बुधवार, 23 जनवरी 2008

डेरागढ़ की यात्रा, जो भुलाये नहीं भूलती ...


मेरा गांव

डेरागढ़ की यात्रा, जो भुलाये नहीं भूलती ...

प्रो. अिश्वनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत बाराद्वार से लगभग पांच कि. मी. तथा लवसरा से मात्र एक कि. मी. की दूरी पर स्थित ग्राम डेरागढ़ अपनी प्राचीनता के कारण जाना जाता है। पिछली बार यहां शासकीय महाविद्यालय चांपा का राष्ट्रीय सेवा योजना का िशविर लगा था। कार्यक्रम अधिकारी प्रो. भूपेन्द्र पटेल के आग्रह पर मुझे यहां जाने का सौभाग्य मिला। महाविद्यालय के राष्ट्रीय सेवा योजना के िशविर को यहां लगाने के पीछे यहां के ग्रामीण लोगों में साक्षरता के प्रति रूचि पैदा करना था। युवा िशविरार्थियों के द्वारा अनेक ग्रामीण समस्याओं के निराकरण के लिए सम्बंधित अधिकारियों से संपर्क किया जिसमें उन्हें आशातीत सफलता मिली। इससे ग्रामीणों में उत्सुकता बढ़ी और वे िशविरार्थियोंं के हर कामों में साथ देने लगे। प्रात: िशविरार्थी व्यायाम के साथ श्रमदान करते थे, दोपहर को भोजनोपरांत अनेक विद्वानों के सानिघ्य मेंं बौिद्यक चर्चा और रात्रि में सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता था। 10 दिनों तक गांव में एक प्रकार से उत्सव का माहौल बन गया था। आसपास के गांवों के ग्रामीणों की सहभागिता से इसमें चार चांद लग गया था।
डेरागढ़ में मैंने एक गढ़ देखा। लोगों ने मुझे बताया कि प्राचीन काल में यहां किसी राजा का शासन रहा होगा ? मैंने देखा कि एक ऊंचा टिला और उसके चारों ओर खाई में पानी भरा है जो प्राचीन मृतिका गढ़ का बोध कराता है। यहां एक पेड़ के नीचे बहुत सारे पत्थर के टुकड़ों को ग्रामीणजन देवता के रूप में पूजते हैं और प्रत्येक शुभ कायोZ में देवालय यात्रा करके उन्हें आमंत्रित करना नहीं भूलते। लोगों का ऐसा विश्वास है कि इससे गांव खुशहाल रहता है अन्यथा विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। मैंने पानी के रिमिझम फुहारों के साथ यहां के पुरावशेषों को समेटने हेतु अपनी डेरागढ़ की यात्रा शुरू की। फिसलते स्कूटर के चक्के को बचाता मैं धीमी गति से डेरागढ़ की ओर बढ़ रहा था। मेरा मन तो पहले से ही वहां पहुचकर अवलोकन कर रहा था ... मैं सोच रहा था कि कैसा होगा डेरागढ़ ? इसी उधेड़बुन में मैं डेरागढ़ की अनजानी राह में बढ़ता जा रहा था। चांपा से 24 कि. मी. चलकर बाराद्वार पहुचा, सोचा कि कुछ पूछताछ कर चाय-पानी पी लूं मगर डेरागढ़ जल्दी पहुचने की ललक ने मुझे वहां रूकने नहीं दिया और मैं वहां से डोलामाइट की खानों के बीच के रास्ते से बढ़ने लगा। मरघट और तलाबों को पार किया तो देखा कि यहां पर पहाड़ों जैसी ऊंचाई और खाई जैसी गहराई है। मुझे लगा हमारे पूर्वज नििश्चत रूप से हमसे बहुत विकसित रहे होंगे क्यों कि जिस पहाड़ और खाई की कल्पना मैं आज कर रहा हूं उसे वे अपने श्रम से बहुत पहले पूरा किये होंगे ? मैंने देखा यह आयरन अयस्क डोलामाइट की खान है जिसकी खुदाई से ये स्थिति निर्मित हुई है। पहले यहां एक निजी कम्पनी के द्वारा खुदाई कराया जाता था बाद में प्रबंधन और श्रमिक के बीच विवाद के चलते खुदाई का काम पिछले कई वषोZ से बंद है और श्रमिक की स्थिति बड़ी दयनीय है। कई बार ऐसी स्थिति श्रमिक नेताओं के स्वार्थ के कारण निर्मित हो जाता है। आज तो श्रमिक की कम और आटोमेटिक मशीन की मांग अधिक है जिससे छत्तीसगढ़ के श्रमिक पलायन करने को मजबूर हैं। श्रमिक नेता श्री बेनीराम साहू इसे श्रमिक के साथ धोखा मानते हैं।
मैं सोचने लगा कि इतना उत्कृष्ट लौह अयस्क यहां पाया जाता है जिसे खोदकर अन्यत्र भेजा जाता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि यहां एक स्टील प्लांट लगा दिया जाये ? इससे छत्तीसगढ़ शासन को फायदा भी होता और पलायन करते श्रमिकों को काम मिल जाता और यह नगर राष्ट्रीय नक्शे में आ जाता ? मेरी विचार श्रृंखला तब टूटी जब मैं लोगों के बताये मार्ग में चलकर तालाबों को पारकर डेरागढ़ की बस्ती में प्रवेश किया और िशविरार्थियों ने तालियों से मेरा स्वागत किया। िशविरार्थियों और गामीणों के आत्मीय स्वागत से मैं भाव विभोर हो गया। थोड़ी देर विश्राम करके मैं प्रो. पटेल और कुछ गामीणों के साथ गांव भ्रमण के लिए निकल पड़ा। मेरे आने का समाचार इस छोटे से गांव में आग की तरह फैल गया और गांव के बुजुर्ग भी मेरे साथ हो लिए। गांव की गुड़ी में गांव के तत्कालीन सरपंच श्री सफेदराम साहू मिल गए उनका आत्मीय स्वागत मेरे मन का ेजीत लिया। सबके साथ मैं गांव की गलियों को पार करके एक ऐसी जगह पहुंचे जहां से पूरा गांव दिखाई देने लगा। `.. यही गढ़ी है..` लोगों ने मुझे बताया। मैं देखा, चारों ओर पानी से भरा गहरी खाई और उसके चारों ओर एक ऊंचा टिला। यहां का पानी कभी नहीं सूखता और हम इससे खेतों में सिंचाई भी करते हैं, लोगों ने मुझे बताया। गढ़ी में चार-छै पेड़ का एक समूह भी है और उसकी जड़ों में विभिन्न आकृतियों वाला कई मूर्तियां जिसे लोग ग्राम देव के रूप में पूजते हैं। ग्रामीणों की श्रद्धा देखकर मैं भाव विहल हो उठा। मैं उनकी श्रद्धा को बिना ठेस पहुंचाये अपने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और फोटोग्राफी करने लगा। आगे एक तालाब के पार में एक मंदिर में िशव लिंग के साथ एक मानवाकृति को लोगों ने यहां का शासक बताया। पास पड़ी मूर्ति को लोगों ने समलाई दाई बताया। इस प्रकार मैं गांव का भ्रमण करके गुड़ी में आ गया और बुजुगोZ से चर्चा करने लगा।
वास्तव में गढ़ का अर्थ है किला। सामान्य अथोZ में गढ़ में किसी रियासत की कल्पना होती है जहां किसी राजा का निवास होता है। जहां एक सुदृढ़ किला होता है और वहां की सुरक्षा के लिए सैन्यबल, सुरक्षा समाग्री और अन्नादि संग्रहित होती है। सारंगढ़, रायगढ़, चैतुरगढ़, खैरागढ़ आदि इसके उदाहरण हैं। ये राजाओं के शक्ति केंद्र थे, जिसका किला जितना सुदृढ़ और सुरक्षित होता था वह उतना ही शक्तिशाली माना जाता था। स्वतंत्रता के बाद इन किलों और गढ़ों के देखरेख नहीं होने से ये सब खंडहरों में बदल गए हैं।
छत्तीसगढ़ के इतिहास में इन किलों और गढ़ों का बहुत महत्व है। लोगों का विश्वास है कि 36 गढ़ों के कारण ही इसका नाम 36 गढ़ पड़ा है। इतिहासकारों ने इसके बारे में बहुत से तर्क प्रस्तुत किये हैं। रत्नपुर के कलचुरी शासकों की जमाबंदी पुस्तक में भी रत्नपुरराज और रायपुर राज के 36 गढ़ों को मिलाकर छत्तीसगढ़ निर्माण की बातें हैं। यह बात अलग है जांजगीर-चांपा जिले में ही 36 से भी अधिक मृतिका गढ़ है, पूरे छत्तीसगढ़ में ऐसे न जाने कितने गढ़ होंगे ? पुराविद् और उप संचालक श्री राहुल कुमार सिंह ने इन मृतिका गढ़ों को प्रशासनिक गढ़ माना है जो कर वसूली के केंद्र थे। मैं भी उनकी बातों से सहमत हूं। बहरहाल छत्तीसगढ़ के 14 रियासत क्रमश: रायगढ़, सारंगढ़, सक्ती, खैरागढ़, राजनांदगांव, छुईखदान, कवर्धा, कांकेर, जगदलपुर, सरगुजा, कोरिया, जशपुर, उदयपुर और चांगभखार की सबसे छोटी रियासत सक्ती के अंतर्गत लवसरा खालसा के अंतर्गत डेरागढ़ गांव प्राचीन मृतिका गढ़ रहा है। आज यहां साहू और अनुसूचित जाति के लागों की बहुलता है। लेकिन कृषि कार्य के बाद लोग यहां पलायन करके मजदूरी करने लगते हैं। भौतिक सुख सुविधाओं के चलते यहां के पढ़े लिखे लोग आसपास के शहरों में रहने लगे हैं। गांव में आवागमन की सुविधा का प्रसार हुआ है, शहरी संस्कृति भी घुस गई है और गांव मेंं भी लोग अर्द्ध शहरी से लगते हैं। गांव के खेत बंजर होते जा रहे हैं और लोग व्यापार के साथ मजदूरी करके जीवन यापन करने लगे हैं। तालाब स्वच्छ नीर नहीं रहे, अब इसमें मछली का पालन होने लगा है, कुओं का पानी अब सूख गया है उसके स्थान पर घरो में बोरिंग खुद गया है। लोगों के रहन सहन में भी बदलाव आ गया है। लोग धोती और अंगरखा की जगह पेंट शर्ट पहनने लगे हैं।
रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अिश्वनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा (छ. ग.)

1 टिप्पणी:

कजरी ठुमरी ने कहा…

जब गुना के कॉलेज में पढ़ता था तो पढ़ाई में ज्यादा समय देने के विचार से एनसीसी और एनएसएस से दूर ही रहा। लेकिन एनएसएस के कैंप से लौटने वाले लड़को से किस्से सुनकर लगता था मैं भी उनमे शिरकत करुं। गुना, ग्वालियर छूटे और दिल्ली आया तो एनसीसी और एनएसएस भी दिमाग से गुम हो गये। आपका लेख पढ़कर एक बार फिर पुराने किस्से याद आ गये हैं। मैं महसूस करता हूं कि जो लोग इस तरह की गतिविधियों में शरीक नहीं होते हैं वो ज़िंदगी में कुछ ना कुछ ज़रुर खोते हैं। अजय शर्मा