शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

छत्तीसगढ़ की पाँच दिवसीय दीपावली


छत्तीसगढ़ की पाँच दिवसीय दीपावली


प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ मै पाँच दिन तक चलने वाले इस त्यौहार का आरम्भ धनतेरस यानि धन्वन्तरी त्रयोदस से होता है । मान्यता है की इस दिन भगवान् धन्वन्तरी अपने हाँथ में अमृत कलश लिए प्रकट हुए थे। समुद्र मंथन में जो चौदह रत्न निकले थे, भगवान् धन्वन्तरी उनमे से एक है। वे आरोग्य और समृद्धि के देव है । स्वास्थ्य और सफाई से इनका गहरा सम्बन्ध होता है। इसलिए इस दिन सभी अपने घरों की सफाई करते है और लक्ष्मी जी के आगमन की तयारी करतें है। इस दिन लोग यथाशक्ति सोना- चांदी और बर्तन इत्यादि खरीदते है।दूसरे दिन कृष्ण चतुर्दशी होता है। इस दिन को नरक चतुर्दशी भी कहा जाता है। इस दिन भगवान् श्रीकृष्ण नरकासुर का वध करके, उनकी क़ैद से हजारों राजकुमारियों को मुक्ति दिलाकर उनके जीवन में उजाला किए थे। राजकुमारियों ने इस दिन दीपों की श्रृंख्ला जलाकर, अपने जीवन में खुशियों को समाहित किया था।तीसरे दिन आता है दीपावली। दीपों का त्यौहार..... लक्ष्मी पूजन का त्यौहार। असत्य पर सत्य की, अन्धकार पर प्रकाश की, और अधर्म पर धर्म की विजय का त्यौहार है दीपावली। इस त्यौहार को मनाने के पीछे अनेक लोक मान्यताएं जुड़ी हुई है। भगवान् श्रीरामचंद्र जी के चौदह वर्ष बनवास काल की समाप्ति और अयोध्या आगमन पर उनके स्वागत में दीप जलाना, अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का इस दिन जन्म हुआ था और इसी दिन उन्होंने जल समाधि ली थी। अहिंसा की प्रतिमूर्ति और जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने इसी दिन निर्वाण किया था। सिख धर्म के प्रवर्तक श्री गुरुनानक देव जी का जन्म इसी दिन हुआ था। इस सत्पुरुषों के उच्च आदर्शों और अमृतवाणी से हमे सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है। इसी अमावास को भगवान् विष्णु जी ने धन की देवी लक्षी जी का वरण किया था। इसीलिए इस दिन सारा घर दीपों के प्रकाश से जगमगा उठता है। पटाखे और आतिशबाजी की गूँज उनके स्वागत में होती है। इस दिन धन की देवी माँ लक्ष्मी की पूजा अर्चना करके प्रसन्न किया जाता है, और घर को श्री संपन्न करने की उनसे प्रार्थना की जाती है। :-
जय जय लक्षी ! हे रमे ! रम्य !हे देवी ! सदय हो, शुभ वर दो ! प्रमुदित हो, सदा निवास करो सुख संपत्ति से पूरित कर दो,हे जननी ! पधारो भारत मेंकटु कष्ट हरो, कल्याण करो भर जावे कोषागार शीघ्र दुर्भाग्य विवश जो है खाली घर घर में जगमग दीप जले आई है देखो दीपावली.... !
चौथे दिन आती है गोवर्धन पूजा। यह दिन छत्तीसगढ़ में बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इसे छोटी दीपावली भी कहा जाता है। मुंगेली क्षेत्र में इस दिन को पान बीडा कहतें है और अपने घरों में मिलने आए लोगों का स्वागत पान बीडा देकर करतें है। इस दिन गोबर्धन पहाड़ बनाकर उसमे श्रीकृष्ण और गोप गोपियाँ बनाकर उनकी पूजा की जाती है।पाँचवे दिन आता है भाई दूज का पवित्र त्यौहार। यमराज के वरदान से बहन इस दिन अपने भाई का स्वागत करके मोक्ष की अधिकारी बनती है। पाँच दिन तक चलने वाले इस त्यौहार को लोग बड़े धूमधाम और आत्मीय ढंग से मनाते है।यह सच है की दीपावली के आगमन से खर्च में बढोत्तरी हो जाती है और पाँच दिन तक मनाये जाने वाले इस त्यौहार के कारण आपका पाँच माह का बजट फेल हो जाता है। उचित तो यही होगा की आप इसे अपने बजट के अनुसार ही मनाएं । हर वर्ष आने वाला दीपावली अपने चक्र के अनुसार इस वर्ष भी आया है और भविष्य में भी आयेगा पर इससे घबराएँ नहीं और सादगीपूर्ण और सौहार्द के वातावरण में मनाएं । दूरदर्शिता से काम ले, इतनी फिजूलखर्ची ना करें की आपका दिवाला ही निकल जाए और ना ही इतनी कंजूसी करें की दीपावली का आनंद ही न मिल पाए..।
हे दीप मालिके ! फैला दो आलोक तिमिर सब मिट जाए
प्रो. अश्विनी केशरवानी, राघव - डागा कालोनी - चाम्पा, (छत्तीसगढ़)

बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

छत्तीसगढ़ में दशहरा की अद्भूत परंपराएं

छत्तीसगढ़ में दशहरा की अद्भूत परंपराएं

प्रो. अश्विनी केशरवानी

दशहरा भारत का एक प्रमुख लोकप्रिय त्योहार है। इसे देश के कोने कोने में हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। वास्तव में यह त्योहार असत्य के उपर सत्य का और अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। श्रीराम सत्य के और रावण असत्य के प्रतीक हैं। विजय प्राप्त करने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है और हमें शक्ति मां भवानी की पूजा-अर्चना से मिलती है। इसके लिए अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमीं तक मां दुर्गा की पूजा-अर्चना करते हैं और दसमीं को दस सिर वाले रावण के उपर विजय प्राप्त करते हैं। कदाचित् इसी कारण दशहरा को ``विजयादशमी`` कहा जाता है। वास्तव में रावण अजेय योद्धा के साथ साथ प्रकांड विद्वान भी थे। उन्होंने अपने बाहुबल से देवताओं, किन्नरों, किरातों और ब्रह्मांड के समस्त राजाओं को जीतकर अपना दास बना लिया था। मगर वे अपनी इंद्रियों को नहीं जीत सके तभी तो वे काम, क्रोध, मद और लोभ के वशीभूत होकर कार्य करते थे। यही उन्हें असत्य के मार्ग में चलने को मजबूर करते थे। इसी के वशीभूत होकर उन्होंने माता सीता का हरण किया और श्रीराम के हाथों मारे गये। श्रीराम की विजय की खुशी में ही लोग इस दिन को ``दशहरा`` कहने लगे और प्रतिवर्ष रावण के प्रतीक का दहन कर दशहरा मनाने लगे। अधिकांश स्थानों में रावण दहन के पूर्व `गढ़ भेदन` करने और पुरस्कृत करने की परंपरा है। कुछ स्थानों में रावण की आदमकद सीमेंट की प्रतिमा बनाकर लोग उसकी पूजा करते हैं और मनौती मानते हैं। आज हम गांव गांव और शहर में इस दिन रावण की आदमकद प्रतिमा बनाकर जलाकर दशहरा मनाते हैं। इस दिन रावण की प्रतिमा को जलाकर घर लौटने पर मां अपने पति, बेटे और नाती-पोतों तथा रिश्तेदारों की आरती उतारकर दही और चांवल का तिलक लगाती है और मिष्ठान खाने के लिए पैसे देती है। कई घरों में नारियल देकर पान-सुपारी खिलाने का रिवाज है। इस दिन अपने मित्रों, बड़े बुजुर्गों, छोटे भाई-बहनों, माताओं आदि सबको ``सोनपत्ति`` देकर यथास्थिति आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। लोग अपने मित्रों से गले मिलकर रावण मारने की बधाई देते हैं। कहीं कहीं दशहरा के पहले `रामलीला` का मंचन होता है और रामराज्य की कल्पना की जाती है। छत्तीसगढ़ में दशहरा मनाने की अलग अलग परंपरा है आइये एक नजर डालें :- संबलपुर के राजा ने हरि और गुजर को लकड़ी की तलवार से भैंस की बलि एक ही वार से दिये जाने पर उनके शौर्य से प्रसन्न होकर सक्ती की जमींदारी प्रदान की थी। दशहरे के दिन आज भी सक्ती पैलेश में लकड़ी के तलवार की पूजा होती है। सारंगढ़ में शिवरीनारायण रोड में नगर से 4 कि।मी. दूरी पर खेलभाठा में दशहरा के दिन गढ़ भेदन किया जाता है। यहां चिकनी मिट्ठी का प्रतीकात्मक गढ़ (मिट्ठी का ऊंचा टीला) बनाया जाता है और उसके चारों ओर पानी भरा होता है। गढ़ के सामने राजा, उसके सामंत और अतिथियों के बैठने के लिए स्टेज बनाया जाता था, जिसके अवशेष यहां आज भी मौजूद है। विभिन्न ग्रामों से दशहरा मनाने आये ग्रामीण जन इस गढ़ भेदन में प्रतियोगी होते थे। वे इस मिट्ठी के गढ़ में चढ़ने का प्रयास करते और फिसल कर पानी में गिर जाते हैं। पानी में भीगकर पुन: गढ़ में चढ़ने के प्रयास में गढ़ में फिसलन हो जाता था। बहुत प्रयत्न के बाद ही कोई गढ़ के शिखर में पहुंच पाता था और विजय स्वरूप गढ़ की ध्वज को लाकर राजा को सौंपता था। करतल ध्वनि के बीच राजा उस विजयी प्रतियोगी को तिलक लगाकर नारियल और धोती देकर सम्मानित करते थे। फिर राजा की सवारी राजमहल में आकर दरबारेआम में बदल जाती थी जहां दशहरा मिलन होता था। ग्रामीणजन अपने राजा को इतने करीब से देखकर और उन्हें सोनपत्ती देकर, उनके चरण वंदन कर आल्हादित हो उठते थे। सहयोगी सामंत, जमींदार और गौटिया नजराना पेश कर अपने को धन्य मानते थे। अंत में मां समलेश्वरी देवी की पूजा अर्चना करके खुशी खुशी घर को लौटते थे। चंद्रपुर में जमींदार परिवार के द्वारा भैंस (पड़वा) की नवमीं को बलि देकर दशहरा मनाया जाता है। अंबिकापुर में दशहरा के दिन राजा की सवारी देवी दर्शन कर नगर भ्रमण करती हुई राजमहल परिसर में पहुंचकर ``मिलन समारोह`` में परिवर्तित हो जाता था। उस समय राज परिवार के सभी सदस्य, अन्य सामंत, जमींदार, ओहदेदार विराजमान होते थे। ग्रामीणजन सोनपत्ती देकर उन्हें बधाई देते थे। बस्तर का दशहरा अन्य स्थानों से भिन्न होता है क्योंकि यहां दशहरा में दशानन रावण का वध नहीं बल्कि बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी माई की विशाल शोभायात्रा निकलती है। इसीप्रकार शिवरीनारायण में दशहरा को विजियादशमी के रूप में मनाया जाता है। मठ के महंत शाम को बाजे-गाजे के साथ जनकपुर जाकर सोनपत्ती की पूजा करके वापस लौटते हैं और गादी चौरा पूजा करते हैं। महंत के द्वारा पूजा-अर्चना की जाती है तत्पश्चात् वे गादी में विराजमान होते हैं। उपस्थित जन समुदाय महंत जी को भेंट देकर सम्मानित करते हैं। वास्तव में यह एक तांत्रिक परंपरा है। प्राचीन काल में यहीं पर तांत्रिकों से स्वामी दयाराम दास ने शास्त्रार्थ करके पराजिक किया और इस क्षेत्र को छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। तब से यहां प्रतिवर्ष गादी चौरा पूजा उनके प्रभाव को शांत करने के लिए किया जाता है।


राघव, डागा कालोनी, चांपा (छ.ग.)

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

देवी उपासना का महापर्व नवरात्र



देवी उपासना का महापर्व नवरात्र
प्रो. अश्विनी केशरवानी
नवरात्र- नौ दिनों तक देवी उपासना का महापर्व है। गांव और शहरों में जगह जगह शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा की आकर्षक प्रतिमा भव्य पंडालों में स्थापित कर उसकी पूजा-अर्चना की जाती है। ग्राम देवी, देवी मंदिरों और ठाकुरदिया में जवारा बोई जाती है, मनोकामना ज्योति प्रज्वलित की जाती है .. हजारों लीटर तेल और घी इसमें खप जाता है। लोगों का विश्वास है कि मनोकामना ज्योति जलाने से उनकी कामना पूरी होती है और उन्हें मानसिक शांति मिलती है। इस अवसर पर देवी मंदिरों तक आने-आने के लिए विशेष बस और ट्रेन चलायी जाती है। इसके बावजूद दर्शनार्थियों की अपार भीड़ सम्हाले नहीं सम्हलता, मेला जैसा दृश्य होता है। कहीं कहीं नवरात्र मेला लगता है। गांव में तो नौ दिनों तक धार्मिक उत्सव का माहौल होता है। शहरों में भी मनोरंजन के अनेक आयोजन होते हैं। कोलकाता और बिलासपुर का दुर्गा पूजा प्रसिद्ध है। दूर दूर से लोग यहां आते हैं। छत्तीसगढ़ में शिवोपासना के साथ शक्ति उपासना प्राचीन काल से प्रचलित है। कदाचित इसी कारण शिव भी शक्ति के बिना शव या निष्क्रिय बताये गये हैं। योनि पट्ट पर स्थापित शिवलिंग और अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की कल्पना वास्तव में शिव-शक्ति या प्रकृति-पुरूष के समन्वय का परिचायक है। मनुष्य की शक्तियों को प्राप्त करने की इच्छा शक्ति ने शक्ति उपासना को व्यापक आयाम दिया है। मनुष्य के भीतर के अंधकार और अज्ञानता या पैशाचिक प्रवृत्तियों से स्वयं के निरंतर संघर्ष और उनके उपर विजय का संदेश छिपा है। परिणामस्वरूप दुर्गा, काली और महिषासुर मिर्दनी आदि देवियों की कल्पना की गयी जो भारतीय समाज के लिए अजस्र शक्ति की प्ररणास्रोत बनीं। शैव धर्म के प्रभाव में बृद्धि के बाद शक्ति की कल्पना को शिव की शक्ति उमा या पार्वती से जोड़ा गया और यह माना गया कि स्वयं उमा, पार्वती या अम्बा समय समय पर अलग अलग रूप ग्रहण करती हैं। शक्ति समुच्चय के विभिन्न रूपों में महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती प्रमुख बतायी गयी हैं। देवी माहात्म्य में महालक्ष्मी रूप में देवी को चतुर्भुजी या दशभुजी बताया गया है और उनके हाथों में त्रिशूल, खेटक, खड्ग, शक्ति, शंख, चक्र, धनुष तथा एक हाथ में वरद मुद्रा व्यक्त करने का उल्लेख मिलता है। देवी के वाहन के रूप में सिंह (दुर्गा, महिषमिर्दनी, उमा), गोधा (गौरी, पार्वती), पद्म (लक्ष्मी), हंस (सरस्वती), मयूर (कौमारी), प्रेत या शव (चामुण्डा) गर्दभ (शीतला) होते हैं। छत्तीसगढ़ में राजा-महाराजा और जमींदार देवी की प्रतिष्ठा अपने कुल देवी के रूप में कराया था जो आज शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है। उनकी कुल देवियां उन्हें न केवल शक्ति प्रदान करती थीं बल्कि उनका पथ प्रदर्शन भी करती थी। छत्तीसगढ़ के राजा-महाराजा और जमींदारों की निष्ठा या तो रत्नपुर या फिर संबलपुर के शक्तिशाली महाराजा के प्रति थी। कदाचित् यही कारण है कि यहां या तो रत्नपुर की महामाया देवी या फिर संबरपुर की समलेश्वरी देवी विराजित हैं। कुछ स्थानीय देवियां भी हैं जैसे- सरगुजा की सरगुजहीन देवी, दंतेवाड़ा की दंतेश्वरी देवी, कोसगढ़ की कोसगई देवी, अड़भार की अष्टभुजी देवी, चंद्रपुर की चंद्रहासिनी देवी प्रमुख है इसके अलावा डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी देवी, कोरबा की सर्वमंगला, शिवरीनारायण की अन्नपूर्णा, खरौद की सौराइन दाई, केरा, पामगढ़ और दुर्ग की चण्डी देवी, बालोद की गंगा मैया, खल्लारी की खल्लाई देवी, खोखरा और मदनपुर की मनका दाई, मल्हार की डिडनेश्वरी देवी, जशपुर की काली माई, रायगढ़ की बुढ़ी माई, चैतुरगढ़ की महिषासुर मिर्दनी, रायपुर की बंजारी देवी शक्ति उपासना के केंद्र बने हुए हैं। अनेक स्थानों पर ``शक्ति चौरा`` भी बने हुए हैं। शाक्त परंपरा में आदि भवानी को मातृरूप में पूजने की सामाजिक मान्यता है। माताओं और कुंवारी कन्या का शाक्त धर्म में बहुत ऊंचा स्थान है। शादी-ब्याह जैसे मांगलिक अवसरों में देवी-देवताओं को आदरपूर्वक न्यौता देने के लिए देवालय यात्रा का विधान है। इसीप्रकार अकाल, महामारी, भुखमरी आदि को दैवीय प्रकोप मानकर उसकी शांति के लिए धार्मिक अनुष्ठान किये जाते हैं। तत्कालीन साहित्य में ``बलि`` दिये जाने का उल्लेख मिलता है। आज भी कहीं कहीं पशु बलि दिया जाता है। बहरहाल, शक्ति संचय, असुर और नराधम प्रवृत्ति के लिए मां भवानी की उपासना और पूजा-अर्चना आवश्यक है। इससे सुख, शांति और समृिद्ध मिलती है। ऐसे ममतामयी मां भवानी को हमारा शत् शत् नमन..। या देवी सर्व भूतेषु, शक्तिरूपेण संस्थित:। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। आलेख, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानीराघव, डागा कालोनी, चांपा-495671 (छ.ग.)

बुधवार, 3 सितंबर 2008

छत्तीसगढ़ में गणेश उत्सव की प्राचीन परम्परा

छत्तीसगढ़ में गणेश उत्सव की प्राचीन परम्परा
प्रो. अश्विनी केशरवानी
विघ्ननाशक और गणेश या गणपति की सििद्ध विनायक के रूप में पूजन की परंपरा प्राचीन है किंतु पार्वती अथवा गौरीनंदन गणेश का पूजन बाद में प्रारंभ हुआ। ब्राह्मण धर्म के पांच प्रमुख सम्प्रदायों में गणेश जी के उपासकों का एक स्वतंत्र गणपत्य सम्प्रदाय भी था जिसका विकास पांचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुआ। वर्तमान में सभी शुभाशुभ कार्यों के प्रारंभ में गणेश जी की पूजा की जाती है। लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजन चंचला लक्ष्मी पर बुिद्ध के देवता गणेश जी के नियंत्रण के प्रतीक स्वरूप की जाती है। दूसरी ओर समृिद्ध के देवता कुबेर के साथ उनके पूजन की परंपरा सििद्ध दायक देवता के रूप में मिलती है। गणेश जी के अनेक नाम निम्नानुसार हैं :- सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्ण, लंबोदर, विकट, विघ्न विनाशक, विनायक, धुम्रकेतु, गणेशाध्यक्ष, भालचन्द्र और गजानन। सििद्ध सदन एवं गजवदन विनायक के उद्भव का प्रसंग ब्रह्मवैवत्र्य पुराण के गणेश खंड में मिलता है। इसके अनुसार पार्वती जी ने पुत्र प्राप्ति का यज्ञ किया। उस यज्ञ में देवता और ऋषिगण आये और पार्वती जी की प्रार्थना को स्वीकार कर भगवान विष्णु ने व्रतादि का उपदेश दिया। जब पार्वती जी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तब त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के साथ अनेक देवता उन्हें आशीर्वाद देने पहुंचे। सूर्य पुत्र शनिदेव भी वहां पहुंचे। लेकिन उनका मस्तक झुका हुवा था। क्योंकि एक बार ध्यानस्थ शनिदेव ने अपनी पत्नी के शाप का उल्लेख करते हुए अपना सिर उठाकर बालक को देखने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी। लेकिन पार्वती जी ने नि:शंक होकर गणेश जी को देखने की अनुमति दे दी। शनिदेव की दृष्टि बालक पर पड़ते ही बालक का सिर धड़ से अलग हो गया। ...और कटा हुआ सिर भगवान विष्णु में प्रविष्ट हो गया। तब पार्वती जी पुत्र शोक में विव्हल हो उठीं। भगवान विष्णु ने तब सुदर्शन चक्र से पुष्पभद्रा नदी के तट पर सोती हुई हथनी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर दिया। तब से उन्हें ``गणेश´´ के रूप में जाना जाता है। गणेश चतुर्थी को पूरे देश में गणेश जी प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चना की जाती है। गणेश जी ही ऐसे देवता हैं जिनकी घरों में और सार्वजनिक रूप से प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चना की जाती है। चतुर्थी से लेकर अनंत चौदस तक उत्सव जैसा माहौल होता है। सभी स्थानों में आर्कस्ट्रा, नाच-गाना, गम्मत आदि अनेक कार्यक्रम कराये जाते हैं। छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं होता। पहले रायपुर में गणेश पूजन और सांस्कृतिक कार्यक्रम बृहद स्तर पर होता था। लोग यहां के आयोजन को महाराष्ट्र के गणेश पूजन से तुलना करतते थे और दूर दूर से यहां गणेश पूजन देखने आते थे। लेकिन अब छत्तीसगढ़ के प्राय: सभी स्थानों में गणेश जी की प्रतिमा स्थापित कर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होने लगा है। छत्तीसगढ़ प्राचीन काल से त्यौहारों और पर्वो में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए विख्यात् रहा है। यहां के राजे-रजवाड़ों में सार्वजनिक गणेश पूजन और आयोजन से उत्सव जैसा माहौल हुआ करता था। रायगढ़ का गणेश पूजन पूरे छत्तीसगढ़ में ही नहीं बल्कि पूरे देश में विख्यात् था। छत्तीसगढ़ के पूर्वी छोर पर उड़ीसा राज्य की सीमा से लगा आदिवासी बाहुल्य जिला मुख्यालय रायगढ़ स्थित है। दक्षिण पूर्वी रेल लाइन पर बिलासपुर संभागीय मुख्यालय से 133 कि. मी. और राजधानी रायपुर से 253 कि. मी. की दूरी पर स्थित यह नगर उड़ीसा और बिहार प्रदेश की सीमा से लगा हुआ है। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य, नदी-नाले, पर्वत श्रृंखला और पुराताित्वक सम्पदाएं पर्यटकों के लिए आकर्षण के केंद्र हैं। रायगढ़ जिले का निर्माण 01 जनवरी 1948 को ईस्टर्न स्टेट्स एजेन्सी के पूर्व पांच रियासतों क्रमश: रायगढ़, सारंगढ़, जशपुर, उदयपुर और सक्ती को मिलाकर किया गया था। बाद में सक्ती रियासत को बिलासपुर जिले में सिम्मलित किया गया। केलो, ईब और मांड इस जिले की प्रमुख नदियां है। इन पहािड़यों में में प्रागैतिहासिक कान के भिित्त चित्र सुरक्षित हैं। आजादी और सत्ता हस्तांतरण के बाद बहुत सी रियासतें इतिहास के पन्नों में कैद होकर गुमनामी के अंधेरे में खो गये। लेकिन रायगढ़ रियासत के राजा चक्रधरसिंह का नाम भारतीय संगीत कला और साहित्य के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा। राजसी ऐश्वर्य, भोग विलास और झूठी प्रतिष्ठा की लालसा से दूर उन्होंने अपना जीवन संगीत, नृत्यकला और साहित्य को समर्पित कर दिया। इसके लिए उन्हें कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन रहना पड़ा। लेकिन 20 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में रायगढ़ दरबार की ख्याति पूरे भारत में फैल गयी। यहां के निष्णात् कलाकार अखिल भारतीय संगीत प्रतियोगिताओं में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर पुरस्कृत होते रहे। इससे पूरे देश में छत्तीसगढ़ जैसे सुदूर वनांचल राज्य की ख्याति फैल गयी।गणेश मेले की शुरूवात :- रायगढ़ में ``गणेश मेले´´ की शुरूवात कब हुई इसका कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलता। मुझे मेरे घर में रायगढ़ के राजा विश्वनाथ सिंह का 8 सितंबर 1918 को लिखा एक आमंत्रण पत्र माखनसाव के नाम मिला है जिसमें उन्होंने गणेश मेला उत्सव में सिम्मलित होने का अनुरोध किया गया है। इस परम्परा का निर्वाह राजा भूपदेवसिंह भी करते रहे। पंडित मेदिनी प्रसाद पांडेय ने `गणपति उत्सव दर्पण` लिखा है। 20 पेज की इस प्रकािशत पुस्तिका में पांडेय जी ने गणेश उत्सव के अवसर पर होने वाले कार्यक्रमों को छंदों में समेटने का प्रयास किया है। गणेश चतुर्थी की तिथि तब स्थायी हो गयी जब कुंवर चक्रधरसिंह का जन्म गणेश चतुर्थी को हुआ। बालक चक्रधरसिंह के जन्म को चिरस्थायी बनाने के लिए `चक्रधर पुस्तक माला` के प्रकाशन की शुरूवात की थी। इस पुस्तक माला के अंतर्गत पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय के कुशल संपादन में पंडित अनंतराम पांडेय की रचनाओं का संग्रह `अनंत लेखावली` के रूप में नटवर प्रेस रायगढ़ से प्रकािशत किया गया था। कहते हैं रायगढ़ रियासत के राजा जुझारसिंह ने अपने शौर्य और पराक्रम से राज्य को सुदृढ़ किया, राजा भूपदेवसिंह ने उसे श्री सम्पन्न किया और राजा चक्रधरसिंह ने उसे संगीत, कला, नृत्य और साहित्य की त्रिवेणी के रूप में ख्याति दिलायी।नान्हे महाराज से चक्रधर सिंह तक का सफर :- दरअसल रायगढ़ दरबार को संगीत, नृत्य और कला के क्षेत्र में ख्याति यहां बरसों से आयोजित होने वाले गणेश मेला उत्सव में मिली। बाद में यह जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। क्योंकि इस दिन (19 अगस्त सन् 1905 को) रायगढ़ के आठवें राजा भूपदेवसिंह के द्वितीय पुत्र रत्न के रूप में चक्रधरसिंह का जन्म हुआ। वे तीन भाई क्रमश: श्री नटवरसिंह, श्री चक्रधरसिंह और श्री बलभद्रसिंह थे। चक्रधरसिंह को सभी ``नान्हे महाराज´´ कहते थे। उनका लालन पालन यहां के संगीतमय और साहिित्यक वातावरण में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा रायगढ़ के मोती महल में हुई। आठ वर्ष की आयु में सन् 1914 में उन्हें रायपुर के राजकुमार कालेज में दखिल कराया गया। नौ वर्ष तक वहां के कड़े अनुशासन में विद्याध्ययन करने के बाद सन 1923 में प्रशासनिक ट्रेनिंग के लिए छिंदवाड़ा चले गये। कुशलता पूर्वक वहां की प्रशासनिक ट्रेनिंग पूरा करके रायगढ़ लौटने पर उनका विवाह बिंद्रानवागढ़ के जमींदार की बहन से हुआ। जिनके गर्भ से श्री ललित कुमार सिंह, श्री भानुप्रताप सिंह, मोहिनी देवी और गंधर्वकुमारी देवी का जन्म हुआ। 15 फरवरी 1924 को राजा नटवरसिंह की असामयिक मृत्यु हो गयी। चूंकि उनका कोई पुत्र नहीं था अत: रानी साहिबा ने चक्रधरसिंह को गोद ले लिया। इस प्रकार श्री चक्रधरसिंह रायगढ़ रियासत की गद्दी पर आसीन हुए। 04 मार्च सन् 1929 में सारंगढ़ के राजा जवाहरसिंह की पुत्री कुमारी बसन्तमाला से राजा चक्रधरसिंह का दूसरा विवाह हुआ जिसमें शिवरीनारायण के श्री आत्माराम साव सिम्मलित हुए। मैं उनका वंशज हूं और मुझे इस विवाह का निमंत्रण पत्र मेरे घर में मिला। उनके गर्भ से सन 1932 में कुंवर सुरेन्द्रकुमार सिंह का जन्म हुआ। उनकी मां का देहांत हो जाने पर राजा चक्रधरसिंह ने कवर्धा के राजा धर्मराजसिंह की बहन से तीसरा विवाह किया जिनसे कोई संतान नहीं हुआ।नृत्य, संगीत और साहित्य की त्रिवेणी के रूप में :- राजा बनने के बाद चक्रधरसिंह राजकीय कार्यों के अतिरिक्त अपना अधिकांश समय संगीत, नृत्य, कला और साहित्य साधना में व्यतीत करने लगे। वे एक उत्कृष्ट तबला वादक, कला पारखी और संगीत प्रमी थे। यही नहीं बल्कि वे एक अच्छे साहित्यकार भी थे। उन्होंने संगीत के कई अनमोल ग्रंथों, दर्जन भर साहिित्यक और उर्दू काव्य तथा उपन्यास की रचना की। उनके दरबार में केवल कलारत्न ही नहीं बल्कि साहित्य रत्न भी थे। सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री भगवतीचरण वर्मा, पंडित माखनलाल चतुर्वेदी, श्री रामेश्वर शुक्ल ``अंचल´´, डॉ. रामकुमार वर्मा और पं. जानकी बल्लभ शास्त्री को यहां अपनी साहिित्यक प्रतिभा दिखाने और पुरस्कृत होने का सौभाग्य मिला। अंचल के अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार जिनमें पं. अनंतराम पांडेय, पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय, पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, पं. लोचनप्रसाद पांडेय, डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र और ``पद्मश्री´´ पं. मुकुटधर पांडेय आदि प्रमुख थे, ने यहां साहिित्यक वातावरण का सृजन किया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र रायगढ़ दरबार में दीवान रहे। श्री आनंद मोहन बाजपेयी उनके निजी सचिव और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी उनके पथ प्रदर्शक थे। इनके सानिघ्य में राजा चक्रधर सिंह ने कई पुस्तकों की रचना की। उनमें बैरागढ़िया राजकुमार, अल्कापुरी और मायाचक्र (सभी उपन्यास), रम्यरास, रत्नहार, रत्नमंजूषा (सभी काव्य), काव्य कानन (ब्रज काव्य), जोशे फरहत और निगारे फरहत (उर्दू काव्य) आदि प्रमुख है। इसके अलावा नर्तन सर्वस्वम, तालतोयनिधि, रागरत्नमंजूषा और मुरजपरन पुष्पाकर आदि संगीत की अनमोल कृतियों का उन्होंने सृजन किया है।रायगढ़ कत्थक घराने के साक्षी :- जयपुर घराने के पंडित जगन्नाथ प्रसाद पहले गुरू थे जिन्होंने यहां तीन वर्षो तक कत्थक नृत्य की शिक्षा दी। इसके पश्चात् पं. जयलाल सन् 1930 में यहां आये और राजा चक्रधर सिंह के मृत्युपर्यन्त रहे। कत्थक के प्रख्यात् गुरू और लखनऊ घराने से सम्बद्ध पं. कालिकाप्रसाद के तीनों पुत्र अच्छन महाराज, लच्छू महाराज और शंभू महाराज यहां बरसों रहे। बिंदादीन महाराज के शिष्य सीताराम जी भी यहां रहे। उस्ताद कादर बख्श, अहमद जान थिरकवा जैसे सुप्रसिद्ध तबला वादक यहां बरसों रहे। इसके अतिरिक्त मुनीर खां, जमाल खां, करामत खां और सादिक हुसैन आदि ने भी तबले की शिक्षा देने रायगढ़ दरबार में आये थे। कत्थक गायन के लिये हाजी मोहम्मद, अनाथ बोस, नन्हें बाबू, धन्नू मिश्रा और नासिर खां भी यहां रहे। इसके अलावा राजा बहादुर ने अपने दरबार में देश-विदेश के चोटी के निष्णात कलाकारों और साहित्यकारों को यहां आमंत्रित करते थे। उनके कुशल निर्देशन में यहां के अनेक बाल कलाकारों को संगीत, नृत्यकला और तबला वादन की शिक्षा मिली और वे देश विदेश में रायगढ दरबार की ख्याति को फैलाये। इनमें कार्तिकराम, कल्याणदास, फिरतूदास और बर्मनलाल की जोड़ी ने कत्थक के क्षेत्र में रायगढ़ दरबार की ख्याति पूरे देश में फैलाये। निश्चित रूप से ``रायगढ़ कत्थक घराना´´ के निर्माण में इन कलाकारों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। शासन द्वारा प्रतिवर्ष गणेश चतुर्थी से `चक्रधर समारोह` का आयोजन किया जाता है। इस समारोह में देश के कोने कोने से कलाकारों का आमंत्रित कर सांस्कृतिक कार्यक्रम कराये जाते हैं।चांपा में रहस से गम्मत तक का सफर :-इसी प्रकार चांपा में भी गणेश उत्वस मनाये जाने का उल्लेख मिलता है जिसका बिखरा रूप आज भी यहां अनेत चौदस को देखा जा सकता है। चाम्पा, छत्तीसगढ़ प्रदेश के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत दक्षिण पूर्वी रेल्वे का एक महत्वपूर्ण जंक्शन है जो 22 अंश उत्तरी अक्षांश और 82.43 अंश पूर्वी देशांश पर स्थित है। समुद्र सतह से 500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हसदो नदी के तट पर बसा यह नगर अपने प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। कोरबा रोड में मड़वारानी की पहािड़यां, मदनपुर की झांकियां, बिछुलवा नाला, केरा झरिया, हनुमानधारा और पीथमपुर के छोटे-बड़े मंदिर चाम्पा को दर्शनीय बनाते हैं। यहां का रामबांधा देव-देवियों के मंदिरों से सुशोभित और विशाल वृक्षों से परिवेिष्ठत और राजमहल का मनोरम दृश्य है। यहां मित्रता के प्रतीक समलेश्वरी देवी और जगन्नाथ मठ उिड़या संस्कृति की साक्षी हैं। डोंगाघाट स्थित श्रीराम पंचायत, वीर बजरंगबली, राधाकृष्ण का भव्य मंदिर, तपसी बाबा का आश्रम, मदनपुर की महामाया और मनिकादेवी, हनुमानधारा में हनुमान मंदिर, पीथमपुर का कलेश्वरनाथ का मंदिर और कोरबा रोड में मड़वारानी का मंदिर छत्तीसगढ़ी संस्कृति कर जीता जागता उदाहरण है। चांपा जमींदारी का अपना एक उज्जवल इतिहास है। यहां के जमींदार शांतिप्रिय, प्रजावत्सल और संगीतानुरागी थे। धार्मिक और उत्सवप्रिय तो वे थे ही, कदाचित् यही कारण है कि चांपा में नवरात्रि में समलेश्वरी, मदनपुर में महामाया देवी और मनिका माई, रथ द्वितीया में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की रथयात्रा, जन्माष्टमी में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव, रासलीला और गणेश चतुर्थी से गणेश पूजा उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता रहा है। गणेश पूजा उत्सव रायगढ़ के गणेश मेला के समान होेता है जो पूरे छत्तीसगढ़ में अनूठा होता है। यहां का ``रहस बेड़ा´´ उस काल की कलाप्रियता का साक्षी है। पहले गणेश उत्सव रहसबेड़ा में ही होता था। यूं तो रहसबेड़ा चांपा के आसपास अनेक गांव में है जहां भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला का मंचन होता है। लेकिन जमींदारी का सदर मुख्यालय होने के कारण यहां का रहसबेड़ा कलाकारों को एक मंच प्रदान करता था जहां कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करके पुरस्कृत होता था। यहां पर अनेक प्रकार के गम्मत, रामलीला, रासलीला, नाटक, नृत्य आदि का आयोजन किया जाता था। आज इस प्रकार के आयोजन गली-मुहल्ले, चौराहों में बेतरतीब ढंग से होता है। आपपास के गांवों से हजारों लोग इसे देखने आते हैं। भीड़ इतनी अधिक होती है कि पैदल चलना दूभर हो जाता है। खासकर अनंत चौदस को तो रात भर अन्यान्य कार्यक्रम होते हैं। चाम्पा में गणेश उत्सव की शुरूवात जमींदार श्री नारायण सिंह के शासन काल में शुरू हुआ। वे संगीतानुरागी, धर्मप्रिय और प्रजावत्सल थे। उन्होंने ही यहां जगन्नाथ मंदिर का निर्माण आरंभ कराया जिसे उनके पुत्र प्रेमसिंह ने पूरा कराया। इनके शासनकाल में ही यहां रायगढ़ के गणेश मेला के बाद सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ का दूसरा बड़ा गणेश उत्सव होता था। नारायण सिंह के बाद प्राय: सभी जमींदारों ने इस उत्सव को जारी रखा। उस काल के गणेश उत्सव का बखान लोग आज भी करते नहीं अघाते। महल परिसर में गणेश जी की भव्य प्रतिमा की प्रतिष्ठा की जाती थी। इसके अलावा सोनारपारा, देवांगनपारा के चौराहों में गणेश जी की प्रतिमा रखी जाती थी। आसपास के गांवों की गम्मत पार्टी, नृत्य मंडली, रामलीला और रासलीला की मंडली यहां आती थी। अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। लगभग 15 दिन तक उत्सव का माहौल होता था। उस समय यहां दुर्ग, राजनांदगांव, रायपुर, कमरीद, बलौदा, अकलतरा, नरियरा, कोसा, कराईनारा, रायखेड़ा, गौद, पिसौद और शिवरीनारायण आदि अनेक स्थानों से सांस्कृतिक मंडलियां यहां आती थी। कमरीद के बिजली बेलन गम्मत मंडली के प्रमुख धरमलाल गीतकार ही नहीं बल्कि एक अच्छे कलाकार भी थे। वे अक्सर गाते थे :- ` ए हर नोहे कछेरी, हाकि मन बैठे बैठे खेलत हेगरि...।´ इस प्रकार उनकी गीतों में व्यंग्य का पुट होता था। दादू सिंह का रासलीला और गम्मत यहां बहुत सराहे जाते थे। नरियरा के ठाकुर विशेश्वरसिंह, रायगढ़ के भीखमसिंह, पंडित कार्तिकराम और बर्मनलाल जैसे चोटी के कलाकार, कत्थक नर्तक, तबला वादक और संगीतकार यहां शिरकत करने आते थे। इस आयोजन का पूरा खर्च जमींदार अपने खजाने से वहन करते थे। चाम्पा के जमींदार श्री रामशरणसिंह के शासनकाल में यहां का गणेश उत्सव चरम सीमा पर था। इस आयोजन में इतना खर्च हुआ कि सन् 1926 में चाम्पा जमींदारी को ``कोर्ट ऑफ वार्ड्स´´ घोषित कर दिया गया। उन्होंने ही यहां `रहस बेड़ा´ का निर्माण कराया था। अनंत चतुर्दशी को विसर्जन पूजा के बाद नगर की सभी गणेश प्रतिमाएं महल में लायी जाती थी और एक साथ बाजे-गाजे और करमा नृत्य मंडली के नृत्य के साथ पूरे नगर का भ्रमण करती हुई डोंगाघाट पहुंचकर हसदो नदी में विसर्जित कर दी जाती थी। आज भी यहां बहुत संख्या में नृत्य मंडली, गम्मत पार्टी, आर्केष्ट्रा और छत्तीसगढ़ी नाचा आदि का आयोजन होता है। इस आयोजन से आवागमन पूरी तरह से अवरूद्ध हो जाता है। स्थानीय सांस्कृतिक, सामाजिक संस्थाएं और प्रशासन के संयुक्त प्रयास से इसका व्यवस्थित रूप से आयोजन एक सार्थक प्रयास होग....।
रचना, लेखन, फोटो एवं प्रस्तुति,
प्रो। अश्विनी केशरवानीराघव,
डागा कालोनी, चाम्पा-495671 (३६ गढ़ )

गुरुवार, 10 जुलाई 2008

भारतेन्दु युगीन साहित्यकार गोविंद साव

भारतेन्दु युगीन साहित्यकार गोविंद साव
भारतेन्दु युगीन साहित्यकार गोविंद सावप्रो. अश्विनी केशरवानीछत्तीसगढ़ में भारतेन्दु युगीन कवि, आलोचक और उपन्यासकार ठाकुर जगमोहनसिंह का साहित्यिक वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण योगदान था। उन्होंने सन~ 1880 से 1882 तक धमतरी में और सन~ 1882 से 1887 तक शिवरीनारायण में तहसीलदार और मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य किया है। यही नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को जगन्मोहन मंडल बनाकर एक सूत्र में पिरोया और उन्हें लेखन की सही दिशा भी दी। जगन्मोहन मंडल कांशी के भारतेन्दु मंडल की तर्ज में बनी एक साहित्यिक संस्था थी। इसके माध्यम से छत्तीसगढ़ के साहित्यकार शिवरीनारायण में आकर साहित्य साधना करने लगे। उस काल के अन्यान्य साहित्यकारों के शिवरीनारायण में आकर साहित्य साधना करने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में हुआ है। इनमें रायगढ़ के पं. अनंतराम पांडेय, रायगढ़-परसापाली के पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय, बलौदा के पं. वेदनाथ श्‍वर्मा, बालपुर के मालगुजार पं. पुरूसोत्तम प्रसाद पांडेय, बिलासपुर के जगन्नाथ प्रसाद भानु, धमतरी के काव्योपाध्याय हीरालाल, बिलाईगढ़ के पं. पृथ्वीपाल तिवारी और उनके अनुज पं. गणेश तिवारी और शिवरीनारायण के पं. मालिकराम भोगहा, पं. हीराराम त्रिपाठी, गोविंदसाव, महंत अर्जुनदास, महंत गौतमदास, पं. विश्‍वेस्‍वर वर्मा, पं. ऋषि श्‍वर्मा और दीनानाथ पांडेय आदि प्रमुख थे। शिवरीनारायण में जन्में, पले बढ़े और बाद में सरसींवा निवासी कवि शुकलाल प्रसाद पांडेय ने छत्तीसगढ़ गौरव में ऐसे अनेक साहित्यकारों का नामोल्लेख किया है :-नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद, बज गिरधर।विश्वनाथ, बिसाहू, उमर नृप लक्षमण छत्‍तीस कोट कवि।हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि।।इस प्रकार उस काल में शिवरीनारायण सांस्कृतिक के साथ ही साहित्यिक तीर्थ भी बन गया था। द्विवेदी युग के अनेक साहित्यकारों- पं. लोचनप्रसाद पांडेय, पं. शुकलाल पांडेय, नरसिंहदास वैष्‍णव, सरयूप्रसाद तिवारी मधुकर, ज्वालाप्रसाद, रामदयाल तिवारी, प्यारेलाल गुप्त, छेदीलाल बैरिस्टर, पं. रविशंकर शुक्ल, सुंदरलाल आदि ने शिवरीनारायण की सांस्कृतिक-साहित्यिक भूमि को प्रणाम किया है। मेरा जन्म इस पवित्र नगरी में ऐसे परिवार में हुआ है जो लक्ष्मी और सरस्वती पुत्र थे। पं. शुकलाल पांडेय ने छत्तीसगढ़ गौरव में मेरे पूर्वज गोविंदसाव को भारतेन्दु युगीन कवि के रूप में उल्लेख किया है-रामदयाल समान यहीं हैं अनुपम वाग्मी।हरीसिंह से राज नियम के ज्ञाता नामी।गोविंद साव समान यहीं हैं लक्ष्मी स्वामी।हैं गणेश से यहीं प्रचुर प्रतिभा अनुगामी।श्री धरणीधर पंडित सदृश्‍य यहीं बसे विद्वान हैं।हे महाभाग छत्तीसगढ़ ! बढ़ा रहे तब मान हैं।।हालांकि गोविंद साव की कोई रचना आज उपलब्ध नहीं है लेकिन शिवरीनारायण के साहित्यिक परिवेश में उन्होंने कोई न कोई रचना अवश्‍य लिखी होगी। मुझे साहित्यिक अभिरूचि उनकी विरासत में मिला है। मैं भगवान शबरीनारायण, हमारे कुलदेव महेश्‍वरनाथ महादेव और कुलदेवी माता शीतला का आशीर्वाद तथा चित्रोत्पलागंगा के संस्कार को प्रमुख मानता हूं। उन्हीं के आशीर्वाद से आज प्रदेश के साहित्य जगत में मैं अपनी पहचान बना सकने में समर्थ हो सका हूं। शिवरीनारायण का साहित्यिक परिवेश ठाकुर जगमोहनसिंह की ही देन थी। उन्होंने यहां दर्जन भर पुस्तकें लिखी और प्रकाशित करायी। शबरीनारायण जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक स्थल के लोग, उनका रहन-सहन और व्यवहार उन्हें सज्जनाष्टक आठ सज्जन व्यक्तियों का परिचय लिखने को बाध्य किया। भारत जीवन प्रेस बनारस से सन~ 1884 में सज्जनाष्टक प्रकाशित हुआ। वे यहां के मालगुजार और पुजारी पंडित यदुनाथ भोगहा से अत्याधिक प्रभावित थे। भोगहा जी के पुत्र मालिकराम भोगहा ने तो ठाकुर जगमोहनसिंह को केवल अपना साहित्यिक गुरू ही नहीं बनाया बल्कि उन्हें अपना सब कुछ समर्पित कर दिया। उनके संरक्षण में भोगहा जी ने हिन्दी, अंगेजी, बंगला, उड़िया और उर्दू और मराठी साहित्य का अध्ययन किया, अनेक स्थानों की यात्राएं की और प्रबोध चंद्रोदय, रामराज्यवियोग और सती सुलोचना जैसे उत्कृष्ट नाटकों की रचना की जिसका सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया। इसके मंचन के लिए उन्होंने यहां एक नाटक मंडली भी बनायी थी। माखन वंश के श्री बलभद्र साव के सुपुत्र और श्री सूरजदीन साव के अनुज श्री विद्याधर साव के नेतृत्व में यहां एक ष्‍केशरवानी नवयुवक नाटक मंडली बना था जिसके माध्यम से न केवल माखन वंश के नवयुवकों बल्कि नगर के नवोदित कलाकारों मंच मिला और अनेक नाटकों का सफलता पूर्वक मंचन किया गया। ठाकुर जगमोहनसिंह ने सज्जनाष्‍टक में माखन साव के बारे में लिखा है :-माखन साहु राहु दारिद कहं अहै महाजन भारी।दीन्हो घर माखन अरू रोटी बहुविधि तिनहो मुरारी।।लच्छपती मुइ शरन जनन को टारत सकल कलेशा।द्रव्यहीन कहं है कुबेर सम रहत न दुख को लेशा।दुओधाम प्रथमहि करि निज पग कांवर आप चढ़ाई।चार बीस शरदहु के बीते रीते गोलक नैना।लखि अंसार संसार पार कहं मुंदे दृग तजि नैना।।छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित मालगुजारों में माखनसाव की गिनती होती थी। इस उद्धरण से स्पष्‍ट है कि वे एक महाजन थे जिनके घर में लक्ष्मी जी और कुबेर जी का वास था। वे न केवल धीर-गंभीर और प्रजाप्रिय थे बल्कि धार्मिक और भक्तवत्सल भी थे। उन्होंने महानदी के तट पर अपने कुलदेव महेश्‍वरनाथ महादेव का एक भव्य मंदिर का संवत~ 1890 में निर्माण कराया था। इस मंदिर के बारे में ठाकुर जगमोहनसिंह ने अपने खंडकाव्य प्रलय में लिखा है :-बाढ़त सरित बारि छिन-छिन में। चढ़ि सोपान घाट वट दिन मे।शिवमंदिर जो घाटहिं सौहै। माखन साहु रचित मन मोहै।।84।।चटशाला जल भीतर आयो। गैल चक्रधर गेह बहायो।पुनि सो माखन साहु निकेता।। पावन करि सो पान समेता।।87।।उनकी धार्मिकता और भक्ति को डां. भालचंद राव तैलंग ने ष्‍ष्‍छत्तीसगढ़ी, हल्बी, भतरी बोलियों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययनष्‍ष्‍ के अर्थतत्व पृ. 200 मे उल्लेख किया है। विशेष घटना के कारण ष्‍ष्‍खिचकेदारष्‍ष्‍ को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा है-ष्‍ष्‍रतनपुर का मंदिर जहां पहले माखन साव ने एक साधु को खिचड़ी परोसी थी और जहां पकी हुई खिचड़ी से भरी पत्तल को फोड़कर शिवजी प्रकट हुए थे। इस उद्धरण को रामलाल वर्मा द्वारा लिखित रायरतनपुर महात्म्य पृ 22 से लिया गया है।ऐसे पवित्र आत्मा माखन साव के अनुज श्री गोविंद साव के जगन्नाथपुरी की यात्रा और मनौती के रूप में जन्में उनके एकलौते पुत्र जगन्नाथ साव की धर्मप्रियता पर भी किसी को संदेह नहीं है। कदाचित~ यही कारण है कि आज भी गोविंदसाव के वंशजों का मुंडन संस्कार जगन्नाथपुरी में किये जाने का विधान है। मेरे पिता जी, मेरा और मेरे बच्चों का मुंडन संस्कार भी पुरी में हुआ था। जगन्नाथ साव के एक मात्र पुत्र पचकौड़ साव हुए। माखन वंश में उनकी विद्वता की साख थी और इस वंश के लंबरदार आत्माराम भी उनकी दबंगता से प्रभावित थे। उन्हें साजापाली और दौराभाटा में खेती-किसानी का दायित्व सौंपा गया था जिसे उन्होंने अपने चचेरे भाई महादेव साव के सहयोग से बखूबी निभाया। शिवरीनारायण में महादेव-पचकौड़ साव के नाम से व्यापार होता था और जब गांवों में व्यापार की शुरूवात हुई तब 05 वर्ष बाद शिवरीनारायण का खाता बंद कर साजापाली-दौराभाठा में महादेव-पचकौड़ साव के नाम से खाता शुरू किया गया जो मालगुजारी उन्मूलन तक चलता रहा। गलत बातों का वे दबंगता से विरोध करते थे साथ ही मांगने पर उचित सलाह भी देते थे। आजादी के कुछ महिने बाद 17.10.1947 को उन्होंने स्वर्गारोहण किया। पचकौड़ साव के एक मात्र पुत्र राघव साव का जन्म चैत्र शुक्ल 2, संवत~ 1972 को रात्रि 10 बजकर 33 मिनट को हुआ। उनका राशि नाम दुर्गाप्रसाद रखा गया था। परिवार की धार्मिकता का संस्कार उन्हें मिला और इसी परिवेश में परवरिश होने के कारण धार्मिकता उनके जीवन का एक अंग हो गया। उन्होंने अपने जीवन में लगभग दो घंटे पूजा अवश्‍य किया करते थे। चारों धाम-बद्रीनाथ, द्वारिकाधाम, रामेश्‍वरम~ और जगन्नाथपुरी की पूरी यात्रा उन्होंने की थी। गया श्राद्ध, प्रयाग और काशी श्राद्ध करने के साथ गंगासागर और बाबाधाम की यात्रा भी उन्होंने की। जीवन भर वे सात्विक रहे- सादा जीवन और उच्च विचार को उन्होंने अपनाया।...और इलाहाबाद के महाकुंभ में एक माह का कल्पवास करने के बाद अपने भरे पूरे परिवार को शुक्रवार, दिनांक 24.11.1989 को दोपहर एक बजे 74 वर्ष जीवन का सुख भोगकर स्वर्गारोहण किया। उन्होंने मुझे रामायण और महाभारत की कहानियां सुनाकर धार्मिक वृत्ति से न केवल जोड़ा बल्कि मुझे रचनात्मक लेखन की प्रेरणा दी। मुझे इस दिशा में प्रेरित करने वाले माखन वंश के अंतिम लंबरदार श्री सूरजदीन साव भी थे। सर्व प्रथम विश्‍व हिंदु परिषद द्वारा आयोजित निबंध प्रतियोगिता में गीता के प्रसंगों पर निबंध लिखकर पुरस्कृत होकर लेखन की मैंने शुरूवात की। इस निबंध के लेखन में मुझे मेरे दादा श्री राधवप्रसाद के साथ ही श्री सूरजदीन साव का पूर्ण सहयोग मिला। वृद्ध प्रपितामह के साहित्यिक विरासत और महानदी का संस्कार पाकर मेरी लेखनी अविचल चलने लगी।ऐसा पहली बार हुआ और गोविंदसाव के वंश में एक-एक पुत्र की परंपरा टूटी और राघवप्रसाद के चार पुत्र क्रमश: देवालाल, सेवकलाल, होलीदास और हेमलाल हुए। होलीदास तो बचपन में ही काल कवलित हो गए लेकिन शेष तीनों पुत्रों ने अपने वंश को बढ़ाने में सफल हुए। देवालाल के एक मात्र पुत्र अश्‍वीनी कुमार और पुत्री मीना बाई हुई। सेवकलाल के दो पुत्र संजय कुमार और नरेन्द्र कुमार तथा चार पुत्री मंजुलता, अंजुलता, स्नेहलता और मधुलता हुई। हेमलाल के दो पुत्र अतीत और अमित कुमार और एक मात्र पुत्री अल्पना हुई। इस प्रकार राघवप्रसाद के तीन पुत्र और पांच पौत्र हुए और उनकी वंश परंपरा बढ़ी। राघवप्रसाद के ज्येष्‍ठ पुत्र के रूप में देवालाल का 05. 07. 1934 को जन्म हुआ। उनकी प्राथमिक शिक्षा शिवरीनारायण में और हाई स्कूल की शिक्षा सारंगढ़ और बिलासपुर में हुई। उच्च शिक्षा न कर पाने का उन्हें अफसोस अवश्‍य हुआ था लेकिन मात्र 17 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने घर-परिवार की जिम्मेदारी उठा लिए थे। अपने भाई-बहनों की शिक्षा दीक्षा से लेकर उनके विवाह और नौकरी लगाने तक तथा उनके बच्चों के भी विवाह आदि में पूरा सहयोग देकर अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन किया। देवालाल धीर, गंभीर और सुलझे हुए व्यक्ति थे। कदाचित~ उनके इसी व्यक्तित्व के कारण वे न केवल माखन वंश के बल्कि समाज और शिवरीनारायण, बेलादूला और साजापाली में अत्यंत लोकप्रिय थे। उन्होंने न जाने कितने परिवार को टूटने से बचाया और टूटे परिवार को जोड़ा है। वे अपनी पीढ़ी के एक मात्र व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी पैत्रिक वृत्ति महाजनी को अपनाया। उन्होंने शिवरीनारायण के विकास में अमूल्य योगदान दिया है। आज की पीढ़ी उनके योगदान को शायद न समझ सके। लेकिन यह सत्य है कि शिवरीनारायण में गाम पंचायत के सफलतम सरपंच जहां माखन वंश के श्री तिजाउप्रसाद थे वहीं उनकी इस सफलता के पीछे यहां के उदितनारायण सुलतानिया, देवालाल केशरवानी, गोवर्धन शर्मा, सेवकराम श्रीवास और मोहम्मद अहमद खां का विशेष योगदान था। उनके कार्यकाल में ही यहां शिक्षा का विस्तार हुआ, अनेक स्कूल भवन बने, बिजली और सड़कें बनी, सब्जी बाजार लगने की शुरूवात हुई और जनपद पंचायत जांजगीर से साप्ताहिक मवेशी बाजार और छत्तीसगढ़ के महाकुंभ कहाने वाले मेले की व्यवस्था गाम पंचायत की मिली। इस नगर में चिकित्सा सुविधा के लिए देवालाल ने मंत्रियों और अधिकारियों से मिलकर अपने बहनोई श्री बलदाउ प्रसाद केशरवानी को प्रेरित कर जहां ष्‍प्रयाग प्रसाद केशरवानी शासकीय चिकित्सालयष्‍ की स्थापना करायी और डाक्टरों के रहने-खाने की सुविधा उपलब्ध करायी। इस चिकित्सालय में विद्युत व्यवस्था उन्होंने अपने दादा श्री पचकौड़ साव की स्मृति में कराया था। शासकीय प्राथमिक कन्या शाला को मात्र अपने मित्र श्री गणेश प्रसाद नारनोलिया से शर्त लगाकर खुलवाया था जो आज शासकीय मिडिल कन्या स्कूल के रूप में संचालित है। मध्यप्रदेश शासन के मंत्रियों सर्वश्री डा. रामाचरण राय, श्री वेदराम, श्री बिसाहूदास महंत, श्री चित्रकांत जायसवाल, श्री बी. आर. यादव, भंवरसिंह पोर्ते, डा. कन्हैयालाल शर्मा, श्री रेशमलाल जांगड़े, श्रीधर मिश्रा, मुख्य मंत्री श्री श्‍यामाचरण शुक्ल, और केंदिय मंत्री श्री विद्याचरण शुक्ल से उनकी गहरी पहचान थी। आये दिन उनका कार्यक्रम शिवरीनारायण में कराकर नगर को विकास के मार्ग में ले जाना उनका ध्येय था। खरौद को नगर पालिका बनाये जाने पर नगरवासियों के अनुरोध पर उन्होंने मंत्रियों से अपनी पहचान का लाभ उठाकर शिवरीनारायण को भी नगरपालिका दर्जा तीन बनवाने में सफलता हासिल की। महानदी के रेत में महाराष्‍ट्र के किसानों को तरबूज बोने के लिए उन्होंने बुलवाया जिससे पंचायत की आमदनी बढ़ी। पूरे छत्तीसगढ़ में एकलौता शिवरीनारायण नगर था जहां बिजली के खम्भों में मरकरी बल्ब लगे थे। यही नहीं बल्कि उन्होंने शबरीनारायण मंदिर के गर्भगृह में ष्‍केशरवानी महिला समाजष्‍ द्वारा संकल्पित चांदी के पत्तर से बना दरवाजा को सन 1960 में जीवन मिस्त्री के सहयोग से कलकत्ता से बनवाया था। अपने कुलदेव महेश्‍वरनाथ मंदिर में भोगराग की व्यवस्था करायी। सारंगढ़ और शिवरीनारायण में केशरवानी धर्मशाला के निर्माण में अर्थसंचय में उनका अमूल्य सहयोग था। अपने भाईयों, बहनों को उन्होंने न केवल सत्पथ पर चलने की प्रेरणा दी बल्कि समाज के लिए भी एक मिशाल स्थापित की। अपने परिवार के श्री सूरजदीन साव, श्री विद्याधर साव, श्री तिजाउ प्रसाद, श्री साधराम साव, श्री रामचंदसाव, श्री ईतवारी साव, श्री गिरीचंद साव, श्री मुरीतराम साव, श्री जगदीश प्रसाद, श्री गौटियाराम के प्रिय पात्र रहे वहीं श्री पराउराम, श्री गोरेलाल, श्री शोभाराम के गहरे मित्र रहे। जीवन भर सत्पथ रहकर नि:स्वार्थ सेवा भाव से कार्य करते हुए जीवन के अंतिम समय में उन्होंने भगवत्भजन में अपना मन लगाया... और 67 वर्ष की अवस्था में भौतिक सुख सुविधा का परित्याग कर 16. 04. 2001 को पंच तत्व में विलीन हो गये।राघव साव के द्वितीय पुत्र सेवकलाल ने जहां बैंकिंग सेवा में अपना जीवन सफर तय किया वहीं तृतीय पुत्र हेमलाल ने व्यापार को अपनाया जिसे उन्होंने पुत्र अतीत कुमार के सहयोग से संचालित कर रहे हैं। सेवकलाल के दोनों पुत्र संजय और नरेन्द कुमार टेंट हाउस के व्यापार में संलग्न हैं। देवालाल के पुत्र अश्विनी कुमार शासकीय महाविद्यालय चांपा में प्राध्यापक हैं। उन्होंने अपनी अभिरूचि के अनुसार छत्तीसगढ़ के इतिहास, पुरातत्व और परंपराओं के उपर लिखकर प्रादेशिक और राष्‍ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित किया और अपने वंश को गौरवान्वित किया है। धर्मयुग, अणुवत और नवनीत हिन्दी डाइजेस्ट जैसे राष्‍ट्रीय पत्रिका में बाल मनोविज्ञान विषय पर और कादम्बिनी, दैनिक हिन्दुस्तान में स्वतंत्र स्तम्भ लेखन किया। देश और प्रदेश के सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी है। वे जांजगीर-चांपा जिले और प्रदेश के गिने चुने राष्‍ट्रीय लेखकों में से एक हैं। अपने क्षेत्र के उपर लिखकर अपने जन्म को सार्थक बनाने का प्रयास उन्होंने किया है। शिवरीनारायण, पीथमपुर के उपर शोध गंथ लिखकर वहां के माहात्म्य को प्रकाशित कर सद~कार्य किया है। छत्तीसगढ़ के बिखरे और खंडहर होते मंदिरों और लुप्त हो रही परंपराओं पर कलम चलाकर लोगों का ध्यान आकर्ष्‍शित किया है। छत्तीसगढ़ के भारतेन्दु कालीन गुमनाम साहित्यकारों को प्रकाश में लाने का उनका सराहनीय प्रयास है। उनके इस रचनात्मक और सार्थक लेखन के लिए विभिन्न संगठनों से सम्मानित होकर अपने वंश को गौरवान्वित करने वाले अकेले हैं। आज वे छत्तीसगढ़ राज्य केशरवानी वैश्‍य सभा के अध्यक्ष रहे और सम्प्रति प्रदेश सभा के संरक्षक हैं। प्रदेश के अनेक नगर सभाओं के द्वारा उन्हें ष्‍समाज के गौरवष्‍ के रूप में सम्मानित होने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। उनकी धर्मपत्नी कल्याणी देवी भी एक स्वतंत्र लेखिका हैं और लायनेस क्लब चांपा और नगर केशरवानी महिला सभा की अध्यक्ष, प्रदेश केशरवानी महिला सभा की कोषाध्यक्ष और अखिल भारतीय केशरवानी वैश्‍य महिला महासभा की राष्‍ट्रीय महामंत्री हैं। उनके दो पुत्र प्रांजल कुमार कम्प्यूटर साफ~टवेयर इंजीनियर के रूप में टाटा कंसलटेन्सी सर्विसेस मुम्बई में पदस्थ है वहीं अंजल कुमार नेट प्वाइंट के संचालक है। हेमलाल के दो पुत्रों में अतीत कुमार जहां अपने पिता जी के साथ व्यापार में संलग्न हैं वहीं अमित कुमार मेकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करके अपने पिता के साथ उनके व्यवसाय में संलग्न है। सेवकलाल के पुत्र संजय कुमार के दो पुत्री सृष्टि और साक्षी और एक पुत्र सृजन कुमार है वहीं नरेन्द कुमार के दो पुत्र पियुष और प्रीतुल है। दोनों भाई टेंट व्यवसाय कर रहे हैं।रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,प्रो. अश्विनी केशरवानीराघव, डागा कालोनी,चांपा-495671 छ.ग

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

क्या सोंचते हैं हम बच्चों का रिजल्ट देखकर

क्या सोंचते हैं हम बच्चों का रिजल्ट देखकर
प्रो. अिश्वनी केशरवानीपिछले दिनों मै अपने एक मित्र के घर गया तो देखा कि उनका दस वषीZय बेटा प्रियतोष स्कूल से आया था और वह सिर झुकाये खड़ा हो गया जैसे उससे कुछ अपराध किया हो। उसकी मम्मी ने पूछा- ``क्या बात है´´ ? प्रियतोष ने डरते-डरते परीक्षा परिणाम अपनी मम्मी के हाथ में दे दिया। देखते ही वे गुस्से से कांपने लगी- ``ये माक्र्स आये हैं तुम्हारे ? किसी में चालीस, किसी में पचास, और किसी में अड़तालीस, बस ? तुम्हें पढ़ाकर मैं अपना दिमाग खराब करती थी। वहां जाकर न जाने तुम्हें क्या हो जाता है। भगवान ने तुम्हें अच्छा-खासा दिमाग दिया है, पर तुम उसका इस्तेमाल ही नही करो तो मैं इसमें क्या कर सकती हूं। डांट सुनते ही प्रियतोष रोने लगा, लेकिन उसकी मम्मी का गुस्सा कम नहीं हुआ और तड़ से एक चांटा प्रियतोष के गाल पर पड़ गया। ``... अब रोते क्यों हो ? रोज तो आकर कहते थे कि पेपर अच्छा हुआ है। और इतने खराब नंबर!´´ चांटा पड़ते ही प्रियतोष का रोना बढ़ गया हिचकियों के बीच वह कहने लगा-´´... तो क्या करता, तुमसे कहता कि पेपर बिगड़ गया तो और डांटती। तुम्हीं तो रात के बारह बजे तक पढ़ाती थी। तब मैं पढ़ता नहीं था क्या? अच्छे माक्र्स नहीं आये तो, मैं क्या करूं? स्कूल में टीचर डांटती है और घर पर तुम´´ और प्रियतोष रोते-रोते बेहाल हो गया। हिचकियों से असकी सांस रूकने लगी। उसकी जवाब सुनकर उसकी मां स्तंभित रह गयीं।
इस पूरी घटना के दौरान में मूक दर्शक बना खड़ा रहा। शुरू से ही मैं प्रियतोष और उसकी मां को देख रहा हूं।ं प्रियतोष के स्कूल जाने से लेकर आज तक। जब प्रियतोष ढाई साल का था, उसकी मम्मी उसे जो कुछ सिखाती, उसे वह बहुत जल्दी सीख जाता था। कालोनी के बच्चों को रोज स्कूल जाते देखकर वह भी स्कूल जाने को मचल जाता। उसके स्कूल जाने के प्रति उत्सुकता और कुछ अपनी महत्वाकांक्षा के बीच आखिरकार उसकी उम्र तीन वर्ष बता कर उसे एल. के. जी. में दाखिल करवाया गया। तब उसके पापा-मम्मी बहुत खुश थे। रोज समय निकालकर दोनों उसे पढ़ाते। धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया। प्रियतोष स्कूल से आया नहीं कि उसकी मम्मी उसे पढ़ाने बैठ जाती। न उसे खेलने दिया जाता, न टी. वी. देखने। उसके जिद करने पर या तो कोई ऊंची सीख मिलती या फिर मार, इिम्तहान के समय ही नहीं, अक्सर उसकी मम्मी उसे पढ़ाती थी। जब खुद नही पढ़ा पाती तो उसके पापा पढ़ाने बैठ जाते। औसत से भी ऊंचा बौिद्धक स्तर था प्रियतोष का। याददाश्त में भी कोई कमी नही थी, फिर भी स्कूल से जब भी प्रोगेस रिपोर्ट आती तो घर में रोना-धोना अवश्य होता। पता नहीं दोष किसका था ? भारी भरकम पाठ्यक्रम का, स्कूल के स्तर का या घर में पढ़ने-पढ़ाने के लिए मां-पिता के रवैये का ? प्रियतोष के पहले तो अच्छे नंबर आये। मगर उसके माता-पिता चाहते थे कि उसके नंबर में आशातीत वृिद्ध होनी चाहिए और इसके लिए वे स्कूल से आने के बाद उसे खाने-खेलने का समय भी न देते और पढ़ने-पढ़ाने पर जोर देते। धीरे-धीरे प्रियतोष का दिल पढ़ाई से उचटने लगा। मां के सामने वह पढ़ने का नाटक करने लगा। और आज उसी का परिणाम सामने था।
आज प्राय: सभी घरों में बच्चों की पढ़ाई को लेकर इस प्रकार की समस्या एक चुनौती बनी हुई है। एक ऐसी चुनौती, जिसे पार पाने के साधन क्या हैं, हमें पता नही है। हर अभिभावक के सामने कुछ प्रश्न है, जिनका उत्तर ढूंढना आसान नही है। केवल स्कूल की पढ़ाई के बल पर बच्चे इम्तहान पास नहीं कर सकते। खुद रोज पढ़ाये तो डर यह है कि बच्चे पूरी तरह मम्मी-पापा के ऊपर निर्भर हो कर न रह जाये। फिर हर अभिभावक बिना प्रशिक्षण पाये अच्छी मां या अच्छा पिता तो बन सकता ह,ै लेकिन एक अच्छा अध्यापक बनने के लिए प्रशिक्षण जरूरी होता है।
मुझे एक घटना याद आ रही है हमारे पड़ोस में एक दंपती स्थानांतरित हो कर आये। उनका एक लड़का था, उसे स्थानीय स्कूल में दाखिल करा दिया, बच्चे की सजग, पढ़ी-लिखी आधुनिका युवा मां रोज नन्हे बेटे के स्कूल से आते ही उसका बस्ता खोलती और उसे कुछ खिलाने पिलाने के बाद बैठ जाती होम वर्क कराने। एक हता ही हुआ था कि एक दिन शाम को उसके बेटे के स्कूल की टीचर उनके घर पहुंच गयी। बिना कोई भूमिका बांधे वे पूछने लगी ``क्या आप अपने बेटे को रोज होमवर्क कराती हैं ?´´ ``जी हां´´ मुस्करा कर सगर्व कहा उन्होंने उन्हें आशा थी की टीचर उनकी जिम्मेदारी के अहसास की प्रशंसा करेगी, लेकिन हुआ इसके विपरीत। टीचर बड़ी गंभीरता से कहने लगी- ``देखिए´´ छोटे बच्चों को पढ़ाना हमारा काम है। हमें इसके लिए ट्रेनिंग दी जाती है। गलत तरीके से पढ़ाने का नतीजा जानती हैं आप ? आपका बच्चा सदा के लिए किताबों से चिढ़ सकता है। उसकी जिज्ञासु प्रवृत्ति नष्ट हो सकती है। उसकी प्रतिभा कुंठित हो सकती है। आपका कर्तव्य केवल इतना है कि आप निश्चित समय पर बेटे को पढ़ने के लिए अवश्य बैठा दें। उसकी पढ़ाई में हस्तक्षेप न करें, यदि उसे कोई कठिनाई हो तो उसे दूर करने में सहायता अवश्य करें।´´
उक्त घटना ने मुझे प्रभावित किया और मैं इस विषय पर विचार करने लगा। आजकल स्कूल विशेषकर अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के बच्चों की पढ़ाई उनके ऊपर और उनके मां-बाप पर एक बोझ है, जिसे कम करने की जिम्मेदारी कम-से-कम अभी तो अभिभावक के हिस्से में आती है। यहां विचार करने की बात यह है कि आखिर ये समस्याएं बनती क्यों हैं ?
बच्चों का पाठ्यक्रम जिस तेजी से बढ़ा है, उसी तेजी से कक्षाओं में बच्चों की संख्या भी बढ़ी है, लेकिन इन दोनों में तालमेल बैठाने के लिए हर टीचर को प्रशिक्षा प्राप्त नहीं हो पाता। कोर्स खत्म करने को ही अधिक महत्व दिया जाता है। बच्चों ने विषय को समझ लिया या नहीं, उसका अभ्यास हुआ या नहीं, इस विषय पर ध्यान नहीं दिया जाता। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बच्चों को दाखिला दिलाने की होड़ इसलिए बढ़ती जा रही है, क्योंकि इन्हीं स्कूलों से पढ़े बच्चे जीवन में अधिक सफल होते नजर आते हैं। अंग्रेजी माध्यम होने के कारण हर बच्चे पर दोहरा बोझ होता है- एक तो नयी भाषा सीखने और सीख कर उसे लिखने का। इसमें मां-बांप को पढ़ाना आवश्यक हो जाता है।
बच्चों को पढ़ाते वक्त अपना बौिद्धक स्तर बच्चों से ज्यादा न रखें। अगर आप उच्च स्तर से बच्चों की कठिनाइयों को दूर करने लगेंगे, तो वह गड़बड़ा जायेगा। अत: सावधानी रखें। पढ़ाते समय बच्चे से उसकी पढ़ाई के बारे में पूछे- आज क्या पढ़ाया गया स्कूल में, उसे कौन सा पाठ या कौन सी बात समझ में नहीं आयी। इसके साथ-साथ यह भी जानने की कोशिश करें कि किसी विषय को नहीं समझ पाने के पीछे कुछ भावनात्मक कारण तो नहीं है ? कई बार भावनात्मक कारणों से भी बच्चे पढ़ने से कतराने लगते हैं। एक बार मेरी बिटिया तृप्ति गुस्से में अपने विज्ञान टीचर को कोसते हुए कह रही लगी- ``पता नही ऐसे टीचर को स्कूल में क्यों रखा जाता है? भले मैं कितना भी अच्छा पढ़-लिख लूं ,मगर परीक्षा में उनकी बेटी से कम ही नंबर मिलते हैं। इससे पढने को मन नही करता ...`` मुझे उसकी बातों ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया। मैंने उसके स्कूल के प्रधानाचार्य से मिलकर वस्तुस्थिति पर बात की। प्रधानाचार्य ने दोनों बच्चों की कापी स्वयं चेक की और इस बार तृप्ति को सफलता मिली। यानी ऐसी समस्याओं के लिए बच्चों के टीचर और उनके प्रधानाचार्य से मिलते रहना चाहिए।
बच्चों को नियमित रूप से पढ़ाना चाहिए इससे वह अपने पाठ को अच्छे से समझेगा। मगर ऐसा कभी न करें जो ज्यादतीपूर्ण और बच्चे के अनुकूल न हो। ऐसे अभिभावक बच्चोें को ढंग से समझााने के बजाय गुस्सा होकर मारने-पीटने लगते हैं। जिससे बच्चों का मानसिक विकास नहीं हो पाता और बच्चे की प्रतिभा कुंठित होने लगती है। अत: पढ़ाई का समय निर्धारित करते समय बच्चे की रूचि का भी ध्यान रखें। बच्चों को प्यार से पढ़ाना चाहिए। आपने यदि डांटते हुए पढ़ाना शुरू किया, तो बच्चे को आपके पास बैठने में डर लगेगा, वह सहमा रहेगा। खुलकर अपनी कठिनाइयों को बता नहीं पायेगा। इसी प्रकार यदि किसी कारण से आपका मूड ठीक नहीं है, तो उस दिन बच्चे को न पढ़ायें। अगर आप चिड़चिड़े मन से पढ़ाने लगेंगे, तो आपके मन की सारी खीज बेकसूर बच्चे पर उतरेगी।
बच्चे के मनोबल को बनाये रखने के लिए प्रोत्साहन जरूरी है। इसलिए कठिन पाठ पढ़ाते समय उससे कहिए कि कठिन पाठ को समझने में थोड़ी कठिनाई तो होती ही है। अत: घबराने के बजाय मन लगाओ, सब समझ में आ जायेगा। आपके इस प्रकार धीरज बांधने से उसका मनोबल बना रहेगा। कुछ मांएं ऐसे समय में अपनी शान बघारने लगती हैं। पिछले दिनों ऐसी ही एक महिला से मेरी मुलाकात हुई, जो अपने बच्चे को पढ़ाते समय हमेशा कहती थीं- ``मैं तो हमेशा फस्र्ट आती थी। कोई भी पाठ एक बार में ही समझ में आ जाता था और एक तू है, एकदम बुद्धू।`` उनके लगातार इस प्रकार कहते रहने से उसकी बच्ची का आत्मविश्वास डगमगा गया।
बच्चों को पढ़ाते समय कभी-कभी उनका दोस्त बन जाइए। आपको भी आनंद आयेगा और बच्चों को भी। कल्याणी यही करती हैं। बाजार से विभिन्न पशु-पक्षियों, फूलों, ए.बी.सी.डी. और गिनती का चार्ट और नक्शा ला कर उन्होंने एक कमरे में टांग दिया है। जब भी खाली समय मिलता है, बच्चों की रूचि के अनुसार पढ़ा देती हैं। तृप्ति और टीसू इसे एक खेल समझ कर पढ़ते रहते हैं।
एन.सी.इ.आर.टी. के चाइल्ड स्टडी यूनिट के प्रोफेसर उपदेश बेवली का कहना है कि ``हमारी शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह है कि हम सिर्फ अंतिम लक्ष्य की प्रिाप्त को ही महत्व देते हैं, शिक्षण विधि को नही´´ आवश्यकता इस बात की है कि हम सही शिक्षण विधि अपनायें। अधिकांश अभिभावक बच्चोें को गलत ढंग से पढ़ाते है, जिससे बच्चा बिना समझे विषय को रटने की कोशिश करता है। इससे बाद में पढ़ने के प्रति अरूचि पैदा होने लगती है। बच्चों को प्रारंभिक दिनों में प्रत्यक्ष दर्शन के द्वारा सिखाना चाहिए जो कुछ भी सिखाये खेल-खेल में सिखायें ताकि उसे समझकर सीखने का अवसर मिले। अपने आस-पास के वातावरण में ही उसे बहुत सी वस्तुएं दिखा कर तमाम बातें समझायी जा सकती है। इससे बच्चे की चिंतन शक्ति का विकास होता है। अभिभावकों को चाहिए कि घर में इस तरह वातावरण बनायें, जिससे बच्चे की पढ़ने में रूचि बढ़े। इसके लिए प्रशंसा व प्रोत्साहन से बढ़ कर कोई उपाय नही है।
रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अिश्वनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)

शिवरीनारायण की रथयात्रा





शिवरीनारायण की रथयात्रा

- प्रो. अश्विनी केशरवानी
महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी के त्रिधारा संगम के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण और ''छत्तीसगढ़ की जगन्नाथपुरी`` के नाम से विख्यात शिवरीनारायण बिलासपुर से ६४ कि. मी., राजधानी रायपुर से बलौदाबाजार से होकर १२० कि. मी., जांजगीर जिला मुख्यालय से ६० कि. मी., कोरबा जिला मुख्यालय से ११० कि. मी. और रायगढ़ जिला मुख्यालय से सारंगढ़ होकर ११० कि. मी. की दूरी पर अवस्थित है। अप्रतिम सौंदर्य और चतुर्भुजी विष्णु की मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कंद पुराण में इसे श्री पुरूषोत्तम और श्री नारायण क्षेत्र कहा गया है। हर युग में इस नगर का अस्तित्व रहा है और सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर और द्वापरयुग में विष्णुपुरी तथा नारायणपुर के नाम से विख्यात यह नगर मतंग ऋषि का गुरूकुल आश्रम और शबरी की साधना स्थली भी रहा है। भगवान श्रीराम और लक्ष्मण शबरी के जूठे बेर यहीं खाये थे और उन्हें मोक्ष प्रदान करके इस घनघोर दंडकारण्य वन में आर्य संस्कृति के बीज प्रस्फुटित किये थे। शबरी की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लि 'शबरी-नारायण` नगर बसा है। भगवान श्रीराम का नारायणी रूप आज भी यहां गुप्त रूप से विराजमान हैं। कदाचित् इसी कारण इसे ''गुप्त तीर्थधाम`` कहा गया है। याज्ञवलक्य संहिता और रामावतार चरित्र में इसका उल्लेख है। भगवान जगन्नाथ की विग्रह मूर्तियों को यहीं से पुरी (उड़ीसा) ले जाया गया था। प्रचलित किंवदंती के अनुसार प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है।

स्कंद पुराण में शबरीनारायण (वर्तमान शिवरीनारायण) को ''श्रीसिंदूरगिरिक्षेत्र`` कहा गया है। प्राचीन काल में यहां शबरों का शासन था। द्वापरयुग के अंतिम चरण में श्रापवश जरा नाम के शबर के तीर से श्रीकृष्ण घायल होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। वैदिक रीति से उनका दाह संस्कार किया जाता है। लेकिन उनका मृत शरीर नहीं जलता। तब उस मृत शरीर को समुद्र में प्रवाहित कर दिया जाता है। आज भी बहुत जगह मृत शरीर के मुख को औपचारिक रूप से जलाकर समुद्र अथवा नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। इधर जरा को बहुत पश्चाताप होता है और जब उसे श्रीकृष्ण के मृत शरीर को समुद्र में प्रवाहित किये जाने का समाचार मिलता है तब वह तत्काल उस मृत शरीर को ले आता है और इसी श्रीसिंदूरगिरि क्षेत्र में एक जलस्रोत के किनारे बांस के पेड़ के नीचे रखकर उसकी पूजा-अर्चना करने लगा। आगे चलकर वह उसके सामने बैठकर तंत्र मंत्र की साधना करने लगा। इसी मृत शरीर को आगे चलकर ''नीलमाधव`` कहा गया। इसी नीलमाधव को १४ वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने पुरी में ले जाकर स्थापित करने की बात कही है। डॉ. जे. पी. सिंहदेव और डॉ. एल. पी. साहू ने ''कल्ट ऑफ जगन्नाथ`` और ''कल्चरल प्रोफाइल ऑफ साउथ कोसला`` में लिखते हैं-''भगवान नीलमाधव की मूर्ति को शबरीनारायण से पुरी लाने वाला पुरी के राजपुरोहित विद्यापति नहीं थे बल्कि उन्हें तांत्रिक इंद्रभूति ने संभल पहाड़ी की एक गुफा में ले जाकर उसके सम्मुख बैठकर तंत्र मंत्र की साधना किया करता था। यहीं उन्होंने ''वज्रयान बुद्धिज्म`` की स्थापना की। उन्होंने तिब्बत जाकर लामा सम्प्रदाय की भी स्थापना की थी। बंगाल की राजकुमारी लक्ष्मींकरा जो बाद में पटना के राजा जैलेन्द्रनाथ से विवाह की, वह इंद्रभूति की बहन थी। इंद्रभूति के वंशज तीन पीढ़ी तक नीलमाधव के सम्मुख बैठकर तंत्र मंत्र की साधना करते रहे बाद में उस मूर्ति को पुरी में ले जाकर भगवान जगन्नाथ के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। पहले जगन्नाथ पुरी के इस मंदिर में तांत्रिकों का कब्जा था जिसे आदि गुरू शंकराचार्य ने उनसे शास्त्रार्थ करके उनके प्रभाव से मुक्त कराया।
इधर जरा अपने नीलमाधव को न पाकर खूब विलाप करने लगा और अन्न जल त्याग कर मृत्यु का वरण करने के लिए उद्यत हो गया तभी भगवान नीलमाधव अपने नारायणी रूप का उन्हें दर्शन कराया और यहां गुप्त रूप से विराजित होने का वरदान दिये। उन्होंने यह भी वरदान दिया कि प्रतिवर्ष माघपूर्णिमा को जो कोई मेरा दर्शन करेगा वह मोक्ष को प्राप्त कर सीधे बैकुंठधाम को जाएगा। तब से यह गुप्तधाम कहलाया। आज भी यहां भगवान नारायण का मोक्षदायी स्वरूप विद्यमान है और उनके चरण को स्पर्श करता ''रोहिणी कुंड`` विद्यमान है जिसकी महिमा अपार है। प्राचीन कवि श्री बटुकसिंह ने रोहिणी कुंड को एक धाम माना है-''रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर`` जबकि सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने शबरीनारायण माहात्म्य में मुक्ति पाने का एक साधन बताया है :-
रोहिणि कुंडहि स्पर्श कर चित्रोत्पल जल न्हाय।
योग भ्रश्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय।।
तथ्य चाहे जो हो, पुरी के जगन्नाथ मंदिर और शबरीनारायण मंदिर में बहुत कुछ समानता है। दोनों मंदिर तांत्रिकों के कब्जे में था जिसे क्रमश: आदि गुरू शंकराचार्य और स्वामी दयाराम दास ने शास्त्रार्थ करके तांत्रिकों के प्रभाव से मुक्त कराया। शबरीनारायण में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों का कब्जा था। चूंकि शबरीनारायण से होकर जगन्नाथपुरी जाने का मार्ग था। पथिकों को यहां के तांत्रिक शेर बनकर डराते और अपने प्रभाव से मारकर खा जाते थे। इसलिए इस मार्ग में जाने में यात्री गण भय खाते थे। एक बार स्वामी दयाराम दास ग्वालियर से तीर्थाटन के लिए घूमते हुए रत्नपुर पहुंचे। उनकी विद्वता और पांडित्य से रत्नपुर के राजा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें शबरीनारायण के मंदिर और मठ की व्यवस्था करने का दायित्व सौंपा। स्वामी दयाराम दास जब शबरीनारायण पहुंचे तब वहां के तांत्रिक उन्हें भी डराने के लिए शेर बनकर झपटे लेकिन ऐसा चमत्कार हुआ कि शेर के रूप में तांत्रिक उनका कुछ नहीं बिगाड़ सके। बाद में तांत्रिकों के गुरू कनफड़ा बाबा के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ जिसमें कनफड़ा बाबा को पराजय का सामना करना पड़ा और डर के मारे वे जमीन के भीतर प्रवेश कर गये। इस प्रकार शबरीनारायण के मठ और मंदिर नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों के प्रभाव से मुक्त हुआ, जगन्नाथ पुरी जाने वाले यात्रियों को तांत्रिकों के भय से मुक्ति मिली और यहां रामानंदी सम्प्रदाय के वैष्णवों का बीजारोपण हुआ। यहां के मठ के स्वामी दयाराम दास पहले महंत हुए और तब से आज तक इस वैष्णव मठ में १४ महंत हो चुके हैं जो एक से बढ़कर एक धार्मिक, अध्यात्मिक और ईश्वर भक्त हुए। उनकी प्रेरणा से अनेक मंदिर, महानदी के किनारे घाट और मंदिर की व्यवस्था के लिए जमीन दान में देकर कृतार्थ ही नहीं हुए बल्कि इस क्षेत्र में भक्ति भाव की लहर फैलाने में मदद भी की। जिस स्थान पर कनफड़ा बाबा जमीन के भीतर प्रवेश किये थे उस स्थान पर स्वामी दयाराम दास ने एक ''गांधी चौरा`` का निर्माण कराया। प्रतिवर्ष माघ शुक्ल तेरस और आश्विन शुक्ल दसमी (दशहरा) को शिवरीनारायण के महंत इस गांधी चौरा में बैठकर पूजा-अर्चना करते हैं और प्रतीकात्मक रूप से यह प्रदर्शित करते हैं कि वैष्णव सम्प्रदाय तांत्रिकों के प्रभाव से बहुत उपर है। शिवरीनारायण के दक्षिणी द्वार के एक छोटे से मंदिर के भीतर तांत्रिकों के गुरू कनफड़ा बाबा की पगड़ीधारी मूर्ति है और बस्ती के बाहर एक ''नाथ गुफा'' के नाम से एक मंदिर है जिससे इस तथ्य की पुष्टि होती है।
शबरीनारायण में मठ के भीतर संवत् १९२७ में महंत अर्जुनदास जी की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार श्री राजसिंह ने जगन्नाथ मंदिर की नींव डाली जिसे उनके पुत्र श्री चंदनसिंह ने पूरा कराया और उसमें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की विग्रह मूर्तियों की स्थापना करायी। संवत् १९२७ में ही उन्होंने महंत अर्जुनदास जी की प्रेरणा से महानदी के तट पर योगियों के निवासार्थ एक भवन का निर्माण कराया। इसे ''जोगीडीपा`` कहते हैं। रथयात्रा के बाद भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी यहां एक सप्ताह विश्राम करते हैं। इस कारण इसे ''जनकपुर`` भी कहा जाता है। पहले रथयात्रा में पंडित कौशलप्रसाद द्विवेदी के घर की मूर्तियों को रथ में निकाला जाता था। बाद में जब मठ की मूर्तियों को निकाला जाने लगा तब दो रथ में दोनों जगहों की मूर्तियां निकाली जाने लगी। आज केवल मठ की मूर्तियां ही रथ में निकाले जाते हैं।
रथयात्रा यहां का एक प्रमुख त्योहार है। प्राचीन काल से यहां रथयात्रा का आयोजन मठ के द्वारा किया जा रहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार महंत गौतमदास ने यहां रथयात्रा की शुरूआत की और महंत लालदास ने उसे सुव्यवस्थित किया। मठ के मुख्तियार पंडित कौशलप्रसाद तिवारी को हमेशा स्मरण किया जायेगा। उन्होंने ही यहां रामलीला, रासलीला, नाटक, रथयात्रा, और माघी मेला को सुव्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। रथयात्रा के लिए जगन्नाथ पुरी की तरह यहां भी प्रतिवर्ष लकड़ी का रथ निर्माण कराया जाता था जिसे बाद में बंद कर दिया गया और एक लोहे का रथ बनवाया गया है जिसमें आज रथयात्रा निकलती है। शिवरीनारायण और आसपास के हजारों-लाखों श्रद्धालु यहां आकर रथयात्रा में शामिल होकर और रथ खींचकर पुण्यलाभ के भागीदार होते हैं। जगह-जगह रथ को रोककर पूजा-अर्चना की जाती है। प्रसाद के रूप में नारियल, लाई और गजामूंग दिया जाता है। मेला जैसा दृश्य होता है। इस दिन को सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में बड़ा पवित्र दिन माना जाता है। इस दिन बेटी को बिदा करने, बहू को लिवा लाने, नये दुकानों की शुरूआत और गृह प्रवेश जैसे महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कराये जाते हैं। इस दिन अपने स्वजनों, परिजनों और मित्रों के घर मेवा-मिष्ठान भिजवाने की परम्परा है। बच्चे नये कपड़े पहनते हैं और उन्हें खर्च करने के लिए पैसा दिया जाता है। उनके लिए यह एक विशेष दिन होता है। सद्भाव के प्रतीक रथयात्रा आज भी यहां श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है। शिवरीनारायण को ''छत्तीसगढ़ की जगन्नाथ पुरी`` कहा जाता है। राजिम में भगवान साक्षी गोपाल विराजमान हैं और ऐसी मान्यता है कि शिवरीनारायण के बाद राजिम की यात्रा और भगवान साक्षी गोपाल का दर्शन करना आवश्यक है अन्यथा उनकी यात्रा निरर्थक होता है। इसी लिए प्राचीन कवि श्री बटुसिंह शिवरीनारायण माहात्म्य में गाते हैं-
मास अषाढ़ रथ दुतीया, रथ के किया बयान।
दर्शन रथ को जो करे, पावे पद निर्वान ।।
जिस प्रकार जगन्नाथ पुरी को ''स्वर्गद्वार'' कहा जाता है और कोढ़ियों का उद्धार होता है। उसी प्रकार शिवरीनारायण की भी महत्ता है। कवि बटुकसिंह श्रीशिवरीनारायण-सिंदूरगिरि माहात्म्य में लिखते हैं :-
क्वांर कृष्णों सुदि नौमि के होत तहां स्नान।
कोढ़िन को काया मिले निर्धन को धनवान।।
शिवरीनारायण में बिलासपुर रोड में एक पुराना कोढ़ी खाना है और यहां एक लेप्रोसी विशेषज्ञ के रूप में डॉ. एम. एम. गौर की नियुक्ति भी हुई थी। बाद में उन्हीं के सलाह पर प्रयागप्रसाद केशरवानी चिकित्सालय की स्थापना की गयी थी। शिवरीनारायण से पांच कि.मी. की दूरी पर स्थित दुरपा गांव को अंग्रेज सरकार द्वारा ''लेप्रोसी गांव'' घोषित किया गया था। इस गांव में आना-जाना पूर्णत: प्रतिबंधित था। शिवरीनारायण से ७० कि.मी. पर चांपा में सोंठी कुष्ठ आश्रम है। इसी प्रकार बिलासपुर रायपुर रोड में बैतलपुर में भी एक कुष्ठ आश्रम है, जहां कोढ़ियों का इलाज होता है और अनेक प्रकार के उद्योग उनके द्वारा चलाये जाते हैं। उनके बच्चों के रहने और पढ़ने आदि का पूरा इंतजाम किया जाता है। सरकार इस संस्था को हर प्रकार का सहयोग प्रदान करती है। ऐसे मुक्तिधाम को पुरी क्षेत्र कहा गया है :-
शिवरीनारायण पुरी क्षेत्र शिरोमणि जान।
याज्ञवल्क्य व्यासादि ऋषि निजमुख करत बखान।।
ऐसे पवित्र और तीर्थ नगर शिवरीनारायण को नारायण धाम के रूप में जाना जाता है। यहां भगवान विश्णु के चतृर्भुजी मूर्तियों की अधिकता है। यहां एक प्राचीन वैष्णव मठ भी है। कदाचित इसी कारण इसे विष्णुकांक्षी तीर्थ नगर कहा जाता है। चित्रोत्पला गंगा (महानदी) के तट पर अवस्थित शिवरीनारायण में प्राचीनता के अवशेष मिलते हैं। सभी युग में इस नगर का अस्तित्व था और इसे अनेक नामों से जाना जाता था। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने शिवरीनारायण माहात्म्य में लिखते हैं :-
नारायण के कलाश्रित जानिय धामहि एक
प्रथम विष्णुपुरि नाम पुनि रामपुरि हूं नेक
चित्रोत्पल नदि तीर महि मंडित अति आराम
बस्यो यहां बैकुंठपुर नारायणपुर धाम
भासति तहं सिंदूरगिरि श्रीहरि कीन्ह निवास
कुंड रोहिणी चरण तल भक्त अभीष्ट प्रकास।
****-****
रचना, लेखन एवं प्रस्तुति:
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा-४९५६७१

गुरुवार, 12 जून 2008

छत्तीसगढ़ और पंडित शुकलाल पांडेय


छत्तीसगढ़ और पंडित शुकलाल पांडेय

प्रो. अश्विनी केशरवानी
भव्य ललाट, त्रिपुंड चंदन, सघन काली मूँछें और गांधी टोपी लगाये साँवले, ठिगने व्यक्तित्व के धनी पंडित शुकलाल पांडेय छत्तीसगढ़ के द्विवेदी युगीन साहित्यकारों में से एक थे.. और पंडित प्रहलाद दुबे, पंडित अनंतराम पांडेय, पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी, गोविंदसाव, पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, वेदनाथ शर्मा, बटुकसिंह चौहान, पंडित लोचनप्रसाद पांडेय, काव्योपाध्याय हीरालाल, पंडित सुंदरलाल शर्मा, राजा चक्रधरसिंह, डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र और पंडित मुकुटधर पांडेय की श्रृंखला में एक पूर्ण साहित्यिक व्यक्ति थे। वे केवल एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि एक संस्था थे। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और छत्तीसगढ़ी भाषा में बहुत सी रचनाएं लिखीं हैं। उनकी कुछ रचनाएं जैसे छत्तीसगढ़ गौरव, मैथिली मंगल, छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया ही प्रकाशित हो सकी हैं और उनकी अधिकांश रचनाएं अप्रकाशित हैं। उनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ियापन की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। छत्तीसगढ़ गौरव में ''हमर देस'' की एक बानगी देखिये :-
ये हमर देस छत्तिसगढ़ आगू रहिस जगत सिरमौर।
दक्खिन कौसल नांव रहिस है मुलुक मुलुक मां सोर।
रामचंद सीता अउ लछिमन, पिता हुकुम से बिहरिन बन बन।
हमर देस मां आ तीनों झन, रतनपुर के रामटेकरी मां करे रहिन है ठौर॥
घुमिन इहां औ ऐती ओती, फैलिय पद रज चारो कोती।
यही हमर बढ़िया है बपौती, आ देवता इहां औ रज ला आंजे नैन निटोर॥
राम के महतारी कौसिल्या, इहें के राजा के है बिटिया।
हमर भाग कैसन है बढ़िया, इहें हमर भगवान राम के कभू रहिस ममिओर॥
इहें रहिन मोरध्वज दानी, सुत सिर चीरिन राजा-रानी।
कृष्ण प्रसन्न होइन बरदानी, बरसा फूल करे लागिन सब देवता जय जय सोर॥
रहिन कामधेनु सब गैया, भर देवै हो लाला ! भैया !!
मस्त रहे खा लोग लुगैया, दुध दही घी के नदी बोहावै गली गली अउ खोर॥
सबो रहिन है अति सतवादी, दुध दही भात खा पहिरै खादी।
धरम सत इमान के रहिन है आदी, चाहे लाख साख हो जावै बनिन नी लबरा चोर॥
पगड़ी मुकुट बारी के कुंडल, चोंगी बंसरी पनही पेजल।
चिखला बुंदकी अंगराग मल, कृष्ण-कृषक सब करत रहिन है गली गली मां अंजोर॥
''छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया'' जो ''कॉमेडी ऑफ इरर'' का अंग्रेजी अनुवाद है, की भूमिका में पांडेय जी छत्तीसगढ़ी दानलीला के रचियता पंडित सुन्दरलाल शर्मा के प्रति आभार व्यक्त करते हुए छत्तीसगढ़ी में लिखने का आह्वान करते हैं। उस समय पढ़ाई के प्रति इतनी अरूचि थी कि लोग पेपर और पुस्तक भी नहीं पढ़ते थे। पांडेय जी तब की बात को इस प्रकार व्यक्त करते हैं- ''हाय ! कतेक दुख के बात अय ! कोन्हो लैका हर कछू किताब पढ़े के चिभिक करे लागथे तो ओखर ददा-दाई मन ओला गारी देथे अउ मारपीट के ओ बिचारा के अतेक अच्छा अअउ हित करैया सुभाव ला नष्ट कर देथे। येकरे बर कहेबर परथे कि इहां के दसा निचट हीन हावै। इहां के रहवैया मन के किताब अउ अखबार पढ़के ज्ञान अउ उपदेस सीखे बर कोन्नो कहे तो ओमन कइथे-
हमन नइ होवन पंडित-संडित तहीं पढ़ेकर आग लुवाट।
ले किताब अउ गजट सजट ला जीभ लमा के तईहर चाट॥
जनम के हम तो नांगर जोत्ता नई जानन सोरा सतरा।
भुखा भैंसा ता ! ता ! ता !! यही हमर पोथी पतरा !!!
''भूल भुलैया'' सन् 1918 में लिखा गया था तब हिन्दी में पढ़ना लिखना हेय समझा जाता था। पंडित शुकलाल पांडेय अपनी पीड़ा को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं-''जबले छत्तिसगढ़ के रहवैया मन ला हिन्दी बर प्रेम नई होवे, अउ जबले ओमन हिन्दी के पुस्तक से फायदा उठाय लाइ नई हो जावे, तबले उकरे बोली छत्तीसगढ़ीच हर उनकर सहायक है। येकरे खातिर छत्तीसगढ़ी बोली मां लिखे किताब हर निरादर करे के चीज नो हे। अउ येकरे बर छत्तीसगढ़ी बोली मां छत्तीसगढिया भाई मन के पास बडे बड़े महात्मा मन के अच्छा अच्छा बात के संदेसा ला पहुंचाए हर अच्छा दिखतय। हिन्दी बोली के आछत छत्तीसगढ़ी भाई मन बर छत्तीसगढ़ी बोली मां ये किताब ला लिखे के येही मतलब है कि एक तो छत्तीसगढ़ ला उहां के लैका, जवान, सियान, डौका डौकी सबो कोनो समझही अउ दूसर, उहां के पढ़े लिखे आदमीमन ये किताब ला पढ़के हिन्दी के किताब बांच के अच्छा अच्छा सिक्षा लेहे के चिभिक वाला हो जाही। बस, अइसन होही तो मोर मिहनत हर सुफल हो जाही...'' वे आगे लिखते हैं- ''मैं हर राजिम (चंदसूर) के पंडित सुन्दरलाल जी त्रिपाठी ला जतके धन्यवाद देवौं, ओतके थोरे हे। उनकर छत्तीसगढ़ी दानलीला ला जबले इहां के पढ़ैया लिखैया आदमी मन पढ़े लागिन हे, तब ले ओमन किताब पढ़े मा का सवाद मिलथे अउ ओमा का सार होथे, ये बात ला धीरे धीरे जाने लगे हावै। येही ला देख के मैं हर विलायत देस के जग जाहीर कवि शेक्सपियर के लिखे ''कॉमेडी ऑफ इरर'' के अनुवाद ल ''भूल भुलैया'' के कथा छत्तीसगढ़ी बोली के पद्य मां लिख डारे हावौं।''
पंडित शुकलाल पांडेय के शिक्षकीय जीवन में उनकी माता का जितना आदर रहा है उतना ही धमधा के हेड मास्टर पंडित भीषमलाल मिश्र का भी था। भूल भुलैया को उन्हीं को समर्पित करते हुए वे लिखते हैं :-
तुहंला है भूल भुलैया नीचट प्यारा।
लेवा महराज येला अब स्वीकारा॥
भगवान भगत के पूजा फूल के साही।
भीलनी भील के कंदमूल के साही॥
निरधनी सुदामा के जो चाउर साही।
सबरी के पक्का पक्का बोइर खाई॥
कुछ उना गुना झन, हाथ ल अपन पसारा।
लेवा महराज, येला अब स्वीकारा॥
ऐसे प्रतिभाशाली कवि प्रवर पंडित शुकलाल पांडेय का जन्म महानदी के तट पर स्थित कला, साहित्य और संस्कार की त्रिवेणी शिवरीनारायण में संवत् 1942 (सन् 1885) में आषाढ़ मास में हुआ था। उनके पिता का नाम गोविंदहरि और माता का नाम मानमति था। मैथिली मंगल खंडकाव्य में वे लिखते हैं :-
प्रभुवर पदांकित विवुध वंदित भरत भूमि ललाम को,
निज जन्मदाता सौरिनारायण सुनामक ग्राम को।
श्री मानमति मां को, पिता गोविंदहरि गुणधाम को,
अर्पण नमन रूपी सुमन हो गुरू प्रवर शिवराम को॥
उनका लालन पालन और प्राथमिक शिक्षा शिवरीनारायण के धार्मिक और साहित्यिक वातावरण में धर्मशीला माता के सानिघ्य में हुआ। उनके शिक्षक पं. शिवराम दुबे ने एक बार कहा था-''बच्चा, तू एक दिन महान कवि बनेगा...।'' उनके आशीर्वाद से कालांतर में वह एक उच्च कोटि का साहित्यकार बना।
सन् 1903 में नार्मल स्कूल रायपुर में प्रशिक्षण प्राप्त कर वे शिक्षक बने। यहां उन्हें खड़ी बोली के सुकवि पं. कामताप्रसाद गुरू का सानिघ्य मिला। उनकी प्रेरणा से वे खड़ी बोली में पद्य रचना करने लगे। धीरे धीरे उनकी रचना स्वदेश बांधव, नागरी प्रचारिणी, हितकारिणी, सरस्वती, मर्यादा, मनोरंजन, शारदा, प्रभा आदि प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी। सन् 1913 में सरस्वती के मई के अंक में ''प्राचीन भारत वर्ष'' शीर्षक से उनकी एक कविता प्रकाशित हुई। तब पूरे देश में राष्ट्रीय जनजागरण कोर् कत्तव्य माना जाता था। देखिये उनकी एक कविता :-
हे बने विलासी भारतवासी छाई जड़ता नींद इन्हें,
हर कर इनका तम हे पुरूषोत्तम शीघ्र जगाओ ईश उन्हें।
पंडित जी मूलत: कवि थे। उनकी गद्य रचना में पद्य का बोध होता है। इन्होंने अन्यान्य पुस्तकें लिखी हैं। लेकिन केवल 15 पुस्तकें ही प्रकाश में आ सकी हैं, जिनमें 12 पद्य में और शेष गद्य में है। उनकी रचनाओं में मैथिली मंगल, छत्तीसगढ़ गौरव, पद्य पंचायत, बाल पद्य पीयुष, बाल शिक्षा पहेली, अभिज्ञान मुकुर वर्णाक्षरी, नैषद काव्य और उर्दू मुशायरा प्रमुख है। छत्तीसगढ़ी में उन्होंने भूल भुलैया, गींया और छत्तीसगढ़ी ग्राम गीत लिखा है। गद्य में उन्होंने राष्ट्र भक्ति से युक्त नाटक मातृमिलन, हास्य व्यंग्य परिहास पाचक, ऐतिहासिक लेखों का संग्रह, चतुर चितरंजन आदि प्रमुख है। उनकी अधिकांश रचनाएं अप्रकाशित हैं और उनके पौत्र श्री रमेश पांडेय और श्री किशोर पांडेय के पास सुरक्षित है।
''छत्तीसगढ़ गौरव'' पंडित शुकलाल पांडेय की प्रकाशित अनमोल कृति है। मध्यप्रदेश साहित्य परिषद भोपाल द्वारा सन् 1972 में इसे प्रकाशित किया गया है। इसकी भूमिका में पंडित मुकुटधर जी पांडेय लिखते हैं:-'' इसमें छत्तीसगढ़ के इतिहास की शृंखलाबद्ध झांकी देखने को मिलती है। प्राचीन काल में यह भूभाग कितना प्राचुर्य पूर्ण था, यहां के निवासी कैसे मनस्वी और चरित्रवान थे, इसका प्रमाण है। छत्तीसगढ़ की विशेषताओं का इसे दर्पण कहा जा सेता है। इसकी गणना एक उच्च कोटि के आंचलिक साहित्य में की जा सकती है। ''हमर देस'' में छत्तीसगढ़ के जन जीवन की जीवन्त झांकी उन्होंने प्रस्तुत की है। देखिये उनकी यह कविता :-
रहिस कोनो रोटी के खरिया, कोनो तेल के, कोनो वस्त्र के, कोनो साग के और,
सबे जिनिस उपजात रहिन है, ककरों मा नई तकत रहिन है।
निचट मजा मा रहत रहिन है, बेटा पतो, डौकी लैका रहत रहिन इक ठौर।
अतिथि अभ्यागत कोन्नो आवें, घर माटी के सुपेती पावे।
हलवा पूरी भोग लगावें, दूध दही घी अउ गूर मा ओला देंव चिभोर।
तिरिया जल्दी उठेनी सोवे, चम्मर घम्मर मही विलोवे,
चरखा काते रोटी पावे, खाये किसान खेत दिशि जावे चोंगी माखुर जोर।
धर रोटी मुर्रा अउ पानी, खेत मा जाय किसान के रानी।
खेत ल नींदे कहत कहानी, जात रहिन फेर घर मा पहिरे लुगरा लहर पटोर।
चिबक हथौरी नरियर फोरे, मछरी ला तीतुर कर डारैं।
बिन आगी आगी उपजारैं, अंगुरि गवा मा चिबक सुपारी देवें गवें मा फोर।
रहिस गुपल्ला वीर इहें ला, लोहा के भारी खंभा ला।
डारिस टोर उखाड़ गड़े ला, दिल्ली के दरबार मा होगे सनासट सब ओर।
आंखी, कांन पोंछ के ननकू, पढ़ इतिहास सुना संगवारी तब तैं पावे सोर।
जब मध्यप्रदेश का गठन हुआ तब सी.पी. के हिन्दी भाषी जिलों में छत्तीसगढ़ के जिले भी सम्मिलित थे। छत्तीसगढ़ गौरव के इस पद्य में छत्तीसगढ़ का इतिहास झलकता है :-
सी.पी. हिन्दी जिले प्रकृति के महाराम से,
थे अति पहिले ख्यात् महाकान्तार नाम से।
रामायण कालीन दण्डकारण्य नाम था।
वन पर्वत से ढका बड़ा नयनाभिराम था।
पुनि चेदि नाम विख्यात्, फिर नाम गोड़वाना हुआ।
कहलाता मध्यप्रदेश अब खेल चुका अगणित जुआ॥
तब छत्तीसगढ़ की सीमा का विस्तार कुछ इस प्रकार था :-
उत्तर दिशि में है बघेल भू करता चुम्बन,
यम दिशि गोदावरी कर पद प्रक्षालन।
पूर्व दिशा की ओर उड़ीसा गुणागार है,
तथा उदार बिहार प्रान्त करता बिहार है।
भंडारा बालाघाट औ चांदा मंडला चतुर गण,
पश्चिम निशि दिन कर रहे आलिंगन हो मुदित मन॥
ऐसे सुरक्षित छत्तीसगढ़ राज्य में अनेक राजवंश के राजा-महाराजाओं को एकछत्र राज्य वर्षो तक था। कवि अपनी कृति इनका बड़ा ही सजीव चित्रण किया है। देखिये उसकी एक बानगी :-
यहां सगर वंशीय प्रशंसी, कश्यप वंशी,
हैहहवंशी बली, पांडुवंशी अरिध्वंशी,
राजर्षितुल्यवंशीय, मौर्यवंशी सुख वर्ध्दन,
शुंगकुल प्रसू वीर, कण्ववंशी रिपु मर्दन,
रणधीर वकाटक गण कुलज, आंध्र कुलोद्भव विक्रमी।
अति सूर गुप्तवंशी हुए बहुत नृपति पराक्रमी॥
था डाहल नाम पश्चिम चेदि का।
यहीं रहीं उत्थान शौर्य की राष्ट्र वेदिका।
उसकी अति ही रन्ध्र राजधानी त्रिपुरी थी।
वैभव में, सुषमा में, मानों अमर पुरी थी।
रघुवंश नृपतियों से हुआ गौरवमय साकेत क्यों।
त्रिपुरी नरपतियों से हुई त्रिपुरी भी प्रख्यात् त्यों॥
कहलाती थी पूर्व चेदि ही ''दक्षिण कोसल''
गढ़ थे दृढ़ छत्तीस नृपों की यहीं महाबल।
इसीलिए तो नाम पड़ा ''छत्तीसगढ़'' इसका।
जैसा इसका भाग्य जगा, जगा त्यों किसका।
श्रीपुर, भांदक औ रत्नपुर थे, इसकी राजधानियां।
चेरी थी श्री औ शारदा दोनों ही महारानियां॥
नदियां तो पुण्यतोया, पुण्यदायिनी और मोक्षदायी होती ही हैं, जीवन दायिनी भी हैं। कदाचित् इसीलिए नदियों के तट पर बसे नगर ''प्रयाग'' और ''काशी'' जैसे संबोधनों से पूजे जाते हैं। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में महानदी के तट पर स्थित अनेक नगर स्थित हैं जिन्हें ऐसे संबोधनों से सुशोभित किये जाते हैं। देखिये कवि की एक बानगी :-
हरदी है हरिद्वार, कानपुर श्रीपुर ही है।
राजिम क्षेत्र प्रयाग, शौरिपुर ही काशी है।
शशिपुर नगर चुनार, पद्मपुर ही पटना है।
कलकत्ता सा कटक निकट तब बसा घना है।
गाती मुस्काती नाचती और झूमती जा रही,
हे महानदी ! तू सुरनदी की है समता पा रही॥
छत्तीसगढ़ में इतना मनमोहक दृश्य हैं तो यहां कवि कैसे नहीं होंगे ? भारतेन्दु युगीन और उससे भी प्राचीन कवि यहां रहे हैं जो प्रचार और प्रचार के अभाव में गुमनाम होकर मर खप गये...आज उसका नाम लेने वाला कोई नहीं है। ऐसी कवियों के नाम कवि ने गिनायें हैं :-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट कवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम मीर मालिक सुकवि॥
तेजनाथ भगवान, मुहम्मद खान मनस्वी।
बाबू हीरालाल, केशवानंद यशस्वी।
श्री शिवराज, शिवशंकर, ईश्वर प्रसाद वर।
मधु मंगल, माधवराव औ रामाराव चिंचोलकर।
इत्यादिक लेखक हो चुके छत्तीसगढ़ की भूमि पर॥
''धान का कटोरा'' कहलाता है हमारा छत्तीसगढ़। यहां की भूमि जितनी उर्वर है, उतना ही यहां के लोग मेहनती भी हैं। इसीलिये यहां के मेला-मड़ई और तीज त्योहार सब कृषि पर आधारित हैं। अन्न की देवी मां अन्नपूर्णा भी यहीं हैं। कवि का एक पद्य पेश है :-
डुहारती थी धान वहन कर वह टुकनों में।
पीड़ा होती थी न तनिक सी भी घुटनों में ।
पति बोते थे धान, सोचते बरसे पानी।
लखती थी वह बनी अन्नपूर्णा छवि खानी।
खेतों में अच्छी फसल हुई है। मेहनती स्त्रियां टुकनों में भरकर धान खलिहानों से लाकर ढाबा में भर देती हैं। उनका मन बड़ा प्रसन्न है, तो संध्या में सब मिलकर नाच-गाना क्यों न हो, जीवन का रस भी तो इसी में होता है :-
संध्या आगम देख शीघ्र कृषि कारक दम्पत्ति।
जाते थे गृह और यथाक्रम अनुपद सम्पत्ति।
कृषक किशोर तथा किशोरियां युवक युवतीगण।
अंग अंग में सजे वन्य कुसुमावलि भूषण।
जाते स्वग्राम दिशि विहंसते गाते गीत प्रमोद से।
होते द्रुत श्रमजीवी सुखी गायन-हास विनोद से॥
पंडित जी ऐसे मेहनती कृषकों को देव तुल्य मानने में कोई संकोच नहीं करते और कहते हैं :-
हे वंदनीय कृषिकार गण ! तुम भगवान समान हो।
इस जगती तल पर बस तुमही खुद अपने उपमान हो॥
इस पवित्र भूमि पर अनेक राजवंशों के राजा शासन किये लेकिन त्रिपुरी के हैहहवंशी नरेश के ज्येष्ठ पुत्र रत्नदेव ने देवी महामाया के आशीर्वाद से रत्नपुर राज्य की नींव डाली।
हैहहवंशी कौणपादि थे परम प्रतापी।
किये अठारह अश्वमेघ मख धरती कांपी।
उनके सुत सुप्तसुम्न नाम बलवान हुये थे।
रेवा तट अश्वमेघ यज्ञ छ: बार किये थे।
श्री कौणपादि निज समय में महाबली नरपति हुये।
सबसे पहिले ये ही सखे ! छत्तीसगढ़ अधिपति हुए॥
बरसों तक रत्नपुर नरेशों ने इस भूमि पर निष्कंटक राज्य किया। अनेक जगहों में मंदिर, सरोवर, आम्रवन, बाग-बगीचा और सुंदर महल बनवाये...अनेक नगर बसाये और उनकी व्यवस्था के लिये अनेक माफी गांव दान में दिये। अपने वंशजों को यहां के अनेक गढ़ों के मंडलाधीश बनाये। आगे चलकर इनके वंशज शिवनाथ नदी के उत्तर और दक्षिण में 18-18 गढ़ के अधिपति हुये और समूचा क्षेत्र ''36 गढ़'' कहलाया। सुविधा की दृष्टि से रायपुर रत्नपुर से ज्यादा उपयुक्त समझा गया और अंग्रेजों ने मुख्यालय रायपुर स्थानांतरित कर दिया। तब से रत्नपुर का वैभव क्रमश: लुप्त होता गया।
रत्नपुर से गई रायपुर उठ राजधानी।
सूबा उनके लगे वहीं रहने अति ज्ञानी।
छत्तीसगढ़ के पूर्व वही सूबा थे शासक।
शांति विकासक तथा दुख औ भीति विनाशक।
आज जब छत्तीसगढ़ राज्य पृथक अस्तित्व में आ गया है तब सबसे पहिले कृषि प्रधान उद्योगों को विकसित किया जाना चाहिये अन्यथा धान तो नहीं उगेगा बल्कि हमारे हाथ में केवल कटोरा होगा...?
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रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा (छ. ग.)

छत्तीसगढ़ के जन्मांध कवि नरसिंहदास

छत्तीसगढ़ के जन्मांध कवि नरसिंहदास
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ का प्राचीन साहित्यिक इतिहास समुन्नत था। उस काल के अनेक साहित्यकार प्रचार प्रसार के अभाव में गुमनाम होकर मर खप गये। आज उनकी रचना संसार पर दृष्टि डालने वाले बहुत कम लोग होंगे। ऐसे अनेक साहित्यकारों के नाम गिनाये जा सकते हैं जो भारतेन्दु युग के पहले, भारतेन्दु के समकालीन और उसके बाद लिखते रहे हैं। लेकिन हिन्दी साहित्य के इतिहास में इनका नामोल्लेख नहीं मिलता। ऐसे स्वनामधन्य साहित्यकारों में पं. प्रहलाद दुबे (सारंगढ़), पं. अनंतराम पांडेय (रायगढ़), पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय (परसापाली-रायगढ़),पं. वेदनाथ शर्मा (बलौदा), पं. मालिकराम भोगहा, पं. हीराराम त्रिपाठी, गोविंदसाव, (सभी शिवरीनारायण), बटुकसिंह चैहान (कुथुर-पामगढ़), पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय (बालपुर), और नरसिंहदास वैष्णव आदि के नाम प्रमुखता से लिये जा सकते हैं। भारतेन्दु युगीन साहित्यकारों में इनके नामोल्लेख नहीं होने के बारे में प्रो.. रामनारायण शुक्ल की टिप्पणी सटिक लगती है ः- ‘‘छत्तीसगढ़ के अनेक समर्थ कवि और साहित्यकार आज तक अनजाने हैं और उपेक्षित भी। इनके प्रमुख कारणों में हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों का उत्तर प्रदेश का निवासी होना है। ऐसा भी हो सकता है कि उन्हें छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों की रचनाएं पढ़ने को न मिली हो और उनका नामोल्लेख नहीं किया जा सका हो ?‘‘ आज ऐसे समर्थ रचनाकारों की आवश्यकता है जो उस काल के गुमनाम साहित्यकारों की रचनाओं को खोज निकालें और प्रकाश में लाने का सद्कार्य कर सकें। यहां के विश्वविद्यालयों में भी ऐसे साहित्यकारों के उपर शोध कार्य कराया जाना चाहिए।
महानदी घाटी का साहित्यिक परिवेश उल्लेखनीय है। क्योंकि महानदी के तटवर्ती नगरों जैसे शिवरीनारायण, खरौद, बालपुर, रायगढ़, सारंगढ़, राजिम, धमतरी, रायपुर, बिलासपुर और रतनपुर में ऐसे लब्ध प्रतिष्ठ साहित्य मनीषियों का जन्म हुआ और उनकी लेखनी से छत्तीसगढ़ की धरा पवित्र हुई। यहां के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर लेखन की एक नई दिशा देने का सद्कार्य शिवरीनारायण के तत्कालीन तहसीलदार और सुप्रसिद्ध भारतेन्दु कालीन कवि और आलोचक ठाकुर जगमोहनसिंह ने किया। वे भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी थे। ‘‘मेघदूत‘‘ के अनुवाद में उन्होंने भारतेन्दु की सहायता ली थी। उनकी रचनाओं में भारतेन्दु का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में कई स्थानों पर भारतेन्दु की कविताओं को उधृत किया है। ‘‘श्यामास्वप्न‘‘ में तो श्यामसुन्दर भारतेन्दु का बड़ा ही घनिष्ठ मित्र जान पड़ता है। ऐसे साहित्यकार के सानिघ्य में छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों ने यहां के प्राकृतिक सौंदर्य को दोहन कर अपनी रचनाओं में समेटने का प्रयास किया है। उन्हीं में से एक जन्मांध कवि श्री नरसिंहदास वैष्णव भी हैं।
छत्तीसगढ़ प्रदेश के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत ग्राम तुलसी में शिवायन, अथ जानकी माय हित विनय और नरसिंह चौंतीसा का सृजन करने वाले जन्मांध कवि श्री नरसिंहदास वैष्णव का रचना संसार साहित्यिक जगत के लिए अपरिचित है। उनकी रचनाओं में तुलसी, सूर और मीरा का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है। जन्म से ही वे अंधे तो थे ही, लेकिन मन की आंखों से उन्होंने देवताओं का श्रृंगारिक वर्णन बड़े अद्भुत ढंग से किया है। उन्हें ‘‘छत्तीसगढ़ का सूरदास‘‘ कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसे भक्त कवि का जन्म जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत ग्राम घिवरा में संवत् 1927 को हुआ। इनकी माता का नाम देवकी और पिता का नाम पिताम्बरदास था। वे स्वयं लिखते हैं ः-
पिता पितांबरदास पद बन्दौ सहित सनेह।
बन्दौ देवकि मातु पद जिन पालेऊ यह देह।।
बचपन से ही उनमें भक्ति भाव समाया हुआ था। माता पिता के भक्ति का संस्कार उनमें कूट कूटकर भरी थी। वे अपने माता पिता के साथ अक्सर शिवरीनारायण जाया करते थे। अतः उनमें महानदी के पवित्र संस्कार भी पड़े। यहां का साहित्यिक परिवेश और भक्तिमय वातावरण से उनकी जीवनधारा ही बदल गयी और वे यहीं रहकर काव्य रचना करने लगे। शिवरीनारायण में वैरागियों का एक वैष्णव मठ है जहां श्री बलरामदास वैरागी रहते थे। उनकी ही प्रेरणा से उनका जीवन भक्तिमय हुआ और वे आजीवन ब्रह्मचर्य रहने का व्रत लेकर राममय होकर काव्य रचना करने लगे। एक प्रकार से बलरामदास उनके गुरू हैं। उन्होंने अपने काव्यों में लिखा है ः-
गुरू बलरामदास बैरागी, राम उपासि परम बड़भागी।
दीन्हें राम मंत्र महराजा, जो है सकल मंत्र सिरताजा।।
वे हमेशा श्रीरामचंद्र जी की भक्ति में लीन रहे और अपने वैराग्यपूर्ण जीवन की रक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते रहे। देखिए उनका एक काव्य ः-
कवि सागर अधधार जल क्रोध लोभ मद काम।
डूबत नरसिंहदास को खैचहुं जानकिराम।।
...और वह अवसर आ ही गया जब उनके वैराग्यमय जीवन को खतरा हो गया। उनके माता-पिता उनकी शादी करना चाहते थे। उनके बहुत अनुनय विनय करने के बाद भी जब उनके माता-पिता उनकी शादी करने पर अड़े रहे तब एक दिन सबको रोते बिलखते छोड़कर वे तुलसी आ गये। यहां के मालगुजार पं. रामलाल शुक्ल अपनी सादगी, दानवृत्ति और आतिथ्य प्रेम के लिए जग प्रसिद्ध थे। नरसिंहदास उन्हीं की शरण में चले गये और वहां वे आजीवन रहे। वे लिखते हैं ः-
पुत्र पिताम्बरदास के, नरसिंहदास है नाम।
जन्मभूमि घिवरा तजे, बसे तुलसी ग्राम।।
यह कहना ज्यादा उचित होगा कि श्री नरसिंहदास तुलसी में आकर भक्ति भाव में लीन हो गये। यहां रहकर उन्होंने अनेक काव्यों की रचना की। एक प्रकार से तुलसी उनकी कार्यस्थली है। ईश्वर से वे हमेशा प्रार्थना किया करते थे ः-
नारायण शर भीषम मारे। मोर भीम प्रभु आपु उबारे।
नरसिंह दास शरण हैं तोर। तुम बिन राम सुनैको मेरे।।
नरसिंहदास शिवरीनारायण और खरौद क्षेत्र में घूम घूमकर श्रीरामचरितमानस का गायन करते थे। वे हमेशा श्रीरामचरितमानस का परायण करने और साधु संतों की संगति प्राप्त कर उनसे राम भक्ति की उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील रहे। इस हेतु वे तीर्थाटन भी किये। यात्राओं और तीर्थाटन से उन्हें जगत और जीवन का व्यापक अनुभव हुआ। उनकी उडि़या रचना तो अनुभवों का सुन्दर पिटारा है। अन्य रचनाओं में भी जीवन के अनुभवों को बड़ी सुन्दरता से उन्होंने व्यक्त किया है। कलिकाल का वर्णन आज की स्थिति का सजीव और मार्मिक चित्रण है। फिर भी नरसिंहदास का मन गोस्वामी तुलसीदास की अमृतमयी मानस रचना में अधिक रमता है। उन्हें श्रीरामचरितमानस, विनय पत्रिका, कवितावली और दोहावली कंटस्थ था। मानस की पंक्तियां और विनय पत्रिका के पद को वे बड़ी श्रद्धा और भक्ति से गाया करते थे। अपनी निरक्षरता और ज्ञान के बारे में उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा है कि मैं कोई बड़ा भक्त नहीं हूं। अंधा, मंद बुद्धि और पाप परायण हूं, निरक्षर हूं और पिंगलशास्त्र थोड़ा भी नहीं पढ़ा हूं। मैं जो कुछ भी जानता हूं वह सीताराम का ही प्रसाद है ः-
पिंगलशास्त्र न पढ़ेऊ कछु, निरक्षर अथ धाम।
अंध मंदमति मूढ़ हों, जानत जानकिराम ।।
नरसिंहदास अत्यंत विनीत, संतोषी, सहिष्णु और गंभीर प्रकृति के थे। उनका मन श्रीराम के चरणों में ही रमा रहता था। वे अंतर्मुखी और आत्म परिष्कार का सतत् प्रयास करते थे। वे पापों से डरते थे और आत्म रक्षा के लिये प्रभु श्रीराम से प्रार्थना करते थे ः-
राम के भक्त कहाइ छलौंजग, वंचक वेष बनाइ लिया।
किंकर काम के, कोह के, कंचन लोभ के कारण चित्त दिया।
नरसिंहदास कहै जग वंचक में, मोहि पामर मुख्य कली ने किया।
धिक है, धिक है, धिक है हमको जो जिवौं जग में बिनु रामसिया।
जन्मांध नरसिंहदास तुलसीदास और सूरदास की कोटि के भक्त थे। मीरा की सहजता भी उनके काव्यों में देखी जा सकती है। इस प्रकार भक्त नरसिंहदास के काव्यों में तुलसी का आत्म समर्पण, सूर का आत्म स्मरण और मीरा का आत्म सायुज्य दिखाई देता है। तुलसी ग्राम में पं. रामलाल शुक्ल और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती जानकी देवी उनसे प्रतिदिन श्रीरामचरितमानस सुना करते थे। आगे चलकर भक्त नरसिंहदास जानकी माई के हितार्थ ‘‘जानकी माई हित विनय‘‘ की रचना किये। जानकी देवी उन्हें अपना गुरू मानती थी। लेकिन इसके बावजूद नरसिंहदास उन्हें ‘‘माई‘‘ ही कहा करते थे ः-
जानकि माई हेतु, विनय रचैं सियराम के।
बंदौं संत सचेत, दया करौ माहि जानि जन।
बंदौं श्री हनुमान कृपा पात्र रघुनाथ के।
देहु भक्ति भगवान, जानकि माई शिष्य उर।
बंदौं सीता मातु, जनक नंदनी राम प्रिय।
करू छाया निज हाथ, जानकि माई शिष्य सिर।।
अपने गुरू नरसिंहदास के बारे में जानकी देवी की श्रद्धा भक्ति भी अनुकरणीय है। देखिये एक काव्यः-
नरसिंहदास नाम सत गुरू के, मोर नाम है जानकी माई।
तुम्हरे चरण शरण तकि आयेंउ राखहु दीन बंधु रघुराई।।
‘‘जानकी माई हित विनय‘‘ में सीता माई से जानकी माई की वार्तालाप का सजीव चित्रण कवि ने किया है ः-
जानकि माई नाम मोर है, तुमहौ जानकी माई।
मेरे पति द्विज रामलला हैं, तुम्हरे पति रघुराई।
तुम्हरे हमरे एक नाम है, हम तुम दोऊ सहनाई।
सोषत जागत सांझ सबेरे, निशि दिन करहु सहाई।
तुम पुनीत मैं पतित कृपणमय, तुम उदार श्रुति गाई।
बहुत नात सिय मातु तोहिं मोहिं, अब न तजहुं बनियाई।
क्षत्री रघुवंशी द्विज पालक, युग युग से चलि आई।
मैं हौं ब्राह्मण तुम क्षत्रिय हौ, कस न पालिहौ माई।
जानकि माई हृदय बसहुं अब, सियाराम दोनों भाई।
सिय तारि चरण शरण होई आयेउं, राखहुं माहि अपनाई।।
नरसिंहदास जी की ‘‘जानकिमाई हितविनय‘‘, ‘‘नरसिंह चैंतिसा‘‘ और ‘‘शिवायन‘‘ तीन प्रकाशित रचनाएं हैं। इसके अतिरिक्त कुछ फुटकर रचनाएं और पद्यात्मक पत्र प्राप्त हुये हैं जो अप्रकाशित हैं। ‘‘जानकिमाई हित विनय‘‘ और ‘‘नरसिंह चैंतिसा‘‘ में तुलसी, सूर और मीरा का प्रभाव परिलक्षित होता है। दोनों का विषय और उद्देश्य एक ही है मगर दृष्टिकोण अलग अलग है। जानकिमाई हित विनय की गणना आत्म निवेदन परक गीतिकाव्य से की जा ससकती है। इसमें 71 गेय मुक्तक पद हैं। प्रत्येक पद के अंतिम दो पंक्तियों में उन्होंने श्रीराम की अनपायनी भक्ति की याचना की है। देखिये उनका एक मुक्तक ः-
नरसिंहदास अंध यहि कारन, करि करि विनय कहत हौं रोई।
जानकिमाई रामलला द्विज, राखहुं राम शराण है दोई।।
उन्होंने यह पद अपने अराध्य श्रीराम को समर्पित किया है। इस ग्रंथ के साथ ‘‘छंद रामायण‘‘ और ‘‘सवैया रामायण‘‘ भी प्रकाशित है। इसमें संक्षिप्त में सातों कांड का वर्णन है। अंत में कलियुग का बड़ा सजीव वर्णन किया गया है ः-
चोरि करे मचावे जुवा तास गंजीपन पासा रे।
देखि कली की रीति बखाने अंधा नरसिंह दासा रे।।
दूसरा ग्रंथ ‘‘नरसिंह चैंतिसा‘‘ है जिसके पहले ही पृष्ठ पर ‘‘भगवत् भजन के निमित्त‘‘ तैयार करने का उल्लेख है। बारहखड़ी अक्षर के क्रम से दोहा, चैपाई और सोरठा आदि छंदों में इसकी रचना की गई है। तीसरा ग्रंथ रामायण की तर्ज पर ‘‘शिवायन‘‘ है। यह उनकी प्रसिद्ध और चर्चित खंडकाव्य है। ‘‘शिव-पार्वती विवाह‘‘ का वर्णन उडि़या और छत्तीसगढ़ी भाषा में किया गया है। छत्तीसगढ़ी भाषा में वर्णित ‘‘शिव बारात‘‘ उनका गौरव स्तम्भ है। यह अत्यंत लोकप्रिय, सरस और हृदयग्राही है। देखिये शिव बारात का एक दृश्यः
आईगे बरात गांव तीर भोला बाबा जी के
देखे जाबो चला गिंया संगी ला जगावा रे।
डारो टोपी, मारो धोती पांव पायजामा कसि,
बर बलाबंद अंग कुरता लगावा रे।
हेरा पनही दौड़त बनही, कहे नरसिंहदास
एक बार हहा करही, सबे कहुं घिघियावा रे।।
कोऊ भूत चढ़े गदहा म, कोऊ कुकुर म चढ़े
कोऊ कोलिहा म चढि़ चढि़ आवत..।
कोऊ बिघवा म चढि़, कोऊ बछुवा म चढि़
कोऊ घुघुवा म चढि़ हांकत उड़ावत।
सर्र सर्र सांप करे, गर्र गर्र बाघ करे
हांव हांव कुत्ता करे, कोलिहा हुवावत।
कहें नरसिंहदास शंभु के बरात देखि,
गिरत परत सब लरिका भगावत।।
दक्षिण पूर्वी रेल्वे जंक्शन चाम्पा से मात्र 8 और नैला रेल्वे स्टेशन से 12 कि. मी. पर पीथमपुर ग्राम स्थित है जहां कलेश्वर महादेव का भव्य मंदिर है। यहां प्रतिवर्ष धूल पंचमी को ‘‘शिवजी की बारात‘‘ निकलती है। संभव है कविवर के मन में शिव बारात की कल्पना इस दृश्य को देखकर उपजी हो ? बहरहाल, पीथमपुर में शिवजी की बारात का दृश्य दर्शकों को अभिभूत कर देता है। इस प्रकार उनके काव्य में भक्तिकाल का दैन्य, रीतिकाल का माधुर्य और आधुनिक काल के समाज सुधार की भावना परिलक्षित होती है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि जन्मांध होने के बावजूद उन्होंने ग्रंथों की रचना की। इसके लेखन का सद्कार्य पं. दयाशंकर बाजपेयी ने किया जो उस समय खरौद के मिडिल स्कूल में प्रधान पाठक थे। ऐसे उच्च कोटि के कवि का गुमनाम होना विचारणीय है। अच्छा होता कि ऐसे गुमनाम साहित्य मनीषियों को प्रकाश में लाया जावे। इससे छत्तीसगढ़ के उज्जवल साहित्यिक परिवेश उजागर होगा और हिन्दी साहित्य के इतिहास में परिवर्तन संभव होगा ?
रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)

बुधवार, 4 जून 2008

कटते पेड़, बंजर जमीन और प्रदूषित नदियां

औद्योगिक क्रांति की भट~ठी में हमने अपना जंगल झोंक दिया है।
पेड़ काट डाले और सड़कें बना डालीं। कुल्हाड़ी-आरी से जंगल काटने में देर
होती थी, तो पावर से चलने वाली आरियां गढ़ डालीं। सन~ 1950 से 2000 के बीच
50 वर्षो में दुनियां के लगभग आधे जंगल काट डाले, आज भी बेरहमी से काटे
जा रहे हैं। जल संगzहण के लिए तालाब बनाये जाते थे जिससे खेतों में
सिंचाई भी होती थी। लेकिन आज तालाब या तो पाटकर उसमें बड़ी बड़ी इमारतें
बनायी जा रही है या उसमें केवल मछली पालन होता है। मछली पालन के लिए कई
प्रकार के रसायनों का उपयोग किया जाता है जिसका तालाबों का पानी अनुपयोगी
हो जाता है। इसी प्रकार औद्योगिक धुओं से वायुमंडल तो प्रदू'िात होता ही
है, जमीन भी बंजर होती जा रही है। इससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा है
और दुष्परिणाम हम भुगत रहे हैं। आखिर जंगल क्यों जरूरी है ? पेड़ हमें ऐसा
क्या देते हैं, जो उन्हें बचाना जरूरी है ? पेड़ हमें फल, फूल, जड़ी-बूटी,
भोजन, र्इंधन, ईमारती लकड़ी, गोंद, कागज, रेशम, रबर और तमाम दुनियां के
अद~भूत रसायन देते हैं। इसलिए हमने उसका दोहन ¼शोषण½ तो किया, पर यह भूल
गये कि वृक्षों के नहीं होने से यह धरती आज वीरान बनती जा रही है। वनों
के इस उपकार का रूपयों में ही हिसाब लगायें तो एक पेड़ 16 लाख रूपये का
फायदा देता है। घने जंगलों से भाप बनकर उड़ा पानी वर्षा बनकर वापस आता है
और धरती को हरा भरा बनाता है। पेड़ पौधों की जड़ें मिðी को बांधे रहती है।
पेड़ों की कटाई से धरती की हरियाली खत्म हो जाती है। धरती की उपजाÅ मिðी
को तेज बौछारों का पानी बहा ले जाती है। पेड़ों की ढाल के बिना पानी की
तेज धाराएं पहाड़ों से उतर कर मैदानों को डुबाती चली जाती है। हर साल बाढ़
का पानी अपने साथ 600 करोड़ टन मिðी बहा ले जता है। मिðी के इस भयावह कटाव
को रोकने का एक ही उपाय है-वृक्षारोपण। मिÍी, पानी और बयार, ये तीन उपकार
हैं वनों के हम पर। इसलिए हमारे देश में प्राचीन काल से पेड़ों की पूजा
होती आयी है।

'संयुक्‍त राष्ट्र संघ के आंकड़ों के अनुसार विकासशील देशों में हर
घंटे 8 से 12 वर्ग कि.मी. वन काटे जा रहे हैं। वैज्ञानिक पृथ्वी को 'हरा
गृह' कहते हैं। हरियाली मानव सभ्यता की मुस्कान है। पृथ्वी की हरियाली
हजारों किस्म की उपयोगी वनस्पतियों के कारण है, लेकिन आज तथाकथित विकास
की अंधी दौड़ ने हमें पागल बना दिया है और हम जंगल काटकर कांक्रीट के जंगल
खड़े कर रहे हैं। परिणामस्वरूप वनस्पतियों की 20 से 30 हजार किस्में धरती
से उठ गयी हैं। यदि हमारे पागलपन की यही स्थिति रही तो इस सदी के अंत तक
हम 50 हजार से भी अधिक वनस्पतियों की किस्मों से हाथ धो बैठेंगे। इस बात
का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इससे 10-12 जातियों के जीवों
का भी लोप हो जायेगा। अत: पृथ्वी की हरियाली न केवल हमारे जीवन की उर्जा
है, अपितु पर्यावरण को संतुलित करने के लिए बहुत जरूरी है।'

पर्यावरण सबसे अधिक वनों से प्रभावित होता है। हवा, पानी, मिðी,
तापमान आदि वनों से प्रभावित होते हैं। शंकुधारी पौधों की प्रजातियां
समुदz तट से लगभग 5000 मीटर की Åंचाई पर पहाड़ों पर पायी जाती है।
शंकुधारी पौधों में जल गzहण क्षमता बहुत अधिक होती है। Åंचे पहाड़ी
क्षेत्रों में शंकुधारी पौधों के साथ साथ चौड़े पŸो वाले वृक्ष भी पाये
जाते हैं। प्राय: इन क्षेत्रों के आसपास पानी का सzोत पाया जाता है। साल
प्रजाती के पौधे अन्य प्रजाति के पौधों की अपेक्षा अधिक ठंडे और आदर्z
होते हैं और इस क्षेत्र में पानी का बहाव हमेशा रहता है। छŸाीसगढ़ प्रदेश
के सरगुजा, रायगढ़, जशपुर, रायपुर, बस्तर, दंतेवाड़ा, बिलासपुर और
राजनांदगांव जिलों के अलावा शहडोल, मंडला और बालाघाट जिले में साल के पेड़
बहुतायत में मिलते हैं। इसी प्रकार हिमालय की चोटी मंेें पूरे वर्ष बर्फ
जमे होने के कारण वहां से निकलने वाली नदियों में हमेशा पानी बहता है।
लेकिन इंदzावती, नर्मदा, सोन, चम्बल, महानदी, रिहंद, केन आदि का उद~गम
बर्फीली पहाड़ियों से नहीं होने के कारण इनमें हमेशा पानी बहता जरूर था।
लेकिन आज इन नदियों के उपर बांध बन जाने से इन नदियों में भी पानी नहीं
रहता। बल्कि इन नदियों में औद्योगिक रसायन युक्त जल छोड़े जाने से नदियां
प्रदू'िात होती जा रही है और नदियों के पुण्यतोया और मोक्षदायी होने में
संदेह होने लगा है। छत्तीसगढ़ प्रदे"ा में साल के वनों के साथ साथ
बाक्साइड, आयरन, कोयला, चूना और डोलामाइट अयस्क की प्रचुर मात्रा उपलब्ध
है, जिसका उत्खनन जारी है। इससे यहां की जल गzहण क्षमता में भी प्रतिकूल
प्रभाव पड़ने लगा है।

वनों के घटने या बढ़ने से वहां की जलवायु प्रभावित होती है। वन
क्षेत्रों में एवं उसके आसपास की जलवायु अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा आदर्z
और ठंडी होती है। जलवायु पर वनों के इस प्रभाव को 'माइकzो क्लाइमेटिक
इफेक्ट' कहते हैं। इस प्रभाव के साथ वनों का पृथ्वी के पूरे वातावरण एवं
पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। यहां यह बताना समीचीन प्रतीत होता है कि
पौधे और वातावरण के साथ हमारा कैसा सम्बंध है। पौधे अपना भोजन बनाने के
लिए सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में पŸिायों में उपस्थित क्लोरोफिल और
वातावरण में उपस्थित कार्बन डाई आक्साइड के साथ रासायनिक प्रतिकिzया करके
अपना भोजन तैयार करते हैं और आक्सीजन छोड़ते हैंं वायुमंडल में कार्बन डाई
आक्साइड और आक्सीजन का एक निश्चित अनुपात होता है। इसमें वायुमंडल में एक
साम्य बना रहता है। लेकिन अगर कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ जाए, तो
यह साम्य टूट जाता है। ऐसा तब होता है, जब पेड़ पौधे कम हों ? इस संतुलन
को बिगाड़ने के लिए औद्योगिकरण बहुत हद तक जिम्मेदार है। गगनचुम्बी
चिमनियों से और जल, थल ओर नभ में बढ़ते यातायात के साधनों के कारण कार्बन
डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ती ही जा रही है, जो पृथ्वी के चारों ओर इकट~ठी
होकर एक चादर का काम करती है। इससे पृथ्वी की गर्मी बाहर नहीं निकल पाती,
जिससे ताप में वृद्धि होती जा रही है। तापमान के बढ़ने की इस प्रक्रिया को
'गzीनहाउस' कहते हैंं वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि अगली शताब्दी के
अंत तक वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा दो गुनी हो जायेगी,
जिससे धzुवी क्षेत्रों का तापमान बढ़ जायेगा। इससे बर्फ पिघलेगी। गर्मी के
दिनों में बाढ़ आयेगी और अवर्षा के दिनों में बर्फ के पिघलने से बारहों
मास बहने वाली नदियां सूख जायेंगी। इससे जमीन का जल स्तर भी नीचे चला
जायेगा और इन नदियों में बनाये गये बांध सूख जायेंगे। इससे चलने वाले
बिजली घर बंद हो जायेंगे। अत: इनसे होने वाले दुष्परिणामों का सहज अनुमान
लगाया जा सकता है।

इसलिए यह विकास प्रकृति के साथ समरस होकर जीने वाले लोगों के लिए
कष्टदायक हो गया है। एक करोड़ पेड़ों को डुबाकर सुदूर वनांचल बस्तर में
बनने वाली बोधघाट वि+द्युत जल परियोजना, भागीरथी टिहरी की घाटी में बसी
हुई 70 हजार की जनसंख्या को विस्थापित कर बनने वाला भीमकाय टिहरी बांध और
इसीप्रकार के अन्य बांध जो कभी भी अपनी पूरी आयु तक जिंदा नहीं रहेंगे,
गंधमर्दन के प्राकृतिक वन को उजाड़कर प्राप्त होने वाले बाक्साइड और दून
घाटी को रेगिस्तान बनाकर प्राप्त होने वाले चूना पत्थर से किसको लाभ होने
वाला है ? इस प्रकार के विकास के आधार पर खड़ी होने वाली अर्थ व्यवस्था
अवश्य ही भोग लिप्सा को भड़का सकती है, क्षेत्रीय असंतुलन पैदा कर सकती
है। इससे पर्यावरण की अपूरणीय क्षति हो सकती है, जिसकी भरपायी किसी भी
कीमत पर नहीं हो सकती। बहुगुणा जी ऐसे विकास के लक्ष्य को भारतीय
संस्कृति के अनुरूप एक कसौटी पर खरा उतरने की बात कहते हैंं। वे गांधी जी
की बातों को याद दिलाते हैं। गांधी जी हमेशा कहते थे-'पृथ्वी प्रत्येक
मनुष्य की आवश्यकता पूरी करने के लिए तो सब कुछ देती है, लेकिन मनुष्य के
लोभ को तृप्त करने के लिए कुछ भी नहीं देती।

आखिर जंगल क्यों जरूरी है ? पेड़ पौधे हमें ऐसा क्या देते हैं, जो
उन्हें बचाना जरूरी है ? पेड़-पौधे हमें फल, फूल, जड़ी-बूटी, भोजन, ईंधन,
इमारती लकड़ी, गोंद, कागज, रेशम, रबर और कई प्रकार के रसायन देते हें।
इसलिए उसका शोषण तो किया गया, पर हम यह भूल गये कि पेड़-पौधो के कारण ही
यह धरती मानव विकास के योग्य बन सकी है। नीलकंठ वृक्षों के कार्बन डाई
आक्साइड का विष पीकर ऐसी कीमियागिरि दिखायी वृक्ष को अमृतोपम फलों में
बदल दिया और उपर से बांट दी प्राण वायु आक्सीजन, जिसके बिना पृथ्वी पर
जीवन की कल्पना की जा सकी। इसलिए आइये हम एक बार पेड़ों के लिए दौड़े.....।

रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,

प्रो. अश्विनी केशरवानी

'राघव', डागा कालोनी,

चांपा-495671 '36 गढ'