शनिवार, 26 जनवरी 2008

लखनेश्वर दर्शन करि कंचन होत शरीर ...





यात्रा संस्मरण

लखनेश्वर दर्शन करि कंचन होत शरीर ...
प्रो. अिश्वनी केशरवानी

खरौद, महानदी के किनारे बिलासपुर से 64 कि. मी., जांजगीर-चांपा जिला मुख्यालय से 55 कि. मी., कोरबा से 105 कि. मी., राजधानी रायपुर से बलौदाबाजार होकर 120 कि. मी. और रायगढ़ से सारंगढ़ होकर 108 कि. मी. और शिवरीनारायण से मात्र 02 कि. मी. की दूरी पर बसा एक नगर है। शैव परम्परा यहां स्थित लक्ष्मणेश्वर महादेव और शैव मठ से स्पष्ट परिलक्षित होता है। जबकि शिवरीनारायण वैष्णव मठ, नारायण मंदिर और चतुभुZजी मूर्तियों के कारण वैष्णव परम्परा का द्योतक है। संभवत: इसी कारण खरौद और शिवरीनारायण को क्रमश: शिवाकांक्षी और विष्णुकांक्षी कहा जाता है और इसकी तुलना भुवनेश्वर के लिंगराज और पुरी के जगन्नाथ मंदिर से की जाती है। प्राचीन काल में ज्रगन्नाथ पुरी जाने का रास्ता खरौद और शिवरीनारायण से होकर जाता था। भगवान जगन्नाथ को शिवरीनारायण से ही पुरी ले जाने की बात कही जाती है। इसी प्रकार यहां सतयुग और त्रेतायुग में मतंग ऋषि के गुरूकुल आश्रम होने की जानकारी मिलती है। शबरी यहां रहकर निर्वासित जीवन व्यतीत की और उनके जूठे बेर भगवान श्रीराम और लक्ष्मण यहीं खाये थे ... उनका उद्धार करके उनकी मंशानुरूप शबरीनारायण नगर बसाकर उनकी स्मृति को चिरस्थायी बना गए थे।
ऐसे पतित पावन नगर में पिकनिक जाने का पिछले दिनों प्रोग्राम बना। कॉलेज के छात्र-छात्राओं का विशेष आग्रह था कि मैं उनके साथ अवश्य चलूं। वे सब मेरे लेखकीय दृष्टि का लाभ उठाना चाहते थे। मैं भी खुश था, पिकनिक का पिकनिक और तीर्थयात्रा, यानी एक पंथ दो काज ..। खरौद, चांपा से 65 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। हमने वहां बस से जाने का निर्णय किया। सबका मन बड़ा प्रसन्न था। निर्धारित तिथि में हम खरौद के लिए रवाना हुए। रास्ता बहुत खराब होने के कारण हमारी बस हिचकोले खाती हुई धीरे धीरे चल रही थी .. दूर से सेंचुरी सीमेंट और रेमंड सीमेंट (अब लाफार्ज सीमेंट) फैक्टरी से धुआं उगलती चिमनियां दिखाई दे रही थी। मैंने विद्यार्थियों को बताया कि राजगांगपुर (उड़ीसा) से राजनांदगांव तक चूने की खान हैं और सीमेंट उद्योग के लिए उपयुक्त हैं। अब तक कई सीमेंट फैक्टरियां लग चुकी हैं और आगे भी लगने की संभावनाएं हैं। फिर भी सीेमेंट यहां मंहगी मिलती है। चिमनियों के धुओं से वायुमंडल प्रदूषित होता है और धुंआ जब नीचे आकर पेड़ों की पित्तयों और खेतों में गिरकर परत जमा लेती हैं तो पेड़-पौधे मर जाते हैं और खेत बंजर हो जाती है। इसकी किसे चिंता है ? औद्यौगिक क्रांति आयेगी तो अपने साथ कुछ बुराईयां तो लायेंगी ही। खैर, थोड़ी देरी में हम पामगढ़ पहुंचे। सड़क से ही लगा गढ़ के अवशेष दिखाई देता है-तीन तरफ खाई और उसमें पानी भरा था। विद्यार्थियों की उत्सुकता गढ़ देखकर ही शांत हुई। रास्ते में मेंहदी के सिद्ध बीर बजरंगबली के दर्शन किये। रास्ते में ही राहौद और धरदेई के तालाबनुमा प्राचीन खाईयों को देखते हुए खरौद के मुहाने पर पहुंचे। दूर से महानदी का चौड़ा पाट देखकर विद्यार्थी खुशी से चिल्ला उठे- सर, देखिये नदी। मैंने उन्हें बताया कि हम खरौद की सीमा में प्रवेश कर रहे हैं। देखो, इस नदी में शिवनाथ और जोंक नदी आकर मिलती हैं और त्रिधारा संगम बनाती है। विद्यार्थी बड़े प्रसन्न थे तभी हमारी बस सड़क किनारे स्थित जल संसाधन विभाग के निरीक्षण गृह में झटके के साथ रूकी। सभी वहां हाथ-मुंह धोकर नास्ता किये और मंदिर दर्शन करने निकल पड़े। एक-डेढ़ किण् मीण् की दूरी पर अत्यंत प्राचीन शबरी मंदिर है। ईंट से बना पूर्वाभिमुख इस मंदिर को ``सौराइन दाई`` का मंदिर भी कहा जाता है। मंदिर के गर्भगृह में श्रीराम और लक्ष्मण धनुष बाण लिये विराजमान हैं। पुजारी ने बताया कि श्रीराम और लक्ष्मण जी शबरी के जूठे बेर यहीे खाये थे। द्वार पर एक अर्द्धनारीश्वर की टूटी मूर्ति रखी है। मूर्ति के चेहरे पर सिंदूर मल दिया गया है जिससे अर्द्धनारीश्वर का स्वरूप स्पष्ट दिखाई नहीं देता। लोग श्रद्धावश किसी भी मूर्ति में जल चढ़ाने लगते हैं जिससे उसका क्षरण होने लगता है। इस मूर्ति की भी यही स्थिति है। मंदिर से लगा मिट्टी से बना एक गढ़ है जिसमें दशहरा के दिन प्रदर्शन होता है, जिसे गढ़ भेदन कहा जाता है। पुरातत्व विभाग द्वारा पूरा मंदिर परिसर को घेर दिया गया है। पास में ही हरिशंकर तालाब और उसमें बैरागियों की समाधि है।
स्कंद पुराण के उत्कल खंड में वर्णन मिलता है कि पुरी में वहां के राजा ने एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया तब उसमें मूर्ति स्थापना की समस्या आयी। देव संयोग से आकाशवाणी हुई कि दक्षिण पश्चिम दिशा में चित्रोत्पला-गंगा के तट पर सिंदूरगिरि में रोहिणी कुंड के निकट स्थित मूर्ति को लाकर यहां स्थापना करो। उस काल में खरौद क्षेत्र में शबरों का अधिपत्य था। जरा नाम के शबर का उल्लेख स्कंद पुराण में मिलता है। शबरी इसी कुल की थी जिसके जूठे बेर श्रीराम और लक्ष्मण ने खाये थे। द्वापर युग के उत्तरार्द्ध में श्रीकृष्ण की मृत्यु जरा नाम के शबर के तीर से हो जाती है। तब उनके अधजले मृत शरीर को इसी क्षेत्र में लाकर रोहिणी कुंड के किनारे रखकर नित्य उसकी पूजा अर्चना करने लगा। आगे चलकर उन्हें अनेक प्रकार की सििद्धयां प्राप्त हुई। प्राचीन काल में इस क्षेत्र में तांत्रिकों के प्रभाव का पता चलता है और ऐसा प्रतीत होता है कि जरा भी तंत्र मंत्र की सििद्ध इस मूर्ति के सामने बैठकर करता था। स्कंद पुराण के अनुसार पुरी के राजपुरोहित विद्यापति ने छल से इस मूर्ति को पुरी ले जाकर उस मंदिर में स्थापित करा दिया था। लेकिन डॉ. जे. पी. सिंहदेव ने ``कल्ट ऑफ जगन्नाथ`` में लिखा है कि `सिंदूरगिरि से मूर्ति को पुरी ले जानेवाले विद्यापति नहीं थे बल्कि उसे ले जाने वाले प्रसिद्ध तांत्रिक इंद्रभूति थे। उन्होंने इस मूर्ति को ले जाकर संबलपुर की पहाड़ी में स्थित संभल गुफा में रखकर तंत्र मंत्र की सििद्ध करता था। यहां उन्होंने अनेक तांत्रिक पुस्तकों का लेखन किया। उन्होंने तिब्बत में लामा सम्प्रदाय की स्थापना भी की। प्राप्त जानकारी के अनुसार इंद्रभूति की तीन पीढ़ियों ने यहां तंत्र मंत्र की सििद्ध की और चौथी पीढ़ी के वंशजों ने उसे पुरी ले जाकर उस मंदिर में भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित कर दिया। जगन्नाथ पुरी और खरौद-शिवरीनारायण क्षेत्र में तांत्रिकों के प्रभाव का उल्लेख मिलता है। शिवरीनारायण में तांत्रिकों के गुरू नगफड़ा और कनफड़ा की मूर्ति तथा नगर के बाहर कनफड़ा गुफा की उपस्थिति इस तथ्य की पुष्टि करता है। खरौद के दक्षिण द्वार पर स्थित `शबरी मंदिर` और सौंरापारा इसके प्रमाण माने जा सकते हैं। सौंरा जाति अपने को शबरों का वंशज मानती है। प्राचीन साहित्य में ``रोहिणी कुंड`` को एक धाम बताया गया है :-
रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर

बंदरी से नारी भई, कंचन होत शरीर।

जो कोई नर जाइके, दरशन करे वही धाम

बटु सिंह दरशन करी, पाये पद निर्वाण।।

इस मंदिर को देखकर हमें बहुत अच्छा लगा। अब हम नगर के पश्चिम दिशा में स्थित लक्ष्मणेश्वर महादेव के मंदिर की ओर बढ़े। मंदिर भव्य और आकर्षक है। मंदिर के द्वार पर पुरातत्व विभाग का एक बोर्ड लगाा है जिसमें मंदिर का निर्माण आठवीं शताब्दी में इंद्रबल के पुत्र ईशानदेव के द्वारा कराये जाने का उल्लेख है। यहां स्थित शिलालेख के अनुसार इस मंदिर का जीणोZद्धार रत्नपुर के कलचुरि राजा खड्गदेव ने कराया था। इस मंदिर में भगवान महावीर की मूर्ति देखने को मिली। मंदिर के प्रवेश द्वार के उभय पाश्र्व में कलाकृति से सुसज्जित दो पाषाण स्तंभ है। इनमें से एक स्तंभ में रावण द्वारा कैलासोत्तालन तथा अर्द्धनारीश्वर के दृश्य अंकित है। इसी प्रकार दूसरे स्तंभ में श्रीराम चरित्र से सम्बंधित दृश्य जैसे बाली वध, श्रीराम सुग्रीव मित्रता के अलावा शिव तांडव और सामान्य जन जीवन से सम्बंधित एक बालक के साथ स्त्री-पुरूष और एक दंडधारी पुरूष की मूर्ति है। उसके पाश्र्व में नारी प्रतिमा है। गर्भगृह में लक्ष्मण के द्वारा स्थापित ``लक्ष्मणेश्वर महादेव`` का पार्थिव लिंग है। इस अद्भूत लिंग के बारे में पता चलता है कि लंका विजय के उपरांत लक्ष्मण के उपर ब्रह्महत्या का पाप लगाया गया और इसकी मुक्ति के लिए उन्हें चारोंधाम की यात्रा करने और वहां के अभिमंत्रित जल से शिवलिंग की स्थापना करने की सलाह दी गयी। लक्ष्मण ने चारोंधाम की यात्रा की। जगन्नाथ पुरी से लौटकर उन्होंने गुप्तधाम शिवरीनारायण की यात्रा की। यहां चित्रोत्पला गंगा में स्नान कर आगे बढ़ते ही उन्हें क्षय रोग हो गया। आकाशवाणी हुई कि शिव आराधना से उन्हें क्षय रोग से मुक्ति मिल सकती है। उनकी आराधना से शिवजी प्रसन्न हुये और उन्हें दर्शन देकर पार्थिव लिंग स्थापित करने को कहा। तब उन्होंने यहां इस अद्भूत शिवलिंग की स्थापना की और क्षयरोग से मुक्ति पायी। इस शिवलिंग को ``लक्ष्मणेश्वर महादेव`` कहा गया। आज भी क्षयरोग निवारणाय लक्ष्मणेश्वर दर्शनम् प्रसिद्ध है। उनके दर्शन करके हमें लगा कि हमारा जीवन कृतार्थ हो गया। पुजारी ने हमें बताया कि यहां लखेसर (एक लाख साबूत चांवल) चढ़ाने का रिवाज है। इससे मनौतियां पूरी होती हैं।
पवित्र मन लिए जब हम मंदिर से बाहर आये तब हमें प्राचीन गढ़ के अवशेष देखने को मिला जिसका अंतिम छोर माझापारा तक जाता है। यहां पर ईंट से बना अति प्राचीन पश्चिमाभिमुख इंदलदेव का मंदिर है। उत्कृष्ट मूर्तिकला से सुसज्जित इस मंदिर के गर्भगृह में कोई मूर्ति नहीं है। मंदिर की दीवारों में पेड़ पौधे उग आये हैं। यह मंदिर केंद्रीय पुरातत्व संस्थान के संरक्षण में है लेकिन उचित देखरेख के अभाव में मंदिर जीर्ण शीर्ण हो गया है। दोपहर होने को आयी और हमारे पेट में चूहे दौड़ने लगे। सभी विद्यार्थी पुन: निरीक्षण गृह में आकर खाना खाये। लक्ष्मणेश्वर मंदिर से लौटते समय संस्कृति प्रचार केंद्र में विक्रम संवत् 2042, ज्येष्ठ शुक्ल 10 गंगा दशहरा के पावन पर्व के दिन शिव के आठ तत्वों के समिष्ट रूप ``अष्टमुख शिव`` और पांच मुख वाले अनुमान की प्रतिमा के दशZन हुए। भारत में मंदसौर के बाद खरौद में स्थापित अष्टमुख िशव की यह प्रतिमा अद्वितीय, अनुपम और दर्शनीय है। संस्कृति प्रचार केंद्र के संचालक डॉ. नन्हेप्रसाद द्विवेदी हैं। पूरे छत्तीसगढ़ में संस्कृत भाषा के प्रचार प्रसार में यह संस्था लगी है। डॉ. द्विवेदी के द्वारा लिखित ``खरौद परिचय`` में खरौद नामकरण के बारे में लक्ष्मणेश्वर मंदिर के शिलालेख के 30 वें लाइन में लिखा है। इसके अनुसार महाराजा खड्गदेव ने भूतभत्ताZ शिव के इस मंदिर का जीणोZद्धार कराया जो केवल मंडप मात्र था। यह घटना इस ग्राम के लिए ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। खड्गदेव शब्द में खड्ग का अपभ्रंश खरग तथा देव का अपभ्रंश ओद बना प्रतीत होता है। ``ग`` वर्ग के लोप हो जाने तथा `खर` और `ओद` के मिलने से ``खरौद`` शब्द की सििद्ध होती है। इस प्रकार खड्गदेव का बिगड़ा रूप खरौद हुआ ऐसा प्रतीत होता है।
खरौद, छत्तीसगढ़ का एक गढ़ भी रहा है। इसे ``खरौदराज`` भी कहा जाता था। यहां के गढ़ाधीश के रूप में पंडित ज्वालाप्रसाद मिश्र का उल्लेख मिलता है जो कोटगढ़ के भी गढ़ाधीश थे। हमें बताया गया कि सन् 1835 में सोनाखान के जमींदार वीर नारायण सिंह ने उनके परिवार को समूल नष्ट करने का प्रयास किया था। मगर उस कुल के बीज को अपने गर्भ में लिए एक महिला किसी तरह बचकर कोटगढ़ आ गयी और मिसिर परिवार का वंश नष्ट होने से बच गया। आगे चलकर उनका परिवार कसडोल में निवास करने लगा।
खरौद, कलचुरी कालीन गढ़ था। कलचुरी वंश के पतन के बाद मराठा वंश के शासक इसे ``परगना`` बना दिया। उस समय इस परगना में अकलतरा, खोखरा, नवागढ़, जांजगीर और किकिरदा के 459 गांव सिम्मलित था। ब्रिट्रिश काल में तहसील मुख्यालय सन् 1861 से 1891 तक शिवरीनारायण में था और फिर जांजगीर ले जाया गया। इसके बाद खरौद उपेक्षित होता चला गया। हमें लोगों ने बताया कि यहां के श्री परसराम भारद्वाज ने सारंगढ़ लोकसभा क्षेत्र का पांच बार प्रतिनिधित्व किया है। लेकिन हमारी उनसे भेंट नहीं हो सकी।
संध्या होने को आयी और मेरा लेखक मन जैसे सबको समेट लेना चाहता था। मैंने सबको समझाया कि दो-ढाई किण्मीण् पर सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक नगर शिवरीनारायण है, वहां वोटिंग का भी मजा लिया जाये उसके बाद वहां भगवान नारायण, श्रीराम लक्ष्मण जानकी, मां अन्नपूर्णा और चंद्रचूढ़ तथा महेश्वर महादेव के दर्शन भी कर लिया जाये। मेरी बात मानकर सभी शिवरीनारायण रवाना हो गये। वहां महानदी का मुहाना और बोटिंग का मजा लेकर सभी प्रसन्न मन से भगवानों के दर्शन किये और वापसी के लिए तैयार हो गये। मेरा लेखक मन भूतभत्ताZ भगवान लक्ष्मणेश्वर का आभारी रहेगा जिनके बुलावे पर खरौद जाने का संयोग बना और यहां के बारे में लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया। मुझे पंडित मालिकराम भोगहा कृत ``श्री शबरीनारायण माहात्म्य`` पढ़ने को मिला जिसके पांचवें अध्याय के 95-96 श्लोक में लक्ष्मण जी श्रीरामचंद्रजी से कहते हैं :- हे नाथ ! मेरी एक इच्छा है उसे आप पूरी करें तो बड़ी कृपा होगी कि इहां रावध के वध हेतु ``लक्ष्मणेश्वर महादेव`` थापना आप अपने हाथ कर देते तो उत्तम होता :-
रावण के वध हेतु करि चहे चलन रघुनाथ

वीर लखन बोले भई मैं चलिहौं तुव साथ।।

वह रावण के मारन कारन किये प्रयोग यथाविधि हम।

सो अब इहां थापि लखनेश्वर करें जाइ वध दुष्ट अधम।।
यह सुन श्रीरामचंद्रजी ने बड़े 2 मुनियों को बुलवाकर शबरीनारायण के ईशान कोण में वेद विहित संस्कार कर लक्ष्मणेश्वर महादेव की थापना की :-
यह सुनि रामचंद्रजी बड़े 2 मुनि लिये बुलाय।

लखनेश्वर ईशान कोण में वेद विहित थापे तहां जाय।। 97 ।।
...और अनंतर अपर लिंग रघुनाथ। थापना किये अपने हाथ।

पाइके मुनिगण के आदेश। चले लक्ष्मण ले दूसर देश।।
अथाZत एक दूसरा लिंग श्रीरामचंद्रजी अपने नाम से अपने ही हाथ स्थापित किये, जो अब तक गर्भगृह के बाहर पूजित हैं। आंचलिक कवि श्री तुलाराम गोपाल अपनी पुस्तक ``शिवरीनारायण और सात देवालय`` में इस मंदिर की महिमा का बखान किया है:-
सदा आज की तिथि में आकर यहां जो मुझे गाये।

लाख बेल के पत्र, लाख चांवल जो मुझे चढ़ाये।।

एवमस्तु! तेरे कृतित्वके क्रम को रखे जारी।

दूर करूंगा उनके दुख, भय, क्लेश, शोक संसारी।।
अन्यान्य दुर्लभ मूर्तियों से युक्त मंदिरों, तालाबों और प्राचीन गढ़ी के अलावा धार्मिकता और ऐतिहासिक महत्ता के बावजूद यह नगर उपेक्षित है। महाशिवरात्री और सावन में यहां दर्शनार्थियों की भीड़ होती है मगर प्र्रदेश के पर्यटन नक्शे में यह नगर अभी तक नहीं आ सका है। इतनी जानकारी के बाद हमारा मन प्रफुिल्लत था। हमारी बस वापसी के चल पड़ी और मेरा मन बटुकसिंह चौहान के गीत को गुनगुनाने लगा :-
जो जाये स्नान करि, महानदी गंग के तीर।

लखनेश्वर दर्शन करि, कंचन होत शरीर।

सिंदूरगिरि के बीच में, लखनेश्वर भगवान

दर्शन तिनको जो करे, पावे परम पद धाम।।

रचना, लेखन, फोटो एवं प्रस्तुति,

प्रो. अिश्वनी केशरवानी
राघव डागा कालोनी,

चाम्पा-495671 ( छत्तीसगढ़ )

बुधवार, 23 जनवरी 2008

डेरागढ़ की यात्रा, जो भुलाये नहीं भूलती ...


मेरा गांव

डेरागढ़ की यात्रा, जो भुलाये नहीं भूलती ...

प्रो. अिश्वनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत बाराद्वार से लगभग पांच कि. मी. तथा लवसरा से मात्र एक कि. मी. की दूरी पर स्थित ग्राम डेरागढ़ अपनी प्राचीनता के कारण जाना जाता है। पिछली बार यहां शासकीय महाविद्यालय चांपा का राष्ट्रीय सेवा योजना का िशविर लगा था। कार्यक्रम अधिकारी प्रो. भूपेन्द्र पटेल के आग्रह पर मुझे यहां जाने का सौभाग्य मिला। महाविद्यालय के राष्ट्रीय सेवा योजना के िशविर को यहां लगाने के पीछे यहां के ग्रामीण लोगों में साक्षरता के प्रति रूचि पैदा करना था। युवा िशविरार्थियों के द्वारा अनेक ग्रामीण समस्याओं के निराकरण के लिए सम्बंधित अधिकारियों से संपर्क किया जिसमें उन्हें आशातीत सफलता मिली। इससे ग्रामीणों में उत्सुकता बढ़ी और वे िशविरार्थियोंं के हर कामों में साथ देने लगे। प्रात: िशविरार्थी व्यायाम के साथ श्रमदान करते थे, दोपहर को भोजनोपरांत अनेक विद्वानों के सानिघ्य मेंं बौिद्यक चर्चा और रात्रि में सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता था। 10 दिनों तक गांव में एक प्रकार से उत्सव का माहौल बन गया था। आसपास के गांवों के ग्रामीणों की सहभागिता से इसमें चार चांद लग गया था।
डेरागढ़ में मैंने एक गढ़ देखा। लोगों ने मुझे बताया कि प्राचीन काल में यहां किसी राजा का शासन रहा होगा ? मैंने देखा कि एक ऊंचा टिला और उसके चारों ओर खाई में पानी भरा है जो प्राचीन मृतिका गढ़ का बोध कराता है। यहां एक पेड़ के नीचे बहुत सारे पत्थर के टुकड़ों को ग्रामीणजन देवता के रूप में पूजते हैं और प्रत्येक शुभ कायोZ में देवालय यात्रा करके उन्हें आमंत्रित करना नहीं भूलते। लोगों का ऐसा विश्वास है कि इससे गांव खुशहाल रहता है अन्यथा विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। मैंने पानी के रिमिझम फुहारों के साथ यहां के पुरावशेषों को समेटने हेतु अपनी डेरागढ़ की यात्रा शुरू की। फिसलते स्कूटर के चक्के को बचाता मैं धीमी गति से डेरागढ़ की ओर बढ़ रहा था। मेरा मन तो पहले से ही वहां पहुचकर अवलोकन कर रहा था ... मैं सोच रहा था कि कैसा होगा डेरागढ़ ? इसी उधेड़बुन में मैं डेरागढ़ की अनजानी राह में बढ़ता जा रहा था। चांपा से 24 कि. मी. चलकर बाराद्वार पहुचा, सोचा कि कुछ पूछताछ कर चाय-पानी पी लूं मगर डेरागढ़ जल्दी पहुचने की ललक ने मुझे वहां रूकने नहीं दिया और मैं वहां से डोलामाइट की खानों के बीच के रास्ते से बढ़ने लगा। मरघट और तलाबों को पार किया तो देखा कि यहां पर पहाड़ों जैसी ऊंचाई और खाई जैसी गहराई है। मुझे लगा हमारे पूर्वज नििश्चत रूप से हमसे बहुत विकसित रहे होंगे क्यों कि जिस पहाड़ और खाई की कल्पना मैं आज कर रहा हूं उसे वे अपने श्रम से बहुत पहले पूरा किये होंगे ? मैंने देखा यह आयरन अयस्क डोलामाइट की खान है जिसकी खुदाई से ये स्थिति निर्मित हुई है। पहले यहां एक निजी कम्पनी के द्वारा खुदाई कराया जाता था बाद में प्रबंधन और श्रमिक के बीच विवाद के चलते खुदाई का काम पिछले कई वषोZ से बंद है और श्रमिक की स्थिति बड़ी दयनीय है। कई बार ऐसी स्थिति श्रमिक नेताओं के स्वार्थ के कारण निर्मित हो जाता है। आज तो श्रमिक की कम और आटोमेटिक मशीन की मांग अधिक है जिससे छत्तीसगढ़ के श्रमिक पलायन करने को मजबूर हैं। श्रमिक नेता श्री बेनीराम साहू इसे श्रमिक के साथ धोखा मानते हैं।
मैं सोचने लगा कि इतना उत्कृष्ट लौह अयस्क यहां पाया जाता है जिसे खोदकर अन्यत्र भेजा जाता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि यहां एक स्टील प्लांट लगा दिया जाये ? इससे छत्तीसगढ़ शासन को फायदा भी होता और पलायन करते श्रमिकों को काम मिल जाता और यह नगर राष्ट्रीय नक्शे में आ जाता ? मेरी विचार श्रृंखला तब टूटी जब मैं लोगों के बताये मार्ग में चलकर तालाबों को पारकर डेरागढ़ की बस्ती में प्रवेश किया और िशविरार्थियों ने तालियों से मेरा स्वागत किया। िशविरार्थियों और गामीणों के आत्मीय स्वागत से मैं भाव विभोर हो गया। थोड़ी देर विश्राम करके मैं प्रो. पटेल और कुछ गामीणों के साथ गांव भ्रमण के लिए निकल पड़ा। मेरे आने का समाचार इस छोटे से गांव में आग की तरह फैल गया और गांव के बुजुर्ग भी मेरे साथ हो लिए। गांव की गुड़ी में गांव के तत्कालीन सरपंच श्री सफेदराम साहू मिल गए उनका आत्मीय स्वागत मेरे मन का ेजीत लिया। सबके साथ मैं गांव की गलियों को पार करके एक ऐसी जगह पहुंचे जहां से पूरा गांव दिखाई देने लगा। `.. यही गढ़ी है..` लोगों ने मुझे बताया। मैं देखा, चारों ओर पानी से भरा गहरी खाई और उसके चारों ओर एक ऊंचा टिला। यहां का पानी कभी नहीं सूखता और हम इससे खेतों में सिंचाई भी करते हैं, लोगों ने मुझे बताया। गढ़ी में चार-छै पेड़ का एक समूह भी है और उसकी जड़ों में विभिन्न आकृतियों वाला कई मूर्तियां जिसे लोग ग्राम देव के रूप में पूजते हैं। ग्रामीणों की श्रद्धा देखकर मैं भाव विहल हो उठा। मैं उनकी श्रद्धा को बिना ठेस पहुंचाये अपने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और फोटोग्राफी करने लगा। आगे एक तालाब के पार में एक मंदिर में िशव लिंग के साथ एक मानवाकृति को लोगों ने यहां का शासक बताया। पास पड़ी मूर्ति को लोगों ने समलाई दाई बताया। इस प्रकार मैं गांव का भ्रमण करके गुड़ी में आ गया और बुजुगोZ से चर्चा करने लगा।
वास्तव में गढ़ का अर्थ है किला। सामान्य अथोZ में गढ़ में किसी रियासत की कल्पना होती है जहां किसी राजा का निवास होता है। जहां एक सुदृढ़ किला होता है और वहां की सुरक्षा के लिए सैन्यबल, सुरक्षा समाग्री और अन्नादि संग्रहित होती है। सारंगढ़, रायगढ़, चैतुरगढ़, खैरागढ़ आदि इसके उदाहरण हैं। ये राजाओं के शक्ति केंद्र थे, जिसका किला जितना सुदृढ़ और सुरक्षित होता था वह उतना ही शक्तिशाली माना जाता था। स्वतंत्रता के बाद इन किलों और गढ़ों के देखरेख नहीं होने से ये सब खंडहरों में बदल गए हैं।
छत्तीसगढ़ के इतिहास में इन किलों और गढ़ों का बहुत महत्व है। लोगों का विश्वास है कि 36 गढ़ों के कारण ही इसका नाम 36 गढ़ पड़ा है। इतिहासकारों ने इसके बारे में बहुत से तर्क प्रस्तुत किये हैं। रत्नपुर के कलचुरी शासकों की जमाबंदी पुस्तक में भी रत्नपुरराज और रायपुर राज के 36 गढ़ों को मिलाकर छत्तीसगढ़ निर्माण की बातें हैं। यह बात अलग है जांजगीर-चांपा जिले में ही 36 से भी अधिक मृतिका गढ़ है, पूरे छत्तीसगढ़ में ऐसे न जाने कितने गढ़ होंगे ? पुराविद् और उप संचालक श्री राहुल कुमार सिंह ने इन मृतिका गढ़ों को प्रशासनिक गढ़ माना है जो कर वसूली के केंद्र थे। मैं भी उनकी बातों से सहमत हूं। बहरहाल छत्तीसगढ़ के 14 रियासत क्रमश: रायगढ़, सारंगढ़, सक्ती, खैरागढ़, राजनांदगांव, छुईखदान, कवर्धा, कांकेर, जगदलपुर, सरगुजा, कोरिया, जशपुर, उदयपुर और चांगभखार की सबसे छोटी रियासत सक्ती के अंतर्गत लवसरा खालसा के अंतर्गत डेरागढ़ गांव प्राचीन मृतिका गढ़ रहा है। आज यहां साहू और अनुसूचित जाति के लागों की बहुलता है। लेकिन कृषि कार्य के बाद लोग यहां पलायन करके मजदूरी करने लगते हैं। भौतिक सुख सुविधाओं के चलते यहां के पढ़े लिखे लोग आसपास के शहरों में रहने लगे हैं। गांव में आवागमन की सुविधा का प्रसार हुआ है, शहरी संस्कृति भी घुस गई है और गांव मेंं भी लोग अर्द्ध शहरी से लगते हैं। गांव के खेत बंजर होते जा रहे हैं और लोग व्यापार के साथ मजदूरी करके जीवन यापन करने लगे हैं। तालाब स्वच्छ नीर नहीं रहे, अब इसमें मछली का पालन होने लगा है, कुओं का पानी अब सूख गया है उसके स्थान पर घरो में बोरिंग खुद गया है। लोगों के रहन सहन में भी बदलाव आ गया है। लोग धोती और अंगरखा की जगह पेंट शर्ट पहनने लगे हैं।
रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अिश्वनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा (छ. ग.)

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

छत्तीसगढ़ प्रदेश केशरवानी वैश्य सभा का तृतीय प्रतिनिधि सम्मेलन सम्पन्न





छत्तीसगढ़ प्रदेश केशरवानी वैश्य सभा का तृतीय प्रतिनिधि सम्मेलन सम्पन्न
श्री विजय केशरवानी नये प्रदेश अध्यक्ष निर्वाचित
छत्तीसगढ़ राज्य केशरवानी वैश्य सभा का तृतीय प्रतिनिधि सम्मेलन एवं निर्वाचन नगर केशरवानी वैश्य सभा मनेन्द्रगढ़ के आयोजन में श्री रामलखन गुप्ता, राष्ट्रीय अध्यक्ष (द्वितीय कार्यकाल) के मुख्य आतिथ्य, श्री िशवकुमार वैश्य, राष्ट्रीय महामंत्री एवं श्री हरिप्रसाद गुप्ता संरक्षक प्रदेश सभा के वििशष्ट आतिथ्य और प्रो. अिश्वनी केशरवानी, छत्तीसगढ़ प्रदेश अध्यक्ष की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ जिसमें श्री विजयकुमार केशरवानी, बलौदा बाजार को सर्व सम्मति से नया छत्तीसगढ़ प्रदेश निर्वाचित किया गया।
मुख्य अतिथि की आसंदी से छत्तीसगढ़ प्रदेश सभा के कायोZ की सराहना करते हुए श्री रामलखन गुप्ता ने कहा कि समाजिक विकास के लिए उर्जावान, संगठन क्षमता वाले नवयुवकों को आगे आना चाहिए। उन्होंने राष्ट्रीय कार्यक्रमों को सभी प्रदेशों में लागू करने का आव्हान करते हुए छत्तीसगढ़ प्रदेश में उल्लेखनीय कायोZ के लिए प्रोण् अिश्वनी केशरवानी को बधाई दी। वििशष्ट अतिथि श्री िशवकुमार वैश्य ने राष्ट्रीय महासभा की छात्रवृत्ति योजनान्तर्गत महासभा का आजीवन सदस्य बनने का आव्हान करते हुए प्रदेा सभा की सराहना की। श्री हरिप्रसाद गुप्ता ने पेन्ड्रा नगर के 12 वषZ के समाजिक विवाद को सदभावना पूर्वक सुलझाने और राष्ट्रीय स्तर पर प्रदेश की पहचान बनाने के लिए प्रदेश अध्यक्ष प्रो. अिश्वनी केशरवानी की सराहना करते हुए उन्हें बधाई दी। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्रो. अिश्वनी केशरवानी ने बताया कि प्रदेश में 40 ग्राम व नगर सभाएं प्रदेश सभा से सम्बद्ध हो चुकी है। यहां नये कार्यकाल के लिए पुनर्गठन हो चुका है। नगर सभाओं को परिचय सम्मेलन और सामूहिक विवाह के आयोजन के लिए प्रदेश सभा से अनुमति लेना आवश्यक होगा और प्रदेश पर्यवेक्षक की उपस्थिति में कार्यक्रम सम्पन्न होगा। उन्होंने चुनाव प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए बताया कि प्रत्येक ग्राम व नगर सभाओं के अध्यक्ष, सचिव और कोषाध्यक्ष को प्रदेश सभा के निर्वाचन में जहां मताधिकार होगा वहीं प्रदेश प्रतिनिधियों को चुनाव लड़ने की पात्रता होगी, उन्हें मताधिकार नहीं होगा।
इसके पूर्व प्रतिनिधि सम्मेलन की शुरूवात श्री रामलखन गुप्ता ने कुल गोत्राचार्य महर्षि कश्यप की पूजा अर्चना करके की। गुरू वंदना के बाद ध्वजारोहण प्रोण् अिश्वनी केशरवानी ने किया और मनेन्द्रगढ़ महिला सभा के महिलाओं ने ध्वज वंदना की। नगर सभा की ओर से सभी अतिथितियों का माल्यार्पण और बैच लगाकर किया गया तत्पश्चात् नगर सभा मनेन्द्रगढ़ की ओर से श्री अशोक केशरवानी ने सभी अतिथितियों के स्वागत में भाषण दिया। राष्ट्रीय महासभा के संरक्षक श्री शंकरलाल केशरवानी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि मुझे छत्तीसगढ़ के छोटे बड़े सभी गांव और शहरों में जाने का मौका मिला था और मैंने स्वजातीय बंधुओं को संगठित होने की प्रेरणा दी थी। इसी का ही परिणाम है कि छत्तीसगढ़ प्रदेश के कायोZ की सर्वत्र प्रशंसा हो रही है। आज इस प्रदेश में प्रोण् अिश्वनी केशरवानी के नेतृत्व में प्रदेश में सुसंगठित सामाजिक संगठन है। उन्होंने प्रदेश के उल्लेखनीय कायोZ के लिए प्रदेश सभा को बधाई देते हुए आशा व्यक्त की कि आने वाले समय में छत्तीसगढ़ प्रदेश राष्ट्रीय महासभा का नेतृत्व करेगा। भोजनोवकाश के बाद द्वितीय सत्र में प्रदेश के सभी ग्राम वनगर सभाओं के प्रतिवेदन पढ़े गये। तृतीय खुले सत्र में सभी अतिथियों ने प्रदेश में निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव के लिए अपने अपने विचार रखा। दूसरे दिन प्रदेश सभा के निर्वाचन की प्रक्रिया पूरी हुई जिसमें सर्वसम्मति से छत्तीसगढ़ प्रदेश सभा के अध्यक्ष के रूप में श्री विजय केशरवानी, बलौदाबाजार निर्वाचित हुए। तत्पश्चात् विभिन्न नगर सभाओं को उल्लेखनीय कायोZ के लिए, समाजिक व्यक्तियों एवं समाजिक धर्मशाला के लिए जमीन दान करने वालों को ``केसर रत्न`` के रूप में पुरस्कृत किया गया। प्रदेश सभा के आय व्यय को व्योरा कोषाध्यक्ष श्री गिरिजाशंकर केशरवानी ने प्रस्तुत किया। कार्यक्रम में प्रदेश के 40 ग्राम व नगर सभाओं के प्रतिनिधिगण और राष्ट्रीय महासभा के श्री हीराचंद केशरवानी, अनिल गुप्ता, जगदीश प्रसाद गुप्ता, हीरालाल केशरवानी, डॉ. वीरेन्द्र केशरवानी, श्री त्रिलोकीनाथ केशरवानी, श्रीमती कल्याणी केशरवानी, राष्ट्रीय महामंत्री महिला महासभा, श्री शंकरलाल केशरवानी, संरक्षक राष्ट्रीय महासभा, आदि उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन श्री रामप्रसाद केशरवानी आचार्य एवं श्री रविन्द्र केशरवानी, प्रदेश संगठन मंत्री ने किया और आभार प्रदशZन श्री अशोक केशरवानी मनेन्द्रगढ़ ने किया।
केसर रत्न के रूप में निम्न लिखित व्यक्ति सम्मानित हुए :-1. श्री अशोक केसरवानी, मनेन्द्रगढ़ 2. श्री गरीबा केसरवानी, भाटापारा 3. श्री जयप्रकाश केसरवानी, कोरबा 4. श्री नेमीचंद केसरवानी, भटगांव 5. श्री छेदीलाल केसरवानी, रायपुर 6. श्री राकेश केसरवानी, रायपुर 7. श्री प्रदीप केसरवानी, बिलासपुर 8. डॉ. विनय गुप्ता, बिलासपुर 9. श्री रामकुमार केसरवानी, लोरमी 10. श्री महेश केसरवानी, पेंड्रा 11. श्री प्रकाश केसरी, गौरेला 12. श्री दशरथ प्रसाद गुप्ता, पेंड्रा 13. श्री कृष्ण प्रसाद केसरवानी, अिम्बकापुर 14. श्री अनिल केसरवानी, 15. श्री रामप्रसाद आचार्य, मनेन्द्रगढ़ 16. श्री बीजेन्द्र केसरवानी, सारंगढ़ 17. श्री विजय केसरवानी, बलौदाबाजार, महामंत्री, प्रदेश सभा छत्तीसगढ़ 18. श्री रविन्द्र केसरवानी, बिलासपुर, संगठन मंत्री, प्रदेश सभा छत्तीसगढ़19. प्रो. अिश्वनी केसरवानी, अध्यक्ष, प्रदेश सभा छत्तीसगढ़ 20. श्री हरिप्रसाद गुप्ता, रायपुर, संरक्षक, प्रदेश सभा छत्तीसगढ़ 21. श्रीमती कल्याणी केसरवानी, चांपा 22. श्रीमती इंद्राणी केसरवानी, कोरबा23. श्री भरतलाल केसरी, कवर्धा 24. श्री मनोज केसरवानी, सिवनी
दानदाताओं को सम्मानित किया गया :- 1. श्री िशवभूषण केसरवानी एवं उनके परिवार िशवरीनारायण में केसरवानी भवन के लिए जमीन दान करने के लिए। 2. श्री दुगेZश केसरवानी को कवर्धा में केसरवानी भवन के लिए जमीन दान करने के लिए। 3. श्री कमलेश्वर केसरवानी, श्रीमती सरोजनी देवी एवं श्रीमती उमा देवी को मुंगेली में केसरवानी भवन के लिए जमीन दान करने के लिए। 4. श्री मोहललाल केसरी को गौरेला में केसरवानी भवन के लिए जमीन दान करने के लिए।
उत्कृष्ट आयोजन के लिए निम्नांकित नगर सभाओं को प्रशस्ति पत्र प्रदान किया गया :- 1. नगर सभा रायपुर 2. नगर सभा कोरबा 3. नगर सभा भटगांव 4. नगर सभा बलौदाबाजार 5. नगर सभा सारंगढ़ 6. नगर सभा बिलासपुर 7. नगर सभा दुर्ग 8. नगर सभा पेंड्रा 9. नगर सभा मनेन्द्रगढ़
प्रो. अिश्वनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा (छत्तीसगढ़)

संस्कृतनिष्ठ कवि चिरंजीवदास


21 जनवरी को जयंती के अवसर पर प्रकाशनार्थ

संस्कृतनिष्ठ कवि चिरंजीवदास
प्रो. अिश्वनी केशरवानी

सभ्यता के विकास में नदियों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। गिरि-कंदराओं से निकलकर धरती के गर्भ को पवित्र करती ये नदियां क्षेत्रों और प्रदेशों को सिंचित ही नहीं करती बल्कि दो या दो से अधिक प्रदेशों की सभ्यता और वहां की सांस्कृतिक परम्पराओं को जोड़ने का कार्य करती है। रायगढ़, छत्तीसगढ़ प्रांत का एक प्रमुख सीमावर्ती जिला मुख्यालय है। इस जिले की सीमाएं बिहार, उड़ीसा और मध्यप्रदेश से जुड़ती है। अत: स्वाभाविक रूप से यहां उन प्रदेशों को प्रभाव परिलक्षित होता है। यहां की सभ्यता, रहन सहन, और सांस्कृतिक परम्पराओं का सामीप्य उड़ीसा से अधिक है। पूर्ववर्ती प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत छत्तीसगढ़ का पूर्वी भाग उिड़या भाषी सम्बलपुर से जुड़ा था। यहां मिश्रित परम्पराएं देखने को मिलती हैं।
केलो नदी के तट पर बसा रायगढ़ पूर्व में छत्तीसगढ़ का एक ``फ्यूडेटरी स्टे्टस`` था। यहां के राजा कला पारखी, संगीत प्रेमी और साहिित्यक प्रतिभा के धनी थे। प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला यहां का गणेश मेला एक उत्सव हुआ करता थाण्ण्ण्और इस उत्सव में हर प्रकार के कलाकार, नर्तक, नाटक मंडली और साहित्यकार आपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करके यथोचित पुरस्कार और सम्मान पाता था। इस प्रकार रायगढ़ सांस्कृतिक और साहिित्यक तीर्थ के रूप में ख्याति प्राप्त किया। संगीत और नृत्य के साथ साथ साहित्य के क्षेत्र में यहां अनेक मूर्धन्य साहित्यकार पुरस्कृत हुए। यहां के राजा चक्रधरसिंह स्वयं एक उच्च कोटि के साहित्यकार और कला पारखी थे। उनकी सभा में साहित्यकारों की भी उतनी ही कद्र होती थी जितनी अन्य कलाकारों की होती थी। उनके राज्य के अनेक अधिकारी और कर्मचारी भी साहिित्यक अभिरूचि के थे। ऐसे साहित्यकारों की लंबी श्रृंखला है। उन्हीं में से एक कड़ी के रूप में श्री चिरंजीवदास भी थे। श्री चिरंजीवदास रायगढ़ के सीमावर्ती ग्राम कांदागढ़ में श्री बासुदेव दास के पुत्ररत्न के रूप में पौष शुक्ल त्रयोदशी संवत् 1977, तद्नुसार 21 जनवरी 1920 ईण् को हुआ। उनका बचपन गांव की वादियों में गुजरा। उनकी शिक्षा दीक्षा रायगढ़ में ही हुई। वे सन् 1938 में नटवर हाई स्कूल से मेट्रीकुलेशन की परीक्षा पास करके 06 अप्रेल 1942 को तत्कालीन रायगढ़ रियासत में लिपिक पद पर नियुक्त हुये। इस पद पर कार्य करते हुए स्वाध्यायी होकर अध्ययन किये। उिड़या उनकी मातृभाषा थी। अत: स्वाभाविक रूप से उिड़या साहित्य में उनकी रूचि थी। इसके अलावा अंग्रेजी, हिन्दी और संस्कृत भाषा में भी उनकी अच्छी पकड़ थी। यहां की प्राकृतिक सुषमा, केलो नदी का झर झर करता प्रवाह, पहािड़यों और वनों की हरियाली उनके कवि मन को जागृत किया और वे काव्य रचना करने लगे। उन्होंने हिन्दी और उिड़या दोनों भाषा में काव्य रचना की है।
10 मार्च सन् 1994 को भारतेन्दु साहित्य समिति बिलासपुर के खरौद ग्रामीण शिविर में मेरा उनका साहिित्यक परिचय हुआ। इस शिविर में मैंने अपना आलेख ``खरौद और शिवरीनारायण का पुराताित्वक महत्व`` पढ़ा था। मेरे इस आलेख से अनेक साहित्यकार प्रभावित होकर प्रसन्नता व्यक्त किये थे। तब मैं श्री चिरंजीवदास की सादगीपूर्ण व्यक्तित्व से अत्यंत प्रभावित हुआ था। श्री स्वराज्य करूण ने उनके व्यक्तित्व को बहुत अच्छे ढंग से रेखांकित किया है-``आडंबर और आत्म प्रचार के अंधे युग में पहुंच के जरिये अपनी पहचान बनाने वालों की भीड़ समाज के लगभग सभी क्षेत्र में हावी है। लेकिन श्री चिरंजीवदास का व्यक्तित्व और कृतित्व इस तरह की भीड़ से एकदम अलग है। अनेक वर्षो से सरस्वती की मौन साधना में लगे श्री चिरंजीवदास अपनी पहचान के संकट से बिल्कुल निश्चिंत नजर आते हैं। दरअसल उनकी तमाम चिंताएं तो विश्व की उस प्राचीनतम भाषा के साथ जुड़ गई है जो सभी भारतीय भाषाओं की जननी होकर भी अपने ही देश में अल्प मत में है।`` डॉण् प्रभात त्रिपाठी लिखते हैं-``संस्कृत साहित्य के रस मर्मज्ञ चिरंजीवदास का सृजनशील व्यक्तित्व अनेकायामी है। हिन्दी के अधिकांश पाठक उन्हें अनुवादक के रूप में जानते हैं। श्री दास के द्वारा किये गये अनुवाद वस्तुत: उनके सृजनात्मक कल्पना के ही प्रतीक हैं। इन अनुवादों के कारण उन्हें सृजन का एक ऐसा संस्कार प्राप्त हुआ है जिसके कारण उन्होंने साहित्य के सौंदर्य और मनुष्य के अस्तित्व के प्रश्नों को कभी अखबारी जल्दबाजी में नहीं देखा। अगर प्रसिद्ध कवि और आलोचक श्री अशोक बाजपेयी का शब्द उधार लेकर कहें तो श्री चिरंजीवदास समकालीनता से मुक्त हैं। उनकी कविता मुख्य रूप से संस्कारधमीZ ललित कल्पना से ही निर्मित है। छायावादोत्तर युग की काव्य भाषा में पौराणिक कल्पनाओं के सजग प्रयोग के साथ उन्होंने इस यंग की असीम सभ्यता को भी गहराई से मूर्त करने की कोशिश की है। उनकी अपनी कविता प्रेम और प्रगति के सबल आधारों पर टिकी है। उसमें परंपरागत प्रबंधात्मकता और प्रासंगिक आधुनिकता के अतिरिक्त निजी अनुभूति का खरापन भी सक्रिय है।``
पूर्वी मध्यप्रदेश में रायगढ़ शहर के वाशिदें चिरंजीवदास उसी संस्कृत भाषा के एकांत साधक और हिन्दी अनुवादक हैं, जो सभी भाषाओं की जननी है। उनके द्वारा किये गये अनुवाद का यदि सम्पूर्ण प्रकाशन हो तो प्राचीनतम संस्कृत भाषा और हिन्दी जगत के बीच एक महत्वपूर्ण संपर्क सेतु बन सकता है। सन 1960 में महाकवि कालिदास के मेघदूत ने उन्हें अनुवाद करने की प्रेरणा दी। हिन्दी और उिड़या भाषा में कविताएं तो वे सन् 1936 से लिखते आ रहे हैं। लेकिन पिछले 34 वर्षो में उन्होंने मेघदूत के अलावा कालिदास के ऋतुसंहार, कुमारसंभव और रघुवंश जैसे सुप्रसिद्ध महाकाव्यों के साथ साथ जयदेव, भतृZहरि, अमरूक और बिल्हण जैसे महाकवियों की संस्कृत रचनाओं का सुन्दर, सरल और सरस पद्यानुवाद भी किया है। उमर खैय्याम की रूबाईयों के फिट्जलैंड द्वारा किये गये अंग्रेजी रूपांतरण का दास जी ने सन् 1981 में उिड़या पद्यानुवाद किया है। प्रकाशन की जल्दबाजी उन्हें कभी नहीं रही। शायद इसीकारण उनके द्वारा 1964 में किया गया ऋतुसंहार का हिन्दी पद्यानुवाद अभी प्रकाशित हुआ है। सिर्फ ऋतुसंहार ही क्यों, सन् 1962 में जयदेव कृत गीतगोविंद, सन् 1972 में महाकवि अमरूक उचित शतक और सन् 1978 में महाकवि बिल्हण कृत वीर पंचाशिका के हिन्दी पद्यानुवाद अभी अभी प्रकाशित हुआ है। इसे दुभाZग्य ही कहा जाना चाहिए कि ऐसे उत्कृष्ट रचनाओं को प्रकाशित करने वाले प्रकाशक हमारे यहां नहीं हैं। इन पुस्तकों को श्री दास ने स्वयं प्रकाशित कराया है। इसी प्रकार सन् 1979 में उन्होंने महाकवि हाल की प्राकृत रचना गाथा सप्तशती का हिन्दी पद्यानुवाद किया है। इसके पूर्व कालिदास के मेघदूत का सन् 1960 में, कुमारसंभव का 1970 में और रघुवंश का 1974 में पद्यानुवाद वे कर चुके थे। उनकी अधिकांश पुस्तकें अभी तक अप्रकाशित हैं। आधी शताब्दी से भी अधिक से सतत जारी अपनी इस साहिित्यक यात्रा में श्री चिरंजीवदास एक सफल आध्याित्मक साहित्यकार और अनुवादक के रूप में रेखांकित होते हैं। अपनी साहिित्यक यात्रा के प्रारंभिक दिनों का स्मरण करते हुये वे बताते हैं-`` जब मैं 15-16 वर्ष का था, तभी से मेरे मन में काव्य के प्रति मेरी अभिरूचि जागृत हो चुकी थी। मैं हिन्दी में कविताएं लिखता था। सन् 1960 में महाकवि कालिदास का मेघदूत को पढ़कर लगा कि संस्कृत के इतने सुंदर काव्य का यदि हिन्दी में सरस पद्यानुवाद होता तो कितना अच्छा होता ? और तभी मैंने उसका पद्यानुवाद करने का निश्चय कर लिया।`` श्री दास ने मुझे बताया कि अनुवाद कर्म में मुझे हिन्दी और उिड़या भाषा ने हमेशा प्रेरित किया। क्योंकि ये दोनों भाषा संस्कृत के बहुत नजदीक हैं। संस्कृत के कवियों में महाकवि कालिदास की रचनाओं ने चिरंजीवदास को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। वे कहते हैं कि कालिदास के काव्य का आयाम बहुत विस्तुत है, विशेषकर रघुवंश में उनकी सम्पूर्ण विचारधारा भारतीय संस्कृति के प्रति उनका अदम्य प्रेम, आर्य परंपरा के प्रति अत्यंत आदर और लगाव स्पष्ट है।
उनकी आरंभिक रचनाओं में छायावादी काव्य संस्कारों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। उनकी कविताओं में शिल्प के पुरानेपन के बावजूद कुछ ऐसे अछूते विषय भी हैं जिन पर कविता लिखने की कोशिश ही उनके अंतिर्नहित नैतिक साहस को प्रदर्शित करता है। ऋग्वेद के यम और यमी पर लिखित उनकी सुदीघZ कविता इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इसके अतिरिक्त कथात्मक आधार पर लिखी गयी ``रति का शाप`` और उड़ीसा की लोकगाथा पर आधारित ``केदार गौरी`` जैसे प्रबंध कविताओं में भी हम स्त्री-पुरूष के अनुराग की ओर उनके गहन संपर्क की रंगारंग अभिव्यक्ति देखते हैं। मुक्त छेद में लिखी गई उनकी अनेक कविताएं इसके प्रमाण हैं। आज से 50 वर्ष पूर्व उनकी कविताओं में प्रगतिशील दृष्टि मौजूद थी। आदिवासी लड़की पर लिखी ``मुंडा बाला`` कविता उनके सौंदर्य बोध और उनकी करूणा को मूर्त करने वाली कविता है। मैं डॉण् प्रभात त्रिपाठी के इस विचार से पूरी तरह सहमत हूं कि ``आधुनिक हिन्दी कविता के संदर्भ में उनकी कविता को पढ़ना इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकती है कि उनकी कविताओं में विस्तृत कर दी गयी शब्दावली के पुनर्वास का सार्थक प्रयास है। संस्कृत के वर्णवृथी के अतिरिक्त उिड़या एवं बंगला के लयात्मक संस्कारों को धारण करने वाली उनकी कविता हमारी जातीय स्मृतियों की जीवंतता को उजागर करती है। केवल शािब्दक चमत्कार के स्तर से गहरे उतरकर वे इस शब्दावली में अपनी कल्पनाशीलता के द्वारा एक नई अर्थवत्ता रचते हैं। अपने व्यक्त रूप में उनकी कविता का आकार पुरातनपंथी सा लग सकता है किंतु यह अनेक आवाजों से बनी कविता है। एक गंभीर हृदय के लिए यह कविता आ अजस्र अवकाश है। काल और कालातीत इतिहास और पुराण लोक और लोाकोत्तर को एक दूसरे से मिलाने की कोशिश करती श्री चिरंजीवदास की कविताएं इन्ही काव्य परंपरा की सार्थक और गंभीर रचना है।``
देशी रियासतों के मध्यप्रदेश में विलीनीकरण हो जाने पर श्री चिरंजीवदास की सेवाएं मण्प्रण्शासन द्वारा गृहित कर ली गई। शासकीय सेवा में कार्य करते हुए उन्होंने अपनी साहिित्यक यात्रा जारी रखी। इस बीच वे संस्कृत साहित्य की ओर उन्मुख हुए। इसी का परिणाम है कि वे सेस्कृत भाषा में लिखित पुस्तकों का हिन्दी पद्यों में अनुवाद किये। इसीलिए उनके काव्यों में संस्कृत शब्दों का पुट मिलता है। 31 जनवरी सन् 1979 को लेखाधिकारी (राजस्व) के पद से सेवानिवृत्त होकर केलो नदी के तट पर स्थित अपने निवास में साहिित्यक साधना में रत रहे। ऐसा कोई साहिित्यक व्यक्ति रायगढ़ में नहीं हैं जो उनसे किसी न किसी रूप में जुड़े हों ? जब भी आप उनके निवास में जाते तो उन्हें अध्ययनरत ही पातेण्ण्ण्समय का सदुपयोग करना कोई उनसे सीखे। उनकी मौन साधना का ही परिणाम है कि अब तक वे दो दर्जन से भी अधिक पुस्तकें लिखी और अनुवाद किया है। उनकी प्रकाशित कृतियों में रघुवंश, ऋतुसंहार, गीतगोविंद, अमरूक शतक, चौर पंचाशिका और संचारिणी प्रमुख है। उनकी अप्रकाशित कृतियों में कुमारसंभव, मेघदूत, रास पंचाध्यायी, श्रीकृष्ण कर्णमृत, किशोर चंदानंदचंपू, भतृZहरि, शतकत्रय रसमंजरी और आर्य सप्रशनी प्रमुख है। उन्होंने फिट्जलैंड की अंग्रेजी रचना का उिड़या में ``उमर खैय्याम`` शीर्षक से पद्यानुवाद किया है।
उनकी रचनाओं में उत्कृष्ट रचनाकार कालिदास की रचनाओं का अनुवाद प्रमुख है। उन्होंने कालिदास को परिभाषित करते हुए लिखा है:- ``कीर्तिरक्षारसंबद्धा स्थिराभवति भूतले`` अथाZत् कालिदास निश्चय ही अक्षरकीर्ति है।
धार्मिक ग्रंथों को छोड़ दे और केवल कला साहित्य की बात करें तो भास आदि नाटककार अवश्य ही कालिदास के पूर्व हुए किंतु काव्य के क्षेत्र में कालिदास अवश्य ही अग्रगण्य हैं और न केवल अग्रगण्य बल्कि आज तक हुए कवियों में सर्वश्रेष्ठ भी। ऐसा विश्वास किया जा सकता है कि जब तक पृथ्वी में साहित्य के प्रति आदर रहेगा तब तक कालिदास को स्मरण किया जाता रहेगा। वे वाग्देवी के अमर पुत्र हैं-शब्द ब्रह्य के सर्वाधिक लाड़लेण्ण्। वे शब्दों से खेले किंतु मानो शब्द ही उनके हाथों पड़ने के लिए तरसते थे। कालिदास ऐसे समय में हुए जब भारत की राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक जीवन में ह्रास और अवमूल्यन के लक्षण स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगे थे। क्रांतिदशीZ कालिदास ने देश की इस दुराव्यवस्था को देखा और उस पर मनन किया। उनके पास राजनीतिक शक्ति नहीं थी, वे धार्मिक नेता भी नहीं थे और न ही सामाजिक ह्रास को रोकने में सक्षम। वे एक कवि थे और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए वे केवल अपने काव्य पर अवलंबित थे। अत: वे माध्यम से भारतीय जनता को जागृत करने करने का बीड़ा उठाया और इसमें वे पूरी तरह सफल भी हुए। श्री चिरंजीवदास का ऐसा मानना है कि कालिदास ने काव्य नहीं लिखा बल्कि उसका दर्शन किया है- ``पश्य देवस्य काव्यं न ऋषेति न विभेति`` प्रसिद्ध टीकाकार मिल्लनाथ लिखते हैं कि उनकी वाणी के सार को स्वयं कालिदास, मां सरस्वती और सृष्टिकत्ताZ ब्रह्या जी ही समझ सके हैं। तब मैं उनकी रचना को समझकर उसका अनुवाद करने वाला कौन होता हूं ? मैंने यह अनुवाद अपनी विद्वता दिखाने के लिए नहीं बल्कि उनकी कृतियों को जन साधारण तक पहुंचाने के लिए किया है। उनका ऐसा करना कितना सार्थक है, इसका निर्णय पाठक करेंगे, ऐसा उन्हें विश्वास है। तब मुझे उनकी ``मुरली बजरी`` कविता की ये पंक्तियां याद आ रही है :-
इन प्राणों की प्यास जता दे,
इन सांसों का अर्थ बता दे,
स्वर में मेरे स्पंदन सुलगा,
आहों का प्रज्वलित पता दे।
रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्वनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)

रविवार, 13 जनवरी 2008

देवगणों के जागने का पर्व मकर संक्रांति

देवगणों के जागने का पर्व मकर संक्रांति प्रो. अिश्वनी केशरवानी संपूर्ण भारत में मकर संक्रांति विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में मनाया जलाता है। इस दिन अंधेरा होते ही आग जलाकर अग्नि पूजा करते हुए तिल, गुड़, चांवल और भूने हुए मक्का की आहूति दी जाती है। इस सामग्री को तिलचौली कहा जाता है। इस अवसर पर लोग मूंगफली, तिल की गजक, रेविड़यां आपस में बांटकर खुिशयां मनाते हैं। बहुएं घर घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी मांगते हैं। नई बहू और नवजात बच्चे के लिए लोहड़ी को विशेष महत्व होता है। इसके साथ पारंपरिक मक्के की रोटी और सरसों की साग का भी लुत्फ उठाया जाता है। महाराष्ट्र प्रांत में इस दिन ताल-गूल नामक हलवे के बांटने की प्रथा है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं :- `लिळ गूळ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला` अथाZत् तिल गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो। इस दिन महिलाएं आपस में तिल, गुड़, रोली और हल्दी बांटती हैं। बंगाल में भी इस दिन स्नान करके तिल दान करने की विशेष प्रथा है। असम में बिहु और आंध्र प्रदेश में भोगी नाम से मकर संक्रांति मनाया जाता है। तामिलनाडु में मकर संक्रांति को पोंगल के रूप में मनाया जाता है। पोंगल सामान्यत: तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन कूड़ा करकट इकठ्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की जाती है। पोंगल मनाने के लिए स्नान करके खुले आंगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनाई जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है। उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं। इस दिन बेटी और जमाई राजा का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है। छत्तीसगढ़ में मकर संक्रांति को खिचड़ी अऊ तिलगुजिहा के तिहार कहा जाता है। इस दिन नदियों में स्नान के बाद तिल और खिचड़ी के दान के बाद खाने की प्रथा है।
पृथ्वी का एक रािश से दूसरी रािश में प्रवेश `संक्रांति` कहलाता है और पृथ्वी का मकर रािश में प्रवेश करने को मकर संक्रांति कहते हैं। सूर्य का मकर रेखा से उत्तरी कर्क रेखा की ओर जाना उत्तरायण और कर्क रेखा से दक्षिण मकर रेखा की ओर जाना दक्षिणायन कहलाता है। जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होने लगता है तब दिन बड़े और रात छोटी होने लगती है। इस समय शीत पर धूप की विजय प्राप्त करने की यात्रा शुरू हो जाती है। उत्तरायण से दक्षिणायन के समय में ठीक इसके विपरीत होता है। वैदिक काल में उत्तरायण को `देवयान` तथा दक्षिणायन को `पितृयान` कहा जाता था। मकर संक्रांति के दिन यज्ञ में दिये गए द्रव्य को ग्रहण करने के लिए देवतागण पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। इसी मार्ग से पुण्यात्माएं शरीर छोड़कर स्वागाZदि लोकों में प्रवेश करती हैं। इसीलिए यह आलोक का पर्व माना गया है।
धर्मशास्त्र के अनुसार इस दिन स्नान, दान, जप, हवन और धार्मिक अनुष्ठानों का विशेष महत्व है। इस अवसर पर किया गया दान पुनर्जन्म होने पर सौ गुना अधिक मिलता है। इसीलिए लोग गंगादि नदियों में तिल लगाकर सामूहिक रूप से स्नान करके तिल, गुड़, मूंगफली, चांवल आदि का दान करते हैं। इस दिन ब्राह्मणों को शाल और कंबल दान करने का विशेष महत्व होता है।
इलाहाबाद में माघ मास में गंगा-यमुना के रेत में पंडाल बनाकर कल्पवास करते हैं और नित्य गंगा स्नान करके दान आदि करके किला में स्थित अक्षयवट की पूजा करते हैंं। प्रलय काल में भी नष्ट न होने वाले अक्षयवट की अत्यंत महिमा होती है। इस अवसर पर उसकी पूजा-अर्चना से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
मकर संक्रांति के अवसर पर गंगा सागर में भी बड़ा मेला लगता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन यशोदा जी ने श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए व्रत की थी। इस दिन गंगा सागर में स्नान-दान के लिए लाखों लोगों की भीढ़ होती है। लोग कष्ट उठाकर गंगा सागर की यात्रा करते हैं। वषZ में केवल एक दिन-मकर संक्रांति को यहां लोगों की अपार भीढ़ होती है। इसीलिए कहा जाता है-`सारे तीरथ बार बार लेकिन गंगा सागर एक बार।`
इस पर्व में शीत के प्रकोप से छुटकारा पाने के लिए तिल को शरीर में मलकर नदी में स्नान करने का विशष महत्व बताया गया है। तिल उबटन, तिल हवन, तिल का व्यंजन और तिल का दान, सभी पाप नाशक है। इसलिए इस दिन तिल, गुड़ और चीनी मिले लड्डु खाने और दान करने का विशष महत्व होता है। यह पुनीत पर्व परस्पर स्नेह और मधुरता को बढ़ाता है।
मकर संक्रांति में अर्द्धकुम्भ स्नान :-
कुंभ स्नान स्वास्थ्य की दृिष्ट में उत्तम है। `मृत्योर्मामृतम्गमय` का संदेश देने वाले कुंभ और सिंहस्थ स्नान की परंपरा अति प्राचीन है। हर 12 वें साल में प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में महाकुंभ और छठवें वषZ में अर्द्ध कुंभ होता है।सहस्रं कार्तिके स्नानं, माघे स्नान शतानि च।बैशाखे नर्मदा कोटि: कंभ स्नाने तत् फलम्।।अथाZत् कार्तिक मास में एक हजार और माघ मास में सौ बार गंगा स्नान से तथा बैसाख में नर्मदा में एक करोड़ बार स्नान करने से जो पुण्य मिलता है वह माघ मास में महाकुंभ के अवसर पर मात्र अमावस्या पर्व में स्नान करने से मिल जाता है। प्रति छ: वषZ में प्रयाग में अर्द्ध कुंभ होता है और इस वषZ प्रयाग में अर्द्ध कुंभ का संयोग है। प्रयागराज तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। इससे पवित्र तीर्थस्थल अन्य कोई नहीं है। तभी तो कहा गया है :- प्रयाग राज शादुZलं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्। तत् पुण्यतमं नास्त्रि त्रिषु लोकेषु भारत्।।प्रयागराज में सूर्य पुत्री यमुना, भागीरथी गंगा और लुप्त रूपा सरस्वती के संगम में जो व्यक्ति स्नान-ध्यान करता है, कल्पवास करके पूजा-अर्चना करता है, गंगा की मिट्टी को अपने माथे पर लगाता है, वह राजसू और अश्वमेघ यज्ञ का फल सहज ही प्राप्त करता है।
गंगा तीर नागा साधुओं का जमावड़ा :-पूरे शरीर में भस्म लगाये, नंगे वदन, लंबी दाढ़ी और बड़ी बड़ी लटें वाले नागा साधुओं की भीढ़ गंगा के तीर अर्द्ध कुंभ और महाकुंभ के अवसर पर विशेष रूप से होती है। आठवीं शताब्दी में आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा नागा अखाड़ा का निर्माण किया गया था, जिसका उद्देश्य अपने अनुयायी बनाना और शत्रुओं के खिलाफ आंदोलन करना प्रमुख था। आगे चलकर नागा साधुओं के भी कई समूह बन गये। कुंभ पर्व में जब ये एकत्रित होते हैं तब इनके आपसी मन मुटाव इनके झगड़े का कारण होता है। इन साधुओं के द्वारा कुंभ पर्व में शाही स्नान किया जाता है। जब इन साधुओं की भीढ़ शाही स्नान के लिए गंगा तीर की ओर बढ़ती है तब इनके हट के कारण आपसी झगड़े होते हैं और सीधे सादे श्रद्धालु बेमौत मारे जाते हैं।
मकर संक्रांति से मांगलिक कायोZ की शुरूवात :- पौष मास में देवगण सो जाते हैं और इस मास में कोई भी मांगलिक कार्य नहीं होते। लेकिन माघ मास में मकर संक्रांति के दिन से देवगण जाग जाते हैं और ऐसा माना जाता है कि इस दिन से मांगलिक कार्य-उपनयन संस्कार, नामकरण, अन्नप्राशन, गृह प्रवेश और विवाह आदि सम्पन्न होने लगते हैंं।
मकर संक्रांति में पतंग उढ़ाने की वििशष्ट परंपरा :- मकर संक्रांति को पतंग उड़ाने की विशेष परंपरा है। देशभर में पतंग उड़ाकर मनोरंजन करने का रिवाज है। पतंग उड़ाने की परंपरा का उल्लेख श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास जी ने भी किया है। बाल कांड में उल्लेख है- `राम इक दिन चंग उड़ाई, इंद्रलोक में पहुंची गई।` त्रेतायुग में ऐसे कई प्रसंग हैं जब श्रीराम ने अपने भाईयों और हनुमान के साथ पतंग उड़ाई थी। एक बार तो श्रीराम की पतंग इंद्रलोक में पहुंच गई जिसे देखकर देवराज इंद्र की बहू और जयंत की पत्नी उस पतंग को पकड़ ली। वह सोचने लगी-`जासु चंग अस सुन्दरताई। सो पुरूष जग में अधिकाई।।` पतंग उड़ाने वाला इसे लेने अवश्य आयेगा। बहुत प्रतीक्षा के बाद भी पतंग वापस नहीं आया तब श्रीराम ने हनुमान को पतंग लाने भेजा। जयंत की पत्नी ने पतंग उड़ाने वाले के दशZन करने के बाद ही पतंग देने की बात कही और श्रीराम के चित्रकूट में दशZन देने के आश्वासन के बाद ही पतंग लौटायी। `तिन तब सुनत तुरंत ही, दीन्ही छोड़ पतंग। खेंच लइ प्रभु बेग ही, खेलत बालक संग।।` इससे पतंग उड़ाने की प्राचीनता का पता चलता है। भारत में तो पतंग उड़ाया ही जाता है, मलेिशया, जापान, चीन, वियतनाम और थाईलैंड आदि देशों में पतंग उड़ाकर भगवान भास्कर का स्वागत किया जाता है।
प्रो. अिश्वनी केशरवानीराघव, डागा कालोनी, चांपा (छ.ग.)

शुक्रवार, 11 जनवरी 2008

स्वामी विवेकानंद रायपुर में


विवेकानंद जयंती 12 जनवरी पर विशेष
स्वामी विवेकानंद रायपुर में
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
स्वामी विवेकानंद के दो महत्वपूर्ण वर्ष छत्तीसगढ़ प्रदेश की राजधानी रायपुर में गुजरा था। यह समय महत्वपूर्ण इस मायने में है क्योंकि यहां उन्हें अलौकिक भावानुभूति हुई थी। सन् 1877 ई. की यह बात है जब नरेन्द्रनाथ के रूप में वे रायपुर आये थे। तब उनकी उम्र मात्र 14 वर्ष की थी और वे मेट्रोपोलिटन विद्यालय की तीसरी श्रेणी में पढ़ रहे थे। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्ता रायपुर में रहते थे। अधिक समय तक रहने की आशंका से उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों को रायपुर बुलवा लिया था। नरेन्द्रनाथ अपने छोटे भाई महेन्द्रदत्ता, बहन जोगेन्द्र बाला और भुवनेश्वरी देवी के साथ कलकत्ता से रायपुर आये। उस समय कलकत्ता से सीधी रेल लाईन से नहीं जुड़ा था। उस समय रेल गाड़ी कलकत्ता से इलाहाबाद, जबलपुर और नागपुर होकर बम्बई जाती थी। इसी ट्रेन से नरेन्द्रनाथ जबलपुर आये और बैल गाड़ी से अमरकंटक होकर रायपुर पहुंचे थे। रायपुर पहुंचने में उन्हें 15 दिन लगा था। कुछ लोग उन्हें नागपुर से रायपुर आने की बात कहते हैं। मगर स्वयं नरेन्द्रनाथ ने अपनी यात्रा संस्मरण में लिखा है-''उस पथ की शोभा अत्यंत मनोरम थी। रास्ते के दोनों किनारों पर पत्तों और फूलों से लदे हरे वन वृक्ष थे। वन स्थल का अपूर्व सौंदर्य देखकर मुझे किसी प्रकार का क्लेश नहीं हुआ। आयचित होकर भी जिन्होंने पृथ्वी को इस अनुपम वेशभूषा के द्वारा सजा रखा था, उनकी असीम शक्ति और अनंत प्रेम का पहले पहल साक्षात् परिचय प्राप्त कर मेरा हृदय मुग्ध हो गया था।''
उन्होंने लिखा है-'' वन के बीच जाते हुए उस समय जो कुछ भी मैंने देखा और अनुभव किया, वह स्मृति पटल पर सदैव के लिए अंकित हो गया। विशेष रूप से एक दिन की बात, उस दिन हम उन्नत शिखर विंध्याचल के नीचे से गुजर रहे थे। मार्ग के दोनों ओर बीहड़ पहाड़ की चाटियां आकाश को चूमती हुई खड़ी थी। तरह तरह की वृक्ष लताएं, फल और फूल के भार से लदी हुई पर्वत को अपूर्व शोभा प्रदान कर रही थी। अपनी मधुर कलरव से समस्त दिशाओं को गुंजायमान करते हुए रंग बिरंगे पक्षी घूम रहे थे या फिर कभी कभी आहार की खोज में जमीन पर उतर रहे थे। इन दृश्यों को देखते हुए मैं अपने मन में अपूर्व शांति का अनुभव कर रहा था। मंथर गति से चलती हुई बैल गाड़ी एक ऐसे स्थान पर आ पहुंची, जहां पहाड़ की दो चोटियां मानो प्रेमवश आकृष्ट होकर आपस में स्पर्श कर रही हो..? उस समय उन श्रृंगों का विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए मैंने देखा कि पास वाले एक पहाड़ में नीचे से लेकर चोटी तक एक बड़ा सुराख है और उस सूराख को पूर्ण कर मधु मक्खियों के युग युगान्तर के प्रमाण स्वरूप एक प्रकाण्ड मधु चक्र लटक रहा है। विस्मय से मैं उस समय मक्षिका राज्य के आदि एवं अंत की बातें सोचते हुए मेरा मन तीनों जगत के नियन्ता ईश्वर की अनंत उपलब्धियों में इस प्रकार डूब गया कि थोड़ी देर के लिए मेरा सम्पूर्ण वाह्य ज्ञान लुप्त हो गया। कितनी देर तक इस भाव में मग्न होकर मैं बैल गाड़ी में पड़ा रहा, याद नहीं रहा। जब होश आया तो देखा कि उस स्थान को छोड़कर बहुत आगे निकल आया हूं। बैल गाड़ी में मैं अकेला ही था, इसलिए यह बात दूसरा कोई नहीं जान सका।'' भाव समाधि का यह उनका पहला अनुभव था।
रायपुर में तब कोई अच्छा स्कूल नहीं था। अत: वह अपने पिता जी से ही पढ़ा करता था। उनके पिता जी उनसे अनेक विषयों पर चर्चा किया करते थे, यहां तक कि पुत्र के साथ तर्क वितर्क करते और उनसे हार मानकर कभी कुंठित नहीं हुए। वे हमेशा उन्हें प्रोत्साहित किया करते थे। उन दिनों उनके घर में अनेक विद्वानों का आगमन हुआ करता था और विभिन्न सांस्कृतिक तथा सामाजिक विषयों पर चर्चाएं होती थी। नरेन्द्रनाथ बड़े ध्यान से उनकी बातों को सुनते थे और अवसर पाकर अपना विचार प्रकट भी करते थे। उनकी बुद्धिमता और ज्ञान से सभी चमत्कृत हो उठते थे। इसलिए कोई भी उन्हें छोटा समझने की भूल नहीं करते थे। एक दिन ऐसे ही चर्चा के दौरान नरेन्द्र ने बंगला भाषा के एक ख्यातिनाम लेखक के गद्य पद्य के अनेक उध्दरण देकर सबको इतना आश्चर्यचकित कर दिए कि सभी प्रशंसा करते हुए बोल पड़े-''बेटा ! किसी न किसी दिन तुम्हारा नाम हम अवश्य सुनेंगे।'' कहना न होगा कि यह कोई स्नेहसिक्त अत्युक्ति नहीं थी बल्कि वह एक भविष्य वाणी थी।
नरेन्द्रनाथ बालक होकर भी अपना आत्म सम्मान करना जानते थे। अगर कोई उनकी आयु को देखकर उनकी अवहेलना करना चाहता तो वे इसे बरदाश्त नहीं करते थे। बुद्धि की दृष्टि से वे स्वयं को उससे छोटा या बड़ा समझने का कोई कारण नहीं खोज पाते थे और दूसरों को इस प्रकार सोचने का कोई अवसर देना नहीं चाहते थे। एक बार जब उनके पिता के एक मित्र ने बिना कारण उनकी अवहेलना करने लगे तो नरेन्द्र सोचने लगा-''यह कैसा आश्चर्य है मेरे पिता जी भी मुझे इतना तुच्छ नहीं समझते और ये मुझे ऐसा कैसे समझ रहे हैं ?'' अत: आहत होकर उन्होंने दृढ़ स्वर में कहा-''आपके समान ऐसे अनेक लोग हैं जो यह सोचते हैं कि लड़कों में बुद्धि-विचार नहीं होता, किंतु यह धारणा नितांत गलत है।'' जब आगन्तुक सज्जन ने देखा कि नरेन्द्र अत्यंत क्षुब्ध हो उठा है और वह उनसे बात करने को तैयार नहीं है, तब उन्होंने अपनी गल्ती स्वीकार कर ली।
नरेन्द्र में पाक कला के प्रति स्वाभाविक रूचि थी। रायपुर में अपने पिता की सहायता से वे इस कला में निपुण हो गए। यहां वे शतरंज भी खेलना सीख गए और संगीत में भी पारंगत हो गए। वे एक अच्छे गायक भी थे। उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष भी रायपुर में विकसित हुआ। दो वर्ष रायपुर में रहकर विश्वनाथ दत्ता का परिवार कलकत्ता वापस लौट गया। तब नेरन्द्र का शरीर स्वस्थ, सबल और हृष्ट पुष्ट हो गया था और उनमें आत्म विश्वास जागृत हो उठा था। वे ज्ञान में अपने सम वयस्कों की तुलना में बहुत आगे निकल गए थे। किंतु बहुत समय तक नियमित विद्यालय नहीं जाने के कारण शिक्षकगण उन्हें उच्च कक्षा में भर्ती नहीं कर रहे थे। बाद में विशेष अनुमति से उन्हें भर्ती किया गया। सन् 1879 की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में पास होने वाले वे अकेले थे।
नरेन्द्रनाथ के सर्वमुखी विकास में रायपुर का विशेष योगदान के कारण ही ऐसा हुआ। आइये, उनके जीवन के उस पक्ष को भी देखें जब वे स्वामी विवेकानंद के रूप में परिव्रजन करते हुए मध्यप्रदेश के खंडवा नगर में उन्हें कुछ समय तक एक भंगी परिवार के साथ रहना पड़ा। यह पहला अवसर था जब वे समाज के सबसे निम्न समझे जाने वाले लोगों के बीच रहे। स्वामी जी उनकी दयनीय स्थिति और गरीबी में पलता हुआ उनका विशाल हृदय को देखकर अभिभूत हो उठे। ऊंचे कहाने वालों के शोषण और अत्याचार से उनकी दुर्दशा का स्मरण करके वे अत्यंत व्यथित हो उठे। अपने पत्रों में इस वेदना को वे कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं-''इस अंचल में एक बात को देखकर मुझे बहुत दु:ख होता है, वह है संस्कृत और अन्य शिक्षा का अभाव। देश के इस भाग के लोग धर्म के नाम पर जो कुछ जानते हैं उनमें खाना-पीना और नहाना प्रमुख है।'' वे अक्सर कहा करते थे-''यदि मजदूर लोग काम करना बंद कर दें तो उन्हें अन्न, जल और वस्त्र मिलना बंद हो जायेगा। तुम उन्हें नीच जाति का मानकर अपनी संस्कृति का शेखी मारते हो। आजीविका के इस संग्राम में व्यस्त रहने के कारण उन्हें अपने ज्ञान को जागृत करने का अवसर नहीं मिला। वे इतने दिनों तक मानव बुद्धि द्वारा चलने वाले यंत्र के समान सतत काम करते रहे हैं और चतुर समाज ने उनके परिश्रम के फल का सारा अंश ले लिया पर अब जमाना बदल गया है। अब उच्च जाति वाले नीची जाति वालों को और अधिक समय तक दबा नहीं सकते, चाहे वे इसके लिए कितनी ही कोशिश क्यों न करें। उच्च जाति का कल्याण अब इसी में है कि वे निम्न जातियों को उनके यथोचित अधिकार प्राप्त करने में उनकी सहायता करें।''
वे अक्सर कहा करते थे-''भारत वर्ष के इन गरीब, निरीह और निम्न जाति वालों के प्रति हमारे जो भाव हैं उनका विचार करने से मेरे अंत:करण में कितनी पीड़ा होती है। उन्हें कोई अवसर नहीं मिलता, उनके लिए बचने का कोई रास्ता नहीं हैं और उपर चढ़ने का भी कोई मार्ग नहीं है। वे प्रतिदिन अधिकाधिक नीचे डूबते जा रहे हैं। निर्दयी समाज के द्वारा अपने उपर होने वाले आघातों का वे अनुभव तो करते हैं, पर वे नहीं जानते कि ये आघात कहां से हो रहे हैं। वे भी दूसरों के समान मनुष्य हैं, इस बात को वे भूल गए हैं, इसी का परिणाम है गुलामी और दासत्व। विगत कुछ वर्षों के भीतर विचारशील पुरुषों ने इस बात को देख लिया है, पर दुर्भाग्यवश वे इसका दोष हिन्दू के मत्थे मढ़ते हैं और उनको तो सुधार का एक ही उपाय दिखाई देता है कि संसार के इस धर्म को कुचल दिया जाए। मेरे मित्रों ! मेरी बात ध्यान से सुनो, ईश्वर की दया से मैंने रहस्य का पता लगा लिया है। दोष धर्म का नहीं है। इसके विपरीत तुम्हारा धर्म तो यही सिखाता है कि प्रत्येक प्राणी स्वयं तुम्हारी आत्मा का ही अनेक रूपों में विकसित हुआ है, पर दोष है व्यवहारिक आचरण का अभाव। इस स्थिति को दूर करना है- धर्म का नाश करके नहीं बल्कि उनके महान उपदेशों का अनुसरण करके।''
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रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा (छत्तीसगढ़)

छत्तीसगढ़ के कर्मवीर पंडित किशोरीमोहन त्रिपाठी

छत्तीसगढ़ के कर्मवीर पंडित किशोरीमोहन त्रिपाठी
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
नदी घाटी सभ्यता के प्रतीक हैं। अत: कहा जा सकता है कि नदी केवल ज़मीनों को सिंचित ही नहीं करती बल्कि एक सभ्यता को जन्म देकर उसका पोषण करती है। कदाचित् इसी कारण जीवन के अवशेष नदियों के तट पर मिलते हैं। सिंधु घाटी, महानदी घाटी, बोराई नदी घाटी की सभ्यता इसके उदाहरण हैं। महानदी छत्तीसगढ़ की पवित्र, प्राचीन और मोक्षदायी नदी है। उसकी पवित्रता से हर कोई लाभान्वित होना चाहता है। ऐसे पवित्र नदी के तट पर स्थित नगर सांस्कृतिक तीर्थ माने गये। क्यों कि यहां पर ऋषि-मुनियों का वास होता है और उनकी तपोभूमि होने के कारण वह पवित्र होता है। सिहावा, राजिम, सिरपुर से लेकर मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुर, बालपुर, पुजारीपाली, संबलपुर, सोनपुर और कटक तक महानदी के तटवर्ती ग्राम सांस्कृतिक तीर्थ माने गये। यहां साहित्यिक प्रतिमाएं के जन्म और कर्म भूमि होने के कारण इसे साहित्यिक तीर्थ भी माना गया। यह मेरा परम सौभाग्य है कि मेरी काया का जन्म भी महानदी के तट पर स्थित सांस्कृतिक और साहित्यिक तीर्थ शिवरीनारायण की पवित्र भूमि में हुआ है. और ऐसे लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकारों की श्रृंखला में अंतिम छोर पर मेरा भी नाम जुड़ा है। मुझसे पहले न जाने कितने साहित्यकारों के नाम है, कहां से शुरू करूं समझ में नहीं आ रहा है। बहरहाल, बालपुर का समूचा पाण्डेय परिवार साहित्य को समर्पित हो गया। लेकिन राजिम, धमतरी, रायपुर, बिलासपुर, खरौद, शिवरीनारायण, सारंगढ़, रायगढ़ भी साहित्य के क्षेत्र में कभी पीछे नहीं रहा है। बल्कि छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोने का सत्कार्य भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी और सुप्रसिद्ध कवि, आलोचक और उपन्यासकार ठाकुर जगमोहनसिंह ही थे। वे सन् 1880 से 1882 तक धमतरी में तथा सन् 1882 से 1889 तक शिवरीनारायण तहसील के तहसीलदार थे। उन्होंने बनारस में ''भारतेन्दु मंडल'' की तर्ज में शिवरीनारायण में ''जगमोहन मंडल'' की स्थापना की थी और इनके माध्यम से उन्होंने यहां के बिखरे साहित्यकारों को जोड़कर लेखन की एक दिशा प्रदान की। एक प्रकार से छत्तीसगढ़ ही उनकी कार्यस्थली थी। महानदी का तटवर्ती अंचल सभ्यता और साहित्य प्रतिभा से सम्पोषित है। उन्हीं में सरिया भी एक उड़िया भाषी कस्बा है जहां पंडित किशोरीमोहन त्रिपाठी का जन्म हुआ। वे साहित्य के कर्मवीर पंडित थे।
सरिया, सारंगढ़ से लगभग 45 कि.मी., रायगढ़ जिला मुख्यालय से 70 कि.मी. और सारंगढ़ होकर लगभग 95 कि.मी. और बरगढ़ से लगभग 75 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहां उड़िया भाषी लोगों का बाहुल्य है। सरिया पूर्व में संबलपुर रियासत का एक अभिन्न अंग था जिसे एक सैन्य सेवा के बदले संबलपुर के राजा द्वारा सन् 1688 ई.में सारंगढ़ के राजा को प्रदान किया गया था। सरिया परगना पूरे सारंगढ़ रियासत में महत्वपूर्ण और सर्वाधिक धान उत्पादक क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। आज यह छत्तीसगढ़ और उड़ीसा प्रांत को जोड़ने वाला महत्वपूर्ण नगर है। यहां 06 नवंबर सन् 1912 (दीपावली की रात) को पंडित किशोरीमोहन त्रिपाठी का जन्म हुआ। बचपन की किलकारियों में माता पिता के स्नेह और वात्सल्य का महत्वपूर्ण योगदान होता है। मगर जन्म के कुछ ही दिन गुजरे होंगे कि उनके पिता पंडित बलभद्रप्रसाद त्रिपाठी का निधन हो गया और वे पिता के स्नेह से वंचित हो गये। लेकिन पूरी सरिया बस्ती बालक किशोरीमोहन को पुत्रवत् स्नेह दिया जिसके संबल पर वे रायगढ़ जिले से स्वतंत्र भारत के प्रथम सांसद बनने का गौरव हासिल किये। यही नहीं बल्कि उनकी साहित्यिक प्रतिभा से पूरा क्षेत्र परिचित हो गया था। तभी तो वे कहा करते थे-''चारों धामों से बढ़कर मेरे लिए सरिया भी एक धाम है। उस गांव की माटी मेरे लिए चंदन है जिसे मैं अपने माथे से लगाये रखना चाहता हूं।''
किशोरीमोहन जी की प्राथमिक शिक्षा दीक्षा सरिया में ही हुई। शुरू से ही वे मेधावी थे। भाषा की शुद्धता के लिए वे एक बार शाला निरीक्षक श्री श्यामलाल पोद्दार से पुरस्कृत भी हुए थे। उनके पिता और दादा जी दोनों शिक्षक थे और इस प्रकार वे भाषा की शुद्धता का संस्कार विरासत में पाये थे। दृढ़ निश्चियी तो वे बचपन से ही थे-एक बार जो सोच लिया उसे वे पूरा करके ही मानते थे। हाई स्कूल की पढ़ाई करने के लिए वे सरिया से रायगढ़ आये तो रायगढ़ के ही होकर रह गये। यहां सन् 1930 में उन्होंने हाई स्कूल की शिक्षा नटवर हाई स्कूल रायगढ़ से पूरी की। मेट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद त्रिपाठी जी की शिक्षा में ठहराव सा आ गया। इस समय आर्थिक विपन्नता के दौर से गुजर रहे थे.. और राजनीतिक कारणों से तत्कालीन राजा चक्रधरसिंह द्वारा प्रदत्त 30 रुपया मासिक की छात्रवृत्ति रद्द कर दी गई थी। तब उन्हें पहली बार अपनी गरीबी पर बहुत दुख हुआ था। उन्होंने अपनी डायरी के पन्नों में लिखा है :-''इस तरह गरीबी ने मेरे भविष्य पर पहला नकारात्मक हमला किया और मैं देख रहा हूं कि आज भी सैकड़ों-हजारों होनहार लोगों का भविष्य पूर्णत: या आंशिक रूप से बरबाद होता चला जा रहा है और दुनिया ऐसी है कि इस गरीबी को दूर करने के लिए या तो चांद सूरज से परामर्श लेने जा रही है या गरीबों को ही समाप्त करती जा रही है, यह पागलपन नहीं तो और क्या है..?'' गरीबी से जूझने के लिए वे कमर कस लेते हैं और तब वे 06 रुपये मासिक वेतन पर खादी भंडार में नौकरी करने लगते हैं। बाद में वे नगरपालिका रायगढ़ के ग्रंथालय में ग्रंथपाल के रूप में नौकरी करने लगते हैं। तब नगरपालिका का ग्रंथालय टाउन हाल के एक भाग में लगता था। सन् 1938 में वे नटवर हाई स्कूल में शिक्षक नियुक्त हुए। एक शिक्षक के रूप में त्रिपाठी जी की उपलब्धियाँ अक्षुण्ण है। वे स्वयं लिखते हैं-''एक शिक्षक के रूप में अपनी उपलब्धि या सफलता का मूल्यांकन करना मेरे लिए उचित नहीं है, इतना कहना यथेष्ट होगा कि आज भी रायगढ़ की जनता ''गुरु'' के रूप में मेरा सम्मान करती है, विधायक या सांसद के रूप में नहीं..।''
रायगढ़ के जनकवि श्री आनंदी सहाय शुक्ल उनके प्रिय शिष्य हैं। त्रिपाठी जी के बारे में वे लिखते हैं-''नपी तुली देहयष्टि, कंचन सी चमकती त्वचा, चश्मे से झाँकती आंखें और आकर्षक हंसी, धवल दंत पंक्ति, न देवता न दैत्य, एक साधारण मनुष्य पर हजारों में एक पुस्तकालय में मैं उन्हें देखा। पढ़ने की इच्छा मुझमें प्रायमरी स्कूल के बाद से ही बलवती हो उठी थी। महज एक लड़का जो पाँचवी कक्षा का एक छात्र था, गुरुदेव त्रिपाठी जी का प्रसाद अनायास पा गया। पुस्तकालय में उनका पुत्रवत् स्नेह और एक साथी की तरह व्यवहार पाकर मैं निसार हो गया। कठोर पहलवान पिता की फौलादी बंदिशों में तड़पता मन जैसे देवदार की गझिन छांव पा गया। गुरुदेव भी मेरी पठन क्षमता पर खुश होते थे। देवकीनंदन खत्री, शरद बाबू, और प्रेमचंद जैसे महारथियों की कृतियां उनकी कृपा से मेरे मानस पटल पर विचरने लगी। टाउन हाल की ऊपरी मंजिल पर स्थित पुस्तकालय मेरी बाल स्मृति में एक मंदिर की भांति छाप छोड़ गया। कुर्सी पर बैठे गुरुदेव उस समय मुझे अलौकिक प्राणी लगते थे। उन वर्षों में मैं उनसे बराबर निर्देश प्राप्त करता रहा। धीरे धीरे कितने सूर्य ढले, कितनी रातें गई, ग्रीष्म, वर्षा, हेमंत और वसंत जलवे दिखाकर जाते आते रहे.. और एक दिन गुरुदेव नटवर हाई स्कूल में शिक्षक होकर आ गये। आठवीं तक उनसे विद्यादान लेता रहा। इससे मेरी साहित्यिक अभिरुचि विकसित हुई और मेरे चक्षु यह जानकर विस्फारित हो गये कि गुरुदेव एक कवि हैं, और श्रद्धा का एक पायदान और बढ़ गया। बाहरी पढ़ाई के कारण मैं स्कूली पढ़ाई में साधारण था, खासकर गणित से तो मेरा जन्मजात बैर था। वैसे किसी भी विषय में मैं औसत ही था और हर शिक्षक मेरी शारीरिक समीक्षा अवश्य करता था। उस समय स्कूली शिक्षा में पिटाई सबसे महत्वपूर्ण था। केवल गुरुदेव ही ऐसे थे जिन्होंने मुझे फूल की छड़ी से भी नहीं छुआ। मुझे क्या, उस युग में उनके द्वारा मैंने किसी छात्र को पिटते नहीं देखा। नाइन्थ के बाद मेरी पढ़ाई छूट गई और मैं कविता लिखने लगा। तब इस क्षेत्र में मुझे किसी ने प्रोत्साहित किया तो वे पंडित किशोरीमोहन त्रिपाठी जी ही थे। उनके ही प्रोत्साहन से मैं आज कविता के इस मुकाम तक पहुंचा हूं।''
त्रिपाठी जी एक क्रांतिकारी भी थे। देश की गुलामी के बारे में वे हमेशा चिंतन किया करते थे। इसी कारण सन् 1945 में शासकीय नौकरी का परित्याग करके वे स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गये। देश आजादी की राह पर था। देश में स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी। संविधान निर्माण समिति में त्रिपाठी जी को भी 17 जुलाई 1947 को शामिल कर लिया गया। इसके बाद उन्हें देश की पहली संसद में संसद सदस्य मनोनीत किया गया। सांसद के रूप में उन्होंने कुछ उल्लेखनीय कार्य किया। सबसे पहले योजना आयोग के गठन का सुझाव त्रिपाठी जी ने ही दिये। इसी प्रकार नागरिकता नियंत्रण कानून आयोग, नये सिक्कों का प्रचलन, लेखा के लिए दशमलव प्रणाली और रिजर्व बैंक के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव रखने वालों में वे प्रमुख थे।
एक स्वाभिमानी और मुखर सांसद के रूप में वे हमेशा चर्चित रहे। ''जिंजर ग्रुप'' नाम से गठित समाजवादी मंच के रूप में आगे बढ़ा, यह उन्हीं की देन थी। हालांकि पार्टी के अंदर कलह के कारण उन्हें 1952 के आम चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। लेकिन 1962 में धरमजयगढ़ विधान सभा क्षेत्र से वे विधायक चुने गये। राजनीतिक जीवन के उतार चढ़ाव से एक प्रकार से वे सामाजिक जीवन से कट से गये थे। अत: सन् 1967 के बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया और 19 मई 1969 से रायगढ़ से प्रथम साप्ताहिक बयार का प्रकाशन शुरू किया। इसके माध्यम से वे जन मानस की समस्याओं की ओर शासन का ध्यान आकर्षित करने लगे। इसी समय उनका कवि मन पुन: जागृत हुआ और वे साहित्यिक गोष्ठियों में आने जाने लगे। ऐसे कई साहित्यिक गोष्ठियों में मैं उनके वक्तव्यों को सुना हूं। उनका स्नेह मुझे यथा समय मिला। एक वाकया मुझे याद आ रहा है। सन् 1987 में मेरी उनसे मुलाकात एक साहित्यिक गोष्ठी हुई, तब राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में मेरी विभिन्न विधाओं में रचनाएं प्रमुखता से प्रकाशित होती थी, इसके बावजूद बहुत कम लोग जानते थे कि मैं ही अश्विनी केशरवानी हूं। दूसरी बार एक साहित्यिक गोष्ठी में मैं हमारे महाविद्यालय के प्राचार्य और लोकप्रिय साहित्यकार डॉ. प्रमोद वर्मा को साथ लेकर गया। कार्यक्रम शुरू होने में समय था, चर्चा के दौरान उन्होंने त्रिपाठी जी से मेरा परिचय कराते हैं :- ''ये अश्विनी केशरवानी हैं, धर्मयुग, नवनीत हिन्दी डायजेस्ट, हिन्दुस्तान, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स के अलावा सभी क्षेत्रीय अखबारों में लिखते हैं.'' उन्होंने मुझे गौर से देखा और मेरा पीठ थपथपाते हुये आशीर्वाद दिया। मुझे उनका स्नेह भाजन बनते सबने देखा और सबने मेरी रचनाओं को सराहा। उनका दर्शन करके मैं अभिभूत हो गया।
पंडित किशोरीमोहन जी उन बिरले लोगों में से हैं जो राजनीति में साहित्यकार और साहित्य में राजनीतिक होने की नियति से अभिशप्त रहे हैं। एक लाइब्रेरियन से टीचर और टीचरी से संसद और फिर मध्यप्रदेश की विधान सभा और अंत में महामाया प्रिंटिंग प्रेस में साप्ताहिक बयार के प्रकाशन में उनका जीवन वृत्त सीमित हो गया। नदी, पहाड़, जंगल और मैदान के इस कंटूर में त्रिपाठी जी की एक अंतर् धारा कविता के रूप में अपने अध्यात्म के साथ साथ सामाजिक चेतना से भी साक्षात्कार करती रही है। पत्रकारिता से सत्ता की गलियारों में छलांग लगाने वाले बहुतों को देखा लेकिन सत्ता के प्रभा मंडल में बहुत करीब से गुजरने के बाद पत्रकारिता को अपनाने वाले एक बिरले उदाहरण हैं। वे स्वयं कहते हैं:-
सेवा का व्रत वरद धर, जीत जगत मैदान।
काल कृपण डर कर करे, तुझे अमरता दान॥
वे हमेशा कर्म के प्रति सजग रहे। उससे उन्होंने कभी मुंह नहीं मोड़ा, इसलिए वे कर्मवीर हैं। देखिए कर्म के बारे में उनके विचार :-
जला कर्म की वन्हि पर, तपा रहा मैं प्राण।
जांच रहा हूं कांच या मैं कंचन द्युतिमान॥
तपकर कंचन निखरता, तप कर रवि द्युतिमान।
नर डर मत तू ताप से, ताप उचित पहचान॥
''...त्रिपाठी जी छायावादी युग में लिखने वाले रहस्यवाद चेतना के मधुर गायक थे। उनके दोहों में प्रेम, सौंदर्य और भक्ति का विनम्र निवेदन है। उनके गीतों में प्रेम का उच्चादर्श, साधना की उच्च तपोभूमि और संगीत की माधुरी दर्शनीय है।'' डॉ. बल्देव के इस विचार से मैं सहमत हूं। छायावाद के उत्तरार्ध में त्रिपाठी जी की कविता कर्म पूरे यौवन पर था। उनकी रचनाएं संगीत की राग रागिनियां में आबद्ध है। उनकी रचनाएं समाज परक और मानवीय पीड़ा को उजागर करने वाली है। उनकी सीख की एक बानगी पेश है :-
कर्मों की गणना क्रमिक, तथा कथित विधि लेख।
उन्नति अवनति को सखे, निज कर्मों में देख॥
पंडित जी की रचनाओं के बारे में पंडित मुकुटधर जी पांडेय के विचार दृष्टव्य है :-''कविवर पंडित किशोरीमोहन त्रिपाठी जी की रचनाओं में कालिदास के शब्दों में वागर्थ की प्रतिपत्ति पायी जाती है। अत्याधुनिक रचनाओं से निकली एक पृथक पहचान स्पष्ट है। उनके दोहों में उनके जीवन व्यापी अनुभवों का सार संक्षेप पाया जाता है। वे बिहार के ''देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर'' को चरितार्थ करते हैं।'' पांडेय जी को ऐसा विश्वास है कि इनसे नई पीढ़ी को अवश्य प्रेरणा मिलेगी। इन दोहों में कवित्तपूर्ण भाषा में सत्कर्म, सेवा, धर्म, सदाचार, परोपकार, भगवत्प्रेम, मातृभूमि का अनुराग पर प्रकाश डाला गया है।
त्रिपाठी जी एक सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले रहस्यवाद के सफल और सार्थक कवि थे। उनके कवि रूप से बहुत कम लोग ही परिचित होंगे। समय और परिस्थितियां उन्हें कई ज़िम्मेदारियाँ सौंपी और वे एक कर्मवीर की भांति उसे निभाते रहे। जीवन के आपाधापी को अपनी कविता के रूप में कागजों में उतारते रहे। उन्होंने काव्य की हर विधा में लेखन किया है। समय के साथ उनकी कविता का रूप बदलता रहा। उनकी कविताओं का एक मात्र संकलन ''मन बैरी मनमीत'' ही प्रकाशित है, शेष अप्रकाशित। उन्होंने 25 सितंबर 1994 को अंतिम सांस ली और हमें बिलखता छोड़ गये। निःसंदेह उनके निधन से साहित्यिक जगत को अपूरणीय क्षति हुई है जिसकी भरपायी संभव नहीं है। उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है...
अथकर दुख का जन्म ने, पाया जग से प्यार।
मृत्यु रही मुंह ताकती, दे दुख से उद्धार॥
शासकीय कन्या महाविद्यालय रायगढ़ का नामकरण पंडित किशोरीमोहन त्रिपाठी के नाम पर किया गया है। यह देर से ही किंतु सही प्रयास है। उनके अवदान का रायगढ़ की जनता ने उचित आकलन करके ऐसा किया है। उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री प्रभात त्रिपाठी सुप्रसिद्ध कवि हैं और श्री सुभाष त्रिपाठी उनके द्वारा शुरू किये गये महामाया प्रिंटिंग प्रेस और साप्ताहिक बयार का सफलता पूर्वक संचालन कर रहे हैं।
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रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)

शनिवार, 5 जनवरी 2008

शिवरीनारायण के देवालय और परंपराएं




शिवरीनारायण के देवालय और परंपराएं-प्रो. अश्विनी केशरवानी
महानदी के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से भरपूर और छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी के नाम से विख्यात शिवरीनारायण जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 60 कि. मी., बिलासपुर से 64 कि. मी., कोरबा से 110 कि. मी., रायगढ़ से व्हाया सारंगढ़ 110 कि. मी. और राजधानी रायपुर से व्हाया बलौदाबाजार 120 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। यह नगर कलचुरि कालीन मूर्तिकला से सुसज्जित है। यहां महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी का त्रिधारा संगम प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा नमूना है। इसीलिए इसे ''प्रयाग'' जैसी मान्यता है। मैकल पर्वत श्रृंखला की तलहटी में अपने अप्रतिम सौंदर्य के कारण और चतुर्भुजी विष्णु मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कंद पुराण में इसे ''श्री नारायण क्षेत्र'' और ''श्री पुरूषोत्तम क्षेत्र'' कहा गया है। प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से यहां एक बृहद मेला का आयोजन होता है, जो महाशिवरात्रि तक लगता है। इस मेले में हजारों-लाखों दर्शनार्थी भगवान नारायण के दर्शन करने जमीन में ''लोट मारते'' आते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं और पुरी के भगवान जगन्नाथ के मंदिर का पट बंद रहता है। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। तत्कालीन साहित्य में जिस नीलमाधव को पुरी ले जाकर भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किया गया है, उसे इसी शबरीनारायण-सिंदूरगिरि क्षेत्र से पुरी ले जाने का उल्लेख 14 वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने किया है। इसी कारण शिवरीनारायण को छत्तीसगढ़ का जगन्नाथ पुरी कहा जाता है और शिवरीनारायण दर्शन के बाद राजिम का दर्शन करना आवश्यक माना गया है क्योंकि राजिम में ''साक्षी गोपाल'' विराजमान हैं। कदाचित् इसी कारण यहां के मेले को ''छत्तीसगढ़ का कुंभ'' कहा जाता है जो प्रतिवर्ष लगता है।
गुप्तधाम :-
चारों दिशाओं में अर्थात् उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम् पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिकाधाम स्थित है लेकिन मध्य में ''गुप्तधाम'' के रूप में शिवरीनारायण स्थित है। इसका वर्णन रामावतार चरित्र और याज्ञवलक्य संहिता में मिलता है। यह नगर सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर, द्वापरयुग में विष्णुपुरी और नारायणपुर के नाम से विख्यात था जो आज शिवरीनारायण के नाम से चित्रोत्पला-गंगा (महानदी) के तट पर कलिंग भूमि के निकट दैदीप्यमान है। यहां सकल मनोरथ पूरा करने वाली मां अन्नपूर्णा, मोक्षदायी भगवान नारायण, लक्ष्मीनारायण, चंद्रचूड़ और महेश्वर महादेव, केशवनारायण, श्रीराम लक्ष्मण जानकी, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा से युक्त श्री जगदीश मंदिर, राधाकृष्ण, काली और मां गायत्री का भव्य और आकर्षक मंदिर है। यहां की महत्ता का वर्णन पंडित हीराराम त्रिपाठी द्वारा अनुवादित शबरीनारायण माहात्म्य में किया गया है:-
शबरीनारायण पुरी क्षेत्र शिरोमणि जान
याज्ञवलक्य व्यासादि ऋषि निज मुख करत बखान।
कियो संहिता संस्कृत, याज्ञवलक्य मति धीर
भरद्वाज मुनिसो कहो देव सरित के तीर।
सुयश सुखद श्रीराम के सनत होत आनंद
उदाहरण भाषा रच्यो द्विज हीरा मतिमंद।
बुध्दिहीन विद्या रहित लहत न कौड़ी धाम
सत्संग से सो भयो हीरा हीराराम।
श्रीगुरू राम उपासना भक्ति रसिक अनुयाम
गौतमदास महंत मठ नारायणपुर धाम।
शबरीनारायण मंदिर :-
यहां के प्राचीन मंदिरों और मूर्तियों की भव्यता और अलौकिक गाथा अपनी मूलभूत संस्कृति का शाश्वत रूप प्रकट कर रही है, जो प्राचीनता की दृष्टि से अद्वितीय है। 8-9 वीं शताब्दी की मूर्तियों को समेटे मंदिर एक कलात्मक नमूना है, जिसमें उस काल की कारीगरी आज भी देखी जा सकती है। 172 फीट ऊंचा, 136 फीट परिधि और शिखर में 10 फीट का स्वर्णिम कलश के कारण कदाचित् इसे ''बड़ा मंदिर'' कहा जाता है। वास्तव में यह नारायण मंदिर है और प्राचीन काल से श्री शबरीनारायण भगवान के नाम से प्रसिद्ध है। यह उत्तर भारतीय आर्य शिखर शैली का उत्तम उदाहरण है। इसका प्रवेश द्वार सामान्य कलचुरि कालीन मंदिरों से भिन्न है। इस प्रवेश द्वार की शैलीगत समानता नागवंशी मंदिरों से अधिक है। वर्तमान मंदिर जीर्णोद्धार के कारण नव कलेवर में दृष्टिगत होता है। इस मंदिर के गर्भगृह में दीवारों पर चित्र शैली में कुछ संकेत भी दृष्टिगत होता है। कारीगरों का यह सांकेतिक शब्दावली भी हो सकता है ? प्राचीन काल में यहां पर एक बहुत बड़ा जलस्रोत था और इसे बांधा गया है। जलस्रोत को बांधने के कारण मंदिर का चबूतरा 100 ´ 100 मीटर का है। जलस्रोत भगवान नारायण के चरणों में सिमट गया है। इसे ''रोहिणी कुंड'' कहा जाता है। इस कुंड की महत्ता कवि बटुकसिंह चौहान के शब्दों में :-
रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर
बंदरी से नारी भई, कंचन भयो शरीर।
जो कोई नर जाइके, दरशन करे वही धाम
बटुक सिंह दरशन करी, पाये परम पद निर्वाण।
इसी प्रकार सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने इसे मोक्षदायी बताया है :-
रोहिणि कुंडहि स्पर्श करि चित्रोत्पल जल न्हाय।
योग भ्रश्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय॥
इस मंदिर के गर्भ द्वार के पार्श्व में वैष्णव द्वारपालों शंख पुरुष और चक्र पुरुष की आदमकद प्रतिमा है। इसी आकार प्रकार की मूर्तियां खरौद के शबरी मंदिर के गर्भगृह में भी है। द्वार शाखा पर बारीक कारीगरी और शैलीगत लक्षण की भिन्नता दर्शनीय है। गर्भगृह के चांदी के दरवाजा को ''केशरवानी महिला समाज'' द्वारा बनवाया गया है। इसे श्री देवालाल केशरवानी ने जीवन मिस्त्री के सहयोग से कलकत्ता से सन् 1959 में बनवाया था। गर्भगृह में भगवान नारायण पीताम्बर वस्त्र धारण किये शंख, चक्र, पद्म और गदा से सुसज्जित स्थित हैं। साथ ही दरवाजे के पास परिवर्ती कालीन गरूड़ासीन लक्ष्मीनारायण की बहुत ही आकर्षक प्रतिमा है जिसे जीर्णोद्धार के समय भग्न मंदिर से लाकर रखा गया है। मंदिर के बाहर गरूड़ जी और मां अम्बे की प्रतिमा है। मां अम्बे की प्रतिमा के पीछे भगवान कल्की अवतार की मूर्ति है जो शिवरीनारायण के अलावा जगन्नाथ पुरी में है। श्री प्रयागप्रसाद और श्री जगन्नाथप्रसाद केशरवानी ने मंदिर में संगमरमर लगवा कर सत्कार्य किया है। मंदिर में सोने का कलश क्षेत्रीय कोष्टा समाज के द्वारा सन् 1952 में लगवाया गया है।
शिवरीनारायण के बड़े मंदिर में स्थित मूर्तियों के बारे में लोगों में भेद है। कुछ लोग इसे श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्ति मानते हैं, जो सीता जी की खोज करते यहां आये थे और यहां उनकी शबरी से भेंट हुई और उनके जूठे बेर खाये। शबरी के इच्छानुरूप इस स्थान को ''शबरी-नारायण'' के रूप में प्रख्यात किये। यहां से मात्र 3 कि.मी. पर स्थित खरौद के दक्षिण द्वार पर शबरी मंदिर है, इसे ''सौराइन दाई'' भी कहा जाता है। प्राचीन साहित्य में यहां का नाम ''शौरिनारायण'' मिलता है। डॉ. प्यारेलाल गुप्त ने प्राचीन छत्तीसगढ़ में लिखा है :-''शिवरीनारायण का प्राचीन नाम शौरिपुर होना चाहिये। शौरि भगवान विष्णु का एक नाम है और शौरि मंडप के निर्माण कराये जाने का उल्लेख एक तत्कालीन शिलालेख में हुआ है।'' इस मंदिर के निर्माण के सम्बंध में भी अनेक किंवदंतियां प्रचलित है। इतिहासकार इस मंदिर का निर्माण किसी शबर राजा द्वारा कराया गया मानते हैं। सुप्रसिद्ध साहित्यकार और भोगहापारा (शिवरीनारायण) के मालगुजार पंडित मालिकराम भोगहा ने भी इस मंदिर का निर्माण किसी शबर के द्वारा कराया गया मानते हैं। छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास में 5वीं शताब्दी के अंतिम चरण और 6वीं शताब्दी के प्रारंभ में दक्षिण कोसल में शरभवंश का उदय हुआ था जिसकी राजधानी शरभपुर में थी। लेकिन शरभपुर की वास्तविक स्थिति का पता अभी तक नहीं चल सका है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस वंश का आदि पुरुष शरभराज थे, जिनकी राजधानी सारंगपुर में थी। शरभराज के पुत्र नरेन्द्र के शासन काल में दो ताम्र पत्र क्रमश: पिपरदुला (सारंगढ़) और कुरूद (जिला रायपुर) में मिला है। लेकिन शरभवंशी राजाओं के द्वारा किये गये कार्यों की स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। डॉ. हीरालाल ने सिरपुर को शरभपुर माना है। उनके अनुसार शरभपुरियों ने सिरपुर में पांडुवंशियों के बाद शासन किया और सिरपुर का नाम बदलकर शरभपुर रखा। पंडित लोचनप्रसाद पांडेय ने उड़ीसा के राजगांगपुर के प्रमुख नगर शर्पपुर अथवा शरभगढ़ को शरभपुर बताया है। डॉ. व्ही. व्ही. मिराशी के अनुसार 12 वीं शताब्दी में रत्नपुर के कलचुरी राजा बहुत ही शक्तिशाली थे और उन्होंने ही महानदी और शिवनाथ नदी के संगम के पास स्थित शिवरीनारायण में भगवान विष्णु का एक भव्य मंदिर बनवाया है। कुछ विद्वान इस मंदिर का निर्माण छैमासी रात में हुआ मानते हैं। एक किंवदंती के अनुसार शिवरीनारायण के इस मंदिर और जांजगीर के विष्णु मंदिर में छैमासी रात में बनने की प्रतियोगिता थी। सूर्योदय के पहले शिवरीनारायण का मंदिर बनकर तैयार हो गया इसलिये भगवान नारायण उस मंदिर में विराजे और जांजगीर का मंदिर को अधूरा ही छोड़ दिया गया जो आज उसी रूप में स्थित है। शिवरीनारायण का यह मुख्य मंदिर उत्तर भारतीय आर्य शिखर शैली का उदाहरण है और उसका प्रवेश द्वार सामान्य कलचुरि प्रकार के मंदिरों से भिन्न है। इस प्रवेश द्वार की शैलीगत समानता नागवंशी मंदिरों के प्रवेशद्वार से की जा सकती है।
महाभारत कालीन विष्णुपुर :-
छत्तीसगढ़ में महाभारत कालीन अवशेष मिलते हैं। सिरपुर को जहां प्राचीन छत्तीसगढ़ की राजधानी होने का गौरव प्राप्त है, वहीं उसे महाभारत कालीन मणिपुर भी कहा जाता है। आरंग और रत्नपुर में भी इस काल के अवशेष मिले हैं। महानदी घाटी तो चतुर्भुजी विष्णु मूर्तियों से सजा है जिसके कारण इस क्षेत्र को स्कंदपुराण में श्रीनारायण और श्रीपुरूषोत्तम क्षेत्र कहा गया है। उल्लेखित तथ्यों के अनुसार श्रीकृष्ण की मृत्यु जरा नाम के एक बहेलिया के तीर से हो जाती है। जरा पूर्व जन्म में महाबली बाली था और जिसे श्रीराम ने सुग्रीव से मित्रता करने के पूर्व मारा था। मरते समय बाली ने श्रीराम को श्राप दिया कि ''जिस तरह मुझे आपने छल पूर्वक मारा है उसी प्रकार आप भी छल पूर्वक मारे जायेंगे।'' इसी प्रकार महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद गांधारी ने श्रीकृष्ण को इसी प्रकार यादव वंश के नष्ट होने का श्राप दिया था। एक अन्य घटना में यदुवंशी कुमारों ने एक यदु कुमार को स्त्री बनाकर ऋषियों से अभद्रता पूर्वक प्रश्न करने लगे-''हे ऋषिगण ! आप तो सर्वज्ञ हैं, बताइये इसके गर्भ से लड़का जन्म लेगा अथवा लड़की..?'' उनके इस प्रकार के प्रश्नों से त्रस्त होकर ऋषियों ने श्राप दिया-''इसके गर्भ से जो जन्म लेगा वही तुम्हारे वंश के नाश का कारण बनेगा।'' यदु कुमार ऋषियों के इस श्राप से बहुत घबराये और उसके कपड़े उतारकर देखने लगे। उसके पेट से एक लोहे का मुसल निकला जिसे उन लोगों ने समुद्र के किनारे जाकर घिसा। घिसते समय लोहे का जो बुरादा निकला वह समुद्र के लहरों के साथ किनारे आकर जमा हो गया और जो 'बिना गांठ की घास' के रूप में उगा जो यदुवंशियों के हाथ में आते ही मजबूत होकर लड़ने का साधन बना। लोहे का टुकड़ा को अंत में समुद्र में फेंक दिया गया जिसे एक मछली निगल जाती है। यह मछली उसी जरा नाम के बहेलिया को मिलता है। लोहे के उस टुकड़े को वह अपने तीर में लगा लेता है। इसी तीर से श्रीकृष्ण की मृत्यु होती है। हिन्दू वैदिक रीति से उनका दाह संस्कार किया गया जिससे उनका शरीर नहीं जला। तब उस मांस पिंड को समुद्र में प्रवाहित कर दिया गया जिसे बाद में बहेलिया सिंदूरगिरि में लाकर एक जलस्रोत के किनारे रखकर उसकी पूजा-अर्चना करने लगा। इससे उन्हें कई प्रकार की सिद्धियां मिली। आज भी अन्यान्य स्थानों में मृत शरीर को जलाने के बजाय नदियों में प्रवाहित करने का रिवाज है।
इधर उड़ीसा के पुरी में मंदिर निर्माण के बाद मूर्ति की स्थापना के लिये चिंतित राजा को स्वप्नादेश हुआ कि दक्षिण पश्चिम दिशा में चित्रोत्पला गंगा के तट पर सिंदूरगिरि में स्थित मूर्ति को लाकर इस मंदिर में स्थापित करो। राज पुरोहित विद्यापति के अथक प्रयास से मूर्ति को लाया गया। इधर बहेलिया निर्दिष्ट स्थान पर मूर्ति को न पाकर बहुत विलाप करने लगा। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान उन्हें वरदान दिया कि मैं यहां गुप्त रूप से नारायणी रूप में विराजमान रहूंगा। यह ''गुप्त तीर्थधाम'' के रूप में जग प्रसिद्ध होगा। माघ पूर्णिमा को जो कोई मेरा दर्शन करेगा वह मोक्ष का अधिकारी होगा..। बंगाल देशाधिपति राजा धर्म्मवान ने इस स्थान की महिमा से प्रभावित होकर यहां एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया जिसका जीर्णोद्धार रत्नपुर के राजा जाजल्वदेव प्रथम द्वारा कराये जाने का उल्लेख तत्कालीन शिलालेख और साहित्य में मिलता है।
बिलासपुर जिला गजेटियर में इसी प्रकार की एक घटना का उल्लेख है। इस घटना के बाद में बताया गया है कि शबरों को वरदान मिला कि उसके नाम के साथ भगवान नारायण का नाम भी जुड़ जायेगा.. और पहले ''शबर-नारायण'' फिर शबरी नारायण और आज शिवरीनारायण यह नगर कहलाने लगा। डॉ. प्यारेलाल गुप्त ने अपनी पुस्तक ''प्राचीन छत्तीसगढ़'' और ''बिलासपुर वैभव'' में लिखा है:-''जिस स्थान में शिवरीनारायण बसा है, वहां प्राचीन काल में एक घना जंगल था। वहां एक शबर रहता था। उस स्थान में भगवान जगन्नाथ की मूर्ति थी जिसका वह नित्य पूजा-अर्चना किया करता था। एक बार एक ब्राह्मण ने उस मूर्ति को देख लिया और उसे ले जाकर जगन्नाथ पुरी में स्थापित कर दी।''
तंत्र मंत्र की साधना स्थली :-
उड़ीसा के प्रसिद्ध कवि सरलादास ने चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ में लिखा है :-''भगवान जगन्नाथ स्वामी को शिवरीनारायण से लाकर यहां प्रतिष्ठित किया गया है।'' छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरि ठाकुर ने अपने एक लेख-''शिवरीनारायण जगन्नाथ जी का मूल स्थान है'' में लिखा है:-''इतिहास तर्क सम्मत विश्लेषण से यह तथ्य उजागर होता है कि शिवरीनारायण से भगवान जगन्नाथ को पुरी कोई ब्राह्मण नहीं ले गया। वहां से उन्हें हटाने वाले इंद्रभूति थे। वे वज्रयान के संस्थापक थे।'' डॉ. एन. के. साहू के अनुसार- ''संभल (संबलपुर) के राजा इंद्रभूति जिन्होंने दक्षिण कोसल के अंधकार युग (लगभग 8-9वीं शताब्दी) में राज्य किया था। वे बौद्ध धर्म के वज्रयान सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। इंद्रभूति पद्मवज्र (सरोरूहवज्र) के शिष्य अनंगवज्र के शिष्य थे। कविराज गोपीनाथ महापात्र इंद्रभूति को ''उड्डयन सिद्ध अवधूत'' कहा है। सहजयान की प्रवर्तिका लक्ष्मीकरा इन्हीं की बहन थी। इंद्रभूति के पुत्र पद्मसंभव ने तिब्बत जाकर लामा सम्प्रदाय की स्थापना की थी। इंद्रभूति ने अनेक ग्रंथ लिखा है लेकिन ''ज्ञानसिद्धि'' उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध तांत्रिक ग्रंथ है जो 717 ईसवी में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने इस ग्रंथ में भगवान जगन्नाथ की बार बार वंदना की है। इसके पहले जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता नहीं मिली थी। वे उन्हें भगवान बुद्ध के रूप में देखते थे और वे उनके सम्मुख बैठकर तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे। ''इवेज्र तंत्र साधना'' और ''शाबर मंत्र'' के समन्वय से उन्होंने वज्रयान सम्प्रदाय की स्थापना की। शाबर मंत्र साधना और वज्रयान तंत्र साधना की जन्म भूमि दक्षिण कोसल ही है।'' डॉ. जे.पी. सिंहदेव के अनुसार-''इंद्रभूति शबरीनारायण से भगवान जगन्नाथ को सोनपुर के पास सम्बलाई पहाड़ी में स्थित गुफा में ले गये थे। उनके सम्मुख बैठकर वे तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे। शबरी के इष्टदेव जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता दिलाने का यश भी इंद्रभूति को ही है।'' आसाम के ''कालिका पुराण'' में उल्लेख है कि तंत्रविद्या का उदय उड़ीसा में हुआ और भगवान जगन्नाथ उनके इष्टदेव थे।
इंद्रभूति के पश्चात् 8वीं शताब्दी में उनके पुत्र पद्मसंभव ने योग्यता पूर्वक इस तांत्रिक पीठ को संचालित किया। वे भी अपने पिता के समान सिद्ध पुरुष थे। बाद में शांति रक्षित की अनुशंसा पर तिब्बत नरेश रव्रीसोंगल्दे वत्सन ने पद्मसंभव को तिब्बत बुलवा लिया। वत्सन का शासन काल 755 से 797 ईसवी तक माना जाता है। इंद्रभूति की बहन लक्ष्मीकरा का विवाह जालेन्द्रनाथ के साथ हुआ था। बाद में भगवान जगन्नाथ का देखभाल करने वाला कोई नहीं था। अत: तंत्र समुदाय के लोग भगवान जगन्नाथ को पुरी ले आये और यहां स्थापित कर दिये। वस्तुत: शबर लोग प्राचीन काल से ही तंत्रविद्या में प्रवीण थे। भगवान जगन्नाथ उनके उपास्य देव थे। कविराज गोपीनाथ महापात्र ने भी लिखा है ''शबर आदि की म्लेच्छ भाषा में भी मंत्र रहस्यों की व्याख्या होती थी।'' अर्थात् शबर तंत्र तंत्र के ज्ञाता होते थे।
गोपीनाथ महापात्र के अनुसार ''शबरीनारायण संवरा लोगों द्वारा पूजित होते थे जो भुवनेश्वर के पास स्थित धौली पर्वत में रहते थे।'' सरला महाभारत के मुसली पर्व के अनुसार ''सतयुग में भगवान शबरीनारायण के रूप में पूजे जाते थे जो पुरूषोत्तम क्षेत्र में प्रतिष्ठित थे।'' लेकिन वासुदेव साहू के अनुसार ''शबरीनारायण न तो भुवनेश्वर के पास स्थित पर्वत में रहते थे, जैसा कि गोपीनाथ महापात्र ने लिखा है, न ही पुरूषोत्तम क्षेत्र में, जैसा कि सरला महाभारत में कहा गया है। बल्कि शबरीनारायण महानदी घाटी का एक ऐसा पवित्र स्थान है जो जोंक और महानदी के संगम से 3 कि.मी. उत्तर में स्थित है। स्वाभाविक रूप से यह वर्तमान शिवरीनारायण ही है। डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र अपनी पुस्तक ''छत्तीसगढ़ परिचय'' में लिखते हैं-''शबर (सौंरा) लोग भारत के मूल निवासियों में एक हैं। उनके मंत्र जाल की महिमा तो रामचरितमानस तक में गायी गयी है। शबरीनारायण में भी ऐसा ही एक शबर था जो भगवान जगन्नाथ का भक्त था।'' आज भी शिवरीनारायण में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिक गुरुओं नगफड़ा और कनफड़ा बाबा की मूर्ति एक गुफा नुमा मंदिर में स्थित है। इसी प्रकार बस्ती के बाहर आज भी नाथ गुफा देखा जा सकता है। यहां का वैष्णव मठ भी प्राचीन काल में इन्हीं तांत्रिकों के कब्जे में था जिसे आदि गुरु स्वामी दयाराम दास ने शास्त्रार्थ करके उनसे मुक्त कराकर यहां वैष्णव मठ स्थापित कराया और वे इस मठ के पहले महंत बने।
मेला :-
छत्तीसगढ़ में यहां के मेला का विशेष महत्व है। क्यों कि यहां का मेला अन्य मेला की तरह बेतरतीब नहीं बल्कि पूरी तरह से व्यवस्थित होता है। दुकान की अलग अलग लाईन होती है। एक लाईन फल दुकान की, दूसरी लाइन बर्तन दुकानों की, तीसरी लाइन मनिहारी दुकानों की, चौथी लाइन रजाई-गद्दों की, पाँचवी लाइन सोने-चांदी के ज़ेवरों की, होती है। इसी प्रकार एक लाईन होटलों की, एक लाइन सिनेमा-सर्कस की, एक लाइन कृषि उपकरणों, जूता-चप्पलों की दुकानें आदि होती है। इस मेले में दुकानदार अच्छी खासी कमाई कर लेता है।
नगर के पश्चिम में महंतपारा की अमराई में और उससे लगे मैदान में माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक प्रतिवर्ष मेला लगता है। माघ पूर्णिमा को महानदी में स्नान के बाद भगवान शबरीनारायण का दर्शन मोक्षदायी माना गया है। ऐसी भी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ इस दिन पुरी से आकर यहां सशरीर विराजते हैं। कदाचित् इसी कारण दूर दूर से लोग यहां महानदी में स्नान कर भगवान शबरीनारायण का दर्शन करने आते है। यहां बड़ी मात्रा में लोग जमीन में ''लोट मारते'' यहां आते हैं। शिवरीनारायण में मेला लगने की शुरूवात वैसे तो प्राचीन समय से होता चला आ रहा है लेकिन व्यवस्थित रूप महंत गौतमदास जी की प्रेरणा से हुई और मेला को वर्तमान व्यवस्थित रूप प्रदान महंत लालदास जी का बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने मठ के मुख्तियार पंडित कौशलप्रसाद तिवारी की मदद से अमराई में सीमेंट की दुकानें बनायी और मेला को व्यवस्थित रूप प्रदान कराया। महंत लालदास जी के बाद मेला की व्यवस्था का भार जनपद पंचायत जांजगीर ने अपने हाथ में ले लिया। जबसे शिवरीनारायण नगर पंचायत बना है तब से मेले की व्यवस्था नगर पंचायत करती है। नगर की सेवा समितियों और मठ की ओर से दर्शनार्थियों के रहने, खाने-पीने आदि की निशुल्क व्यवस्था की जाती है।
मंदिरों की नगरी :-
शिवरीनारायण में अन्यान्य मंदिर हैं जो विभिन्न कालों में निर्मित हुए हैं। चूंकि यह नगर विभिन्न समाज के लोगों का सांस्कृतिक तीर्थ है अत: उन समाजों द्वारा यहां मंदिर निर्माण कराया गया है। यहां अधिकांश मंदिर भगवान विष्णु के अवतारों के हैं। कदाचित् इसी कारण इस नगर को वैष्णव पीठ माना गया है। इसके अलावा यहां शैव और शाक्त परम्परा के प्राचीन मंदिर भी हैं। इन मंदिरों में निम्नलिखित प्रमुख हैं:-
केशवनारायण मंदिर :
नारायण मंदिर के पूर्व दिशा में पश्चिमाभिमुख सर्व शक्तियों से परिपूर्ण केशवनारायण की 11-12 वीं सदी का मंदिर है। ईंट और पत्थर बना ताराकृत संरचना है जिसके प्रवेश द्वार पर विष्णु के चौबीस रूपों का अंकन बड़ी सफाई के साथ किया गया है। जबकि द्वार के उपर शिव की मूर्ति है। अन्य परम्परागत स्थापत्य लक्षणों के साथ गर्भगृह में दशावतार विष्णु की मानवाकार प्रतिमा है। यह मंदिर कलचुरि कालीन वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। यहां एक छोटा अंतराल है, इसके बाद गर्भगृह। मंदिर पंचरथ है और मंदिर की द्वार शाखा पर गंगा-यमुना की मूर्ति है, साथ ही दशावतारों का चित्रण हैं। इस मंदिर में शैव और वैष्णव परंपरा की मिश्रित संरचना देखने को मिलती है।
चंद्रचूड़ महादेव :-
केशवनारायण मंदिर के वायव्य दिशा में चेदि संवत् 919 में निर्मित और छत्तीसगढ़ के ज्योर्तिलिंग के रूप में विख्यात ''चंद्रचूड़ महादेव'' का एक प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर के द्वार पर एक विशाल नंदी की मूर्ति है। शिवलिंग की पूजा-अर्चना करते राज पुरुष और रानी की हाथ जोड़े पद्मासन मुद्रा में प्रतिमा है। नंदी की मूर्ति के बगल में किसी सन्यासी की मूर्ति है। मंदिर के बाहरी दीवार पर एक कलचुरि कालीन चेदि संवत् 919 का एक शिलालेख है। इस शिलालेख का निर्माण कुमारपाल नामक किसी कवि ने कराया है और भोग राग आदि की व्यवस्था के लिए चिचोली नामक गांव दान में दिया है। पाली भाषा में लिखे इस शिलालेख में रतनपुर के राजाओं की वंशावली दी गयी है। इसमें राजा पृथ्वीदेव के भाई सहदेव, उनके पुत्र राजदेव, पौत्र गोपालदेव और प्रपौत्र अमानदेव के पुण्य कर्मों का उल्लेख किया गया है। इस मंदिर की प्राचीन संरचना नष्ट हो चुकी है और नवीन संरचना में बिखरी मूर्तियों को दीवारों में खचित करके दृष्टव्य है। बहुत संभव है कि इस मंदिर में खचित शिलालेख भी कहीं से लाकर दीवार में खचित कर दी गयी हो ?
राम लक्ष्मण जानकी मंदिर :-
चंद्रचूड़ महादेव मंदिर के ठीक उत्तर दिशा में श्रीराम लक्ष्मण जानकी का एक भव्य मंदिर है जिसका निर्माण महंत अर्जुदास की प्रेरणा से पुत्र प्राप्ति के पश्चात् अकलतरा के जमींदार श्री सिदारसिंह ने कराया था। इसी प्रकार केंवट समाज द्वारा श्रीराम लक्ष्मण जानकी मंदिर का निर्माण रामघाट के पास लक्ष्मीनारायण मंदिर के पास कराया गया है।
शिवरीनारायण मठ :-
नारायण मंदिर के वायव्य दिशा में एक अति प्राचीन वैष्णव मठ है जिसका निर्माण स्वामी दयारामदास ने नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों से इस नगर को मुक्त कराने के बाद की थी। रामानंदी वैष्णव सम्प्रदाय के इस मठ के वे प्रथम महंत थे। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं जिनके नाम निम्नानुसार है:-1. स्वामी दयारामदास 2. स्वामी कल्याणदास 3. स्वामी हरीदास 4. स्वामी बालकदास 5. स्वामी महादास 6. स्वामी मोहनदास 7. स्वामी सूरतरामदास 8. स्वामी मथुरादास 9. स्वामी प्रेमदास 10. स्वामी तुलसीदास 11. स्वामी अर्जुनदास 12. स्वामी गौतमदास 13. स्वामी लालदास 14. स्वामी वैष्णवदास और वर्तमान में इस मठ के श्री रामसुन्दरदास जी महंत हैं। खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर के चेदि संवत् 933 के शिलालेख में मंदिर के दक्षिण दिशा में संतों के निवासार्थ एक मठ के निर्माण कराये जाने का उल्लेख है। इस मठ के बारे में सन 1867 में जे. डब्लू. चीजम साहब बहादुर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इस मठ की व्यवस्था के लिए माफी गांव हैहयवंशी राजाओं के समय से दी गयी है और इस पर इसके पूर्व और बाद में किसी ने हस्तक्षेप नहीं किया है। संवत् 1915 में डिप्टी कमिश्नर इलियट साहब ने महंत अर्जुनदास के अनुरोध पर 12 गांव की मालगुजारी मंदिर और मठ के राग भोगादि के लिये प्रदान किया। यहां संवत् 1927 में महंत अर्जुनदास की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार राजसिंह ने एक जगदीश मंदिर बनवाया जिसे उनके पुत्र चंदनसिंह ने पूरा कराया। इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के अलावा श्रीराम लक्ष्मण और जानकी जी की मनमोहक मूर्ति है। परिसर में हनुमान जी और सूर्यदेव की मूर्ति है। सूर्यदेव के मंदिर को संवत् 1944 में रायपुर के श्री छोगमल मोतीचंद्र ने बनवाया। इसी प्रकार हनुमानजी के मंदिर को लवन के श्री सुधाराम ब्राह्मण ने संवत् 1927 में स्वामी जी की प्रेरणा से पुत्र प्राप्ति के बाद बनवाया। इसके अलावा महंतों की समाधि है जिसे संवत् 1929 में बनवाया गया है।
महेश्वर महादेव और शीतला माता मंदिर :-
महानदी के तट पर छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध मालगुजार श्री माखनसाव के कुलदेव महेश्वर महादेव और कुलदेवी शीतला माता का भव्य मंदिर, बरमबाबा की मूर्ति और सुन्दर घाट है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा द्वारा लिखित श्रीशबरीनारायण माहात्म्य के अनुसार इस मंदिर का निर्माण संवत् 1890 में माखन साव के पिता श्री मयाराम साव और चाचा श्री मनसाराम और सरधाराम साव ने कराया है। माखन साव भी धार्मिक, सामाजिक और साधु व्यक्ति थे। ठाकुर जगमोहनसिंह ने 'सज्जनाष्टक' में उनके बारे में लिखा है। उनके अनुसार माखनसाव क्षेत्र के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बद्रीनाथ और रामेश्वरम् की यात्रा की और 80 वर्ष की सुख भोगा। उन्होंने महेश्वर महादेव और शीतला माता मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। उनके पौत्र श्री आत्माराम साव ने मंदिर परिसर में संस्कृत पाठशाला का निर्माण कराया और सुन्दर घाट और बाढ़ से भूमि का कटाव रोकने के लिए मजबूत दीवार का निर्माण कराया। इस घाट में अस्थि विसर्जन के लिए एक कुंड बना है। इस घाट में अन्यान्य मूर्तियां जिसमें शिवलिंग और हनुमान जी प्रमुख है, के अलावा सती चौरा बने हुये हैं।
लक्ष्मीनारायण-अन्नपूर्णा मंदिर :
नगर के पश्चिम में मैदानी भाग जहां मेला लगता है, से लगा हुआ लक्ष्मीनारायण मंदिर है। मंदिर के बाहर जय विजय की मूर्ति माला लिए जाप करने की मुद्रा में है। सामने गरूड़ जी हाथ जोड़े विराजमान हैं। गणेश जी भी हाथ में माला लिए जाप की मुद्रा में हैं। मंदिर की पूर्वी द्वार पर माता शीतला, काल भैरव विराजमान हैं। वहीं दक्षिण द्वार पर शेर बने हैं। भीतर मां अन्नपूर्णा की ममतामयी मूर्ति है जो पूरे छत्तीसगढ़ में अकेली है। उन्हीं की कृपा से समूचा छत्तीसगढ़ ''धान का कटोरा'' कहलाता है। नवरात्रि में यहां ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती है। बिलाईगढ़ के जमींदार ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार खरौद के गिरि गोस्वामी मठ के महंत हजारगिरि की प्रेरणा से कराया था। जीर्णोद्धार में लक्ष्मीनारायण और अन्नपूर्णा मंदिर एक ही अहाता के भीतर आ गया जबकि दोनों मंदिर का दरवाजा आज भी अलग अलग है। लक्ष्मीनारायण मंदिर का दरवाजा पूर्वाभिमुख है जबकि अन्नपूर्णा मंदिर का दरवाजा दक्षिणाभिमुख है। मंदिर परिसर में दक्षिणमुखी हनुमान जी का मंदिर भी है।
श्रीरामजानकी मंदिर :-
केंवट समाज द्वारा निर्मित श्रीराम, लक्ष्मण और जानकी मंदिर है। इस मंदिर परिसर में भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों की सुंदर मूर्तियां दर्शनीय हैं। इस मंदिर के बगल में संवत् 1997 में निर्मित श्रीरामजानकी-गुरु नानकदेव मंदिर का मंदिर है। इस मंदिर के सर्वराकार पंडित विश्वेश्वरनारायण द्विवेदी हैं।
राधा-कृष्ण मंदिर :-
मां अन्नपूर्णा मंदिर के पास मरार-पटेल समाज के द्वारा राधा-कृष्ण मंदिर और उससे लगा समाज का धर्मशाला का निर्माण कराया गया है। मंदिर के ऊपरी भाग में शिवलिंग स्थापित है। इसी प्रकार लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृह के सामने मथुआ मरार समाज द्वारा राधा-कृष्ण का पूर्वाभिमुख मंदिर बनवाया गया है।
सिंदूरगिरि-जनकपुर :-
मेला मैदान के अंतिम छोर पर साधु-संतों के निवासार्थ एक मंदिर है। रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी यहीं आकर नौ दिन विश्राम करते हैं। इसीलिए इसे जनकपुर कहा जाता है। प्राचीन साहित्य में जिस सिंदूरगिरि का वर्णन मिलता है, वह यही है। इसे ''जोगीडिपा'' भी कहते हैं। क्यों कि यहां ''योगियों'' का वास था। महंत अर्जुनदास की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार ने यहां पर योगियों के निवासार्थ भवन का निर्माण संवत् 1927 में कराया। स्वामी अर्जुनदास की प्रेरणा से संवत् 1928 में श्री बैजनाथ साव, चक्रधर, बोधराम और अभयराम ने यहां एक हनुमान जी का भव्य मूर्ति का निर्माण कराया। द्वार पर एक शिलालेख है जिसमें हनुमान मंदिर के निर्माण कराने का उल्लेख है। जनकपुर में एक बहुत सुंदर बगीचा था जिसके निर्माण और देखरेख महंत अर्जुनदास द्वारा कराया जाता था। बाद के महंतों ने भी इस परंपरा का निर्वहन किया। आज देखरेख के अभाव में यहां का भवन जर्जर हो गया है, बाउंड्री की दीवार धसक गयी है और बगीचा नष्ट हो गया है। साल में दो बार क्रमश: रथयात्रा और दशहरा में लोग यहां आते हैं, शेष दिनों में यहां कोई नहीं आता। लेकिन हनुमान जी का मंदिर अच्छी हालत में है।
काली और हनुमान मंदिर :- शबरी सेतु के पास काली और हनुमान जी का भव्य और आकर्षक मंदिर दर्शनीय है।
अभिनय संसार :-
बहुत कम लोगों को मालूम है कि शिवरीनारायण का अभिनय संसार केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं वरन देश के कोने में प्रसिद्ध था। हालांकि हर गांव में नाचा, गम्मत, रामलीला और रासलीला पार्टी होती थी लेकिन यहां की रामलीला और नाटक मंडली की बात ही कुछ और थी। ''छत्तीसगढ़ गौरव'' में पंडित शुकलाल पांडेय ने लिखा है :-
ब्रज की सी यदि रास देखना हो तो प्यारों
ले नरियर नरियरा ग्राम को शीघ्र सिधारों
यदि लखना हो सुहृद ! आपको राघव लीला
अकलतरा को चलो, करो मत मन को ढीला
शिवरीनारायण को जाइये लखना हो नाटक सुघ्घर
बस यहीं कहीं मिल जायेंगे जग नाटक के सूत्रधार।
प्राचीन साहित्य में उल्लेख मिलता है कि पंडित मालिकराम भोगहा ने एक नाटक मंडली यहां बनायी थी। इस नाटक मंडली द्वारा अनेक धार्मिक और सामाजिक नाटकों का सफलता पूर्वक मंचन किया जाता था। भोगहा जी भी छत्तीसगढ़ के एक उत्कृष्ट नाटककार थे। उन्होंने अनेक नाटक लिखे जिसमें राम राज्य वियोग, प्रबोध चंद्रोदय और सती सुलोचना प्रमुख है। इन नाटकों का यहां सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया था। भोगहा जी की एक मात्र प्रकाशित नाटक ''राम राज्य वियोग'' में उन्होंने लिखा है :-''यहां भी कई वर्ष नित्य हरि कीर्तन, नाटक और रासलीला देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। एक समय मेरे छोटे भाई श्रीनिवास ने ''कंस वध उपाख्यान'' का अभिनय दिखाकर सर्व सज्जनों को प्रसन्न किया। इस मंडली में हमारे मुकुटमणि श्रीमान महंत गौतमदास जी भी सुशोभित थे। श्रीकृष्ण भगवान का अंतर्ध्यान और गोपियों का प्रलापना, उनके हृदय में चित्र की भांति अंकित हो गया जिससे आपकी आनंद सरिता उमड़ी और प्रत्यंग को आप सोते में निमग्न कर अचल हो गये। अतएव नाटक कर्ता का उत्साह अकथनीय था और एक मुख्य कारण इसके निर्माण का हुआ।''
इस सदी के दूसरे दशक में महंत गौतमदास के संरक्षण में पंडित विश्वेश्वर तिवारी के कुशल निर्देशन में एक नाटक मंडली संचालित थी जिसे उनके पुत्र श्री कौशलप्रसाद तिवारी ने ''महानद थियेटिकल कम्पनी'' नाम से कुशलता पूर्वक संचालित और निर्देशित किया। इसी प्रकार श्री भुवनलाल शर्मा ''भोगहा'' के निर्देशन में नवयुवक नाटक मंडली और श्री विद्याधर साव के निर्देशन में केशरवानी नाटक मंडली यहां संचालित थी। श्री कौशलप्रसाद तिवारी ने भी एक बाल महानद थियेटिकल कम्पनी का गठन किया था। आगे चलकर इस नाटक मंडली को उन्होंने महानद थियेटिकल कंपनी में मिला दिया। पंडित कौशलप्रसाद तिवारी पारसी थियेटर के अच्छे जानकार थे। उनको नाटकों का बहुत अच्छा ज्ञान था। वे नाटक मंडली के केवल निर्देशक ही नहीं बल्कि एक अच्छे कलाकार भी थे। कलकत्ता के नाट्य मंडलियों और निर्देशकों से उनका सतत संपर्क था। हिन्दुस्तान के प्राय: सभी नाट्य कलाकार शिवरीनारायण में अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं। तिवारी जी सभी कलाकारों का बहुत ख्याल रखते थे। उनके आने-जाने, रहने और खाने-पीने की बहुत अच्छी व्यवस्था करते थे। वे कलकत्ता के के. सी. दास एण्ड कंपनी से रसगुल्ला और फिरकोस नामक दुकान से जो आज फ्लरिज के नाम से प्रसिद्ध है, से पेस्टी मंगाते थे। चूंकि नाटकों के मंचन और उसकी तैयारी में बहुत खर्च होता था और यहां के लोगों के लिये ही नाटक एक मात्र मनोरंजन का साधन होता था। अत: मठ के महंत श्री गौतमदास और मठ के मुख्तियार श्री विश्वेश्वर प्रसाद तिवारी महानद थियेटिकल कम्पनी के कलाकारों को नाटक की तैयारी और मंचन के लिये आर्थिक मदद देने लगे। इससे यहां का नाटकों का मंचन बहुत अच्छा होता था। दशहरा-दीपावली के बाद से नाटकों का रिहर्सल शुरू होता था और गर्मी के मौसम में रात्रि में नाटकों का मंचन होता है जिसे देखने के लिये छत्तीसगढ़ के राजा, महाराजा और जमींदार तक यहां आते थे। नाटकों का मंचन पहले केशवनारायण मंदिर का प्रांगण में होता था। फिर मठ के गांधी चौरा प्रांगण में और बाद में बाजार में कुआं के बगल में नाटकों का मंचन होता था। महानद थियेटिकल कम्पनी के कलाकारों को कलकत्ता के डॉ. अब्दुल शकूर और खुदीराम बोस रिहर्सल कराने आते थे। तब उन्हें ''बाजा मास्टर'' कहा जाता था। सबके प्रयास से नाटकों का मंचन प्रभावोत्पादक, मनोरंजनपूर्ण और आकर्षक होता था। इसमें नृत्य, संगीत और अभिनय का सुन्दर समन्वय होता था। महानद थियेटिकल कम्पनी के द्वारा मंचित नाटकों में प्रमुख रूप ये धार्मिक और सामाजिक नाटक होते थे। धार्मिक नाटकों में सीता वनवास, सती सुलोचना, राजा हरिश्चंद्र, वीर अभिमन्यु, दानवीर कर्ण, सम्राट परीक्षित, कृष्ण और सुदामा, भक्त प्रहलाद, भक्त अम्बरीष आदि सामाजिक नाटकों में आदर्श नारी, दिल की प्यास, आंखों का नशा, नई जिंदगी, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, आदि प्रमुख थे। पंडित शुकलाल पांडेय लिखते हैं :-
हैं शिवलाल समान यहीं पर उत्तम गायक।
क्षिति गंधर्व सुरेश तुल्य रहते हैं वादक।
विविध नृत्य में कुशल यहीं हैं माधव नर्तक।
राममनोहर तुल्य यहीं हैं निपुण विदूषक।
हैं गयाराम पांडेय से अभिनेता विश्रुत यहीं।
भारत में तू छत्तीसगढ़ ! किसी प्रान्त से कम नहीं॥
इन नाटक मंडलियों के कलाकार प्रतिष्ठित परिवारों के बच्चे थे और केवल मनोरंजन के लिये नाटक मंडलियों से जुड़े थे। क्योंकि उस समय मनोरंजन का कोई दूसरा साधन नहीं था। महंत लालदास के जीते जी महानद थियेटिकल कम्पनी के कलाकारों को आर्थिक सहयोग मठ से मिलता रहा उसके बाद पूरी नाटक मंडली बिखर गयी। यहां के नाटकों में अल्फ्रेड और कोरियन्थर और पारसी थियेटर का स्पष्ट प्रभाव था। यह यहां के साहित्यिक पृष्ठभूमि का मजबूत अभिनय पक्ष है।
साहित्यिक तीर्थ :-
शिवरीनारायण सन् 1861 से 1890 तक तहसील मुख्यालय था। सन् 1891 में तहसील मुख्यालय जांजगीर में स्थानान्तरित कर दिया गया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी और विजयराघवगढ़ के राजकुमार ठाकुर जगमोहन सिंह सन् 1880 से 1882 तक धमतरी और उसके बाद सन् 1882 से 1889 तक वे शिवरीनारायण में तहसीलदार रहे। यह उनकी कार्यस्थली भी रहा है। यहां उन्होंने लगभग आधा दर्जन से भी अधिक पुस्तकों का प्रणयन किया है। उन्होंने यहां काशी के ''भारतेन्दु मंडल'' की तर्ज पर ''जगन्मोहन मंडल'' के नाम से एक साहित्यिक संस्था बनाया था। इसके माध्यम से वे छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोने का सत्कार्य किया और उन्हें लेखन की एक दिशा दी। यहां हमेशा साहित्यिक समागम होता था और अन्यान्य साहित्यकार यहां आते थे। उस काल के रचनाकारों में पंडित हीराराम त्रिपाठी, पं. मालिकराम भोगहा, गोविंदसाव (सभी शिवरीनारायण), पंडित अनंतराम पांडेय (रायगढ़), पंडित पुरूषोत्तमप्रसाद पांडेय (मालगुजार बालपुर), पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय (परसापाली), वेदनाथ शर्मा (बलौदा), जगन्नाथप्रसाद भानु (बिलासपुर) आदि प्रमुख थे। पंडित शुकलाल पांडेय ''छत्तीसगढ़ गौरव'' में लिखते हैं :-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद, ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट कवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि॥
बाद में पंडित लोचनप्रसाद पांडेय, काव्योपाध्याय हीरालाल, रामदयाल तिवारी, नरसिंहदास वैष्णव, सुन्दरलाल शर्मा, पंडित शुकलाल पांडेय यहां आये। डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र, सरयूप्रसाद त्रिपाठी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, मुक्तिबोध, डॉ. प्यारेलाल गुप्त, द्वारिकाप्रसाद तिवारी आदि अन्यान्य कवि और साहित्यकार यहां आकर इस सांस्कृतिक और साहित्यिक नगरी को प्रणाम किया। मुझे इस बात का गर्व है कि यह मेरी भी जन्म स्थली है। मेरा रोम रोम इस धरती का ऋणी है। पंडित शुकलाल पांडेय भी अपने माता पिता और दादा के साथ यहां रहे... और एक प्रकार से उन्हें भी साहित्यिक संस्कार यहीं से मिला था। आगे चलकर उनका परिवार रायपुर जिलान्तर्गत सरसींवा में बस गया। प्राचीन साहित्यकार पंडित हीराराम त्रिपाठी भी यही गाते हैं :-
चित्रोत्पला के निकट श्री नारायण धाम,
बसत संत सज्जन सदा शबरीनारायण ग्राम।
होत सदा हरिनाम उच्चारण, रामायण नित गान करै,
अति निर्मल गंग तरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरै।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरे,
जहां जीव चारू बखान बसै सहज भवसिंधु अपार तरे॥
शिवरीनारायण : एक नजर
विभिन्न नगरों से दूरी :-
दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे के बिलासपुर जंक्शन से 64 कि.मी., चांपा जंक्शन से 70 कि.मी., जांजगीर जिला मुख्यालय से 60 कि.मी., कोरबा से 110 कि.मी., रायगढ़ से सारंगढ़ होकर 110 कि.मी., रायपुर से बलौदाबाजार होकर 120 कि.मी. की दूरी पर शिवरीनारायण स्थित है।
कैसे जाएं :-
यात्रा स्वयं के अथवा किराये के वाहन से करना सुविधाजनक ही नहीं बल्कि श्रेयस्कर भी होता है। दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे के प्राय: सभी स्टेशनों से शिवरीनारायण के लिए नियमित बस सेवा है। आसपास के नगरों को घूमने के लिए रायपुर, बिलासपुर, चांपा, जांजगीर और शिवरीनारायण को मुख्यालय बनाया जा सकता है।
कब जाएं :-
यूं तो शिवरीनारायण किसी भी मौसम में जाया जा सकता है। लेकिन धार्मिक नगरों में पर्व में जाने का विशेष महत्व होता है। यहां रथयात्रा, सावन झूला, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, माघी पूर्णिमा (मेला), चंद्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, मकर संक्रांति, दशहरा, नवरात्रि श्रीरामनवमीं और महाशिवरात्रि में जाना उचित होगा।
कहां रूकें :-
शिवरीनारायण में रुकने के लिए होटल अमन पैलेस, लोक निर्माण का विश्रामगृह, केशरवानी कल्याण भवन, मारवाड़ी समाज का धर्मशाला, शिवरीनारायण का मठ-मंदिर न्यास का विश्रामगृह, संत निवास और खरौद जल संसाधन विभाग का निरीक्षण गृह और गिधौरी में शर्मा लॉज प्रमुख है। इसके अलावा विभिन्न समाजों के धर्मशालाओं में भी रुकने की व्यवस्था है।
क्या देखें :-
यहां देखने के लिए महानदी, शिवनाथ नदी और जोंक नदी के संगम का मनोरम दृश्य, भगवान शबरीनारायण, उनके चरण को स्पर्श करती मोक्षदायी रोहिणी कुंड, चंद्रचूड़ महादेव, केशवनारायण, श्री रामजानकी मंदिर, मठ और मठ परिसर में स्थित महंतों की समाधि, जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा, श्रीराम लक्ष्मण जानकी मंदिर, शबरी के बेर खाते श्रीराम और लक्ष्मण मंदिर, श्रीकृष्ण वट वृक्ष, गादी चौरा, माखन साव घाट स्थित महेश्वरनाथ और शीतला देवी मंदिर, मां अन्नपूर्णा और लक्ष्मीनारायण मंदिर और उसके परिसर में स्थित विभिन्न देवी देवताओं के मंदिर, जोगीडीपा के बजरंगबली के मंदिर, 02 कि. मी. की देरी पर स्थित खरौद में लक्ष्मणेश्वर महादेव, इंदलदेव और शबरी (सौराइन दाई) मंदिर, गिरि गोस्वामियों का शैव मठ, 11 कि. मी. की देरी पर स्थित केरा में चण्डी दाई का मंदिर, 17 कि. मी. की दूरी पर स्थित नवागढ़ में लिंगेश्वर महादेव, बिलासपुर मार्ग में 11 कि. मी. की दूरी पर स्थित मेहँदी में सिद्ध हनुमान मंदिर, 12 कि. मी. की दूरी पर स्थित गिरौदपुरी में गुरु घासीदास का मंदिर, जोंक नदी और पहाड़ी का मनोरम दृश्य दर्शनीय है। कसडोल और बलौदाबाजार से नारायणपुर और तुरतुरिया जाया जा सकता है। नारायणपुर में स्थित शिव मंदिर के बाहरी दीवार में मिथुन मूर्तियां दर्शनीय है। इसी प्रकार तुरतुरिया में बौद्ध विहार है यहां प्रतिवर्ष पूस पुन्नी (छेरछेरा) के दिन एक दिवसीय मेला लगता है। शिवरीनारायण जब भी जाएं चित्रोत्पलागंगा-महानदी में स्नान कर भगवान शबरीनारायण और उसके चरण को स्पर्श करती हुई रोहिणी कुंड का दर्शन और उसके जल का आचमन अवश्य करें।
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रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)