार में संलग्न हैं वहीं अमित कुमार मेकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करके अपने पिता के साथ उनके व्यवसाय में संलग्न है। सेवकलाल के पुत्र संजय कुमार के दो पुत्री सृष्टि और साक्षी और एक पुत्र सृजन कुमार है वहीं नरेन्द कुमार के दो पुत्र पियुष और प्रीतुल है। दोनों भाई टेंट व्यवसाय कर रहे हैं।रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,प्रो. अश्विनी केशरवानीराघव, डागा कालोनी,चांपा-495671 छ.ग

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

क्या सोंचते हैं हम बच्चों का रिजल्ट देखकर

क्या सोंचते हैं हम बच्चों का रिजल्ट देखकर
प्रो. अिश्वनी केशरवानीपिछले दिनों मै अपने एक मित्र के घर गया तो देखा कि उनका दस वषीZय बेटा प्रियतोष स्कूल से आया था और वह सिर झुकाये खड़ा हो गया जैसे उससे कुछ अपराध किया हो। उसकी मम्मी ने पूछा- ``क्या बात है´´ ? प्रियतोष ने डरते-डरते परीक्षा परिणाम अपनी मम्मी के हाथ में दे दिया। देखते ही वे गुस्से से कांपने लगी- ``ये माक्र्स आये हैं तुम्हारे ? किसी में चालीस, किसी में पचास, और किसी में अड़तालीस, बस ? तुम्हें पढ़ाकर मैं अपना दिमाग खराब करती थी। वहां जाकर न जाने तुम्हें क्या हो जाता है। भगवान ने तुम्हें अच्छा-खासा दिमाग दिया है, पर तुम उसका इस्तेमाल ही नही करो तो मैं इसमें क्या कर सकती हूं। डांट सुनते ही प्रियतोष रोने लगा, लेकिन उसकी मम्मी का गुस्सा कम नहीं हुआ और तड़ से एक चांटा प्रियतोष के गाल पर पड़ गया। ``... अब रोते क्यों हो ? रोज तो आकर कहते थे कि पेपर अच्छा हुआ है। और इतने खराब नंबर!´´ चांटा पड़ते ही प्रियतोष का रोना बढ़ गया हिचकियों के बीच वह कहने लगा-´´... तो क्या करता, तुमसे कहता कि पेपर बिगड़ गया तो और डांटती। तुम्हीं तो रात के बारह बजे तक पढ़ाती थी। तब मैं पढ़ता नहीं था क्या? अच्छे माक्र्स नहीं आये तो, मैं क्या करूं? स्कूल में टीचर डांटती है और घर पर तुम´´ और प्रियतोष रोते-रोते बेहाल हो गया। हिचकियों से असकी सांस रूकने लगी। उसकी जवाब सुनकर उसकी मां स्तंभित रह गयीं।
इस पूरी घटना के दौरान में मूक दर्शक बना खड़ा रहा। शुरू से ही मैं प्रियतोष और उसकी मां को देख रहा हूं।ं प्रियतोष के स्कूल जाने से लेकर आज तक। जब प्रियतोष ढाई साल का था, उसकी मम्मी उसे जो कुछ सिखाती, उसे वह बहुत जल्दी सीख जाता था। कालोनी के बच्चों को रोज स्कूल जाते देखकर वह भी स्कूल जाने को मचल जाता। उसके स्कूल जाने के प्रति उत्सुकता और कुछ अपनी महत्वाकांक्षा के बीच आखिरकार उसकी उम्र तीन वर्ष बता कर उसे एल. के. जी. में दाखिल करवाया गया। तब उसके पापा-मम्मी बहुत खुश थे। रोज समय निकालकर दोनों उसे पढ़ाते। धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया। प्रियतोष स्कूल से आया नहीं कि उसकी मम्मी उसे पढ़ाने बैठ जाती। न उसे खेलने दिया जाता, न टी. वी. देखने। उसके जिद करने पर या तो कोई ऊंची सीख मिलती या फिर मार, इिम्तहान के समय ही नहीं, अक्सर उसकी मम्मी उसे पढ़ाती थी। जब खुद नही पढ़ा पाती तो उसके पापा पढ़ाने बैठ जाते। औसत से भी ऊंचा बौिद्धक स्तर था प्रियतोष का। याददाश्त में भी कोई कमी नही थी, फिर भी स्कूल से जब भी प्रोगेस रिपोर्ट आती तो घर में रोना-धोना अवश्य होता। पता नहीं दोष किसका था ? भारी भरकम पाठ्यक्रम का, स्कूल के स्तर का या घर में पढ़ने-पढ़ाने के लिए मां-पिता के रवैये का ? प्रियतोष के पहले तो अच्छे नंबर आये। मगर उसके माता-पिता चाहते थे कि उसके नंबर में आशातीत वृिद्ध होनी चाहिए और इसके लिए वे स्कूल से आने के बाद उसे खाने-खेलने का समय भी न देते और पढ़ने-पढ़ाने पर जोर देते। धीरे-धीरे प्रियतोष का दिल पढ़ाई से उचटने लगा। मां के सामने वह पढ़ने का नाटक करने लगा। और आज उसी का परिणाम सामने था।
आज प्राय: सभी घरों में बच्चों की पढ़ाई को लेकर इस प्रकार की समस्या एक चुनौती बनी हुई है। एक ऐसी चुनौती, जिसे पार पाने के साधन क्या हैं, हमें पता नही है। हर अभिभावक के सामने कुछ प्रश्न है, जिनका उत्तर ढूंढना आसान नही है। केवल स्कूल की पढ़ाई के बल पर बच्चे इम्तहान पास नहीं कर सकते। खुद रोज पढ़ाये तो डर यह है कि बच्चे पूरी तरह मम्मी-पापा के ऊपर निर्भर हो कर न रह जाये। फिर हर अभिभावक बिना प्रशिक्षण पाये अच्छी मां या अच्छा पिता तो बन सकता ह,ै लेकिन एक अच्छा अध्यापक बनने के लिए प्रशिक्षण जरूरी होता है।
मुझे एक घटना याद आ रही है हमारे पड़ोस में एक दंपती स्थानांतरित हो कर आये। उनका एक लड़का था, उसे स्थानीय स्कूल में दाखिल करा दिया, बच्चे की सजग, पढ़ी-लिखी आधुनिका युवा मां रोज नन्हे बेटे के स्कूल से आते ही उसका बस्ता खोलती और उसे कुछ खिलाने पिलाने के बाद बैठ जाती होम वर्क कराने। एक हता ही हुआ था कि एक दिन शाम को उसके बेटे के स्कूल की टीचर उनके घर पहुंच गयी। बिना कोई भूमिका बांधे वे पूछने लगी ``क्या आप अपने बेटे को रोज होमवर्क कराती हैं ?´´ ``जी हां´´ मुस्करा कर सगर्व कहा उन्होंने उन्हें आशा थी की टीचर उनकी जिम्मेदारी के अहसास की प्रशंसा करेगी, लेकिन हुआ इसके विपरीत। टीचर बड़ी गंभीरता से कहने लगी- ``देखिए´´ छोटे बच्चों को पढ़ाना हमारा काम है। हमें इसके लिए ट्रेनिंग दी जाती है। गलत तरीके से पढ़ाने का नतीजा जानती हैं आप ? आपका बच्चा सदा के लिए किताबों से चिढ़ सकता है। उसकी जिज्ञासु प्रवृत्ति नष्ट हो सकती है। उसकी प्रतिभा कुंठित हो सकती है। आपका कर्तव्य केवल इतना है कि आप निश्चित समय पर बेटे को पढ़ने के लिए अवश्य बैठा दें। उसकी पढ़ाई में हस्तक्षेप न करें, यदि उसे कोई कठिनाई हो तो उसे दूर करने में सहायता अवश्य करें।´´
उक्त घटना ने मुझे प्रभावित किया और मैं इस विषय पर विचार करने लगा। आजकल स्कूल विशेषकर अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के बच्चों की पढ़ाई उनके ऊपर और उनके मां-बाप पर एक बोझ है, जिसे कम करने की जिम्मेदारी कम-से-कम अभी तो अभिभावक के हिस्से में आती है। यहां विचार करने की बात यह है कि आखिर ये समस्याएं बनती क्यों हैं ?
बच्चों का पाठ्यक्रम जिस तेजी से बढ़ा है, उसी तेजी से कक्षाओं में बच्चों की संख्या भी बढ़ी है, लेकिन इन दोनों में तालमेल बैठाने के लिए हर टीचर को प्रशिक्षा प्राप्त नहीं हो पाता। कोर्स खत्म करने को ही अधिक महत्व दिया जाता है। बच्चों ने विषय को समझ लिया या नहीं, उसका अभ्यास हुआ या नहीं, इस विषय पर ध्यान नहीं दिया जाता। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बच्चों को दाखिला दिलाने की होड़ इसलिए बढ़ती जा रही है, क्योंकि इन्हीं स्कूलों से पढ़े बच्चे जीवन में अधिक सफल होते नजर आते हैं। अंग्रेजी माध्यम होने के कारण हर बच्चे पर दोहरा बोझ होता है- एक तो नयी भाषा सीखने और सीख कर उसे लिखने का। इसमें मां-बांप को पढ़ाना आवश्यक हो जाता है।
बच्चों को पढ़ाते वक्त अपना बौिद्धक स्तर बच्चों से ज्यादा न रखें। अगर आप उच्च स्तर से बच्चों की कठिनाइयों को दूर करने लगेंगे, तो वह गड़बड़ा जायेगा। अत: सावधानी रखें। पढ़ाते समय बच्चे से उसकी पढ़ाई के बारे में पूछे- आज क्या पढ़ाया गया स्कूल में, उसे कौन सा पाठ या कौन सी बात समझ में नहीं आयी। इसके साथ-साथ यह भी जानने की कोशिश करें कि किसी विषय को नहीं समझ पाने के पीछे कुछ भावनात्मक कारण तो नहीं है ? कई बार भावनात्मक कारणों से भी बच्चे पढ़ने से कतराने लगते हैं। एक बार मेरी बिटिया तृप्ति गुस्से में अपने विज्ञान टीचर को कोसते हुए कह रही लगी- ``पता नही ऐसे टीचर को स्कूल में क्यों रखा जाता है? भले मैं कितना भी अच्छा पढ़-लिख लूं ,मगर परीक्षा में उनकी बेटी से कम ही नंबर मिलते हैं। इससे पढने को मन नही करता ...`` मुझे उसकी बातों ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया। मैंने उसके स्कूल के प्रधानाचार्य से मिलकर वस्तुस्थिति पर बात की। प्रधानाचार्य ने दोनों बच्चों की कापी स्वयं चेक की और इस बार तृप्ति को सफलता मिली। यानी ऐसी समस्याओं के लिए बच्चों के टीचर और उनके प्रधानाचार्य से मिलते रहना चाहिए।
बच्चों को नियमित रूप से पढ़ाना चाहिए इससे वह अपने पाठ को अच्छे से समझेगा। मगर ऐसा कभी न करें जो ज्यादतीपूर्ण और बच्चे के अनुकूल न हो। ऐसे अभिभावक बच्चोें को ढंग से समझााने के बजाय गुस्सा होकर मारने-पीटने लगते हैं। जिससे बच्चों का मानसिक विकास नहीं हो पाता और बच्चे की प्रतिभा कुंठित होने लगती है। अत: पढ़ाई का समय निर्धारित करते समय बच्चे की रूचि का भी ध्यान रखें। बच्चों को प्यार से पढ़ाना चाहिए। आपने यदि डांटते हुए पढ़ाना शुरू किया, तो बच्चे को आपके पास बैठने में डर लगेगा, वह सहमा रहेगा। खुलकर अपनी कठिनाइयों को बता नहीं पायेगा। इसी प्रकार यदि किसी कारण से आपका मूड ठीक नहीं है, तो उस दिन बच्चे को न पढ़ायें। अगर आप चिड़चिड़े मन से पढ़ाने लगेंगे, तो आपके मन की सारी खीज बेकसूर बच्चे पर उतरेगी।
बच्चे के मनोबल को बनाये रखने के लिए प्रोत्साहन जरूरी है। इसलिए कठिन पाठ पढ़ाते समय उससे कहिए कि कठिन पाठ को समझने में थोड़ी कठिनाई तो होती ही है। अत: घबराने के बजाय मन लगाओ, सब समझ में आ जायेगा। आपके इस प्रकार धीरज बांधने से उसका मनोबल बना रहेगा। कुछ मांएं ऐसे समय में अपनी शान बघारने लगती हैं। पिछले दिनों ऐसी ही एक महिला से मेरी मुलाकात हुई, जो अपने बच्चे को पढ़ाते समय हमेशा कहती थीं- ``मैं तो हमेशा फस्र्ट आती थी। कोई भी पाठ एक बार में ही समझ में आ जाता था और एक तू है, एकदम बुद्धू।`` उनके लगातार इस प्रकार कहते रहने से उसकी बच्ची का आत्मविश्वास डगमगा गया।
बच्चों को पढ़ाते समय कभी-कभी उनका दोस्त बन जाइए। आपको भी आनंद आयेगा और बच्चों को भी। कल्याणी यही करती हैं। बाजार से विभिन्न पशु-पक्षियों, फूलों, ए.बी.सी.डी. और गिनती का चार्ट और नक्शा ला कर उन्होंने एक कमरे में टांग दिया है। जब भी खाली समय मिलता है, बच्चों की रूचि के अनुसार पढ़ा देती हैं। तृप्ति और टीसू इसे एक खेल समझ कर पढ़ते रहते हैं।
एन.सी.इ.आर.टी. के चाइल्ड स्टडी यूनिट के प्रोफेसर उपदेश बेवली का कहना है कि ``हमारी शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह है कि हम सिर्फ अंतिम लक्ष्य की प्रिाप्त को ही महत्व देते हैं, शिक्षण विधि को नही´´ आवश्यकता इस बात की है कि हम सही शिक्षण विधि अपनायें। अधिकांश अभिभावक बच्चोें को गलत ढंग से पढ़ाते है, जिससे बच्चा बिना समझे विषय को रटने की कोशिश करता है। इससे बाद में पढ़ने के प्रति अरूचि पैदा होने लगती है। बच्चों को प्रारंभिक दिनों में प्रत्यक्ष दर्शन के द्वारा सिखाना चाहिए जो कुछ भी सिखाये खेल-खेल में सिखायें ताकि उसे समझकर सीखने का अवसर मिले। अपने आस-पास के वातावरण में ही उसे बहुत सी वस्तुएं दिखा कर तमाम बातें समझायी जा सकती है। इससे बच्चे की चिंतन शक्ति का विकास होता है। अभिभावकों को चाहिए कि घर में इस तरह वातावरण बनायें, जिससे बच्चे की पढ़ने में रूचि बढ़े। इसके लिए प्रशंसा व प्रोत्साहन से बढ़ कर कोई उपाय नही है।
रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अिश्वनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)

शिवरीनारायण की रथयात्रा





शिवरीनारायण की रथयात्रा

- प्रो. अश्विनी केशरवानी
महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी के त्रिधारा संगम के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण और ''छत्तीसगढ़ की जगन्नाथपुरी`` के नाम से विख्यात शिवरीनारायण बिलासपुर से ६४ कि. मी., राजधानी रायपुर से बलौदाबाजार से होकर १२० कि. मी., जांजगीर जिला मुख्यालय से ६० कि. मी., कोरबा जिला मुख्यालय से ११० कि. मी. और रायगढ़ जिला मुख्यालय से सारंगढ़ होकर ११० कि. मी. की दूरी पर अवस्थित है। अप्रतिम सौंदर्य और चतुर्भुजी विष्णु की मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कंद पुराण में इसे श्री पुरूषोत्तम और श्री नारायण क्षेत्र कहा गया है। हर युग में इस नगर का अस्तित्व रहा है और सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर और द्वापरयुग में विष्णुपुरी तथा नारायणपुर के नाम से विख्यात यह नगर मतंग ऋषि का गुरूकुल आश्रम और शबरी की साधना स्थली भी रहा है। भगवान श्रीराम और लक्ष्मण शबरी के जूठे बेर यहीं खाये थे और उन्हें मोक्ष प्रदान करके इस घनघोर दंडकारण्य वन में आर्य संस्कृति के बीज प्रस्फुटित किये थे। शबरी की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लि 'शबरी-नारायण` नगर बसा है। भगवान श्रीराम का नारायणी रूप आज भी यहां गुप्त रूप से विराजमान हैं। कदाचित् इसी कारण इसे ''गुप्त तीर्थधाम`` कहा गया है। याज्ञवलक्य संहिता और रामावतार चरित्र में इसका उल्लेख है। भगवान जगन्नाथ की विग्रह मूर्तियों को यहीं से पुरी (उड़ीसा) ले जाया गया था। प्रचलित किंवदंती के अनुसार प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है।

स्कंद पुराण में शबरीनारायण (वर्तमान शिवरीनारायण) को ''श्रीसिंदूरगिरिक्षेत्र`` कहा गया है। प्राचीन काल में यहां शबरों का शासन था। द्वापरयुग के अंतिम चरण में श्रापवश जरा नाम के शबर के तीर से श्रीकृष्ण घायल होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। वैदिक रीति से उनका दाह संस्कार किया जाता है। लेकिन उनका मृत शरीर नहीं जलता। तब उस मृत शरीर को समुद्र में प्रवाहित कर दिया जाता है। आज भी बहुत जगह मृत शरीर के मुख को औपचारिक रूप से जलाकर समुद्र अथवा नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। इधर जरा को बहुत पश्चाताप होता है और जब उसे श्रीकृष्ण के मृत शरीर को समुद्र में प्रवाहित किये जाने का समाचार मिलता है तब वह तत्काल उस मृत शरीर को ले आता है और इसी श्रीसिंदूरगिरि क्षेत्र में एक जलस्रोत के किनारे बांस के पेड़ के नीचे रखकर उसकी पूजा-अर्चना करने लगा। आगे चलकर वह उसके सामने बैठकर तंत्र मंत्र की साधना करने लगा। इसी मृत शरीर को आगे चलकर ''नीलमाधव`` कहा गया। इसी नीलमाधव को १४ वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने पुरी में ले जाकर स्थापित करने की बात कही है। डॉ. जे. पी. सिंहदेव और डॉ. एल. पी. साहू ने ''कल्ट ऑफ जगन्नाथ`` और ''कल्चरल प्रोफाइल ऑफ साउथ कोसला`` में लिखते हैं-''भगवान नीलमाधव की मूर्ति को शबरीनारायण से पुरी लाने वाला पुरी के राजपुरोहित विद्यापति नहीं थे बल्कि उन्हें तांत्रिक इंद्रभूति ने संभल पहाड़ी की एक गुफा में ले जाकर उसके सम्मुख बैठकर तंत्र मंत्र की साधना किया करता था। यहीं उन्होंने ''वज्रयान बुद्धिज्म`` की स्थापना की। उन्होंने तिब्बत जाकर लामा सम्प्रदाय की भी स्थापना की थी। बंगाल की राजकुमारी लक्ष्मींकरा जो बाद में पटना के राजा जैलेन्द्रनाथ से विवाह की, वह इंद्रभूति की बहन थी। इंद्रभूति के वंशज तीन पीढ़ी तक नीलमाधव के सम्मुख बैठकर तंत्र मंत्र की साधना करते रहे बाद में उस मूर्ति को पुरी में ले जाकर भगवान जगन्नाथ के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। पहले जगन्नाथ पुरी के इस मंदिर में तांत्रिकों का कब्जा था जिसे आदि गुरू शंकराचार्य ने उनसे शास्त्रार्थ करके उनके प्रभाव से मुक्त कराया।
इधर जरा अपने नीलमाधव को न पाकर खूब विलाप करने लगा और अन्न जल त्याग कर मृत्यु का वरण करने के लिए उद्यत हो गया तभी भगवान नीलमाधव अपने नारायणी रूप का उन्हें दर्शन कराया और यहां गुप्त रूप से विराजित होने का वरदान दिये। उन्होंने यह भी वरदान दिया कि प्रतिवर्ष माघपूर्णिमा को जो कोई मेरा दर्शन करेगा वह मोक्ष को प्राप्त कर सीधे बैकुंठधाम को जाएगा। तब से यह गुप्तधाम कहलाया। आज भी यहां भगवान नारायण का मोक्षदायी स्वरूप विद्यमान है और उनके चरण को स्पर्श करता ''रोहिणी कुंड`` विद्यमान है जिसकी महिमा अपार है। प्राचीन कवि श्री बटुकसिंह ने रोहिणी कुंड को एक धाम माना है-''रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर`` जबकि सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने शबरीनारायण माहात्म्य में मुक्ति पाने का एक साधन बताया है :-
रोहिणि कुंडहि स्पर्श कर चित्रोत्पल जल न्हाय।
योग भ्रश्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय।।
तथ्य चाहे जो हो, पुरी के जगन्नाथ मंदिर और शबरीनारायण मंदिर में बहुत कुछ समानता है। दोनों मंदिर तांत्रिकों के कब्जे में था जिसे क्रमश: आदि गुरू शंकराचार्य और स्वामी दयाराम दास ने शास्त्रार्थ करके तांत्रिकों के प्रभाव से मुक्त कराया। शबरीनारायण में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों का कब्जा था। चूंकि शबरीनारायण से होकर जगन्नाथपुरी जाने का मार्ग था। पथिकों को यहां के तांत्रिक शेर बनकर डराते और अपने प्रभाव से मारकर खा जाते थे। इसलिए इस मार्ग में जाने में यात्री गण भय खाते थे। एक बार स्वामी दयाराम दास ग्वालियर से तीर्थाटन के लिए घूमते हुए रत्नपुर पहुंचे। उनकी विद्वता और पांडित्य से रत्नपुर के राजा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें शबरीनारायण के मंदिर और मठ की व्यवस्था करने का दायित्व सौंपा। स्वामी दयाराम दास जब शबरीनारायण पहुंचे तब वहां के तांत्रिक उन्हें भी डराने के लिए शेर बनकर झपटे लेकिन ऐसा चमत्कार हुआ कि शेर के रूप में तांत्रिक उनका कुछ नहीं बिगाड़ सके। बाद में तांत्रिकों के गुरू कनफड़ा बाबा के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ जिसमें कनफड़ा बाबा को पराजय का सामना करना पड़ा और डर के मारे वे जमीन के भीतर प्रवेश कर गये। इस प्रकार शबरीनारायण के मठ और मंदिर नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों के प्रभाव से मुक्त हुआ, जगन्नाथ पुरी जाने वाले यात्रियों को तांत्रिकों के भय से मुक्ति मिली और यहां रामानंदी सम्प्रदाय के वैष्णवों का बीजारोपण हुआ। यहां के मठ के स्वामी दयाराम दास पहले महंत हुए और तब से आज तक इस वैष्णव मठ में १४ महंत हो चुके हैं जो एक से बढ़कर एक धार्मिक, अध्यात्मिक और ईश्वर भक्त हुए। उनकी प्रेरणा से अनेक मंदिर, महानदी के किनारे घाट और मंदिर की व्यवस्था के लिए जमीन दान में देकर कृतार्थ ही नहीं हुए बल्कि इस क्षेत्र में भक्ति भाव की लहर फैलाने में मदद भी की। जिस स्थान पर कनफड़ा बाबा जमीन के भीतर प्रवेश किये थे उस स्थान पर स्वामी दयाराम दास ने एक ''गांधी चौरा`` का निर्माण कराया। प्रतिवर्ष माघ शुक्ल तेरस और आश्विन शुक्ल दसमी (दशहरा) को शिवरीनारायण के महंत इस गांधी चौरा में बैठकर पूजा-अर्चना करते हैं और प्रतीकात्मक रूप से यह प्रदर्शित करते हैं कि वैष्णव सम्प्रदाय तांत्रिकों के प्रभाव से बहुत उपर है। शिवरीनारायण के दक्षिणी द्वार के एक छोटे से मंदिर के भीतर तांत्रिकों के गुरू कनफड़ा बाबा की पगड़ीधारी मूर्ति है और बस्ती के बाहर एक ''नाथ गुफा'' के नाम से एक मंदिर है जिससे इस तथ्य की पुष्टि होती है।
शबरीनारायण में मठ के भीतर संवत् १९२७ में महंत अर्जुनदास जी की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार श्री राजसिंह ने जगन्नाथ मंदिर की नींव डाली जिसे उनके पुत्र श्री चंदनसिंह ने पूरा कराया और उसमें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की विग्रह मूर्तियों की स्थापना करायी। संवत् १९२७ में ही उन्होंने महंत अर्जुनदास जी की प्रेरणा से महानदी के तट पर योगियों के निवासार्थ एक भवन का निर्माण कराया। इसे ''जोगीडीपा`` कहते हैं। रथयात्रा के बाद भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी यहां एक सप्ताह विश्राम करते हैं। इस कारण इसे ''जनकपुर`` भी कहा जाता है। पहले रथयात्रा में पंडित कौशलप्रसाद द्विवेदी के घर की मूर्तियों को रथ में निकाला जाता था। बाद में जब मठ की मूर्तियों को निकाला जाने लगा तब दो रथ में दोनों जगहों की मूर्तियां निकाली जाने लगी। आज केवल मठ की मूर्तियां ही रथ में निकाले जाते हैं।
रथयात्रा यहां का एक प्रमुख त्योहार है। प्राचीन काल से यहां रथयात्रा का आयोजन मठ के द्वारा किया जा रहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार महंत गौतमदास ने यहां रथयात्रा की शुरूआत की और महंत लालदास ने उसे सुव्यवस्थित किया। मठ के मुख्तियार पंडित कौशलप्रसाद तिवारी को हमेशा स्मरण किया जायेगा। उन्होंने ही यहां रामलीला, रासलीला, नाटक, रथयात्रा, और माघी मेला को सुव्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। रथयात्रा के लिए जगन्नाथ पुरी की तरह यहां भी प्रतिवर्ष लकड़ी का रथ निर्माण कराया जाता था जिसे बाद में बंद कर दिया गया और एक लोहे का रथ बनवाया गया है जिसमें आज रथयात्रा निकलती है। शिवरीनारायण और आसपास के हजारों-लाखों श्रद्धालु यहां आकर रथयात्रा में शामिल होकर और रथ खींचकर पुण्यलाभ के भागीदार होते हैं। जगह-जगह रथ को रोककर पूजा-अर्चना की जाती है। प्रसाद के रूप में नारियल, लाई और गजामूंग दिया जाता है। मेला जैसा दृश्य होता है। इस दिन को सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में बड़ा पवित्र दिन माना जाता है। इस दिन बेटी को बिदा करने, बहू को लिवा लाने, नये दुकानों की शुरूआत और गृह प्रवेश जैसे महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कराये जाते हैं। इस दिन अपने स्वजनों, परिजनों और मित्रों के घर मेवा-मिष्ठान भिजवाने की परम्परा है। बच्चे नये कपड़े पहनते हैं और उन्हें खर्च करने के लिए पैसा दिया जाता है। उनके लिए यह एक विशेष दिन होता है। सद्भाव के प्रतीक रथयात्रा आज भी यहां श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है। शिवरीनारायण को ''छत्तीसगढ़ की जगन्नाथ पुरी`` कहा जाता है। राजिम में भगवान साक्षी गोपाल विराजमान हैं और ऐसी मान्यता है कि शिवरीनारायण के बाद राजिम की यात्रा और भगवान साक्षी गोपाल का दर्शन करना आवश्यक है अन्यथा उनकी यात्रा निरर्थक होता है। इसी लिए प्राचीन कवि श्री बटुसिंह शिवरीनारायण माहात्म्य में गाते हैं-
मास अषाढ़ रथ दुतीया, रथ के किया बयान।
दर्शन रथ को जो करे, पावे पद निर्वान ।।
जिस प्रकार जगन्नाथ पुरी को ''स्वर्गद्वार'' कहा जाता है और कोढ़ियों का उद्धार होता है। उसी प्रकार शिवरीनारायण की भी महत्ता है। कवि बटुकसिंह श्रीशिवरीनारायण-सिंदूरगिरि माहात्म्य में लिखते हैं :-
क्वांर कृष्णों सुदि नौमि के होत तहां स्नान।
कोढ़िन को काया मिले निर्धन को धनवान।।
शिवरीनारायण में बिलासपुर रोड में एक पुराना कोढ़ी खाना है और यहां एक लेप्रोसी विशेषज्ञ के रूप में डॉ. एम. एम. गौर की नियुक्ति भी हुई थी। बाद में उन्हीं के सलाह पर प्रयागप्रसाद केशरवानी चिकित्सालय की स्थापना की गयी थी। शिवरीनारायण से पांच कि.मी. की दूरी पर स्थित दुरपा गांव को अंग्रेज सरकार द्वारा ''लेप्रोसी गांव'' घोषित किया गया था। इस गांव में आना-जाना पूर्णत: प्रतिबंधित था। शिवरीनारायण से ७० कि.मी. पर चांपा में सोंठी कुष्ठ आश्रम है। इसी प्रकार बिलासपुर रायपुर रोड में बैतलपुर में भी एक कुष्ठ आश्रम है, जहां कोढ़ियों का इलाज होता है और अनेक प्रकार के उद्योग उनके द्वारा चलाये जाते हैं। उनके बच्चों के रहने और पढ़ने आदि का पूरा इंतजाम किया जाता है। सरकार इस संस्था को हर प्रकार का सहयोग प्रदान करती है। ऐसे मुक्तिधाम को पुरी क्षेत्र कहा गया है :-
शिवरीनारायण पुरी क्षेत्र शिरोमणि जान।
याज्ञवल्क्य व्यासादि ऋषि निजमुख करत बखान।।
ऐसे पवित्र और तीर्थ नगर शिवरीनारायण को नारायण धाम के रूप में जाना जाता है। यहां भगवान विश्णु के चतृर्भुजी मूर्तियों की अधिकता है। यहां एक प्राचीन वैष्णव मठ भी है। कदाचित इसी कारण इसे विष्णुकांक्षी तीर्थ नगर कहा जाता है। चित्रोत्पला गंगा (महानदी) के तट पर अवस्थित शिवरीनारायण में प्राचीनता के अवशेष मिलते हैं। सभी युग में इस नगर का अस्तित्व था और इसे अनेक नामों से जाना जाता था। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने शिवरीनारायण माहात्म्य में लिखते हैं :-
नारायण के कलाश्रित जानिय धामहि एक
प्रथम विष्णुपुरि नाम पुनि रामपुरि हूं नेक
चित्रोत्पल नदि तीर महि मंडित अति आराम
बस्यो यहां बैकुंठपुर नारायणपुर धाम
भासति तहं सिंदूरगिरि श्रीहरि कीन्ह निवास
कुंड रोहिणी चरण तल भक्त अभीष्ट प्रकास।
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रचना, लेखन एवं प्रस्तुति:
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा-४९५६७१