शनिवार, 5 जनवरी 2008

शिवरीनारायण के देवालय और परंपराएं




शिवरीनारायण के देवालय और परंपराएं-प्रो. अश्विनी केशरवानी
महानदी के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से भरपूर और छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी के नाम से विख्यात शिवरीनारायण जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 60 कि. मी., बिलासपुर से 64 कि. मी., कोरबा से 110 कि. मी., रायगढ़ से व्हाया सारंगढ़ 110 कि. मी. और राजधानी रायपुर से व्हाया बलौदाबाजार 120 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। यह नगर कलचुरि कालीन मूर्तिकला से सुसज्जित है। यहां महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी का त्रिधारा संगम प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा नमूना है। इसीलिए इसे ''प्रयाग'' जैसी मान्यता है। मैकल पर्वत श्रृंखला की तलहटी में अपने अप्रतिम सौंदर्य के कारण और चतुर्भुजी विष्णु मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कंद पुराण में इसे ''श्री नारायण क्षेत्र'' और ''श्री पुरूषोत्तम क्षेत्र'' कहा गया है। प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से यहां एक बृहद मेला का आयोजन होता है, जो महाशिवरात्रि तक लगता है। इस मेले में हजारों-लाखों दर्शनार्थी भगवान नारायण के दर्शन करने जमीन में ''लोट मारते'' आते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं और पुरी के भगवान जगन्नाथ के मंदिर का पट बंद रहता है। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। तत्कालीन साहित्य में जिस नीलमाधव को पुरी ले जाकर भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किया गया है, उसे इसी शबरीनारायण-सिंदूरगिरि क्षेत्र से पुरी ले जाने का उल्लेख 14 वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने किया है। इसी कारण शिवरीनारायण को छत्तीसगढ़ का जगन्नाथ पुरी कहा जाता है और शिवरीनारायण दर्शन के बाद राजिम का दर्शन करना आवश्यक माना गया है क्योंकि राजिम में ''साक्षी गोपाल'' विराजमान हैं। कदाचित् इसी कारण यहां के मेले को ''छत्तीसगढ़ का कुंभ'' कहा जाता है जो प्रतिवर्ष लगता है।
गुप्तधाम :-
चारों दिशाओं में अर्थात् उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम् पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिकाधाम स्थित है लेकिन मध्य में ''गुप्तधाम'' के रूप में शिवरीनारायण स्थित है। इसका वर्णन रामावतार चरित्र और याज्ञवलक्य संहिता में मिलता है। यह नगर सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर, द्वापरयुग में विष्णुपुरी और नारायणपुर के नाम से विख्यात था जो आज शिवरीनारायण के नाम से चित्रोत्पला-गंगा (महानदी) के तट पर कलिंग भूमि के निकट दैदीप्यमान है। यहां सकल मनोरथ पूरा करने वाली मां अन्नपूर्णा, मोक्षदायी भगवान नारायण, लक्ष्मीनारायण, चंद्रचूड़ और महेश्वर महादेव, केशवनारायण, श्रीराम लक्ष्मण जानकी, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा से युक्त श्री जगदीश मंदिर, राधाकृष्ण, काली और मां गायत्री का भव्य और आकर्षक मंदिर है। यहां की महत्ता का वर्णन पंडित हीराराम त्रिपाठी द्वारा अनुवादित शबरीनारायण माहात्म्य में किया गया है:-
शबरीनारायण पुरी क्षेत्र शिरोमणि जान
याज्ञवलक्य व्यासादि ऋषि निज मुख करत बखान।
कियो संहिता संस्कृत, याज्ञवलक्य मति धीर
भरद्वाज मुनिसो कहो देव सरित के तीर।
सुयश सुखद श्रीराम के सनत होत आनंद
उदाहरण भाषा रच्यो द्विज हीरा मतिमंद।
बुध्दिहीन विद्या रहित लहत न कौड़ी धाम
सत्संग से सो भयो हीरा हीराराम।
श्रीगुरू राम उपासना भक्ति रसिक अनुयाम
गौतमदास महंत मठ नारायणपुर धाम।
शबरीनारायण मंदिर :-
यहां के प्राचीन मंदिरों और मूर्तियों की भव्यता और अलौकिक गाथा अपनी मूलभूत संस्कृति का शाश्वत रूप प्रकट कर रही है, जो प्राचीनता की दृष्टि से अद्वितीय है। 8-9 वीं शताब्दी की मूर्तियों को समेटे मंदिर एक कलात्मक नमूना है, जिसमें उस काल की कारीगरी आज भी देखी जा सकती है। 172 फीट ऊंचा, 136 फीट परिधि और शिखर में 10 फीट का स्वर्णिम कलश के कारण कदाचित् इसे ''बड़ा मंदिर'' कहा जाता है। वास्तव में यह नारायण मंदिर है और प्राचीन काल से श्री शबरीनारायण भगवान के नाम से प्रसिद्ध है। यह उत्तर भारतीय आर्य शिखर शैली का उत्तम उदाहरण है। इसका प्रवेश द्वार सामान्य कलचुरि कालीन मंदिरों से भिन्न है। इस प्रवेश द्वार की शैलीगत समानता नागवंशी मंदिरों से अधिक है। वर्तमान मंदिर जीर्णोद्धार के कारण नव कलेवर में दृष्टिगत होता है। इस मंदिर के गर्भगृह में दीवारों पर चित्र शैली में कुछ संकेत भी दृष्टिगत होता है। कारीगरों का यह सांकेतिक शब्दावली भी हो सकता है ? प्राचीन काल में यहां पर एक बहुत बड़ा जलस्रोत था और इसे बांधा गया है। जलस्रोत को बांधने के कारण मंदिर का चबूतरा 100 ´ 100 मीटर का है। जलस्रोत भगवान नारायण के चरणों में सिमट गया है। इसे ''रोहिणी कुंड'' कहा जाता है। इस कुंड की महत्ता कवि बटुकसिंह चौहान के शब्दों में :-
रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर
बंदरी से नारी भई, कंचन भयो शरीर।
जो कोई नर जाइके, दरशन करे वही धाम
बटुक सिंह दरशन करी, पाये परम पद निर्वाण।
इसी प्रकार सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने इसे मोक्षदायी बताया है :-
रोहिणि कुंडहि स्पर्श करि चित्रोत्पल जल न्हाय।
योग भ्रश्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय॥
इस मंदिर के गर्भ द्वार के पार्श्व में वैष्णव द्वारपालों शंख पुरुष और चक्र पुरुष की आदमकद प्रतिमा है। इसी आकार प्रकार की मूर्तियां खरौद के शबरी मंदिर के गर्भगृह में भी है। द्वार शाखा पर बारीक कारीगरी और शैलीगत लक्षण की भिन्नता दर्शनीय है। गर्भगृह के चांदी के दरवाजा को ''केशरवानी महिला समाज'' द्वारा बनवाया गया है। इसे श्री देवालाल केशरवानी ने जीवन मिस्त्री के सहयोग से कलकत्ता से सन् 1959 में बनवाया था। गर्भगृह में भगवान नारायण पीताम्बर वस्त्र धारण किये शंख, चक्र, पद्म और गदा से सुसज्जित स्थित हैं। साथ ही दरवाजे के पास परिवर्ती कालीन गरूड़ासीन लक्ष्मीनारायण की बहुत ही आकर्षक प्रतिमा है जिसे जीर्णोद्धार के समय भग्न मंदिर से लाकर रखा गया है। मंदिर के बाहर गरूड़ जी और मां अम्बे की प्रतिमा है। मां अम्बे की प्रतिमा के पीछे भगवान कल्की अवतार की मूर्ति है जो शिवरीनारायण के अलावा जगन्नाथ पुरी में है। श्री प्रयागप्रसाद और श्री जगन्नाथप्रसाद केशरवानी ने मंदिर में संगमरमर लगवा कर सत्कार्य किया है। मंदिर में सोने का कलश क्षेत्रीय कोष्टा समाज के द्वारा सन् 1952 में लगवाया गया है।
शिवरीनारायण के बड़े मंदिर में स्थित मूर्तियों के बारे में लोगों में भेद है। कुछ लोग इसे श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्ति मानते हैं, जो सीता जी की खोज करते यहां आये थे और यहां उनकी शबरी से भेंट हुई और उनके जूठे बेर खाये। शबरी के इच्छानुरूप इस स्थान को ''शबरी-नारायण'' के रूप में प्रख्यात किये। यहां से मात्र 3 कि.मी. पर स्थित खरौद के दक्षिण द्वार पर शबरी मंदिर है, इसे ''सौराइन दाई'' भी कहा जाता है। प्राचीन साहित्य में यहां का नाम ''शौरिनारायण'' मिलता है। डॉ. प्यारेलाल गुप्त ने प्राचीन छत्तीसगढ़ में लिखा है :-''शिवरीनारायण का प्राचीन नाम शौरिपुर होना चाहिये। शौरि भगवान विष्णु का एक नाम है और शौरि मंडप के निर्माण कराये जाने का उल्लेख एक तत्कालीन शिलालेख में हुआ है।'' इस मंदिर के निर्माण के सम्बंध में भी अनेक किंवदंतियां प्रचलित है। इतिहासकार इस मंदिर का निर्माण किसी शबर राजा द्वारा कराया गया मानते हैं। सुप्रसिद्ध साहित्यकार और भोगहापारा (शिवरीनारायण) के मालगुजार पंडित मालिकराम भोगहा ने भी इस मंदिर का निर्माण किसी शबर के द्वारा कराया गया मानते हैं। छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास में 5वीं शताब्दी के अंतिम चरण और 6वीं शताब्दी के प्रारंभ में दक्षिण कोसल में शरभवंश का उदय हुआ था जिसकी राजधानी शरभपुर में थी। लेकिन शरभपुर की वास्तविक स्थिति का पता अभी तक नहीं चल सका है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस वंश का आदि पुरुष शरभराज थे, जिनकी राजधानी सारंगपुर में थी। शरभराज के पुत्र नरेन्द्र के शासन काल में दो ताम्र पत्र क्रमश: पिपरदुला (सारंगढ़) और कुरूद (जिला रायपुर) में मिला है। लेकिन शरभवंशी राजाओं के द्वारा किये गये कार्यों की स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। डॉ. हीरालाल ने सिरपुर को शरभपुर माना है। उनके अनुसार शरभपुरियों ने सिरपुर में पांडुवंशियों के बाद शासन किया और सिरपुर का नाम बदलकर शरभपुर रखा। पंडित लोचनप्रसाद पांडेय ने उड़ीसा के राजगांगपुर के प्रमुख नगर शर्पपुर अथवा शरभगढ़ को शरभपुर बताया है। डॉ. व्ही. व्ही. मिराशी के अनुसार 12 वीं शताब्दी में रत्नपुर के कलचुरी राजा बहुत ही शक्तिशाली थे और उन्होंने ही महानदी और शिवनाथ नदी के संगम के पास स्थित शिवरीनारायण में भगवान विष्णु का एक भव्य मंदिर बनवाया है। कुछ विद्वान इस मंदिर का निर्माण छैमासी रात में हुआ मानते हैं। एक किंवदंती के अनुसार शिवरीनारायण के इस मंदिर और जांजगीर के विष्णु मंदिर में छैमासी रात में बनने की प्रतियोगिता थी। सूर्योदय के पहले शिवरीनारायण का मंदिर बनकर तैयार हो गया इसलिये भगवान नारायण उस मंदिर में विराजे और जांजगीर का मंदिर को अधूरा ही छोड़ दिया गया जो आज उसी रूप में स्थित है। शिवरीनारायण का यह मुख्य मंदिर उत्तर भारतीय आर्य शिखर शैली का उदाहरण है और उसका प्रवेश द्वार सामान्य कलचुरि प्रकार के मंदिरों से भिन्न है। इस प्रवेश द्वार की शैलीगत समानता नागवंशी मंदिरों के प्रवेशद्वार से की जा सकती है।
महाभारत कालीन विष्णुपुर :-
छत्तीसगढ़ में महाभारत कालीन अवशेष मिलते हैं। सिरपुर को जहां प्राचीन छत्तीसगढ़ की राजधानी होने का गौरव प्राप्त है, वहीं उसे महाभारत कालीन मणिपुर भी कहा जाता है। आरंग और रत्नपुर में भी इस काल के अवशेष मिले हैं। महानदी घाटी तो चतुर्भुजी विष्णु मूर्तियों से सजा है जिसके कारण इस क्षेत्र को स्कंदपुराण में श्रीनारायण और श्रीपुरूषोत्तम क्षेत्र कहा गया है। उल्लेखित तथ्यों के अनुसार श्रीकृष्ण की मृत्यु जरा नाम के एक बहेलिया के तीर से हो जाती है। जरा पूर्व जन्म में महाबली बाली था और जिसे श्रीराम ने सुग्रीव से मित्रता करने के पूर्व मारा था। मरते समय बाली ने श्रीराम को श्राप दिया कि ''जिस तरह मुझे आपने छल पूर्वक मारा है उसी प्रकार आप भी छल पूर्वक मारे जायेंगे।'' इसी प्रकार महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद गांधारी ने श्रीकृष्ण को इसी प्रकार यादव वंश के नष्ट होने का श्राप दिया था। एक अन्य घटना में यदुवंशी कुमारों ने एक यदु कुमार को स्त्री बनाकर ऋषियों से अभद्रता पूर्वक प्रश्न करने लगे-''हे ऋषिगण ! आप तो सर्वज्ञ हैं, बताइये इसके गर्भ से लड़का जन्म लेगा अथवा लड़की..?'' उनके इस प्रकार के प्रश्नों से त्रस्त होकर ऋषियों ने श्राप दिया-''इसके गर्भ से जो जन्म लेगा वही तुम्हारे वंश के नाश का कारण बनेगा।'' यदु कुमार ऋषियों के इस श्राप से बहुत घबराये और उसके कपड़े उतारकर देखने लगे। उसके पेट से एक लोहे का मुसल निकला जिसे उन लोगों ने समुद्र के किनारे जाकर घिसा। घिसते समय लोहे का जो बुरादा निकला वह समुद्र के लहरों के साथ किनारे आकर जमा हो गया और जो 'बिना गांठ की घास' के रूप में उगा जो यदुवंशियों के हाथ में आते ही मजबूत होकर लड़ने का साधन बना। लोहे का टुकड़ा को अंत में समुद्र में फेंक दिया गया जिसे एक मछली निगल जाती है। यह मछली उसी जरा नाम के बहेलिया को मिलता है। लोहे के उस टुकड़े को वह अपने तीर में लगा लेता है। इसी तीर से श्रीकृष्ण की मृत्यु होती है। हिन्दू वैदिक रीति से उनका दाह संस्कार किया गया जिससे उनका शरीर नहीं जला। तब उस मांस पिंड को समुद्र में प्रवाहित कर दिया गया जिसे बाद में बहेलिया सिंदूरगिरि में लाकर एक जलस्रोत के किनारे रखकर उसकी पूजा-अर्चना करने लगा। इससे उन्हें कई प्रकार की सिद्धियां मिली। आज भी अन्यान्य स्थानों में मृत शरीर को जलाने के बजाय नदियों में प्रवाहित करने का रिवाज है।
इधर उड़ीसा के पुरी में मंदिर निर्माण के बाद मूर्ति की स्थापना के लिये चिंतित राजा को स्वप्नादेश हुआ कि दक्षिण पश्चिम दिशा में चित्रोत्पला गंगा के तट पर सिंदूरगिरि में स्थित मूर्ति को लाकर इस मंदिर में स्थापित करो। राज पुरोहित विद्यापति के अथक प्रयास से मूर्ति को लाया गया। इधर बहेलिया निर्दिष्ट स्थान पर मूर्ति को न पाकर बहुत विलाप करने लगा। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान उन्हें वरदान दिया कि मैं यहां गुप्त रूप से नारायणी रूप में विराजमान रहूंगा। यह ''गुप्त तीर्थधाम'' के रूप में जग प्रसिद्ध होगा। माघ पूर्णिमा को जो कोई मेरा दर्शन करेगा वह मोक्ष का अधिकारी होगा..। बंगाल देशाधिपति राजा धर्म्मवान ने इस स्थान की महिमा से प्रभावित होकर यहां एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया जिसका जीर्णोद्धार रत्नपुर के राजा जाजल्वदेव प्रथम द्वारा कराये जाने का उल्लेख तत्कालीन शिलालेख और साहित्य में मिलता है।
बिलासपुर जिला गजेटियर में इसी प्रकार की एक घटना का उल्लेख है। इस घटना के बाद में बताया गया है कि शबरों को वरदान मिला कि उसके नाम के साथ भगवान नारायण का नाम भी जुड़ जायेगा.. और पहले ''शबर-नारायण'' फिर शबरी नारायण और आज शिवरीनारायण यह नगर कहलाने लगा। डॉ. प्यारेलाल गुप्त ने अपनी पुस्तक ''प्राचीन छत्तीसगढ़'' और ''बिलासपुर वैभव'' में लिखा है:-''जिस स्थान में शिवरीनारायण बसा है, वहां प्राचीन काल में एक घना जंगल था। वहां एक शबर रहता था। उस स्थान में भगवान जगन्नाथ की मूर्ति थी जिसका वह नित्य पूजा-अर्चना किया करता था। एक बार एक ब्राह्मण ने उस मूर्ति को देख लिया और उसे ले जाकर जगन्नाथ पुरी में स्थापित कर दी।''
तंत्र मंत्र की साधना स्थली :-
उड़ीसा के प्रसिद्ध कवि सरलादास ने चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ में लिखा है :-''भगवान जगन्नाथ स्वामी को शिवरीनारायण से लाकर यहां प्रतिष्ठित किया गया है।'' छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरि ठाकुर ने अपने एक लेख-''शिवरीनारायण जगन्नाथ जी का मूल स्थान है'' में लिखा है:-''इतिहास तर्क सम्मत विश्लेषण से यह तथ्य उजागर होता है कि शिवरीनारायण से भगवान जगन्नाथ को पुरी कोई ब्राह्मण नहीं ले गया। वहां से उन्हें हटाने वाले इंद्रभूति थे। वे वज्रयान के संस्थापक थे।'' डॉ. एन. के. साहू के अनुसार- ''संभल (संबलपुर) के राजा इंद्रभूति जिन्होंने दक्षिण कोसल के अंधकार युग (लगभग 8-9वीं शताब्दी) में राज्य किया था। वे बौद्ध धर्म के वज्रयान सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। इंद्रभूति पद्मवज्र (सरोरूहवज्र) के शिष्य अनंगवज्र के शिष्य थे। कविराज गोपीनाथ महापात्र इंद्रभूति को ''उड्डयन सिद्ध अवधूत'' कहा है। सहजयान की प्रवर्तिका लक्ष्मीकरा इन्हीं की बहन थी। इंद्रभूति के पुत्र पद्मसंभव ने तिब्बत जाकर लामा सम्प्रदाय की स्थापना की थी। इंद्रभूति ने अनेक ग्रंथ लिखा है लेकिन ''ज्ञानसिद्धि'' उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध तांत्रिक ग्रंथ है जो 717 ईसवी में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने इस ग्रंथ में भगवान जगन्नाथ की बार बार वंदना की है। इसके पहले जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता नहीं मिली थी। वे उन्हें भगवान बुद्ध के रूप में देखते थे और वे उनके सम्मुख बैठकर तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे। ''इवेज्र तंत्र साधना'' और ''शाबर मंत्र'' के समन्वय से उन्होंने वज्रयान सम्प्रदाय की स्थापना की। शाबर मंत्र साधना और वज्रयान तंत्र साधना की जन्म भूमि दक्षिण कोसल ही है।'' डॉ. जे.पी. सिंहदेव के अनुसार-''इंद्रभूति शबरीनारायण से भगवान जगन्नाथ को सोनपुर के पास सम्बलाई पहाड़ी में स्थित गुफा में ले गये थे। उनके सम्मुख बैठकर वे तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे। शबरी के इष्टदेव जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता दिलाने का यश भी इंद्रभूति को ही है।'' आसाम के ''कालिका पुराण'' में उल्लेख है कि तंत्रविद्या का उदय उड़ीसा में हुआ और भगवान जगन्नाथ उनके इष्टदेव थे।
इंद्रभूति के पश्चात् 8वीं शताब्दी में उनके पुत्र पद्मसंभव ने योग्यता पूर्वक इस तांत्रिक पीठ को संचालित किया। वे भी अपने पिता के समान सिद्ध पुरुष थे। बाद में शांति रक्षित की अनुशंसा पर तिब्बत नरेश रव्रीसोंगल्दे वत्सन ने पद्मसंभव को तिब्बत बुलवा लिया। वत्सन का शासन काल 755 से 797 ईसवी तक माना जाता है। इंद्रभूति की बहन लक्ष्मीकरा का विवाह जालेन्द्रनाथ के साथ हुआ था। बाद में भगवान जगन्नाथ का देखभाल करने वाला कोई नहीं था। अत: तंत्र समुदाय के लोग भगवान जगन्नाथ को पुरी ले आये और यहां स्थापित कर दिये। वस्तुत: शबर लोग प्राचीन काल से ही तंत्रविद्या में प्रवीण थे। भगवान जगन्नाथ उनके उपास्य देव थे। कविराज गोपीनाथ महापात्र ने भी लिखा है ''शबर आदि की म्लेच्छ भाषा में भी मंत्र रहस्यों की व्याख्या होती थी।'' अर्थात् शबर तंत्र तंत्र के ज्ञाता होते थे।
गोपीनाथ महापात्र के अनुसार ''शबरीनारायण संवरा लोगों द्वारा पूजित होते थे जो भुवनेश्वर के पास स्थित धौली पर्वत में रहते थे।'' सरला महाभारत के मुसली पर्व के अनुसार ''सतयुग में भगवान शबरीनारायण के रूप में पूजे जाते थे जो पुरूषोत्तम क्षेत्र में प्रतिष्ठित थे।'' लेकिन वासुदेव साहू के अनुसार ''शबरीनारायण न तो भुवनेश्वर के पास स्थित पर्वत में रहते थे, जैसा कि गोपीनाथ महापात्र ने लिखा है, न ही पुरूषोत्तम क्षेत्र में, जैसा कि सरला महाभारत में कहा गया है। बल्कि शबरीनारायण महानदी घाटी का एक ऐसा पवित्र स्थान है जो जोंक और महानदी के संगम से 3 कि.मी. उत्तर में स्थित है। स्वाभाविक रूप से यह वर्तमान शिवरीनारायण ही है। डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र अपनी पुस्तक ''छत्तीसगढ़ परिचय'' में लिखते हैं-''शबर (सौंरा) लोग भारत के मूल निवासियों में एक हैं। उनके मंत्र जाल की महिमा तो रामचरितमानस तक में गायी गयी है। शबरीनारायण में भी ऐसा ही एक शबर था जो भगवान जगन्नाथ का भक्त था।'' आज भी शिवरीनारायण में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिक गुरुओं नगफड़ा और कनफड़ा बाबा की मूर्ति एक गुफा नुमा मंदिर में स्थित है। इसी प्रकार बस्ती के बाहर आज भी नाथ गुफा देखा जा सकता है। यहां का वैष्णव मठ भी प्राचीन काल में इन्हीं तांत्रिकों के कब्जे में था जिसे आदि गुरु स्वामी दयाराम दास ने शास्त्रार्थ करके उनसे मुक्त कराकर यहां वैष्णव मठ स्थापित कराया और वे इस मठ के पहले महंत बने।
मेला :-
छत्तीसगढ़ में यहां के मेला का विशेष महत्व है। क्यों कि यहां का मेला अन्य मेला की तरह बेतरतीब नहीं बल्कि पूरी तरह से व्यवस्थित होता है। दुकान की अलग अलग लाईन होती है। एक लाईन फल दुकान की, दूसरी लाइन बर्तन दुकानों की, तीसरी लाइन मनिहारी दुकानों की, चौथी लाइन रजाई-गद्दों की, पाँचवी लाइन सोने-चांदी के ज़ेवरों की, होती है। इसी प्रकार एक लाईन होटलों की, एक लाइन सिनेमा-सर्कस की, एक लाइन कृषि उपकरणों, जूता-चप्पलों की दुकानें आदि होती है। इस मेले में दुकानदार अच्छी खासी कमाई कर लेता है।
नगर के पश्चिम में महंतपारा की अमराई में और उससे लगे मैदान में माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक प्रतिवर्ष मेला लगता है। माघ पूर्णिमा को महानदी में स्नान के बाद भगवान शबरीनारायण का दर्शन मोक्षदायी माना गया है। ऐसी भी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ इस दिन पुरी से आकर यहां सशरीर विराजते हैं। कदाचित् इसी कारण दूर दूर से लोग यहां महानदी में स्नान कर भगवान शबरीनारायण का दर्शन करने आते है। यहां बड़ी मात्रा में लोग जमीन में ''लोट मारते'' यहां आते हैं। शिवरीनारायण में मेला लगने की शुरूवात वैसे तो प्राचीन समय से होता चला आ रहा है लेकिन व्यवस्थित रूप महंत गौतमदास जी की प्रेरणा से हुई और मेला को वर्तमान व्यवस्थित रूप प्रदान महंत लालदास जी का बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने मठ के मुख्तियार पंडित कौशलप्रसाद तिवारी की मदद से अमराई में सीमेंट की दुकानें बनायी और मेला को व्यवस्थित रूप प्रदान कराया। महंत लालदास जी के बाद मेला की व्यवस्था का भार जनपद पंचायत जांजगीर ने अपने हाथ में ले लिया। जबसे शिवरीनारायण नगर पंचायत बना है तब से मेले की व्यवस्था नगर पंचायत करती है। नगर की सेवा समितियों और मठ की ओर से दर्शनार्थियों के रहने, खाने-पीने आदि की निशुल्क व्यवस्था की जाती है।
मंदिरों की नगरी :-
शिवरीनारायण में अन्यान्य मंदिर हैं जो विभिन्न कालों में निर्मित हुए हैं। चूंकि यह नगर विभिन्न समाज के लोगों का सांस्कृतिक तीर्थ है अत: उन समाजों द्वारा यहां मंदिर निर्माण कराया गया है। यहां अधिकांश मंदिर भगवान विष्णु के अवतारों के हैं। कदाचित् इसी कारण इस नगर को वैष्णव पीठ माना गया है। इसके अलावा यहां शैव और शाक्त परम्परा के प्राचीन मंदिर भी हैं। इन मंदिरों में निम्नलिखित प्रमुख हैं:-
केशवनारायण मंदिर :
नारायण मंदिर के पूर्व दिशा में पश्चिमाभिमुख सर्व शक्तियों से परिपूर्ण केशवनारायण की 11-12 वीं सदी का मंदिर है। ईंट और पत्थर बना ताराकृत संरचना है जिसके प्रवेश द्वार पर विष्णु के चौबीस रूपों का अंकन बड़ी सफाई के साथ किया गया है। जबकि द्वार के उपर शिव की मूर्ति है। अन्य परम्परागत स्थापत्य लक्षणों के साथ गर्भगृह में दशावतार विष्णु की मानवाकार प्रतिमा है। यह मंदिर कलचुरि कालीन वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। यहां एक छोटा अंतराल है, इसके बाद गर्भगृह। मंदिर पंचरथ है और मंदिर की द्वार शाखा पर गंगा-यमुना की मूर्ति है, साथ ही दशावतारों का चित्रण हैं। इस मंदिर में शैव और वैष्णव परंपरा की मिश्रित संरचना देखने को मिलती है।
चंद्रचूड़ महादेव :-
केशवनारायण मंदिर के वायव्य दिशा में चेदि संवत् 919 में निर्मित और छत्तीसगढ़ के ज्योर्तिलिंग के रूप में विख्यात ''चंद्रचूड़ महादेव'' का एक प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर के द्वार पर एक विशाल नंदी की मूर्ति है। शिवलिंग की पूजा-अर्चना करते राज पुरुष और रानी की हाथ जोड़े पद्मासन मुद्रा में प्रतिमा है। नंदी की मूर्ति के बगल में किसी सन्यासी की मूर्ति है। मंदिर के बाहरी दीवार पर एक कलचुरि कालीन चेदि संवत् 919 का एक शिलालेख है। इस शिलालेख का निर्माण कुमारपाल नामक किसी कवि ने कराया है और भोग राग आदि की व्यवस्था के लिए चिचोली नामक गांव दान में दिया है। पाली भाषा में लिखे इस शिलालेख में रतनपुर के राजाओं की वंशावली दी गयी है। इसमें राजा पृथ्वीदेव के भाई सहदेव, उनके पुत्र राजदेव, पौत्र गोपालदेव और प्रपौत्र अमानदेव के पुण्य कर्मों का उल्लेख किया गया है। इस मंदिर की प्राचीन संरचना नष्ट हो चुकी है और नवीन संरचना में बिखरी मूर्तियों को दीवारों में खचित करके दृष्टव्य है। बहुत संभव है कि इस मंदिर में खचित शिलालेख भी कहीं से लाकर दीवार में खचित कर दी गयी हो ?
राम लक्ष्मण जानकी मंदिर :-
चंद्रचूड़ महादेव मंदिर के ठीक उत्तर दिशा में श्रीराम लक्ष्मण जानकी का एक भव्य मंदिर है जिसका निर्माण महंत अर्जुदास की प्रेरणा से पुत्र प्राप्ति के पश्चात् अकलतरा के जमींदार श्री सिदारसिंह ने कराया था। इसी प्रकार केंवट समाज द्वारा श्रीराम लक्ष्मण जानकी मंदिर का निर्माण रामघाट के पास लक्ष्मीनारायण मंदिर के पास कराया गया है।
शिवरीनारायण मठ :-
नारायण मंदिर के वायव्य दिशा में एक अति प्राचीन वैष्णव मठ है जिसका निर्माण स्वामी दयारामदास ने नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों से इस नगर को मुक्त कराने के बाद की थी। रामानंदी वैष्णव सम्प्रदाय के इस मठ के वे प्रथम महंत थे। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं जिनके नाम निम्नानुसार है:-1. स्वामी दयारामदास 2. स्वामी कल्याणदास 3. स्वामी हरीदास 4. स्वामी बालकदास 5. स्वामी महादास 6. स्वामी मोहनदास 7. स्वामी सूरतरामदास 8. स्वामी मथुरादास 9. स्वामी प्रेमदास 10. स्वामी तुलसीदास 11. स्वामी अर्जुनदास 12. स्वामी गौतमदास 13. स्वामी लालदास 14. स्वामी वैष्णवदास और वर्तमान में इस मठ के श्री रामसुन्दरदास जी महंत हैं। खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर के चेदि संवत् 933 के शिलालेख में मंदिर के दक्षिण दिशा में संतों के निवासार्थ एक मठ के निर्माण कराये जाने का उल्लेख है। इस मठ के बारे में सन 1867 में जे. डब्लू. चीजम साहब बहादुर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इस मठ की व्यवस्था के लिए माफी गांव हैहयवंशी राजाओं के समय से दी गयी है और इस पर इसके पूर्व और बाद में किसी ने हस्तक्षेप नहीं किया है। संवत् 1915 में डिप्टी कमिश्नर इलियट साहब ने महंत अर्जुनदास के अनुरोध पर 12 गांव की मालगुजारी मंदिर और मठ के राग भोगादि के लिये प्रदान किया। यहां संवत् 1927 में महंत अर्जुनदास की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार राजसिंह ने एक जगदीश मंदिर बनवाया जिसे उनके पुत्र चंदनसिंह ने पूरा कराया। इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के अलावा श्रीराम लक्ष्मण और जानकी जी की मनमोहक मूर्ति है। परिसर में हनुमान जी और सूर्यदेव की मूर्ति है। सूर्यदेव के मंदिर को संवत् 1944 में रायपुर के श्री छोगमल मोतीचंद्र ने बनवाया। इसी प्रकार हनुमानजी के मंदिर को लवन के श्री सुधाराम ब्राह्मण ने संवत् 1927 में स्वामी जी की प्रेरणा से पुत्र प्राप्ति के बाद बनवाया। इसके अलावा महंतों की समाधि है जिसे संवत् 1929 में बनवाया गया है।
महेश्वर महादेव और शीतला माता मंदिर :-
महानदी के तट पर छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध मालगुजार श्री माखनसाव के कुलदेव महेश्वर महादेव और कुलदेवी शीतला माता का भव्य मंदिर, बरमबाबा की मूर्ति और सुन्दर घाट है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा द्वारा लिखित श्रीशबरीनारायण माहात्म्य के अनुसार इस मंदिर का निर्माण संवत् 1890 में माखन साव के पिता श्री मयाराम साव और चाचा श्री मनसाराम और सरधाराम साव ने कराया है। माखन साव भी धार्मिक, सामाजिक और साधु व्यक्ति थे। ठाकुर जगमोहनसिंह ने 'सज्जनाष्टक' में उनके बारे में लिखा है। उनके अनुसार माखनसाव क्षेत्र के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बद्रीनाथ और रामेश्वरम् की यात्रा की और 80 वर्ष की सुख भोगा। उन्होंने महेश्वर महादेव और शीतला माता मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। उनके पौत्र श्री आत्माराम साव ने मंदिर परिसर में संस्कृत पाठशाला का निर्माण कराया और सुन्दर घाट और बाढ़ से भूमि का कटाव रोकने के लिए मजबूत दीवार का निर्माण कराया। इस घाट में अस्थि विसर्जन के लिए एक कुंड बना है। इस घाट में अन्यान्य मूर्तियां जिसमें शिवलिंग और हनुमान जी प्रमुख है, के अलावा सती चौरा बने हुये हैं।
लक्ष्मीनारायण-अन्नपूर्णा मंदिर :
नगर के पश्चिम में मैदानी भाग जहां मेला लगता है, से लगा हुआ लक्ष्मीनारायण मंदिर है। मंदिर के बाहर जय विजय की मूर्ति माला लिए जाप करने की मुद्रा में है। सामने गरूड़ जी हाथ जोड़े विराजमान हैं। गणेश जी भी हाथ में माला लिए जाप की मुद्रा में हैं। मंदिर की पूर्वी द्वार पर माता शीतला, काल भैरव विराजमान हैं। वहीं दक्षिण द्वार पर शेर बने हैं। भीतर मां अन्नपूर्णा की ममतामयी मूर्ति है जो पूरे छत्तीसगढ़ में अकेली है। उन्हीं की कृपा से समूचा छत्तीसगढ़ ''धान का कटोरा'' कहलाता है। नवरात्रि में यहां ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती है। बिलाईगढ़ के जमींदार ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार खरौद के गिरि गोस्वामी मठ के महंत हजारगिरि की प्रेरणा से कराया था। जीर्णोद्धार में लक्ष्मीनारायण और अन्नपूर्णा मंदिर एक ही अहाता के भीतर आ गया जबकि दोनों मंदिर का दरवाजा आज भी अलग अलग है। लक्ष्मीनारायण मंदिर का दरवाजा पूर्वाभिमुख है जबकि अन्नपूर्णा मंदिर का दरवाजा दक्षिणाभिमुख है। मंदिर परिसर में दक्षिणमुखी हनुमान जी का मंदिर भी है।
श्रीरामजानकी मंदिर :-
केंवट समाज द्वारा निर्मित श्रीराम, लक्ष्मण और जानकी मंदिर है। इस मंदिर परिसर में भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों की सुंदर मूर्तियां दर्शनीय हैं। इस मंदिर के बगल में संवत् 1997 में निर्मित श्रीरामजानकी-गुरु नानकदेव मंदिर का मंदिर है। इस मंदिर के सर्वराकार पंडित विश्वेश्वरनारायण द्विवेदी हैं।
राधा-कृष्ण मंदिर :-
मां अन्नपूर्णा मंदिर के पास मरार-पटेल समाज के द्वारा राधा-कृष्ण मंदिर और उससे लगा समाज का धर्मशाला का निर्माण कराया गया है। मंदिर के ऊपरी भाग में शिवलिंग स्थापित है। इसी प्रकार लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृह के सामने मथुआ मरार समाज द्वारा राधा-कृष्ण का पूर्वाभिमुख मंदिर बनवाया गया है।
सिंदूरगिरि-जनकपुर :-
मेला मैदान के अंतिम छोर पर साधु-संतों के निवासार्थ एक मंदिर है। रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी यहीं आकर नौ दिन विश्राम करते हैं। इसीलिए इसे जनकपुर कहा जाता है। प्राचीन साहित्य में जिस सिंदूरगिरि का वर्णन मिलता है, वह यही है। इसे ''जोगीडिपा'' भी कहते हैं। क्यों कि यहां ''योगियों'' का वास था। महंत अर्जुनदास की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार ने यहां पर योगियों के निवासार्थ भवन का निर्माण संवत् 1927 में कराया। स्वामी अर्जुनदास की प्रेरणा से संवत् 1928 में श्री बैजनाथ साव, चक्रधर, बोधराम और अभयराम ने यहां एक हनुमान जी का भव्य मूर्ति का निर्माण कराया। द्वार पर एक शिलालेख है जिसमें हनुमान मंदिर के निर्माण कराने का उल्लेख है। जनकपुर में एक बहुत सुंदर बगीचा था जिसके निर्माण और देखरेख महंत अर्जुनदास द्वारा कराया जाता था। बाद के महंतों ने भी इस परंपरा का निर्वहन किया। आज देखरेख के अभाव में यहां का भवन जर्जर हो गया है, बाउंड्री की दीवार धसक गयी है और बगीचा नष्ट हो गया है। साल में दो बार क्रमश: रथयात्रा और दशहरा में लोग यहां आते हैं, शेष दिनों में यहां कोई नहीं आता। लेकिन हनुमान जी का मंदिर अच्छी हालत में है।
काली और हनुमान मंदिर :- शबरी सेतु के पास काली और हनुमान जी का भव्य और आकर्षक मंदिर दर्शनीय है।
अभिनय संसार :-
बहुत कम लोगों को मालूम है कि शिवरीनारायण का अभिनय संसार केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं वरन देश के कोने में प्रसिद्ध था। हालांकि हर गांव में नाचा, गम्मत, रामलीला और रासलीला पार्टी होती थी लेकिन यहां की रामलीला और नाटक मंडली की बात ही कुछ और थी। ''छत्तीसगढ़ गौरव'' में पंडित शुकलाल पांडेय ने लिखा है :-
ब्रज की सी यदि रास देखना हो तो प्यारों
ले नरियर नरियरा ग्राम को शीघ्र सिधारों
यदि लखना हो सुहृद ! आपको राघव लीला
अकलतरा को चलो, करो मत मन को ढीला
शिवरीनारायण को जाइये लखना हो नाटक सुघ्घर
बस यहीं कहीं मिल जायेंगे जग नाटक के सूत्रधार।
प्राचीन साहित्य में उल्लेख मिलता है कि पंडित मालिकराम भोगहा ने एक नाटक मंडली यहां बनायी थी। इस नाटक मंडली द्वारा अनेक धार्मिक और सामाजिक नाटकों का सफलता पूर्वक मंचन किया जाता था। भोगहा जी भी छत्तीसगढ़ के एक उत्कृष्ट नाटककार थे। उन्होंने अनेक नाटक लिखे जिसमें राम राज्य वियोग, प्रबोध चंद्रोदय और सती सुलोचना प्रमुख है। इन नाटकों का यहां सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया था। भोगहा जी की एक मात्र प्रकाशित नाटक ''राम राज्य वियोग'' में उन्होंने लिखा है :-''यहां भी कई वर्ष नित्य हरि कीर्तन, नाटक और रासलीला देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। एक समय मेरे छोटे भाई श्रीनिवास ने ''कंस वध उपाख्यान'' का अभिनय दिखाकर सर्व सज्जनों को प्रसन्न किया। इस मंडली में हमारे मुकुटमणि श्रीमान महंत गौतमदास जी भी सुशोभित थे। श्रीकृष्ण भगवान का अंतर्ध्यान और गोपियों का प्रलापना, उनके हृदय में चित्र की भांति अंकित हो गया जिससे आपकी आनंद सरिता उमड़ी और प्रत्यंग को आप सोते में निमग्न कर अचल हो गये। अतएव नाटक कर्ता का उत्साह अकथनीय था और एक मुख्य कारण इसके निर्माण का हुआ।''
इस सदी के दूसरे दशक में महंत गौतमदास के संरक्षण में पंडित विश्वेश्वर तिवारी के कुशल निर्देशन में एक नाटक मंडली संचालित थी जिसे उनके पुत्र श्री कौशलप्रसाद तिवारी ने ''महानद थियेटिकल कम्पनी'' नाम से कुशलता पूर्वक संचालित और निर्देशित किया। इसी प्रकार श्री भुवनलाल शर्मा ''भोगहा'' के निर्देशन में नवयुवक नाटक मंडली और श्री विद्याधर साव के निर्देशन में केशरवानी नाटक मंडली यहां संचालित थी। श्री कौशलप्रसाद तिवारी ने भी एक बाल महानद थियेटिकल कम्पनी का गठन किया था। आगे चलकर इस नाटक मंडली को उन्होंने महानद थियेटिकल कंपनी में मिला दिया। पंडित कौशलप्रसाद तिवारी पारसी थियेटर के अच्छे जानकार थे। उनको नाटकों का बहुत अच्छा ज्ञान था। वे नाटक मंडली के केवल निर्देशक ही नहीं बल्कि एक अच्छे कलाकार भी थे। कलकत्ता के नाट्य मंडलियों और निर्देशकों से उनका सतत संपर्क था। हिन्दुस्तान के प्राय: सभी नाट्य कलाकार शिवरीनारायण में अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं। तिवारी जी सभी कलाकारों का बहुत ख्याल रखते थे। उनके आने-जाने, रहने और खाने-पीने की बहुत अच्छी व्यवस्था करते थे। वे कलकत्ता के के. सी. दास एण्ड कंपनी से रसगुल्ला और फिरकोस नामक दुकान से जो आज फ्लरिज के नाम से प्रसिद्ध है, से पेस्टी मंगाते थे। चूंकि नाटकों के मंचन और उसकी तैयारी में बहुत खर्च होता था और यहां के लोगों के लिये ही नाटक एक मात्र मनोरंजन का साधन होता था। अत: मठ के महंत श्री गौतमदास और मठ के मुख्तियार श्री विश्वेश्वर प्रसाद तिवारी महानद थियेटिकल कम्पनी के कलाकारों को नाटक की तैयारी और मंचन के लिये आर्थिक मदद देने लगे। इससे यहां का नाटकों का मंचन बहुत अच्छा होता था। दशहरा-दीपावली के बाद से नाटकों का रिहर्सल शुरू होता था और गर्मी के मौसम में रात्रि में नाटकों का मंचन होता है जिसे देखने के लिये छत्तीसगढ़ के राजा, महाराजा और जमींदार तक यहां आते थे। नाटकों का मंचन पहले केशवनारायण मंदिर का प्रांगण में होता था। फिर मठ के गांधी चौरा प्रांगण में और बाद में बाजार में कुआं के बगल में नाटकों का मंचन होता था। महानद थियेटिकल कम्पनी के कलाकारों को कलकत्ता के डॉ. अब्दुल शकूर और खुदीराम बोस रिहर्सल कराने आते थे। तब उन्हें ''बाजा मास्टर'' कहा जाता था। सबके प्रयास से नाटकों का मंचन प्रभावोत्पादक, मनोरंजनपूर्ण और आकर्षक होता था। इसमें नृत्य, संगीत और अभिनय का सुन्दर समन्वय होता था। महानद थियेटिकल कम्पनी के द्वारा मंचित नाटकों में प्रमुख रूप ये धार्मिक और सामाजिक नाटक होते थे। धार्मिक नाटकों में सीता वनवास, सती सुलोचना, राजा हरिश्चंद्र, वीर अभिमन्यु, दानवीर कर्ण, सम्राट परीक्षित, कृष्ण और सुदामा, भक्त प्रहलाद, भक्त अम्बरीष आदि सामाजिक नाटकों में आदर्श नारी, दिल की प्यास, आंखों का नशा, नई जिंदगी, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, आदि प्रमुख थे। पंडित शुकलाल पांडेय लिखते हैं :-
हैं शिवलाल समान यहीं पर उत्तम गायक।
क्षिति गंधर्व सुरेश तुल्य रहते हैं वादक।
विविध नृत्य में कुशल यहीं हैं माधव नर्तक।
राममनोहर तुल्य यहीं हैं निपुण विदूषक।
हैं गयाराम पांडेय से अभिनेता विश्रुत यहीं।
भारत में तू छत्तीसगढ़ ! किसी प्रान्त से कम नहीं॥
इन नाटक मंडलियों के कलाकार प्रतिष्ठित परिवारों के बच्चे थे और केवल मनोरंजन के लिये नाटक मंडलियों से जुड़े थे। क्योंकि उस समय मनोरंजन का कोई दूसरा साधन नहीं था। महंत लालदास के जीते जी महानद थियेटिकल कम्पनी के कलाकारों को आर्थिक सहयोग मठ से मिलता रहा उसके बाद पूरी नाटक मंडली बिखर गयी। यहां के नाटकों में अल्फ्रेड और कोरियन्थर और पारसी थियेटर का स्पष्ट प्रभाव था। यह यहां के साहित्यिक पृष्ठभूमि का मजबूत अभिनय पक्ष है।
साहित्यिक तीर्थ :-
शिवरीनारायण सन् 1861 से 1890 तक तहसील मुख्यालय था। सन् 1891 में तहसील मुख्यालय जांजगीर में स्थानान्तरित कर दिया गया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी और विजयराघवगढ़ के राजकुमार ठाकुर जगमोहन सिंह सन् 1880 से 1882 तक धमतरी और उसके बाद सन् 1882 से 1889 तक वे शिवरीनारायण में तहसीलदार रहे। यह उनकी कार्यस्थली भी रहा है। यहां उन्होंने लगभग आधा दर्जन से भी अधिक पुस्तकों का प्रणयन किया है। उन्होंने यहां काशी के ''भारतेन्दु मंडल'' की तर्ज पर ''जगन्मोहन मंडल'' के नाम से एक साहित्यिक संस्था बनाया था। इसके माध्यम से वे छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोने का सत्कार्य किया और उन्हें लेखन की एक दिशा दी। यहां हमेशा साहित्यिक समागम होता था और अन्यान्य साहित्यकार यहां आते थे। उस काल के रचनाकारों में पंडित हीराराम त्रिपाठी, पं. मालिकराम भोगहा, गोविंदसाव (सभी शिवरीनारायण), पंडित अनंतराम पांडेय (रायगढ़), पंडित पुरूषोत्तमप्रसाद पांडेय (मालगुजार बालपुर), पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय (परसापाली), वेदनाथ शर्मा (बलौदा), जगन्नाथप्रसाद भानु (बिलासपुर) आदि प्रमुख थे। पंडित शुकलाल पांडेय ''छत्तीसगढ़ गौरव'' में लिखते हैं :-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद, ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट कवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि॥
बाद में पंडित लोचनप्रसाद पांडेय, काव्योपाध्याय हीरालाल, रामदयाल तिवारी, नरसिंहदास वैष्णव, सुन्दरलाल शर्मा, पंडित शुकलाल पांडेय यहां आये। डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र, सरयूप्रसाद त्रिपाठी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, मुक्तिबोध, डॉ. प्यारेलाल गुप्त, द्वारिकाप्रसाद तिवारी आदि अन्यान्य कवि और साहित्यकार यहां आकर इस सांस्कृतिक और साहित्यिक नगरी को प्रणाम किया। मुझे इस बात का गर्व है कि यह मेरी भी जन्म स्थली है। मेरा रोम रोम इस धरती का ऋणी है। पंडित शुकलाल पांडेय भी अपने माता पिता और दादा के साथ यहां रहे... और एक प्रकार से उन्हें भी साहित्यिक संस्कार यहीं से मिला था। आगे चलकर उनका परिवार रायपुर जिलान्तर्गत सरसींवा में बस गया। प्राचीन साहित्यकार पंडित हीराराम त्रिपाठी भी यही गाते हैं :-
चित्रोत्पला के निकट श्री नारायण धाम,
बसत संत सज्जन सदा शबरीनारायण ग्राम।
होत सदा हरिनाम उच्चारण, रामायण नित गान करै,
अति निर्मल गंग तरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरै।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरे,
जहां जीव चारू बखान बसै सहज भवसिंधु अपार तरे॥
शिवरीनारायण : एक नजर
विभिन्न नगरों से दूरी :-
दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे के बिलासपुर जंक्शन से 64 कि.मी., चांपा जंक्शन से 70 कि.मी., जांजगीर जिला मुख्यालय से 60 कि.मी., कोरबा से 110 कि.मी., रायगढ़ से सारंगढ़ होकर 110 कि.मी., रायपुर से बलौदाबाजार होकर 120 कि.मी. की दूरी पर शिवरीनारायण स्थित है।
कैसे जाएं :-
यात्रा स्वयं के अथवा किराये के वाहन से करना सुविधाजनक ही नहीं बल्कि श्रेयस्कर भी होता है। दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे के प्राय: सभी स्टेशनों से शिवरीनारायण के लिए नियमित बस सेवा है। आसपास के नगरों को घूमने के लिए रायपुर, बिलासपुर, चांपा, जांजगीर और शिवरीनारायण को मुख्यालय बनाया जा सकता है।
कब जाएं :-
यूं तो शिवरीनारायण किसी भी मौसम में जाया जा सकता है। लेकिन धार्मिक नगरों में पर्व में जाने का विशेष महत्व होता है। यहां रथयात्रा, सावन झूला, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, माघी पूर्णिमा (मेला), चंद्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, मकर संक्रांति, दशहरा, नवरात्रि श्रीरामनवमीं और महाशिवरात्रि में जाना उचित होगा।
कहां रूकें :-
शिवरीनारायण में रुकने के लिए होटल अमन पैलेस, लोक निर्माण का विश्रामगृह, केशरवानी कल्याण भवन, मारवाड़ी समाज का धर्मशाला, शिवरीनारायण का मठ-मंदिर न्यास का विश्रामगृह, संत निवास और खरौद जल संसाधन विभाग का निरीक्षण गृह और गिधौरी में शर्मा लॉज प्रमुख है। इसके अलावा विभिन्न समाजों के धर्मशालाओं में भी रुकने की व्यवस्था है।
क्या देखें :-
यहां देखने के लिए महानदी, शिवनाथ नदी और जोंक नदी के संगम का मनोरम दृश्य, भगवान शबरीनारायण, उनके चरण को स्पर्श करती मोक्षदायी रोहिणी कुंड, चंद्रचूड़ महादेव, केशवनारायण, श्री रामजानकी मंदिर, मठ और मठ परिसर में स्थित महंतों की समाधि, जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा, श्रीराम लक्ष्मण जानकी मंदिर, शबरी के बेर खाते श्रीराम और लक्ष्मण मंदिर, श्रीकृष्ण वट वृक्ष, गादी चौरा, माखन साव घाट स्थित महेश्वरनाथ और शीतला देवी मंदिर, मां अन्नपूर्णा और लक्ष्मीनारायण मंदिर और उसके परिसर में स्थित विभिन्न देवी देवताओं के मंदिर, जोगीडीपा के बजरंगबली के मंदिर, 02 कि. मी. की देरी पर स्थित खरौद में लक्ष्मणेश्वर महादेव, इंदलदेव और शबरी (सौराइन दाई) मंदिर, गिरि गोस्वामियों का शैव मठ, 11 कि. मी. की देरी पर स्थित केरा में चण्डी दाई का मंदिर, 17 कि. मी. की दूरी पर स्थित नवागढ़ में लिंगेश्वर महादेव, बिलासपुर मार्ग में 11 कि. मी. की दूरी पर स्थित मेहँदी में सिद्ध हनुमान मंदिर, 12 कि. मी. की दूरी पर स्थित गिरौदपुरी में गुरु घासीदास का मंदिर, जोंक नदी और पहाड़ी का मनोरम दृश्य दर्शनीय है। कसडोल और बलौदाबाजार से नारायणपुर और तुरतुरिया जाया जा सकता है। नारायणपुर में स्थित शिव मंदिर के बाहरी दीवार में मिथुन मूर्तियां दर्शनीय है। इसी प्रकार तुरतुरिया में बौद्ध विहार है यहां प्रतिवर्ष पूस पुन्नी (छेरछेरा) के दिन एक दिवसीय मेला लगता है। शिवरीनारायण जब भी जाएं चित्रोत्पलागंगा-महानदी में स्नान कर भगवान शबरीनारायण और उसके चरण को स्पर्श करती हुई रोहिणी कुंड का दर्शन और उसके जल का आचमन अवश्य करें।
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रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)

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