शुक्रवार, 28 दिसंबर 2007

गुप्त से प्रकाशमान होता शिवरीनारायण



गुप्त से प्रकाशमान होता शिवरीनारायण
प्रांजल कुमार

प्रो. अश्विनी केशरवानी छत्तीसगढ़ के जाने-माने लेखक हैं। प्रस्तुत ग्रंथ 'शिवरीनारायण देवालय और परंपराएँ' उनकी दूसरी कृति है। इसके पूर्व 'पीथमपुर के कालेश्वरनाथ' प्रकाशित हुई थी। मूलत: विज्ञान के प्राध्यापक होने के बावजूद साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और परंपराओं पर उनकी गहरी रूचि के परिणाम स्वरूप इन ग्रंथों का प्रकाशन संभव हो सका है।

वे स्वयं मानते हैं कि उन्हें चित्रोत्पलागंगा का संस्कार, भगवान शबरीनारायण का आशीर्वाद और भारतेन्दु कालीन साहित्यकार ठाकुर जगमोहनसिंह, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी और श्री गोविंद साव की प्रेरणा मिली है जिसके कारण ही वे लेखन वृत्ति की ओर प्रवृत्त हुए हैं।

शिवरीनारायण कलचुरि कालीन मूर्तिकला से सुसज्जित है। यहाँ महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी का त्रिधारा संगम प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा नमूना है। इसीलिए इसे ''प्रयाग'' जैसी मान्यता है। स्कंद पुराण में इसे ''श्री नारायण क्षेत्र'' और ''श्री पुरूषोत्तम क्षेत्र'' कहा गया है। प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से यहाँ एक बृहद मेला का आयोजन होता है, जो महाशिवरात्री तक लगता है। इस मेले में हजारों-लाखों दर्शनार्थी भगवान शबरीनारायण के दर्शन करने जमीन में ''लोट मारते'' आते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान जगन्नाथ यहाँ विराजते हैं इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। तत्कालीन साहित्य में जिस नीलमाधव को पुरी ले जाकर भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किया गया है, उसे इसी शबरीनारायण-सिंदूरगिरि क्षेत्र से पुरी ले जाने का उल्लेख 14 वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने किया है। इसी कारण शिवरीनारायण को ‘छत्तीसगढ़ का जगन्नाथ पुरी’ कहा जाता है।

उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम् पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिकाधाम स्थित है लेकिन मध्य में ''गुप्तधाम'' के रूप में शिवरीनारायण स्थित है। इसका वर्णन रामावतार चरित्र और याज्ञवलक्य संहिता में मिलता है। यह नगर सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर, द्वापरयुग में विष्णुपुरी और नारायणपुर के नाम से विख्यात् था जो आज शिवरीनारायण के नाम से चित्रोत्पला-गंगा (महानदी) के तट पर कलिंग भूमि के निकट देदीप्यमान है। यहाँ सकल मनोरथ पूरा करने वाली माँ अन्नपूर्णा, मोक्षदायी भगवान शबरीनारायण, लक्ष्मीनारायण, चंद्रचूढ़ और महेश्वर महादेव, केशवनारायण, श्रीराम लक्ष्मण जानकी, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा से युक्त श्री जगदीश मंदिर, राधाकृष्ण, काली और माँ गायत्री का भव्य और आकर्षक मंदिर है। शिवरीनारायण में अन्यान्य मंदिर हैं जो विभिन्न कालों में निर्मित हुए हैं। चूंकि यह नगर विभिन्न समाज के लोगों का सांस्कृतिक तीर्थ है अत: उन समाजों द्वारा यहाँ मंदिर निर्माण कराया गया है। यहाँ अधिकांश मंदिर भगवान विष्णु के अवतारों के हैं। कदाचित् इसी कारण इस नगर को वैष्णव पीठ माना गया है।

डॉ. जे.पी. सिंहदेव के अनुसार-''इंद्रभूति शबरीनारायण से नीलमाधव को सोनपुर के पास सम्बलाई पहाड़ी में स्थित गुफा में ले गये थे। उनके सम्मुख बैठकर वे तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे। शबरी के इष्टदेव जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता दिलाने का यश भी इंद्रभूति को ही है।'' आसाम के ''कालिका पुराण'' में उल्लेख है कि तंत्रविद्या का उदय उड़ीसा में हुआ और भगवान जगन्नाथ उनके इष्टदेव थे। गोपीनाथ महापात्र के अनुसार ''भगवान शबरीनारायण संवरा लोगों द्वारा पूजित होते थे जो भुवनेश्वर के पास स्थित धौली पर्वत में रहते थे।'' सरला महाभारत के मुसली पर्व के अनुसार ''सतयुग में भगवान शबरीनारायण के रूप में पूजे जाते थे जो पुरूषोत्तम क्षेत्र में प्रतिष्ठित थे।'' लेकिन वासुदेव साहू के अनुसार ''शबरीनारायण न तो भुवनेश्वर के पास स्थित पर्वत में रहते थे, जैसा कि गोपीनाथ महापात्र ने लिखा है, न ही पुरूषोत्तम क्षेत्र में, जैसा कि सरला महाभारत में कहा गया है। बल्कि शबरीनारायण महानदी घाटी का एक ऐसा पवित्र स्थान है जो जोंक और महानदी के संगम से 3 कि.मी. उत्तर में स्थित है। स्वाभाविक रूप से यह वर्तमान शिवरीनारायण ही है। डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र अपनी पुस्तक ''छत्तीसगढ़ परिचय'' में लिखते हैं-''शबर (सौंरा) लोग भारत के मूल निवासियों में एक हैं। उनके मंत्र जाल की महिमा तो रामचरितमानस तक में गायी गयी है। शबरीनारायण में भी ऐसा ही एक शबर था जो भगवान जगन्नाथ का भक्त था।'' आज भी शिवरीनारायण में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिक गुरूओं नगफड़ा और कनफड़ा बाबा की मूर्ति एक गुफा नुमा मंदिर में स्थित है। इसी प्रकार बस्ती के बाहर आज भी नाथ गुफा देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि शिवरीनारायण की महत्ता प्रयाग, काशी, बद्रीनारायण और जगन्नाथपुरी से किसी मायने में कम नहीं है तभी तो कवि गाता है :-

चित्रउत्पला के निकट श्री नारायण धाम,
बसत संत सज्जन सदा शबरीनारायण ग्राम।
होत सदा हरिनाम उच्चारण, रामायण नित गान करै,
अति निर्मल गंग तरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरै।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरे,
जहां जीव चारू बखान बसै सहज भवसिंधु अपार तरे॥

नारायण मंदिर के वायव्य दिशा में एक अति प्राचीन वैष्णव मठ है जिसका निर्माण स्वामी दयारामदास ने नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों से इस नगर को मुक्त कराने के बाद की थी। रामानंदी वैष्णव सम्प्रदाय के इस मठ के वे प्रथम महंत थे। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं और वर्तमान में इस मठ के श्री रामसुन्दरदास जी महंत हैं। खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर के चेदि संवत् 933 के शिलालेख में मंदिर के दक्षिण दिशा में संतों के निवासार्थ एक मठ के निर्माण कराये जाने का उल्लेख है।

हिन्दुस्तान में गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम प्रयागराज में हुआ है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँ अस्थि प्रवाहित करने और पिंडदान करने से 'मोक्ष' मिलता है। लेकिन मोक्षदायी सहोदर के रूप में छत्तीसगढ़ के शिवरीनारायण और राजिम को माना जा सकता है। दोनों सांस्कृतिक तीर्थ चित्रोत्पला गंगा के तट पर क्रमश: महानदी, शिवनाथ और जोंकनदी तथा महानदी, सोढुल और पैरी नदी के साथ त्रिधारा संगम बनाते हैं। यहाँ भी अस्थि विसर्जन किया जाता है, और ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँ पिंडदान करने से मोक्ष मिलता है। शिवरीनारायण में तो माखन साव घाट और रामघाट में अस्थि कुंड है जिसमें अस्थि प्रवाहित किया जाता है। श्री बटुकसिंह चौहान ने श्री शिवरीनारायण सुन्दरगिरि महात्म्य के आठवें अध्याय में अस्थि विसर्जन की महत्ता का बहुत सुंदर वर्णन किया है :-

दोहा शिव गंगा के संगम में, कीन्ह अस पर वाह।
पिण्ड दान वहाँ जो करे, तरो-बैकुण्ठ जाय॥
दोहा क्वांर कृष्णो सुदि नौमि के, होत तहां स्नान।
कोढ़िन को काया मिले, निर्धन को धनवान॥
महानदी गंग के संगम में, जो किन्हे पिण्ड कर दान।
सो जैहैं बैकुण्ठ को, कहीं बुटु सिंह चौहान॥

प्रस्तुत ग्रंथ ''शिवरीनारायण : देवालय और परंपराएँ'' इन्हीं सब भावों को लेकर लिखा गया है। इस ग्रंथ में दो खंड है। पहले खंड में यहाँ के मंदिरों क्रमश: गुप्तधाम, शबरीनारायण और सहयोगी देवालय, अन्नपूर्णा मंदिर, महेश्वरनाथ मंदिर, शबरी मंदिर, जनकपुर के हनुमान और खरौद के लखनेश्वर मंदिर के उपर सात आलेख हैं जिसके माध्यम से यहाँ के सभी मंदिरों के निर्माण से लेकर उसकी महत्ता का विस्तृत वर्णन करने का प्रयास किया है। प्रमुख मंदिर भगवान शबरीनारायण का है शेष सहायक मंदिर हैं जिसके निर्माण के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित है। बदरीनारायण में भगवान नर नारायण की तपस्थली है और शिवरीनारायण में भगवान नर नारायण शबरीनारायण के रूप में गुप्त रूप से विराजमान हैं। भारतेन्दु कालीन साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने जो 'शबरीनारायण माहात्म्य' लिखा है उसका शीर्षक उन्होंने 'श्रीशबदरीनारायण माहात्म्य' दिया है। उन्होंने ऐसा शायद स्कंद पुराण में इस क्षेत्र को 'श्रीनारायण क्षेत्र' के रूप में उल्लेख किये जाने के कारण किया है। यहाँ रामायण कालीन शबरी उध्दार और लंका विजय के निमित्त भ्राता लक्ष्मण की विनती पर श्रीराम ने खर और दूषण की मुक्ति के पश्चात् 'लक्ष्मणेश्वर महादेव' की स्थापना खरौद में की थी। इसीप्रकार औघड़दानी शिवजी की महिमा आज महेश्वरनाथ के रूप में माखन वंश और कटगी-बिलाईगढ़ जमींदार की वंशबेल को बढ़ाकर उनके कुलदेव के रूप में पूजित हो रहे हैं। माँ अन्नपूर्णा की ही कृपा से समूचा छत्तीसगढ़ 'धान का कटोरा' कहलाने का गौरव प्राप्त कर सका है। इस खंड के सभी देवालय लोगों की श्रध्दा और भक्ति का प्रमाण है। तभी तो पंडित हीराराम त्रिपाठी गाते अघाते नहीं हैं :-

होत सदा हरिनाम उच्चारण रामायण नित गान करैं।
अति निर्मल गंगतरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरैं।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरैं।
जहाँ जीव चारू बखान बसैं सहजे भवसिंधु अपार तरैं॥

ग्रंथ के दूसरे खंड में यहाँ प्रचलित परंपराओं को दर्शाने वाले 17 आलेख है। गंगा, यमुना और सरस्वती नदी की तरह चित्रोत्पलागंगा (महानदी) को भी मोक्षदायी माना गया है। 'मोक्षदायी चित्रोत्पलागंगा' में इन्हीं सब तथ्यों का वर्णन है। इस नदी में अस्थि विसर्जन, बनारस के समान महानदी के घाट, भगवान शबरीनारायण के चरण को स्पर्श करती मोक्षदायी रोहिणी कुंड, वैष्णव मठ और महंत परंपरा, महंतों के द्वारा गादी चौरा पूजा, जगन्नाथ पुरी के समान प्रचलित रथयात्रा, तांत्रिक परंपरा, नाटय परंपरा, साहित्यिक परंपरा, प्रसिध्द मेला के साथ शिवरीनारायण के भोगहा, गुरू घासी बाबा, रमरमिहा और माखन वंशानुक्रम, शिवरीनारायण की कहानी उसी की जुबानी और महानदी के हीरे आलेख यहाँ की परंपराओं को रेखांकित करता है।

इस ग्रंथ को पढ़कर आदरणीय पंडित विद्यानिवास मिश्र ने आवश्यक संशोधन करने का सुझाव दिया जिसे पूरा करने के बाद यह ग्रंथ पूर्णता को प्राप्त हुआ। जगन्मोहन मंडल के प्रभृति साहित्यकारों में एक गोविंद साव भी थे जिनका वें छठवीं पीढ़ी के वंशज हैं। भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी और मित्र ठाकुर जगमोहन सिंह शिवरीनारायण में रहकर अनेक ग्रंथों की रचना की है। यही नहीं बल्कि उन्हों 'जगन्मोहन मंडल' के माध्यम से छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर उन्हें लेखन की दिशा प्रदान की थी। छत्तीसगढ़ के अन्यान्य साहित्यकारों के यहाँ आने की जानकारी मिलती है। शिवरीनारायण को साहित्यिक तीर्थ कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा। इस ग्रंथ में बदरीनारायण, प्रयाग और जगन्नाथपुरी से शिवरीनारायण की तुलना की गयी है जिनकी पुष्टि दिये गये तथ्यों से होती है। किसी धार्मिक और सांस्कृतिक नगरों का महत्व उसके साहित्य से ही होता है। इस दिशा में शिवरीनारायण जैसे गुप्तधाम अब गुप्त न होकर प्रकाशमान होगा, ऐसी आशा की जा सकती है।

प्रांजल कुमार
बोरीबली, मुंबई

मंगलवार, 25 दिसंबर 2007

छत्तीसगढ़ी काव्य के भारतेन्दु पंडित सुन्दरलाल शर्मा


अश्विनी केशरवानी का आलेख : छत्तीसगढ़ी काव्य के भारतेन्दु - पंडित सुन्दरलाल शर्मा
28 दिसंबर को पुण्यतिथि के अवसर पर विशेष
छत्तीसगढ़ी काव्य के भारतेन्दु पंडित सुन्दरलाल शर्मा
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
महानदी के तटवर्ती ग्राम्यांचलों में केवल राजा, जमींदार या किसान ही नहीं बल्कि समाज सुधारक, पथ प्रदर्शक, अंग्रेजी दासता से मुक्ति दिलाने में अग्रणी नेता और साहित्यकार भी थे। छत्तीसगढ़ अपने इन सपूतों का ऋणी है जिनके बलिदान से हमारा देश आजाद हुआ। उन्हीं में से एक थे पंडित सुन्दरलाल शर्मा। उनके कार्यो के कारण उन्हें ''छत्तीसगढ़ केसरी'' और ''छत्तीसगढ़ का गांधी'' कहा जाता है। वे एक उत्कृष्ट साहित्यकार भी थे। अपनी साहित्यिक प्रतिभा से जहां जन जन के प्रिय बने वहीं भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और अछूतोध्दार में प्रमुख भूमिका निभाकर छत्तीसगढ़ को राष्ट्रीय भावना से जोड़ने का सद्प्रयास किया है। छत्तीसगढ़ के वनांचलों में पंडित सुंदरलाल शर्मा ने ही महात्मा गांधी को पहुंचाने का सद्कार्य किया था। उनके कार्यो को देखकर गांधी जी अत्यंत प्रसन्न हुए और एक आम सभा में कहने लगे :-''मैंने सुना था कि छत्तीसगढ़ एक पिछड़ा हुआ क्षेत्र है। लेकिन यहां आने पर पता चला कि यह गलत है। यहां तो मुझसे भी अधिक विचारवान और दूरदर्शी लोग रहते हैं। उदाहरण के लिए पंडित सुन्दरलाल शर्मा को ही लीजिए जो मरे साथ बैठे हुए हैं, उन्होंने मुझसे बहुत पहले ही हरिजन उध्दार का सद्कार्य शुरू कर दिया है इस नाते वे मेरे ''गुरू'' हैं। ब्राह्यण कुलोत्पन्न, समाज सेवक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और साहित्यकार पंडित सुन्दरलाल शर्मा ''छत्तीसगढ़ी काव्य के भारतेन्दु'' थे। उनके बारे में पंडित शुकलाल पांडेय छत्तीसगढ़ गौरव में लिखते हैं :-

बुधवर रामदयालु, स्वभाषा गौरव केतन।
ठाकुर छेदीलाल विपुल विद्यादि निकेतन।
द्विजवर सुन्दरलाल मातृभाषा तम पूषण।
बाबु प्यारेलाल देश छत्तीसगढ़ भूषण।
लक्ष्मण, गोविंद, रघुनाथ युग महाराष्ट्र नर कुल तिलक।
नृप चतुर चक्रधर लख जिन्हें हिन्दी उठती है किलक॥ (163)
जगन्नाथ है भानु, चन्द्र बल्देव यशोधर।
प्रतिभाशाली मुकुट काव्य के मुकुट मनोहर।
पदुमलाल स्वर्गीय सुधा सुरसरी प्रवाहक।
परमकृती शिवदास आशु कवि बुधवर शासक।
ज्वालाप्रसाद सत्काव्यमणी तम मोचन लोचन सुघर।
श्री सुन्दरलाल महाकृति कविता कान्ता कान्त वर॥ (165)

छत्तीसगढ़ी दानलीला के अंत में वे अपने बारे में लिखते हैं :-
छत्तिसगढ़ के मझोत एक राजिम सहर,
जहां जतरा महिना माघ भरते।
देश देश गांव गांव के जो रोजगार भारी,
माल असबाब बेंचे खातिर उतरथे।
राजा अऊ जमींदार मंडल किसान
धनवान जहां जुरके जमात ले निकरथे।
सुन्दरलाल द्विजराज नाम हवै एक,
भाई ! सुनौ तहां कविताई बैठि करथे।
ऐसे महापुरूष का जन्म छत्तीसगढ़ के तीर्थ राजिम के निकट चमसुर गांव में परासर गोत्रीय यजंर्वेदीय ब्राह्मण पंडित जयलाल तिवारी के घर पौष अमावस्या संवत् 1881 को हुआ था। उनका परिवार सुसंस्कृत, समृद्ध और प्रगतिशील था। वे कांकेर रियासत के कानूनी सलाहकार थे। माता देवमती सती साध्वी और स्नेह की प्रतिमूर्ति थी। कांकेर के राजा पंडित जयलाल तिवारी के कार्यों से प्रसन्न होकर उन्हें 18 गांव की मालगृजारी दिये थे। उनके तीन पुश्तैनी गांव चमसुर, घोंट और चचोद राजिम के निकट स्थित हैं।
पंडित सुन्दरलाल शर्मा की शिक्षा दीक्षा गांव के ही स्कूल में ही हुई। मिडिल स्कूल तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद वे घर में ही उच्च शिक्षा ग्रहण किये। उन्होंने अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, मराठी, बंगला, उड़िया और संस्कृत भाषा का गहन अध्ययन किया। उनके घर लोकमान्य तिलक द्वारा संपादित '' मराठा केसरी '' पत्रिका आती थी। वे उनका नियमित पठन करते थे। 18 वर्ष की आयु में वे काव्य लेखन में परांगत हो गये। सन् 1898 में उनकी कविताएँ ''रसिक मित्र'' में प्रकाशित होने लगी थी। महानदी का पवित्र वातावरण उनके व्यक्तित्व में निखार ले आया। एक जगह वे लिखते हैं :-''राजिम में कहीं संगीत, कहीं सितार वादन होते ही रहता है...शंभू साव की साधु भक्ति, पंडित मुरलीप्रसाद की विद्वतापूर्ण वेदान्त प्रवचन, कामताभगत की निश्छल भरी भक्ति बड़ी प्रेरणास्प्रद होती थी..।'' इस प्रकार किशोरवय और भूषण कवि पंडित विश्वनाथ दुबे का साथ उन्हें काव्य में उन्हें प्रवीण बना दिया। यहां दुबे जी ने एक कवि समाज की स्थापना की थी जिनके संस्थापक महामंत्री और सक्रिय सदस्य पंडित सुन्दरलाल शर्मा थे। यही संस्था आगे चलकर जन जागरण करके बहुत लोकप्रिय हुआ।
पंडित जी ने साहित्य की सभी विधाओं में लेखन किया है। फलस्वरूप उनके खंडकाव्य, उपन्यास, नाटक आदि की रचना हुई। उनकी कृतियों में छत्तीसगढ़ी दानलीला, राजिम प्रेमपियुष, काव्यामृवाषिणी, करूणा पचीसी, एडवर्ड राज्याभिषेक, विक्टोरिया वियोग (सभी काव्य), कंस वध (खंडकाव्य), सीता परिणय, पार्वती परिणय, प्रहलाद चरित्र, ध्रुव आख्यान, विक्रम शशिकला (सभी नाटक), श्रीकृष्ण जन्म आख्यान, सच्चा सरदार (उपन्यास), श्रीराजिमस्त्रोत्रम महात्म्य, स्फुट पद्य संग्रह, स्वीकृति भजन संग्रह, रघुराज भजन संग्रह, प्रलाप पदावली, ब्राह्यण गीतावली और छत्तीसगढ़ी रामायण (अप्रकाशित) आदि प्रमुख है।
श्री सुन्दरलाल शर्मा छत्तीसगढ़ी काव्य के प्रवर्तक थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ी काव्य में रचना करके ग्रामीण बोली की भाषा के रूप में प्रचलित किया। घमतरी के काव्योपाध्याय हीरालाल ने छत्तीसगढ़ी व्याकरण लिखकर इसे पुष्ट किया। पंडित जी की छत्तीसगढ़ी दानलीला बहुत चर्चित हुई। रायबहादुर हीरालाल लिखते हैं :-''जौने हर बनाईस हे, तौने हर नाम कमाईस हे।'' माधवराव सप्रे उसकी प्रशंसा करते हुए लिखते हैं :-''मुझे विश्वास है कि भगवान श्रीकृष्ण की लीला के द्वारा मेरे छत्तीसगढ़िया भाईयों का कुछ सुधार होगा ? मेरी आशा और भी दृढ़ हो जाती है जब मैं देखता हूं कि छत्तीसगढ़िया भाईयों में आपकी इस पुस्तक का कैसा लोकोत्तर आदर है..।'' श्री भुवनलाल मिश्र ने तो पंडित सुन्दरलाल शर्मा को ''छत्तीसगढ़ी भाषा का जयदेव'' निरूपित किया है। छत्तीसगढ़ी दानलीला में छत्तीसगढ़ के जन जीवन की झांकी देखने को मिलती है :-
कोनो है झालर धरे, कोनो है घड़ियाल।
उत्ताधुर्रा ठोंकैं, रन झांझर के चाल॥
पहिरे पटुका ला हैं कोनो। कोनो जांघिया चोलना दोनो॥
कोनो नौगोटा झमकाये। पूछेली ला है ओरमाये॥
कोनो टूरा पहिरे साजू। सुन्दर आईबंद है बाजू॥
जतर खतर फुंदना ओरमाये। लकठा लकठा म लटकाये॥
ठांव ठांव म गूंथै कौड़ी। धरे हाथ म ठेंगा लौड़ी॥
पीछू मा खुमरी ला बांधे। पर देखाय ढाल अस खांदे॥
ओढ़े कमरा पंडरा करिहा। झारा टूरा एक जवहरिया॥
हो हो करके छेक लेइन तब। ग्वालिन संख डराइ गइन सब॥
हत्तुम्हार जौहर हो जातिस। देवी दाई तुम्हला खातिस॥
ठौका चमके हम सब्बो झन। डेरूवा दइन हवै भड़ुवा मन॥
झझकत देखिन सबो सखा झन। डेरूवा दइन हवै भड़ुवा मन॥
चिटिक डेरावौ झन भौजी मन। कोनो चोर पेंडरा नोहन॥
हरि के साझ जगात मड़ावौ। सिट सिट कर घर तनी जावौ॥
शर्मा जी ने ''दुलरवा'' नामक एक छत्तीसगढ़ी पत्रिका का संपादन किया था। उनकी ''छत्तीसगढ़ी रामायण'' अप्रकाशित रही। उनके साहित्यिक मित्रों में पं. माखनलाल चतुर्वेदी, जगन्नाथ प्रसाद भानु, माधवराव सप्रे, लक्ष्मीधर बाजपेयी, नवनीत पत्रिका के संपादक ग. न. गद्रे स्वामी, सत्यदेव परिब्राधक आदि प्रमुख थे। उनके नाटक राजिम के अलावा छत्तीसगढ़ के अनेक स्थानों में मंचित किये गये थे। सन् 1911 और 1916 के हिन्दी साहित्य सम्मेलन में वे सम्मिलित हुए। वे एक उत्कृष्ट साहित्यकार के साथ साथ चित्रकार, मूर्तिकार और रंगमंच के कलाकार थे।
उनके जीवन का दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष आजादी के महासमर में सक्रिय भागीदारी थी। श्री भुवनलाल मिश्र ने इसका अच्छा चित्रण अपने लेख में किया है-''कौन जानता था, कौन सोच सकता था कि छत्तीसगढ़ी दानलीला का रसिक और सुकुमार कवि हृदय में क्रांति की चिंगारी भी सुलग रही थी। कौन सोच सकता था कि ''विक्टोरिया वियोग'' का कवि उसके उत्तराधिकारियों के खिलाफ दिल में बगावत की आग समेटकर बैठा हुआ है। जब छत्तीसगढ़ का सम्पन्न वर्ग अंग्रेजी हुकूमत की वंदना करने में लीन था, जब देशी रियासतें अंग्रेजी हुकुमत की कृपाकांक्षी थी, जब आम आदमी अंग्रेजों के खिलाफ बात करने का साहस नहीं कर पाता था तब पंडित सुंदरलाल शर्मा ने पूरे छत्तीसगढ़ का दौरा करके जन जीवन में राजनीतिक चेतना जागृत की और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आजादी का शंखनाद किया..।''
सन् 1905 में जब बंग भंग के कारण देश व्यापी आंदोलन हुआ तब पंडित जी राजनीति में सक्रिय भूमिका अदा की। उन्होंने छत्तीसगढ़ में जनसभाओं और भाषणों के द्वारा राजनीतिक जागरण किया। वे कांग्रेस के सूरत, कलकत्ता, बम्बई, जयपुर और काकीनाड़ा अधिवेशन में भाग लिये थे। इस महासमर में उनके प्रारंभिक सहयोगियों में श्री नारायणराव मेघावाले, श्री नत्थूलाल जगताप, श्री भवानीप्रसाद मिश्र, माधवराव सप्रे, श्री अब्दुल रऊफ, श्री हामिद अली, श्री वामनराव लाखे, यति यतनलाल जी, श्री खूबचंद बघेल, श्री अंजोरदास, बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव जैसे कर्मठ लोगों का साथ मिला। उन्होंने सन् 1906 में ''सन्मित्र मंडल'' की स्थापना की थी। उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार में सक्रिय भूमिका अदा की और जगह जगह स्वदेशी वस्तुओं की दुकानें खोलीं। उन्होंने यहां अनेक सत्याग्रह किये और जेल यात्रा के दौरान अनेक यातनाएं झेली। उनके सत्याग्रहों में कंडेल सत्याग्रह अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी। यह सत्याग्रह पूरे देश में असहयोग आंदोलन की पृष्ठभूमि बनी। इस बीच वे महात्मा गांधी को छत्तीसगढ़ आमंत्रित किये थे। उन्होंने यहां की आमसभा में उनकी भूरि भूरि प्रशंसा की और हरिजनोध्दार के लिए उन्हें अपना ''गुरू'' स्वीकार किया था।
पंडित जी वास्तव में बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे छत्तीसगढ़ के एक सच्चे सपूत थे। समाज सुधार, स्वतंत्रता संग्राम और साहित्य के क्षेत्र में उनके अप्रतिम योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने सन् 1935 में अपने सहयोगियों के प्रयास से धमतरी में एक ''अनाथालय'' और रायपुर में ''सतनामी आश्रम'' की स्थापना की थी। राजिम में वे ''बह्यचर्य आश्रम'' पहले ही स्थापित कर चुके थे। ऐसे युगदृष्टा ने अपने अंतिम क्षणों में राजिम में महानदी के पावन तट पर एक पर्ण कुटीर में निवास करते हुए 28 दिसंबर सन् 1940 को स्वर्गारोहण किया और समूचे छत्तीसगढ़ वासियों को विलखता छोड़ गये। डॉ. खूबचंद बघेल अपने एक लेख में लिखा है-''छत्तीसगढ़ के तीन लाल-घासी, सुंदर और प्यारेलाल'' वे तीनों को सत्यं, शिवं और सुन्दरं की प्रतिमूर्ति मानते थे। ऐसे युगदृष्टा के स्वर्गारोहण से सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ को अपूरणीय क्षति हुई जिसकी भरपायी संभव नहीं है। उन्हें हमारी विनम्र श्रध्दांजलि अर्पित है।
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रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छ.ग.)

शादी के लिए कुंडली की नहीं रक्त की जांच कराइये


प्रो. अश्विनी केशरवानी का आलेख : शादी के लिए कुंडली नहीं, रक्त समूह मिलाइए
आलेख
शादी के लिए कुंडली की नहीं रक्त की जांच कराइये
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
मेरे एक मित्र हैं-अनंत, जैसा नाम वैसा गुण, धीरज और सभ्यता जैसे उन्हें विरासम में मिला था। घर में अकेले और बड़े होने से उसकी शादी बड़े धूमधाम से एक सुधड़ कन्या से हुआ। लड़की सुशील, सभ्य और गृह कार्य में दक्ष थी। दोनों की जोड़ी को तब सभी ने सराहा था। बड़ी खुशी खुशी दिन गुजरने लगे मगर एक दिन उसका रक्त स्त्राव होने लगा। थोड़े बहुत इलाज से सब ठीक हो गया और बात आई गई हो गई। दिन गुजरने लगा और कभी कभी उसका रक्त स्त्राव हो जाता था, गर्भ ठहरता नहीं था। बार-बार रक्त स्त्राव से गर्भाशय कमजोर पड़ गया। एक बार गर्भ ठहर गया तब सभी कितने खुश हुये थे। सभी उस सुखद क्षण की कल्पना करके खुश हो जाते थे मगर जब वह वक्त आया तो बच्चा एबनार्मल हुआ। थोड़ी देर जीवित रहने के बाद शांत। बड़ी मुश्किल से मां को बचाया जा सकता है। दादा-दादी बनने की इच्छा ने इलाज से टोने टोटके तक ले आया और इस अंध विश्वास ने बेचारी को एक दिन मौत के गले लगा दिया। उस दिन की घटना ने मुझे विवाह सम्बंधी तथ्यों पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की बाध्य कर दिया।
वास्तव में विवाह दो अनजाने व्यक्तियों का मधुर मिलन होता है-दो परिवारों के बीच एक नया सम्बंध। अत: इस संबंध की प्रगाढ़ता के लिये कुछ तथ्यों पर गंभीरता पूर्वक विचार किये जाने की परम्परा होती है। इसके अंतर्गत विवाह पूर्व लड़के और लड़की की कुंडली मिलाया जाता है, कुल गोत्र और पारिवारिक चरित्रावली का अवलोकन किया जाता है। इसके पीछे वंशानुक्रम को जीवित रखने के साथ साथ सुखी और स्वस्थ परिवार की कल्पना होती है। आज इस प्रकार की कितनी शादियां सफल हो पाती हैं वह अलग बात है, मगर इस विधि को कोई छोड़ना नहीं चाहता। यह एक विचारणीय प्रश्न है। बहरहाल कुंडली और राशि की बात महज और थोथी लगती है क्योंकि कुंडली बच्चे के जन्म समय और तिथि के आधार पर बनायी जाती है। मशीनी युग में आपको घड़ी सही समय बतायेगी इस पर संदेह है। वैसे भी आज अधिकांश बच्चे अस्पतालों में पैदा होते है और बच्चे के जन्म के समय डॉक्टर-नर्स सभी डिलीवरी कराने में व्यस्त रहते है। इस समय थोड़ी सी असावधानी जच्चा और बच्चा के जीवन के लिये खतरा बन सकता है, ऐसे वक्त किसका ध्यान समय नोट करने की ओर जायेगा...हां, रजिस्ट्रर में खाना पूर्ति के लिये अवश्य लिखा होता है मगर अंदाज से लिखे इस समय के आधार पर बना कुंडली और राशि कितना सही हो सकता है, इसका अंदाज आप स्वंय लगा सकते हैं।
भारत के अलावा किसी दूसरे देश में कुंडली जैसी कोई चीज नहीं होती। पश्चिम के देशों में विवाह लड़के लड़की के रक्त समूह की जांच करके की जाती है। यहां जाति बंधन नहीं होता। इनसे जन्मे बच्चे स्वस्थ, सुन्दर और उच्च बौद्धिक स्तर के होते हैं। आज ऐसे विवाहों की आवश्यकता हैं जिसमें सादगी और उसका रक्त स्वस्थ हो, तो आइये पहले अपने रक्त के बारे में जान लें।
वास्तव में हमारे शरीर में पाये जाने वाले रक्त की रचना हल्के पीले रंग के द्रव तथा इसमें उतराने वाली कोशिकाओं से होता है। इस द्रव को ''प्लाज्मा'' तथा कोशिकाओं को ''रक्त कणिकाएं'' कहते हैं। ये रक्त कणिकाएं लाल और सफेद कणिकाओं से मिलकर बना होता है। रक्त की 54 से 60 प्रतिशत मात्रा प्लाज्मा तथा चालीस से छियालिस प्रतिशत मात्रा रक्त कणिकाओं की होती है। यह मात्रा परिस्थिति और स्वास्थ्य के अनुसार परिवर्तित होते रहता है।
प्लाज्मा अम्बर के रंग का द्रव भाग है जो निर्जीव होता है। इसमें जल की मात्रा 90 प्रतिशत होती है। अनेक प्रकार की वस्तुएं इसमें घुलकर इसकी रचना को जटिल बना देती है। इसमें से लगभग सात प्रतिशत प्रोटीन्स कोलायडी दशा में 0.9 प्रतिशत लवण और 0.1 प्रतिशत ग्लूकोज होता है। शरीर के एक भाग की प्लाज्मा की रचना दूसरे भाग के प्लाज्मा की रचना से एक ही समय में भिन्न हो सकती है, क्योंकि प्लाज्मा से कुछ पदार्थ निकलकर अंगों में और अंगों से प्लाज्मा में आते जाते रहते है। प्लाज्मा में तीन प्रकार के प्रोटीन्स-फाइब्रिनोजन, सीरम एल्बूमिन तथा सीरम ग्लोबूलिन होती है। इनका संलेषण यकृत में होता है। फाइब्रिनोजन रक्त के जमने में प्रयुक्त होती है। इन्हीं के कारण रक्त में परासरण दाब भी होता है जिससे अपने से कम सांद्रता वाले द्रवों को खींच लेने के क्षमता होती है। इसमें सोडियम, परासरण दाब भी होता है जिससे अपने से कम सांद्रता वाले द्रवों को खींच लेने के क्षमता होती है। इसमें सोडियम, पोटेशियम, कैलिसयम, लोहा और मैंग्निशियम के क्लोराइड, फास्फेट, बाई कार्बोनेंट और सलफेट लवण होते हैं। इसमें से सोडियम क्लोराइड और सोडियम बाई कार्बोनेट बहुत ही आवश्यक लवण है। इसके अलावा आक्सीजन, कार्बन डाईआक्साइड और नाइट्रोजन धुलित अवस्था में होती है। पचे हुए भोजन के अलावा उत्सर्जी पदार्थ, विटामिन तथा अंत: स्त्रावी ग्रंथियों में बने हारमोन्स इसमें घुले रहते हैं। जब कभी रक्त में किसी प्रकार के जीवाणु पहुंच जाते हैं तो इसमें विशेष प्रकार की प्रतिरोधी प्रोटीन बनती है जिसे एंटीबाडी कहते हैं। यह उस जीवाणु को प्रभावहीन कर देती है। ऐसे पदार्थ जो रक्त में एन्टीबाडीज का निर्माण करते है ''एन्टीजेन्स'' कहलाते हैं। ये लाल रक्त कणिकाएं में होती है।
इसी प्रकार रक्त कणिकाएं तीन प्रकार की होती है जिनमें लाल रक्त कणिकाएं, सफेद रक्त कणिकाएं और रक्त प्लेटलेटस। लाल रक्त कणिकाएं वास्तव में हल्के पीले रंग की कणिकाओं का पुंज है और जब ये इकटठी होती हैं तो ये लाल रंग के दिखते हैं। ये लाल रंग इसमें उपस्थित प्रोटीन्स ''हीमोग्लोबिन'' के कारण होती है। यह दो भाग-ग्लोबिन प्रोटीन और प्रोटीन रहित हीम से मिलकर बने होते हैं। इसमें लोहा होता हैं। पुरूषों में हीमोग्लोबिन की मात्रा 11 से 19 ग्राम और स्त्रियों में 14 से 18 ग्राम प्रति मिली लीटर की दर से होती है। इसी प्रकार स्वस्थ पुरुषों में लाल रक्त कणिकाओं की संख्या 5 से 5.5 मिलियन प्रति घन मिली लीटर तथा स्वस्थ स्त्रियों में 4 से 5 मिलियन प्रति घन मिली लीटर होता है। लाल रक्त कणिकाओं की संख्या स्वस्थ मनुष्यों की संख्या से अधिक होने पर ''पालिसाइथिमिया'' तथा कम होने के कारण कणिकाओं का सारा हीमोग्लोबिन उसकी सतह पर फैला रहता है जिससे लाला रक्त कणिकाओं की आक्सीजन वाहन क्षमता दूसरों की तुलना में अधिक होती है। हीमोग्लोबिन आक्सीजन को शरीर के अंगों में पहुँचाती है। एक लाल रक्त कणिका में लाखों हीमोग्लोबिन के अणु होते हैं और चूंकि हीमोग्लोबिन के एक अणु में चार लौह परमाणु होते है अत: एक अणु में चार आक्सीजन परमाणु को ग्रहण करने की क्षमता होती है। हमारे शरीर में प्रतिदिन 6.25 ग्राम हीमोग्लोबिन बनता है।
सफेद रक्त कणिकाएं जिसे ल्यूकोसाइट्स भी कहते हैं। इनकी संख्या लाल रक्त कणिकाओं की संख्या से कम होती है, स्वस्थ मनुष्यों में से लगभग 5000 से 10000 प्रति धन मिली लीटर होता है। इन कणिकाओं का सामान्य से अधिक होना ''ल्यूकोपिेनिया'' नामक बीमारी हो जाती है। इसमें हीमोग्लाबिन नहीं होता। इनका आकार अमीबा जैसे तथा केन्द्रक युक्त होता है। सफेद रक्त कणिकाओं में इओसिनोफिल्स कोशिकाएं होती है। इनकी संख्या सारी सफेद कणिकाओं की संख्या का 3 प्रतिशत होती है। मनुष्यों में इनकी संख्या के बढ़ जाने से ''इओसिनोफिलिया'' नामक बीमारी होती है। सफेद रक्त कणिकाओं का कार्य शरीर में आये हानिकारक जीवाणुओं का भक्षण करना है। इनकी इस प्रवृत्ति के कारण इसे ''भक्षाणु'' (फैगोसाइट्स) कहते हैं।
सबसे आश्चर्य जनक तथ्य यह है कि शरीर के किसी भाग में जख्म लगने से रक्त बहने लगता है मगर थोड़ी देर बाद रक्त जम जाता है। यही रक्त शरीर के अंदर नहीं जमता, क्यों ? यह तीसरे प्रकार की कणिका रक्त प्लेटलेड्स की उपस्थिति के कारण होता है। एक स्वस्थ मनुष्य में रक्त जमने में 2 से 5 मिनट लगता है और कभी कभी रक्त जमता ही नहीं और चोट लगे भाग से रक्त स्त्रावित होते रहता है, यह एक बीमारी है और इसे ''हीमोफिलिया'' कहते हैं। शरीर के अंदर ''हिपेरिन'' नामक पदार्थ की उपस्थिति के कारण रक्त नहीं जमता।
यह तो हुई रक्त की बात रक्त में उपस्थित एंटीबाडीज और एंटीजन्स की उपस्थिति से रक्त चार प्रकार के होते हैं जिन्हें A] B] AB और O रक्त समूह से प्रदर्शित किया जाता है। वह व्यक्ति जिसके रक्त में एन्टीजन्स A और एन्टीबाडी B होता है उसे रक्त समूह A में रखा जाता है। इसी प्रकार जिस रक्त में एन्टीजन्स B और एन्टीबाडी A होता है उसे रक्त समूह B में रखा जाता है और जिसमें एन्टीजन्स A और B होता है परन्तु एन्टीबाडी नहीं होता उसे रक्त समूह AB में रखा जाता है। इसी प्रकार जिसमें कोई एन्टीजन्स नहीं होता लेकिन एन्टीबाडी A और B दोनों होता है तब उसे रक्त समूह O में रखा जाता है। जब शरीर में रक्त की कमी होती है तब रक्त देते समय रक्त समूह की जांच आवश्यक होता है। A रक्त समूह के लोग A और O रक्त समूह से रक्त ग्रहण कर सकता है और A तथा AB समूह को रक्त दे सकता है। इसी प्रकार B रक्त समूह B और O के रक्त को ग्रहण कर सकता है B तथा AB समूह को रक्त दे सकता है। मगर AB रक्त समूह वाले लोग A, B, AB और O रक्त समूह का रक्त ग्रहण कर सकता है लेकिन केवल AB रक्त समूह को ही रक्त दे सकता है। इसके इस प्रवृत्ति के कारण इसे ''यूनिवर्सल रिसेप्टर'' कहते है। इसी प्रकार O रक्त समूह सभी रक्त समूह वाले व्यक्ति को रक्त दे सकता है लेकिन केवल O समूह का यही रक्त को ग्रहण कर सकता है। इसके इस प्रवृत्ति के कारण इसे ''यूनिवर्सल डोनेटर'' कहा जाता है। रक्त देते अथवा लेते समय ऐसा नहीं करने से रक्त जम जाता है और व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। रक्त में Rh फेक्टर भी होता है। यह दो प्रकार का होता है- Rh+ और Rh-। विवाह पूर्व रक्त की जांच करते समय रक्त समूह के साथ साथ Rh Factor को भी देखा जाता है। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि Rh- रक्त वाला लड़का Rh- तथा Rh+ दोनों प्रकार के रक्त वाले रक्त वाले लड़की से शादी कर सकता है मगर Rh+ रक्त वाला लड़का को Rh+ रक्त वाले लड़की से ही शादी करना चाहिये, Rh- वाली लड़की से नहीं अन्यथा लड़की के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। इसी प्रकार लड़कियों के रक्त में अगर Rh- फैक्टर है तो उसका विवाह Rh- फैक्टर वाले लड़के से सफल हो सकता है अन्यथा बच्चा एबनार्मल होता है और डिलीवरी के समय जच्चा, बच्चा दोनों के जीवन को खतरा होता है। इससे होने वाली बीमारी को ''इरिथ्रोब्लास्टोसिस फीटेलिस'' कहते हैं। इससे स्वस्थ बच्चा जनने की आशा नहीं होती। स्वस्थ विवाह के लिये निम्न लिखित चार्ट दिया जा रहा है।

उपर्युक्त रक्त समूह वाले चार्ट से आपको स्वस्थ और सुखी परिवार के लिये लड़का और लड़की ढूंढने में सहयोग मिल सकेगा।
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रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा-495671 (छ.ग.)

अश्विनी केशरवानी का मुकुटधर पाण्डेय पर आलेख


अश्विनी केशरवानी का मुकुटधर पाण्डेय पर आलेख
प्रतिभाशाली मुकुट काव्य के मुकुट मनोहर

- प्रो. अश्विनी केशरवानी
महानदी के तट पर रायगढ़-सारंगढ़ मार्ग के चंद्रपुर से 7 कि.मी. की दूरी पर बालपुर ग्राम स्थित है। यह ग्राम पूर्व चंद्रपुर जमींदारी के अंतर्गत पंडित शालिगराम, पंडित चिंतामणि और पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय की मालगुजारी में खूब पनपा। पांडेय कुल का घर महानदी के तट पर धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथों से युक्त था। यहां का एक मात्र निजी पाठशाला पांडेय कुल की देन थी। इस पाठशाला में पांडेय कुल के बच्चों के अतिरिक्त साहित्यकार पंडित अनंतराम पांडेय ने भी शिक्षा ग्रहण की। धार्मिक ग्रंथों के पठन पाठन और महानदी के प्रकृतिजन्य तट पर इनके साहित्यिक मन को केवल जगाया ही नहीं बल्कि साहित्याकाश की ऊँचाईयों तक पहुंचाया...और आठ भाइयों और चार बहनों का भरापूरा परिवार साहित्य को समर्पित हो गया। पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद, पंडित लोचनप्रसाद, बंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर सभी उच्च कोटि के साहित्यकार हुए। साहित्य की सभी विधाओं में इन्होंने रचना की। पंडित लोचनप्रसाद जहां इतिहास, पुरातत्व और साहित्य के ज्ञाता थे वहां पंडित मुकुटधर जी पांडेय साहित्य जगत के मुकुट थे। छायावाद के वे प्रवर्तक माने गये हैं। वे छत्तीसगढ़ के ऐसे एक मात्र साहित्यकार हैं जिन्हें भारत सरकार द्वारा ''पद्मश्री'' अलंकरण प्रदान किया गया है। वे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ प्रांत के गौरव हैं। धीरे धीरे पांडेय कुल का घर महानदी में समाता गया और उनका परिवार रायगढ़ में बसता गया। इस प्रकार रायगढ़ नगर साहित्य कुल से जगमगाने लगा।
सन् 1982 में जब मेरी नियुक्ति रायगढ़ के किरोड़ीमल शासकीय कला और विज्ञान महाविद्यालय में हुई थी तब रायगढ़ जाने की इच्छा नहीं हुई थी। लेकिन ''नौकरी करनी है तो कहीं भी जाना है'' की उक्ति को चरितार्थ करते हुए मैंने रायगढ़ ज्वाइन कर लिया। कुछ दिन तो भागमभाग में गुजर गये। जब मन स्थिर हुआ और सपरिवार रायगढ़ में रहने लगा तब मेरा साहित्यिक मन जागृत हुआ। दैनिक समाचार पत्रों में मेरी रचनाएं नियमित रूप से छपने लगी। नये नये विषयों पर लिखने की मेरी लालसा ने मुझे रायगढ़ की साहित्यिक और संगीत परंपरा की पृष्ठभूमि को जानने समझने के लिए प्रेरित किया। यहां के राजा चक्रधरसिंह संगीत और साहित्य को समर्पित थे। उनके दरबार में साहित्यिक पुरूषों का आगमन होते रहता था। पंडित अनंतराम पांडेय और पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय उनके दरबार के जगमगाते नक्षत्र थे। डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र जैसे साहित्यकार उनके दीवान और पंडित मुकुटधर पांडेय जैसे साहित्यकार दंडाधिकारी थे। ऐसे साहित्यिक पृष्ठभूमि में मेरी लेखनी फली फूली। हमारे स्टॉफ के प्रो. अम्बिका वर्मा, डॉ. जी. सी. अग्रवाल, डॉ. बिहारी लाल साहू, प्रो. मेदिनीप्रसाद नायक, कु. शिखा नंदे, प्रो. दिनेशकुमार पांडेय से मेरा न केवल सामान्य परिचय हुआ बल्कि मैं उनके स्नेह का भागीदार बना। प्रो. दिनेशकुमार पांडेय साहित्यिक पितृ पुरुष पं. मुकुटधर पांडेय के चिरंजीव हैं। उन्होंने मुझे हमेशा प्रोत्साहित किया....और मेरी लेखनी सतत् चलने लगी।
मेरे लिए एक सुखद संयोग बना और एक दिन मुझे श्रद्धेय मुकुटधर जी के चरण वंदन करने का सौभाग्य मिला। मेरे मन में इस साहित्यिक पितृ पुरूष से इस तरह से कभी भेंट होगी, इसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। उन्हें जानकर आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई कि मैं शिवरीनारायण का रहने वाला हूं। थोड़े समय के लिए वे कहीं खो गये। फिर कहने लगे-'शिवरीनारायण तो एक साहित्यिक तीर्थ है, मैं वहां की भूमि को सादर प्रणाम करता हूं जहां पंडित मालिकराम भोगहा और पंडित शुकलाल पांडेय जैसे प्रभृति साहित्यिक पुरूषों ने जन्म लिया और जो ठाकुर जगमोहनसिंह, पंडित हीराराम त्रिपाठी, नरसिंहदास वैष्णव और बटुकसिंह चौहान जैसे साहित्यिक महापुरूषों की कार्य स्थली है। मेरे पुज्याग्रज पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद और पंडित लोचनप्रसाद नाव से अक्सर शिवरीनारायण जाया करते थे। उस समय भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी ठाकुर जगमोहनसिंह वहां के तहसीलदार थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक सुषमा से प्रेरित होकर अनेक ग्रंथों की रचना ही नहीं की बल्कि यहां के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर लेखन की नई दिशा प्रदान की। उन्होंने काशी के ''भारतेन्दु मंडल'' की तर्ज पर शिवरीनारायण में ''जगमोहन मंडल'' बनाया था। उस काल के साहित्यकारों में पंडित अनंतराम पांडेय, पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय, वेदनाथ शर्मा, पं. हीराराम त्रिपाठी, पं. मालिकराम भोगहा, बटुकसिंह चौहान, आदि प्रमुख थे। मेरे अग्रज पंडित लोचनप्रसाद भी शिवरीनारायण जाने लगे थे और उन्होंने मालिकराम भोगहा जी की अलंकारिक शैली को अपनाया भी था। मैं भी उनके साथ शिवरीनारानायण गया तो भगवान जगन्नाथ के नारायणी रूप का दर्शन कर कृतार्थ हो गया। वहां के साहित्यिक परिवेश ने मुझे भी प्रेरित किया..।'
बालपुर और शिवरीनारायण सहोदर की भांति महानदी के तट पर साहित्यिक तीर्थ कहलाने का गौरव हासिल किया है। यह जानकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई। शिवरीनारायण की पवित्र भूमि में जन्म लेकर मेरा जीवन कृतार्थ हो गया। महानदी का संस्कार मुझे भी मिला। जब मैं लेखन की ओर उद्यत हुआ तब मुझे महानदी का कलकल निनाद प्रफुल्लित कर देता था। महानदी का सुन्दर वर्णन पांडेय जी के शब्दों में :-
कितना सुंदर और मनोहर, महानदी यह तेरा रूप।
कल कलमय निर्मल जलधारा, लहरों की है छटा अनूप॥
इसके बाद श्रध्देय पांडेय जी से मैं जितने बार भी मिला, मेरा मन उनके प्रति श्रध्दा से भर उठा। उन्होंने भी मुझे बड़ी आत्मीयता से सामीप्य प्रदान किया। संभव है मुझमें उन्हें शिवरीनारयण के साहित्यिक पुरूषों की झलक दिखाई दी हो ? रायगढ़ में ऐसे कई अवसर आये जब मुझे उनका स्नेह भरा सान्निध्य मिला। 01 और 02 मार्च 1986 को पंडित मुकुटधर जी पांडेय के सम्मान में रायगढ़ में गुरु घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा छायावाद पुनर्मूल्यांकन गोष्ठी में डॉ. विनयमोहन शर्मा, डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन, श्री शरदचंद्र बेहार आदि अन्यान्य साहित्यकारों का मुझे सान्निध्य लाभ मिला। इस अवसर पर विश्वविद्यालय द्वारा श्रद्धेय पांडेय जी को डी.लिट् की मानद उपाधि प्रदान किया गया। यह मेरे लिए एक प्रकार से साहित्यिक उत्सव था।
पांडेय जी के सुपुत्र प्रो. दिनेशप्रसाद पांडेय के परिवार का मैं एक सदस्य हो गया। उनके घर अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकारों के पत्र पं. मुकुटधर पांडेय के नाम देखने को मिला जिसमें साहित्य के अनेक बिंदुओं पर चर्चा की गई थी। डॉ. बल्देवसाव, डॉ. बिहारीलाल, ठाकुर जीवनसिंह, प्रो. जी.सी. अग्रवाल आदि के पास श्रध्देय पांडेय जी की रचनाओं को पढ़ने का सुअवसर मिला। पांडेय जी की श्रेष्ठ कविताओं का संग्रह ''विश्वबोध'' और ''छायावाद एवं श्रेष्ठ निबंध'' का संपादन डॉ. बल्देव साव ने किया है और श्री शारदा साहित्य सदन रायगढ़ ने इसे प्रकाशित किया है। इसी प्रकार उनकी कालिदास कृत मेघदूत का छत्तीसगढ़ी अनुवाद छत्तीसगढ़ लेखक संघ रायगढ़ द्वारा प्रकाशित की गई है। पांडेय जी की ''छायावाद एवं अन्य निबंध'' शीर्षक से म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा श्री सतीश चतुर्वेदी के संपादन में प्रकाशित कर स्तुत्य कार्य किया है। इसी कड़ी में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा श्रद्धेय पांडेय जी के जन्म शताब्दी वर्ष 1995 के अवसर पर प्रभृति साहित्यकारों की रचनाओं का संग्रह प्रकाशित कर एक अच्छी परम्परा की शुरूवात की है।
मुझे हाई स्कूल में मधुसंचय में पं. मुकुटधर पांडेय जी की कविता ''विश्वबोध'' पढ़ने को मिली थी। इस कविता में ईश्वर का दर्शन और शास्त्रों के अध्ययन का बहुत अच्छा चित्रण मिलता है :-
खोज में हुआ वृथा हैरान।
यहां भी था तू हे भगवान॥
गीता ने गुरू ज्ञान बखाना।
वेद पुराण जनम भर छाना॥
दर्शन पढ़े, हुआ दीवाना।
मिटा न पर अज्ञान ॥
जोगी बन सिर जटा बढ़ाया।
द्वार द्वार जा अलख जगाया॥
जंगल में बहु काल बिताया।
हुआ न तो भी ज्ञान ॥
ईश्वर को कहां नहीं ढूंढ़ा, मिला तो वे कृषकों और श्रमिकों के श्रम में, दीन दुखियों के श्रम में, परोपकारियों के सात्विक जीवन में और सच्चे हृदय की आराधना में..। कवि की एक बानगी पेश है :-
दीन-हीन के अश्रु नीर में।
पतितो की परिताप पीर में॥
संध्या की चंचल समीर में।
करता था तू गान॥
सरल स्वभाव कृषक के हल में।
पतिव्रता रमणी के बल में॥
श्रम सीकर से सिंचित धन में।
विषय मुक्त हरिजन के मन में॥
कवि के सत्य पवित्र वचन में।
तेरा मिला प्रणाम ॥
ईश्वर दर्शन पाकर कवि का मन प्रफुल्लित हो उठता है। तब उनके मुख से अनायास निकल पड़ता है:-
देखा मैंने यही मुक्ति थी।
यही भोग था, यही भुक्ति थी॥
घर में ही सब योग युक्ति थी।
घर ही था निर्वाण ॥
शिवरीनारायण की पावन धरा पर जन्म लेकर मेरा जीवन धन्य हो गया। मेरा यह भी सौभाग्य है कि मैं स्व. गोविंदसाव जैसे साहित्यकार का छोटा पौध हूं। महानदी का स्नेह संस्कार, महेश्वर महादेव की कुलछाया और भगवान नारायण की प्रेरणा से ही मेरी लेखनी आज तक प्रवाहित है। मुझे ठाकुर जगमोहनसिंह, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी और पं. शुकलाल पांडेय का साहित्य अगर पढ़ने को नहीं मिला होता तो शायद मैं लेखन की ओर प्रवृत्त नहीं हो पाता। मित्र श्री वीरेन्द्र तिवारी का मैं अत्यंत आभारी हूं जिनके सहयोग से मैं उनके सत्साहित्य को पढ़ने का सौभाग्य पा सका। पंडित शुकलाल पांडेय ने ''छत्तीसगढ़ गौरव'' में मेरे पितृ पुरूष गोविंदसाव का उल्लेख किया है :-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन ।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट छवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि॥
इसी प्रकार उन्होंने पंडित मुकुटधर पांडेय जी के बारे में भी छत्तीसगढ़ गौरव में उल्लेख किया है -
जगन्नाथ है भानु चंद्र बल्देव यशोधर।
प्रतिभाशाली मुकुट काव्य के मुकुट मनोहर।
पदुमलाल स्वर्गीय सुधा सुरसरी प्रवाहक।
परमकृति शिवदास आशुकवि बुध उर शासक।
ज्वालाप्रसाद सत्काव्यमणी तम मोचन लोचन सुघर।
श्री सुन्दरलाल महाकृति कविता कान्ता वर॥
आज जब मैं पंडित मुकुटधर जी पांडेय के बारे में लिखने बैठा हूं तो अनेक विचार-संस्मरण मेरे मन मस्तिष्क में उभर रहे हैं।...फिर वह दिन भी आया जब जीवन के शाश्वत सत्य के सामने सबको हार माननी पड़ती है। 06 नवंबर 1989 को प्रात: 6.20 बजे 95 वर्ष की आयु में उन्होंने महाप्रयाण किया। यह मानते हुये भी कि जीवन नश्वर है, मन अतीव वेदना से भर उठा। विगत अनेक वर्षों से रूग्णता और वृद्धावस्था ने उनकी अविराम लेखनी को यद्यपि विराम दे दिया था। फिर भी उनकी सकाय उपस्थिति से साहित्य जगत अपनी सार्थकता देखता था। एक काया के नहीं रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता, परन्तु साहित्य मनीषी पंडित मुकुटधर पांडेय किसी भी मायने में एक सामान्य व्यक्ति नहीं थे। पुराना दरख्त किसी को कुछ नहीं देता परन्तु उनकी उपस्थिति मात्र का एहसास मन को सांत्वना का बोध अवश्य करा देता है। साहित्य जगत में श्रद्धेय पांडेय जी की मौजूदगी प्रेरणा का अलख जगाने जैसी नि:शब्द सेवा का विधान किया था। कोई भी यहां अमरत्व का वरदान लेकर नहीं आया है लेकिन केवल देह त्याग ही अमरत्व का अवसान नहीं होता। श्रद्धेय पांडेय जी के महाप्रयाण के संदर्भ में तो बिल्कुल नहीं होता। शोकातुर करती है तो यह बात कि हिन्दी काव्य में इस मायने में समस्त भारतीय भाषाओं के काव्य में छायावाद की ओजस्वी धारा को सर्जक जनक के नाते पांडेय जी के चिर मौन होने के साथ ही हमारे बीच से छायावाद का अंतिम प्रकाश सदैव के लिए बुझ गया। उन्हीं के शब्दों में :-
जीवन की संध्या में अब तो है केवल इतना मन काम
अपनी ममतामयी गोद में, दे मुझको अंतिम विश्राम
चित्रोत्पले बता तू मुझको वह दिन सचमुच कितना दूर
प्राण प्रतीक्षारत् लूटेंगे, मृत्यु पर्व को सुख भरपूर।
मैं सोचने लगा -
जिसे हो गया आत्म तत्व का ज्ञान
जीवन मरण उसे है एक समान।
पांडेय जी ने तो एक एक को जीया है, भोगा है। देखिये उनकी कुछ मुक्तक :-
जीवन के पल पल का रखे ख्याल,
कोई पल कर सकता हमें निहाल।
चलने वाली सांसें है अनमोल,
काश समझ सकते हम इनके बोल।
माना नश्वर है सारा संसार,
पर अविनश्वर का ही यह विस्तार।
इसी प्रकार उनसे पूर्व छायावाद की अप्रतिम कवयित्री महादेवी वर्मा हमसे छिन जाने वाली इस कड़ी की अंतिम से पहले की कड़ी थी। पहले होने का गौरव तो केवल पांडेय जी का ही था। लेकिन वही अंतिम कड़ी होंगे किसने सोचा और जाना था ? निश्चय ही पांडेय जी ने भी कभी इसकी कल्पना तक नहीं की होगी। छत्तीसगढ़ की माटी से उन्हें अगाध प्रेम था। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य नदी-पहाड़, पशु-पक्षी सबसे लगाव था। देखिये छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी महानदी की एक बानगी :-
कितना सुंदर और मनोहर महानदी यह तेरा रूप
कलकल मय निर्मल जलधारा, लहरों की है छटा अनूप
तुझे देखकर शैशव की है स्मृतियां उर में उठती जाग
लेता है कैशोर काल का, अंगड़ाई अल्हड़ अनुराग
सिकता मय आंचल में तेरे बाल सखाओं सहित समोद
मुक्तहास परिहास युक्त कलक्रीडा कौतुक विविध विनोद।
इसीलिए अपना ऋण उन्होंने काव्य साधना की दिव्य विधा का संस्थापक बनकर उतारा था। इस धरती ने उन्हें जो कुछ भी दिया उसे उन्होंने साहित्य जगत को लौटाया है। प्रणय की यही संवेदना उनकी कविता का सम्पुट वरदान बनी थी, जिसने भी उसे पढ़ा-सुना उसने दिल से सराहा और स्वीकार किया।
''कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू:'' कवि का स्थान बहुत ऊँचा है, ऐसा स्वीकारने वाले इस साहित्य वाचस्पति का कहना है-'' कविता तो हृदय का सहज उद्गार है। वाद तो बदलते रहते हैं पर कविता में एक हृदयवाद होता है जो कभी नहीं बदलता।'' मानव मन में जो भावानुभूति होती है, वही सार्वजनीन है, सर्वकालिक है। ऐसे मानने वाले इस साहित्यानुरागी का जन्म नवगठित जांजगीर-चांपा जिले के अंतिम छोर चंद्रपुर से मात्र 07 कि.मी. दूर बालपुर में 30 सितंबर 1895 ईसवीं को पंडित चिंतामणी पांडेय के आठवें पुत्र के रूप में हुआ। अन्य भाईयों में क्रमश: पुरूषोत्तम प्रसाद, पद्मलोेचन, चंद्रशेखर, लोचनप्रसाद, विद्याधर, वंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर तथा बहनों में चंदनकुमारी, यज्ञकुमारी, सूर्यकुमारी और आनंद कुमारी थी। सुसंस्कृत, धार्मिक और परम्परावादी घर में वे सबसे छोटे थे। अत: माता-पिता के अलावा सभी भाई-बहनों का स्नेहानुराग उन्हें स्वाभाविक रूप से मिला। पिता चिंतामणी और पितामह सालिगराम पांडेय जहां साहित्यिक अभिरूचि वाले थे वहीं माता देवहुति देवी धर्म और ममता की प्रतिमूर्ति थी। धार्मिक अनुष्ठान उनके जीवन का एक अंग था। अपने अग्रजों के स्नेह सानिघ्य में 12 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने लिखना शुरू किया। तब कौन जानता था कि यही मुकुट छायावाद का ताज बनेगा...?
पांडेय जी की पहनी कविता ''प्रार्थना पंचक'' 14 वर्ष की आयु में स्वदेश बांधव नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। फिर ढेर सारी कविताओं का सृजन हुआ। यहीं से उनकी काव्य यात्रा निर्बाध गति से चलने लगी और उनकी कविताएं हितकारणी, इंदु, स्वदेश बांधव, आर्य महिला, विशाल भारत और सरस्वती जैसे श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हुई। सन् 1909 से 1915 तक की उनकी कविताएं ''मुरली-मुकुटधर पांडेय'' के नाम से प्रकाशित होती थी। उनकी पहली कविता संग्रह ''पूजाफूल'' सन् 1916 में इटावा के ब्रह्यप्रेस से प्रकाशित हुई। तत्कालीन साहित्य मनीषियों-आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, हजारी प्रसाद द्विवेदी और माखनलाल चतुर्वेदी की प्रशंसा से उन्हें संबल मिला और उनकी काव्यधारा बहने लगी। इसी वर्ष पांडेय जी प्रयाग विश्वविद्यालय की प्रवेशिका में उत्तीर्ण होकर इलाहाबाद चले गये। कवि का किशोर मन बाल्यकाल के छूट जाने से अधीर हो उठता है :-
बाल्यकाल तू मुझसे ऐसी आज विदा क्यों लेता है,
मेरे इस सुखमय जीवन को दुखमय से भर देता है।
तीन माह के अल्प प्रवास के बाद पांडेय जी अस्वस्थ होकर बालपुर लौट आते हैं और यहीं स्वाध्याय से अंग्रेजी, बंगला और उड़िया भाषा पढ़ना और लिखना सीखा। गांव में रहकर उन्होंने सादगी भरा जीवन अपनाया
छोड़ जन संकुल नगर निवास किया क्यों विजन ग्राम गेह,
नहीं प्रसादों की कुछ चाह, कुटीरों से क्यों इतना नेह।
उनकी कविताओं में प्रकृति प्रेम सहज रूप में दर्शनीय है। ''किंशुक कुसुम'' में प्रकृति से उनके अंतरंग लगाव की पद्यबद्दता ने कविता में एक अनोखे भावलोक की सर्जना की है। किंशुक कुसुम से उनकी बातचीत ने प्रकृति का जैसे मानवीकरण ही कर दिया। पांडेय जी महानदी से सीधे बात करते लगते हैं :-
शीतल स्वच्छ नीर ले सुंदर बता कहां से आती है,
इस जल में महानदी तू कहां घूमने जाती है।
''कुररी के प्रति'' में एक विदेशी पक्षी से अपनत्व भाव जगाने उनसे वार्तालाप करने लगते हैं। देखिये उनकी एक कविता :-
अंतरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप
ऐसी दारूण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप
शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप
बता तुझे कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप।
सामाजिक मूल्यों के उत्थान पतन को भी उन्होंने निकट से देखा और जाना है। ग्रामीण जीवन की झांकी उनकी कविताओं में दृष्टव्य है। उनके मुक्तकों में दार्शनिकता का बोध होता है। त्योहारों को सामान्य लोगों के बीच आकर्षक बनाने का भी उन्होंने प्रयास किया है :-
कपट द्वेष का घट फोड़ेंगे, होली के संग आज
बड़े प्रेम से नित्य रहेंगे हिन्द हिन्द समाज
फूट को लूट भगावेंगे, ऐता का सुख पावेंगे..।
इस प्रकार मुकुटधर जी का समूचा लेखन जनभावना और काव्य धारा से जुड़ा है। छायावादी कवि होने के साथ साथ उन्होंने छायावादी काव्यधारा से जुड़कर अपनी लेखनी में नयापन लाने की साधना जारी रखी और सतत् लेखन के लिए संकल्पित रहे। यही कारण है कि मृत्युपर्यन्त वे चुके नहीं। उन्होंने सात दशक से भी अधिक समय तक मां सरस्वती की साधना की है। इस अंतराल में पांडेय जी ने जीवन की गति को काफी नजदीक से देखा और भोगा है। उनकी रचनाओं में पूजाफूल (1916), शैलबाला (1916), लच्छमा (अनुदित उपन्यास, 1917), परिश्रम (निबंध, 1917), हृदयदान (1918), मामा (1918), छायावाद और अन्य निबंध (1983), स्मृतिपुंज (1983), विश्वबोध (1984), छायावाद और श्रेष्ठ निबंध (1984), मेघदूत (छत्तीसगढ़ी अनुवाद, 1984) आदि प्रमुख है।
अनेक दृष्टांत हैं जो मुकुटधर जी को बेहतर साहित्यकार और कवि के साथ साथ मनुष्य के रूप में स्थापित करते हैं। उनका समग्र जीवन उपलब्धियों की बहुमूल्य धरोहर है जिससे नवागंतुक पीढ़ी नवोन्मेष प्राप्त करती रही है। उनकी प्रदीर्घ साधना ने उन्हें ''पद्म श्री'' से ''भवभूति अलंकरण'' तक अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित किया है। सन् 1956-57 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा ''साहित्य वाचस्पति'' से विभूषित किया गया। सन् 1974 में पंडित रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर और सन् 1987 में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा डी. लिट् की मानद उपाधि प्रदान किया गया है। 26 जनवरी सन् 1976 को भारत सरकार द्वारा ''पद्म श्री'' का अलंकरण प्रदान किया गया। सन् 1986 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा ''भवभूति अलंकरण'' प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त अंचल के अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित किया गया है। वास्तव में ये पुरस्कार और सम्मान उनके साहित्य के प्रति अवदान को है, छत्तीसगढ़ की माटी को है जिन्होंने हमें मुकुटधर जी जैसे माटी पुत्र को जन्म दिया है। उन्हें हमारा शत् शत् नमन....
काव्य सृजन कर कोई हो कवि मन्य,
जीवन जिसका एक काव्य, वह धन्य।
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प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव डागा कालोनी,
चाम्पा-495671 ( छत्तीसगढ़ )

सोमवार, 17 दिसंबर 2007

18 दिसंबर को जयंती के अवसर पर विशेष


18 दिसंबर को जयंती के अवसर पर विशेष
गिरौदपुरी का चितेरा गुरू घासीदास

प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ पुरातन काल से धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु रहा है। एक ओर जहां छत्तीसगढ़ प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक और भौतिक संपदाओं को अपने गर्भ में समेटकर अग्रणी है, वहीं दूसरी ओर संत-महात्माओं की या तो जन्म स्थली है, तपस्थली या फिर कर्मस्थली। ये किताबी ज्ञान के बुद्धि विलासी न होकर तत्व दर्शन के माध्यम से निरक्षरों के मन मस्तिष्क में छाने में ज्यादा सफल हुये हैं। गुरू घासीदास इसी श्रृंखला के एक प्रकाशमान संत थे। वे यश के लोभी नहीं थे। इसीलिये उन्होंने अपने नाम और यश के लिये कोई चिन्ह, रचना या कृतित्व नहीं छोड़ी। उनके शिष्यों ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। फलस्वरूप आज उनके बारे में लिखित जानकारी पूरी तरह नहीं मिलती। सतनाम का संदेश ही उनकी अनुपम कृति है, जो आज भी प्रासंगिक है॥ डॉ. हीरालाल शुक्ल प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने गुरू घासीदास के व्यक्तित्व और कृतित्व को समग्र रूप में समेटने का स्तुत्य प्रयास किया है। गुरू घासीदास पर उन्होंने तीन ग्रंथ क्रमश: हिन्दी में गुरू घासीदास संघर्ष समन्वय और सिद्धांत, अंग्रेजी में छत्तीसगढ़ रिडिस्कवर्ड तथा संस्कृत में गुरू घासीदास चरित्रम् लिखा है। ये पुस्तकें ही एक मात्र लिखित साक्ष्य हैं। इस सद्कार्य के लिये उन्हें साधुवाद दिया जाना चाहिये।
रायपुर जिला गजेटियर के अनुसार गुरू घासीदास का जन्म 18 दिसंबर सन् 1756 को एक श्रमजीवी परिवार में बलौदाबाजार तहसील के अंतर्गत महानदी के किनारे बसे गिरौदपुरी ग्राम में हुआ। यह गांव छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी शिवरीनारायण से मात्र 11 कि.मी. दूर है। इनके पिता का नाम मंहगू और माता का नाम अमरौतिन बाई था।
अमरौतिन के लाल भयो, बाढ़ो सुख अपार,
सत्य पुरूष अवतार लिन्हा, मंहगू घर आय किन्हा।
उनके जन्म को सोहर गीत में अमरौतिन के पूर्व जन्म का पुण्य बताया गया है। देखिये सोहर गीत की एक बानगी :-
हो ललना धन्य
अमरौतिन तोर भाग्य
दान पुण्य होवत हे अपार
सोहर पद गावत हे
आनंद मंगल मनावत हे
सोहर पद गावत हे...।
घासीदास का विवाह सिरपुर के अंजोरी की पुत्री सफुरा बाई से हुआ था। उनके चार पुत्र क्र्रमश: अमरदास, बालकदास, आगरदास, अड़गड़िया दास और एक पुत्री सुभद्रा थी। अपने पांचों भाईयों में घासीदास मंझले थे। इनके बचपन का नाम घसिया था। वे संत प्रकृति के थे। उनके साथ अनेक अलौकिक घटनाएं जुड़ी हुई है जिसमें आसमान में बिना सहारे कपड़े सुखाना, हल को बिना पकड़े जोतना, एक टोकरी धान को पूरे खेत में बोने के बाद भी टोकरी का धान से भरा होना, पानी में पैदल चलना और मंत्र शक्ति से आग जलाना आदि प्रमुख है।
प्रारंभ से ही घासीदास का मन घरेलू तथा अन्य सांसारिक कार्यों में नहीं लगता था। फिर भी उन्हें अपने पिता के श्रम में भागीदार बनना ही पड़ता था। एक बार इस क्षेत्र में भीषण आकाल पड़ा जिससे उन्हें अपने परिवार के आजीविका के लिये दर दर भटकना पड़ा। अंत में वे परिवार सहित उड़ीसा के कटक शहर पहुंचे। यहां वे मजदूरी करने में अपना मन लगा पाते, इसके पूर्व ही उनकी मुलाकात बाबा जगजीवनदास से हुई। बाबा जगजीवनदास उस समय उड़ीसा के सुप्रसिद्ध संत माने जाते थे। घासीदास ने उनसे सतनाम की शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने उनके मन को जगाया और उन्हें बताया कि उनका जन्म सांसारिक कार्यों के लिये बल्कि लोगों को सद्मार्ग दिखाने के लिये हुआ है। कटक से लौटकर घासीदास सोनाखान के बीहड़ वन प्रांतर में जोंक नदी के किनारे तप करने लगे। यहां उन्हें सत्य की अनुभूति हुई और उन्हें सिद्धि मिली। इसके पश्चात् वे भंडारपुरी में आश्रम बनाकर सांसारिक भोग विलास का परित्याग कर जन कल्याण में अपना जीवन समर्पित कर दिया।
18वीं सदी के उत्तरार्ध्द और 19वीं सदी के पूर्वार्ध्द में छत्तीसगढ़ के लोगों के सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिये यदि किसी महापुरूष का योगदान रहा है तो सतनाम के अग्रदूत, समता के संदेश वाहक और क्रांतिकारी सद्गुरू घासीदास का है। समकालीन विचार कमजोर और पिछड़े वर्ग के जीवन दर्शन को जितना गुरू घासीदास ने प्रभावित किया है, उतना किसी अन्य ने नहीं किया है। उन्होंने केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि देश के अन्य भागों में लोगों को जो सतनाम का संदेश दिया है वह युगों युगों तक चिरस्मरणीय रहेगा। इसके अतिरिक्त उन्होंने समता, बंधुत्व, नारी उद्धार और आर्थिक विषमता को दूर करने के लिये एक समग्र क्रांति का आव्हान किया। वे एक समदर्शी संत के रूप में छत्तीसगढ़ में सामाजिक चेतना लाने में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनका आध्यात्मिक और दार्शनिक व्यक्तित्व के बारे में कहा जाता है कि वे हिमालय की भांति उच्च औ र महान थे। पंथी गीत में भी गाया जाता है :-
श्वेत वरण अंग सो है, सिर कंचन के समान विशाला।
श्वेत साफा, श्वेत अंगरखा, हिय बिच तुलसी के माला।
एहि रूप के नित ध्यान धरौ, मिटे दुख दारूण तत्काला।
श्वांस त्रास जम के फांस मिटावत हे मंहगू के लाला॥
छत्तीसगढ़ में गुरू घासीदास का आविर्भाव उस समय हुआ जब इस क्षेत्र का धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पूरी तरह दूषित हो गयी थी। एक ओर जहां राजनीतिक एकता का अभाव था, सर्वत्र अशांति थी, वहीं दूसरी ओर सामाजिक विघटन और कटुता भरा वातावरण था। मराठा शासन के कारण चारों ओर भय, आतंक असुरक्षा और अशांति थी। शासन के नाम पर मराठा आततायियों तथा उनके स्थानीय उच्च वर्गीय अनुयायियों का अत्याचार अपनी पराकाष्ठा पर था। धार्मिक, आध्यात्मिक तथा सात्विकता की भावना का पूरी तरह आभाव था। सम्पूर्ण क्षेत्र में विषमता, दमन, अराजकता और मिथ्याभिमान विद्यमान था। ऐसी परिस्थितियों में निश्चित रूप से किसी युग पुरूष की आवश्यकता थी जो इस व्यवस्था में सुधार ला सके। ऐसे समय में गुरू घासीदास का जन्म एक वरदान था। उन्होंने अपने अंतर्मन के विश्वास और सतनाम के दिव्य संदेश से सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के दिग्भ्रमित लोगों को सही रास्ता दिखाया। उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत निम्नलिखित है :-
· सत्य ही ईश्वर है और उसका सत्याचारण ही सच्चा जीवन है।
· सत्य का अन्वेषण और प्राप्ति गृहस्थ आश्रम में सत्य के मार्ग में चलकर भी किया जा सकता है।
· ईश्वर निर्गुण, निराकार और निर्विकार है। वह सतनाम है। वह शुद्ध, सात्विक, निश्छल, निष्कपट, सर्व शक्तिमान और सर्व व्याप्त है।
· सत्य के रास्ते में चलकर और शुद्ध मन से भक्ति करके ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
· धर्म का सार अहिंसा, प्रेम, परोपकार, एकता, समानता और सभी धर्मो के प्रति सद्भाव रखना है।
· अहिंसा एक जीवन दर्शन है, दया एक मानव धर्म है। संयम, त्याग और परोपकार सतनाम धर्म है।
· गुरू घासीदास ने सतनाम का जो दार्शनिक सिद्धांत दिया वह निरंतर अनुभूति के तत्व दर्शन पर आधारित है। वह उनकी आजीवन तपस्या, चिंतन, मनन और साधना का प्रतिफल है। यह उनके अलौकिक ज्ञान तथा दिव्य अनुभूति पर आधारित है। उन्होंने न केवल डत्तीसगढ़ को एकरूपता प्रदान की बल्कि एक संस्कृति और एक जीवन दर्शन दिया। उनका उपदेश सम्पूर्ण मानवता के लिये कल्याणकारी है। जो निम्नानुसार है :-
1. दया, अहिंसा के रूप में ईश्वर तक पहुंचने का साधन है।
2. मांस तथा नशीली वस्तुओं का सेवन पाप है। यह हमें ईश्वर तक नहीं पहुंचने देता और दिग्भ्रमित कर देता
है।
3. सभी धर्मों के प्रति समभाव तथा सहिष्णुता रखना चाहिये। सभी धर्मों का लक्ष्य एक ही है।
4. जाति भेद, ऊंच नीच और छुआछूत का भेदभाव ईश्वर तक पहुंचने में व्यवधान उत्पन्न करता है।
5. मानवता की पूजा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है। दलितों और पीड़ितों की सेवा ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है और मानवता की आराधना ही सच्चा कर्मयोग है।
..अपने विचारों को गुरू घासीदास ने सात सूत्रों में बांधा है जो सतनाम पंथ के प्रमुख सिद्धांत है :-
सतनाम पर विश्वास रखो
मूर्ति पूजा मत करो
जाति भेद के प्रपंच में मत पड़ो
मांसाहार मत करो
शराब मत पीयो
परस्त्री को मां-बहन समझो।
नि:संदेह गुरू घासीदास के सतनाम के द्वारा भारतीय समाज को एक व्यावहारिक दर्शन का ज्ञान कराकर भारतीय संस्कृति को सुदृढ़ बनाया है। इस पंथ के लोगों द्वारा अक्सर गाया जाता है :-
हिंदू हिंसा जर छुआछूत माने हो,
पथरा ला पूज पूज कछु नई पावे हो
कांस पीतल ला भैया मूरचा खाही हो
लकड़ी कठवा ल घुना खाही हो
सब्बो घट म सतनाम हर समाही हो
गुरू घासीदास मन के भूत ल भगाही हो।
जीव बलिदान ला गुरू बंद करावे हो
सत्यनाम टेरत राखे रहियो मन में
माटी के पिंजरा ला परख ले तोर मन में
यह माटी तन म समाही हो
यह मानुष तन बहुरि नई आही हो
गुरू घासीदास कह सुन ले गोहार हो
सतनाम भज के तोर हंसा ल उतार हो
संत समाज म मन ल लगाइ ले
निरख निरख के भक्ति जगाइ ले।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार चोपड़ा, पुरी और श्रीदास ने मैकमिलन कम्पनी द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'ए सोसल कल्चरल एंड इकोनामिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया' के भाग तीन में लिखा है -'18वीं शताब्दी में अवध के बाबा जगजीवनदास ने एक अलग धार्मिक पंथ बनाया जो कि सतनाम पंथ कहलाया-सत्य और ज्ञान पर विश्वास करने वाला..। इस पंथ के लोग उत्तरी भारत में दूर तक विस्तृत रूप में फैले हैं। इस पंथ को दो भागों में बांटा गया है- एक गृहस्थ और दूसरा भिक्षुक। इस पंथ के पहले लोग अपना जाति लिखना शुरू कर दिये जबकि दूसरे लोग जाति लिखना छोड़ दिये। सेंट्रल प्राविन्स में उन दिनों सतनामी समाज एक सम्प्रदाय के रूप में आया। ये सतनामी उस समय के उच्च धार्मिक विचारों के लोगों की अनुमति के बगैर ईश्वर की पूजा अर्चना कर सकने में असमर्थ थे। इस सम्प्रदाय के गुरू घासीदास ही थे जो मध्य युगीन सतनामी समाज में विश्वास और उपासना विधि को जीवित रखना चाहते थे तथा उनमें अभिनव चेतना लाने की आकांक्षा रखते थे। उन्होंने प्रचारित किया कि वास्तविक भगवान उनके सतनाम में प्रकट होते हैं। ईश्वर की नजर में सभी समान हैं। इसलिये मानव समाज में कोई भेद नहीं होना चाहिये जैसा कि जाति प्रथा से भेदभाव परिलक्षित होता है। छत्तीसगढ़ में सतनाम आंदोलन पिछड़े, निम्न और अछूत समझे जाने वाले वर्गो में धार्मिक और सामाजिक चेतना लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। 19वीं सदी में इस ांदोलन ने अंधविश्वासी हिन्दू जाति विशेषकर प्रिस्टली क्लास के लोगों को भयभीत किया और समस्त लोगों के बीच आपसी सद्भावना हेतु बाध्य कर दिया।''
छत्तीसगढ़ की सुंदर समन्वित संस्कृति पर गुरू घासीदास द्वारा स्थापित सतनाम के बारे में सुप्रसिद्ध साहित्य चिंतक डॉ. विमलकुमार पाठक ने लिखा है कि यहां के हरिजन संत गुरू घासीदास द्वारा प्रवर्तित सत्यज्ञान अथवा सतनाम के अनुयायी होकर सतनामी सम्बोधित होते हैं। वे सात्विक विचार से युक्त होते हुये द्विज सदृश्य यज्ञोपवित से सुशोभित हुये हैं। गुरू घासीदास की जन्म भूमि और तपोभूमि गिरौदपुरी तथा कर्मभूमि भंडारपुरी था जहां वे अपना संदेश दिये। आज वे स्थान सतनामी समाज के धार्मिक और सांस्कृतिक तीर्थ स्थल हैं।
इतने बड़े ज्योति पुरूष एवं समदर्शी संत की इतने दिनों तक उपेक्षा सचमुच मानवता की उपेक्षा थी। उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिये तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने सन् 1983 में बिलासपुर में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय की स्थापना की। तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार का यह प्रयास सचमुच प्रशंसनीय है। 25 नवंबर सन् 1985 को गुरू घासीदास विश्वविद्यालय के प्रथम दीक्षांत समारोह में विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति श्री शरतचंद्र बेहार ने कहा था-''छत्तीसगढ़ विभिन्न संस्कृतियों का संगम होने के कारण बौद्धिक उदारता और सहनशीलता इस क्षेत्र की विशेषता रही है। इसलिये देश के अन्य हिस्सों से ऐसे लोग जो तत्कालीन मुख्य विचारधारा और व्यवस्था से असहमत थे, यहां आकर अपने विचारों के लिये समर्थन और आश्रय खोज रहे हैं इसी कारण यहां कबीर पंथी की बड़ी संख्या है। मतभेद का घोषनाद करने वालों की परम्परा में 19 वीं शताब्दी की शुरूवात में गुरू घासीदास ने समाज की कठोर जाति प्रथा तथा उससे जुड़ी सामाजिक, आर्थिक शोषण की प्रक्रियाओं से विद्रोह किया। मूर्ति पूजा का विरोध कर निराकार ईश्वर पर विश्वास करने तथा सामाजिक औपचारिकताओं के खिलाफ आवाज उठाने के कारण स्व. श्रीकांत वर्मा ने उनके दर्शन को ''अवतारों से विद्रोह'' निरूपित किया है। समाज को संगठित कर उनमें आत्म सम्मान की भावना बढ़ाने तथा एक क्षमता मूलक सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था की स्थापना के लिये ठोस कदम उठाने वाले ऐसे कर्मयोगी की उपलब्धियों का आकलन करने पर ''दलितों का मसीहा'' की सशक्त एवं सुस्पष्ट क्षवि मेरे मन में अंकित होता है। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में गुरू घासीदास ने अन्यों की उपेक्षा को देखा समझा और उसका विरोध किया। उसने जिस तरह से हरिजनों और समाज के पिछड़े वर्गा को संगठित कर उसका नेतृत्व किया वह 20वीं शताब्दी के अंत में भी बहुत कम लोग कर सकते हैं।''
बहरहाल, सद्गुरू घासीदास अन्याय तथा सामाजिक बुराईयों के विरूद्ध संघर्ष करने तथा पिछड़े लोगों के जीवन में सम्मान की भावना पैदा करने की दृष्टि से क्रांतिकारी उपदेश देने के लिये हमेशा याद किये जायेंगे। यदि हम उनके सिद्धांतों का अंश मात्र भी पालन करें तो अनेक सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समस्याओं का निराकरण स्वयमेव हो जायेगा। इन अर्थो में गुरू घासीदास आज भी प्रासंगिक हैं।
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रचना, लेखन, फोटो एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी
चांपा- 495671 (छ. ग.)

छत्तीसगढ़ के गौरव पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय


छत्तीसगढ़ के गौरव पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय

(पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय)
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ जैसे वनांचल के किसी ग्रामीण कवि को साहित्य का सर्वोच्च सम्मान “साहित्य वाचस्पति” दिया जाये तो उसकी ख्याति का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। बात तब की है जब इस सम्मान के हकदार गिने चुने लोग थे। छत्तीसगढ़ की भूमि को गौरवान्वित करने वाले महापुरूष बालपुर के प्रतिष्ठित पाण्डेय कुल के जगमगाते नक्षत्र पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय थे। उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा सन् 1948 में मेरठ अधिवेशन में साहित्य वाचस्पति से सम्मानित किया गया था। वे इस सम्मान से विभूषित होने वाले छत्तीसगढ़ के पहले व्यक्ति थे। इस सम्मान को पाले वाले व्यक्तियों को पाण्डेय जी ने इस प्रकार रेखांकित किया है :-
गर्व गुजरात को है जिनकी सुयोग्यता का,
मुंशीजी कन्हैयालाल भारत के प्यारे हैं
विश्वभारती है गुरूदेव का प्रसिद्ध जहॉ
उस बंगभूमि के सुनीति जी दुलारे हैं
ब्रज माधुरी के सुधा सिंधु के सुधाकर में
विदित वियोगी हरि कवि उजियारे हैं
मंडित “साहित्य वाचस्पति” पदवी से हुए
लोचन प्रसाद भला कौन सुनवारे हैं।
बाद में इस अलंकरण से छत्तीसगढ़ के अनेक साहित्यकार विभूषित किये गये। कहना अनुचित नहीं होगा कि छत्तीसगढ़ में अन्यान्य उच्च कोटि के साहित्यकार हुए। पंडित शुकलाल पाण्डेय की एक कविता देखिये:-
यही हुए भवभूति नाम संस्कृत के कविवर
उत्तर राम चरित्र ग्रंथ है जिसका सुन्दर
वोपदेव से यही हुए हेैं वैयाकरणी
है जिसका व्याकरण देवभाषा निधितरणी
नागर्जुन जैसे दार्शनिक और सुकवि ईशान से
कोशल विदर्भ के मध्य में हुए उदित शशिभान से ।
छत्तीसगढ़ की माटी को हम प्रणाम करते हैं जिन्होंने ऐसे महान् सपूतों को जन्म दिया है। छत्तीसगढ़ वंदना की एक बानगी स्वयं पाण्डेय जी के मुख से सुनिए:-
जयति जय जय छत्तीसगढ़ देस
जनम भूमि, सुखर सुख खान ।
जयति जय महानदी परसिद्ध
सोना-हीरा के जहॉ खदान ॥
जहॉ के मोरध्वज महाराज
दान दे राखिन जुग जुग नाम ।
कृष्ण जी जहॉ विप्र के रूप
धरे देखिन श्री मनिपुर धाम ॥
जहॉ है राजिवलोचन तिरिथ
अउ, सबरीनारायण के क्षेत्र ।
अमरकंटक के दरसन जहॉ
पवित्तर होथे मन अउ नेत्र ॥
जहॉ हे ऋषभतीर्थ द्विजभूमि
महाभारत के दिन ले ख्यात् ।
आज ले जग जाहिर ऐ अमिट
जहॉ के गाउ दान के बात ॥
मुझे यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि यह मेरी भी जन्म स्थली है। मुझे यह विधा विरासत में मिली है। क्योंकि प्राचीन काल में महानदी का तटवर्ती क्षेत्र बालपुर, राजिम और शिवरीनारायण सांस्कृतिक और साहित्यिक तीर्थ थे। उस काल के केंद्र बिंदु थे- शिवरीनारायण के तहसीलदार और सुप्रसिद्ध साहित्यकार ठाकुर जगमोहन सिंह जिन्होंने छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को केवल समेटा ही नहीं बल्कि उन्हें एक दिशा भी दी है। उस काल की रचनाधर्मिता पर पाण्डेय जी के अनुज पंडित मुकुटधर पाण्डेय के विचार दृष्टव्य है- “मुझे स्मरण होता है कि भाई साहब ने जब लिखना शुरू किया तब छत्तीसगढ़ में हिन्दी लिखने वालों की संख्या उंगली में गिनने लायक थीं। जिनमें रायगढ़ के पं. अनंतराम पाण्डेय, परसापाली के पं. मेदिनीप्रसाद पाण्डेय, शिवरीनारायण के ठाकुर जगमोहन सिंह, पं. मालिक राम भोगहा, हीराराम त्रिपाठी, धमतरी के कृष्णा नयनार, कवि बिसाहूराम आदि प्रमुख थे। छत्तीसगढ़ी व्याकरण लिखने वाले काव्योपाध्याय हीरालाल दिवंगत हो चुके थे। राजिम के पं. सुंदरलाल शर्मा की छत्तीसगढ़ी दानलीला नहीं लिखी गई थी। माधवराव सप्रे का पेंड्र्ा से निकलने वाला 'छत्तीसगढ़ मित्र' नामक मासिक पत्र बंद हो चुका था और वे नागपुर से 'हिन्द केसरी' नामक साप्ताहिक पत्र निकालने लगे थे। भाई साहब सप्रेजी को गुरूवत मानते थे। मालिक राम भोगहा से हमारे ज्येष्ठ भ््रा्राता पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पाण्डेय की मित्रता थी और वे नाव की सवारी से बालपुर आया करते थे। वे ठा. जगमोहन सिंह के शिष्य थे। उनकी भाषा अनुप्रासालंकारी होती थी। भाई साहब उन्हें अग्रज तुल्य मानते थे। प्रारंभ में भाई साहब की लेख्न शेैली उनसे प्रभावित थी, उनका गद्य भी अनुप्रास से अलंकृत रहता था।”
“मैं कवि कैसा हुआ” शीर्षक से लिखे लेख के प्रारंभ में लोचन प्रसाद जी लिखते हैं :-”एक दिन शाम को मैं काम से आकर आराम से अपने धाम में बैठकर मन रूपी घोड़े की लगाम को थाम उसे दौड़ाता फिरता तथा मौज से हौज में गोता लगाता था कि मेरी कल्पना की दृष्टि में एकाएक कवि की छवि चमक उठी।“ यही उनकी लेखनी के प्रेरणास्रोत थे। हालांकि उन्होंने लेखन की शुरूवात काव्य से किया मगर बाद में वे इतिहास और पुरातत्व में भी लिखने लगे।
उनकी पहली रचना सन् 1904 में बालकृष्ण भट्ट के हिन्दी प्रदीप में प्रकाशित हुई। फिर उनकी रचनाएं सन् 1920 तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित होती रही। इस बीच उनके करीब 48 पुस्तकें विभिन्न प्रकाशनों द्वारा प्रकाशित हुईं उनकी प्रथम काव्य संग्रह “प्रवासी” सन् 1907 में राजपूत एंग्लो इंडियन प्रेस आगरा से प्रकाशित हुई। यह पाण्डेय कुल से प्रकाशित होने वाला पहला काव्य संग्रह था। इसके पूर्व 1906 में उनका पहला हिन्दी उपन्यास “दो मित्र” लक्ष्मीनारायण प्रेस मुरादाबाद से प्रकाशित हो चुका था। इसी प्रकार खड़ी बोली में लिखी गई लघु कविताओं का संग्रह “नीति कविता” 1909 में मड़वाड़ी प्रेस नागपुर से प्रकाशित हुआ। नागरी प्रचारणी सभा बनारस ने इसे “उत्तम प्रकाशित उपयोगी पुस्तक” निरूपित किया। सन् 1910 में पांडेय जी ने ब्रज और खड़ी बोली के नये पुराने कवियों की रचनाओं का संकलन-संपादन करके “कविता कुसुम माला” शीर्षक से प्रकाशित कराया। इससे उन्हें साहित्यिक प्रतिष्ठा मिली और उनकी गणना द्विवेदी युग के शीर्षस्थ रचनाकारों में होने लगी। तब वे 24-25 वर्ष के नवयुवक थे। फिर उनकी भक्ति उपहार, भक्ति पुष्पांजलि और बाल विनोद जैसी शिक्षाप्रद रचनाएँ छपीं। फिर उनके रचनाकाल का उत्कर्ष आया। सन् 1914 में माधव मंजरी, मेवाड गाथा, चरित माला और 1915 में पुष्पांजलि, पद्य पुष्पांजलि जैसी महत्वपूर्ण कृतियॉ प्रकाशित हुई।
20 वीं सदी के प्रारंभिक वर्षो में जब श्रीधर पाठक ने गोल्ड स्मिथ के “डेजर्टेेड विलेज” का “उजाड़ गॉव” के नाम से अनुवाद किया था। उसी तर्ज में पाण्डेय जी ने भी “ट्रेव्हलर” की शैली में “प्रवासी” लिखा है। जो अनुवाद नहीं बल्कि मौलिक रचना है। इस संग्रह में छत्तीसगढ़ के ग्राम्य जीवन की झांकी देखने को मिलता है। “कविता कुसुम माला” में ब्रज भाषा में पाण्डेय जी की कविताएं संग्रहित हैं।
हिन्दी नाटक के विकास में पाण्डेय जी का अभूतपूर्व योगदान है। उन्होंने प्रेम प्रशंसा या गृहस्थ दशा दर्पण, साहित्य सेवा, छात्र दुर्दशा, ग्राम विवाह, विधान और उन्नति कहॉ से होगी, आदि नाटकों की रचना की है। उन्होंने सन् 1905 में “कलिकाल” नामक नाटक लिखकर छत्तीसगढ़ी भाषा में नाटय लेखन की शुरूवात की। आचार्य रामेश्वर शुक्ल अंचल ने पाण्डे जी की गणना हिन्दी के मूर्धन्य निबंधकारों में की है। लेकिन आचार्य नंददुलारे बाजपेयी ने पाण्डेय जी को स्वच्छदंतावादी काव्य की पुरोधा मानते हुए लिखा है - “लोचन प्रसाद पाण्डेय के काव्य में संस्कृत छंद और भाषा का अधिक स्पष्ट निदर्शन है। उनके काव्य में पौराणिकता की छाप भी है। इसमें संदेह नहीं कि उनकी कविता पर उड़िया और बांगला भाषा का स्पष्ट प्रभाव है। उनकी सारी रचनाएँ उपदेशोन्मुखी है”
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने “कविता कलाप” में पं. लोचन प्रसाद जी की रचनाओं को स्थान दिया है और श्री नाथूराम शंकर शर्मा, लोचन प्रसाद पाण्डेय, रामचरित उपाध्याय, मैथिलीशरण गुप्त और कामता प्रसाद गुरू को “कवि श्रेष्ठ” घोषित किया है।
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय को हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, उड़िया, बंग्ला, पाली, संस्कृत आदि अनेक भाषाओं का ज्ञान था। इन भाषाओं में उन्होंने रचनाएं की है। उनकी साहित्यिक प्रतिभा से प्रभावित होकर बामुण्डा; उड़िसा के नरेश द्वारा उन्हें “काव्य विनोद” की उपाधि सन् 1912 में प्रदान किया गया। प्रांतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन गोंदिया में उन्हें “रजत मंजूषा” की उपाधि और मान पत्र प्रदान किया गया। पं. शुकलाल पाण्डेय “छत्तीसगढ़ गौरव” में उनके बारे में लिखते हैं -
यही पुरातत्वज्ञ-सुकवि तम मोचन लोचन
राघवेन्द्र से बसे यहीं इतिहास विलोचन ।
ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी पं. लोचन प्रसाद पांण्डेय जी का जन्म जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत महानदी के तटवर्ती ग्राम बालपुर के सुपरिचित पाण्डेय कुल में पौष शुक्ल दशमी विक्रम संवत 1943 तदनुसाद 4 जनवरी सन् 1887 को पं. चिंतामणी पांडेय के चतुर्थ पुत्र रत्न के रूप में हुआ। वे आठ भाई सर्व श्री पुरूषोत्तम प्रसाद, पदमलोचन, चन्द्रशेखर, लोचन प्रसाद, विद्याधर, वंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर तथा चार बहन चंदन कुमारी, यज्ञ कुमारी, सूर्य कुमारी, और आनंद कुमारी थीं। उनकी माता देवहुति ममता की प्रतिमूर्ति थी। पितामह पंडित शालिगराम पांडेय धार्मिक अभिरूचि और साहित्य प्रेमी थे। उनके निजी संग्रह में अनेक धर्मिक और साहित्यिक पुस्तकें थी। आगे चलकर साहित्यिक पौत्रों ने प्रपितामही श्रीमती पार्वती देवी की स्मृति में “पार्वती पुस्तकालय” का रूप दिया। ऐसे धार्मिक और साहित्यिक वातावरण में वे पले-बढ़े। प्रारंभिक शिक्षा बालपुर के निजी पाठशाला में हुई। सन् 1902 में मिडिल स्कूल संबलपुर से पास किये और सन् 1905 में कलकत्ता वि0 वि0 से इंटर की परीक्षा पास करके बनारस गये जहॉ अनेक साहित्य मनीषियों से संपर्क हुआ। अपने जीवन काल में अनेक जगहों का भ्रमण किया। साहित्यिक गोष्ठियों, सम्मेलनों, कांग्रेस अधिवेशन, इतिहास-पुरातत्व खोजी अभियान में सदा तत्पर रहें। उनके खोज के कारण अनेक गढ, शिलालेख, ताम्रपत्र, गुफा प्रकाश में आ सके। सन् 1923 में उन्होंने “छत्तीसगढ़ गौरव प्रचारक मंडली” बनायी जो बाद में “महाकौशल इतिहास परिषद” कहलाया। उनका साहित्य इतिहास और पुरातत्व में समान अधिकार था। 8 नवम्बर सन् 1959 को वे स्वर्गारोहण किये। उन्हें हमारा शत् शत् नमन..
“कमला” के संपादक पं. जीवानन्द शर्मा के शब्दों में -
लोचन पथ में आय, भयो सुलोचन प्राण धम
अब लोचन अकुलाय, लखिबों लोचन लाल को।
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पंडित लोचनप्रसाद पांडेय की रचनाएं
1. कलिकाल (छत्तीसगढ़ी नाटक, 1905)
2. प्रवासी (काव्य संग्रह, 1906)
3. दो मित्र (उपन्यास, 1906)
4. बालिका विनोद (1909)
5. नीति कविता, 1909
6. हिन्दू विवाह और उसके प्रचलित दूषण, 1909
7. कविता कुसुममाला, 1909
8. कविता कुसुम (उड़िया काव्य संग्रह, 1909)
9. रोगी रोगन (उड़िया काव्य संग्रह, 1909)
10. भुतहा मंडल, 1910
11. महानदी (उड़िया काव्य संग्रह, 1910)
12. दिल बहलाने की दवा, 1910
13. शोकोच्छवास, 1910
14. लेटर्स टू माई ब्रदर्स, 1911
15. रघुवंश सार (अनुवाद, 1911)
16. भक्ति उपहार (उड़िया रचना, 1911)
17. सम्राट स्वागत, 1911
18. राधानाथ राय : द नेशनल पोएट ऑफ ओरिसा, 1911
19. द वे टू बी हैप्पी एंड गे, 1912
20. भक्ति पुप्पांजलि, 1912
21. त्यागवीर भ्राता लक्ष्मण, 1912
22. हमारे पूज्यपाद पिता, 1913
23. बाल विनोद, 1913
24. साहित्य सेवा, 1914
25. प्रेम प्रशंसा (नाटक, 1914)
26. माधव मंजरी (नाटक, 1914)
27. आनंद की टोकरी (नाटक, 1914)
28. मेवाड़गाथा (नाटक, 1914)
29. चरित माला (जीवनी, 1914)
30. पद्य पुष्पांजलि, 1915
31. माहो कीड़ा (कृषि, 1915)
32. छात्र दुर्दशा (नाटक, 1915)
33. क्षयरोगी सेवा, 1915
34. उन्नति कहां से होगी (नाटक, 1915)
35. ग्राम्य विवाह विधान (नाटक, 1915)
36. पुष्पांजलि (संस्कृत, 1915)
37. भर्तृहरि नीति शतक (पद्यानुवाद, 1916)
38. छत्तीसगढ़ भूषण काव्योपाध्याय हीरालाल (जीवनी, 1917)
39. रायबहादुर हीरालाल, 1920
40. महाकोशल हिस्टारिकल सोसायटी पेपर्स भाग 1 एवं 2
41. जीवन ज्योति, 1920
42. महाकोसल प्रशस्ति रत्नमाला, 1956
43- कौसल कौमुदी, पं. रविशंकर शुक्ल वि.वि. रायपुर से प्रकाशित
44- समय की शिला पर, गुरू घासीदास वि.वि. बिलासपुर द्वारा प्रकाशित
अप्रकाशित रचनाएं :-
45- मनोरंजन
46- युद्ध संगीत
47- स्वदेशी पुकार
48- सोहराब वध (उड़िया)
49- कविता कुसुम (छत्तीसगढ़ी)
50- कालिदास कृत मेघदूत का अनुवाद
51- आटोबायोग्राफी (अंग्रेजी)
52- फोकटेल्स ऑफ बेंगाल (अंग्रेजी)
53- केदार गौरी, राधानाथ राय के उड़िया काव्य का पद्यानुवाद
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रचना, लेखन, फोटो एवं प्रस्तुति:
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)

गुरुवार, 29 नवंबर 2007

पंडित मालिकराम भोगहा का साहित्यिक अवदान


पंडित मालिकराम भोगहा का साहित्यिक अवदान
पुण्यतिथि : 30 नवंबर पर विशेष
पंडित मालिकराम भोगहा का साहित्यिक अवदान

प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ प्रदेश अनेक अर्थों में अपनी विशेषता रखता है। यहां ऐतिहासिक और पुरातात्विक अवशेषों का बाहुल्य है जो अपनी प्राचीनता और वैभव सम्पन्नता की गाथाओं को मौन रहकर बताता है लेकिन इसके प्रेरणाास्रोत और विद्वतजन गुमनामी के अंधेरे में खो गये। उन दिनों आत्मकथा लिखने की पिपासा नहीं होने से कुछ लिख छोड़ने की परम्परा नहीं रही। दूसरी ओर उनकी कृतियां और पांडुलिपियां पर्याप्त सुरक्षा के अभाव में चूहे और दीमक का भोजन या तो बन गये हैं या बनते जा रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस ओर देशोद्धार के सम्पोषकों ने ध्यान नहीं दिया। उनकी उपेक्षा नीति के कारण अंचल के अनेक मेघावी कवि, लेखक और कला मर्मज्ञ गुमनामी के अंधेरे में खो गये। इसी अज्ञात परम्परा के महान कवि-लेखकों में पंडित मालिकराम भोगहा भी थे जिन्हें प्रदेश के प्रथम नाटककार होने का गौरव प्राप्त होना चाहिए था, मगर आज उन्हें जानने वाले गिने चुने लोग ही हैं। छत्तीसगढ़ ऐसे अनेक स्वनामधन्य कवि-लेखकों से सुसम्पन्न था। देखिये पंडित शुकलाल पांडेय की एक बानगी :-
रेवाराम गुपाल अउ माखन, कवि प्रहलाद दुबे, नारायन। बड़े बड़े कवि रहिन हे लाखन, गुनवंता, बलवंता अउ धनवंता के अय ठौर॥ राजा रहिन प्रतापी भारी, पालिन सुत सम परजा सारी। जतके रहिन बड़े अधिकारी, अपन जस के सुरूज के बल मा जग ला करिन अंजोर॥
पंडित मालिकराम भोगहा इनमें से एक थे। छत्तीसगढ़ गौरव में पंडित शुकलाल पांडेय लिखते हैं :-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन। बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन। हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर। विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर। विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट कवि। हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि॥
महानदी के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण और छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी शिवरीनारायण नवगठित जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 60 कि.मी.,बिलासपुर से 64 कि.मी.,रायपुर से 120 कि.मी. बलौदाबाजार होकर और रायगढ़ से 110 कि.मी. सारंगढ़ होकर स्थित है। यहां वैष्णव परम्परा के मठ और मंदिर स्थित है। कलिंग भूमि के निकट होने के कारण वहां की सांस्कृतिक परम्पराओं से पूरी तरह प्रभावित यह नगर भगवान जगन्नाथ का मूल स्थान माना गया है। उड़िया कवि सरलादास ने 14 वीं शताब्दी में लिखा था कि भगवान जगन्नाथ को शबरीनारायण से पुरी ले जाया गया है। यहां भगवान नारायण गुप्त रूप से विराजमान हैं और प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को सशरीर विराजते हैं। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। कदाचित् इसी कारण इसे ''गुप्तधाम'' माना गया है। यहां भगवान नारायण के अलावा केशव नारायण, लक्ष्मीनारायण, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा, राम लक्ष्मण जानकी, राधाकृष्ण, अन्नपूर्णा, चंद्रचूढ़ और महेश्वर महादेव, बजरंगबली, काली, शीतला और महिषासुरमर्दिनी आदि देवी-देवता विराजमान हैं। प्राचीन साहित्य में यहां मतंग ऋषि का गुरूकुल आश्रम होने का उल्लेख मिलता है। यहीं श्रीराम और लक्ष्मण शबरी के जूठे बेर खाकर उन्हें मोक्ष प्रदान किये थे। यहीं भगवान श्रीराम ने आर्य समाज का सूत्रपात किया था। शबरी से भेंट को चिरस्थायी बनाने के लिए ''शबरी-नारायण'' नगर बसा है। यहां की महत्ता कवि गाते नहीं अघाते। देखिए कवि की एक बानगी :-
रत्नपुरी में बसे रामजी सारंगपाणी हैहयवंशी नराधियों की थी राजधानी। प्रियतमपुर है शंकर प्रियतम का अति प्रियतम, है खरौद में बसे लक्ष्मणेश्वर सुर सत्तम शिवरीनारायण में प्रकट शैरि-राम युत हैं लसे जो इन सबका दर्शन करे वह सब दुख में नहिं फंसे।
प्राचीन काल में यहां के मंदिरों में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों का कब्जा था। उनके गुरू ''कनफड़ा बाबा और नगफड़ा बाबा'' कहलाते थे और जिसकी मूर्ति यहां आज भी देखी जा सकती है। नवीं शताब्दी के आरंभ में रामानुज वैष्णव सम्प्रदाय के स्वामी दयाराम दास तीर्थाटन करते रतनपुर आये। उनकी विद्वता और चमत्कार से हैहयवंशी राजा प्रसन्न होकर उन्हें अपना गुरू बना लिए। उनके निवेदन पर स्वामी जी शबरीनारायण में वैष्णव मठ स्थापित करना स्वीकार कर लिए। जब वे शबरीनारायण पहुंचे तब उनका सामना तांत्रिकों से हुआ। उनसे शास्त्रार्थ करके उन्हें यहां से जाने को बाध्य किये। इस प्रकार यहां वे वैष्णव मठ स्थापित किये और वे इस मठ के प्रथम महंत हुए। आज मठ के 14 महंत हो चुके हैं जो एक से बढ़कर एक ईश्वर भक्त और चमत्कारी थे। वर्तमान में राजेश्री रामसुन्दरदास जी यहां के महंत हैं। यहां के मंदिरों की पूजा-अर्चना करने वाले पुजारी ''भोगहा'' उपनाम से अभिसिक्त हुए। यहां की महिमा श्री मालिकराम भोगहा के मुख से सुनिए :-
आठों गण सुर मुनि सदा आश्रय करत सधीर जानि नारायण क्षेत्र शुभ चित्रोत्पल नदि तीर देश कलिंगहि आइके धर्मरूप थिर पाई दरसन परसन बास अरू सुमिरन तें दुख जाई।
सन् 1861 में जब बिलासपुर जिला पृथक अस्तित्व में आया तब उसमें तीन तहसील क्रमश: बिलासपुर, शिवरीनारायण और मुंगेली बनाये गये। सुप्रसिद्ध साहित्यकार ठाकुर जगमोहनसिंह सन् 1882 में तहसीलदार होकर शिवरीनारायण आये। उनका यहां आना इस क्षेत्र के साहित्यकारों के लिए एक सुखद घटना थी। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य उन्हें इतना भाया कि उन्होंने इसे अपनी रचनाओं में समेटने का भरपूर प्रयास किया। बनारस में ''भारतेन्दु मंडल'' की तर्ज पर उन्होंने यहां ''जगमोहन मंडल'' की स्थापना कर यहां के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर उन्हें लेखन की एक नई दिशा प्रदान की। उनकी रचनाओं में कई स्थानों पर 'जगन्मोहन मंडल' का उल्लेख है। यहां के आनरेरी मजिस्ट्रेट पं. यदुनाथ भोगहा के अनुरोध पर उनके चिरंजीव मालिकराम भोगहा को उन्होंने अपने शागिर्दी में साहित्य लेखन करना सिखाया। पं. मालिकराम जी ने उन्हें अपना गुरू माना है। वे लिखते हैं :-
प्रेमी परम रसिक गुणखान। नरपति विजयसुराघवगढ़ के, कवि पंडित सुखदान॥ जय जन वंदित श्री जगमोहन, तासम अब नहिं आन। जग प्रसिद्ध अति शुद्ध मनोहर, रचे ग्रंथ विविधान॥ सोई उपदेश्यो काव्य कोष अरू, नाटक को निरमान। ताकि परम शिष्य ''मालिक'' को, को न करे सनमान॥

तब इस अंचल के अनेक स्वनामधन्य साहित्यकार यहां आकर साहित्य साधना किया करते थे। उनमें पं. अनंतराम पांडेय(रायगढ़), पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय (बालपुर), पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय (परसापाली), श्री वेदनाथ शर्मा (बलौदा), पं. हीराराम त्रिपाठी (कसडोल), पं. मालिकराम भोगहा, श्री गोविंद साव, (सभी शिवरीनारायण), श्री बटुकसिंह चौहान (कुथुर-पामगढ़), जन्मांध कवि नरसिंहदास वैष्णव (तुलसी), शुकलाल पांडेय और पं. लोचनप्रसाद पांडेय भी यहां सु जुड़े रहे। तब यह नगर धार्मिक, सांस्कृतिक तीर्थ के साथ साहित्यिक तीर्थ भी कहलाने लगा। कौन हैं ये मालिकराम भोगहा ? छत्तीसगढ़ में उनका साहित्यिक अवदान क्या था ? शिवरीनारायण मंदिर के पुजारी और भोगहापारा के मालगुजार पंडित यदुनाथ भोगहा का उल्लेख एक सज्जन व्यक्ति के रूप में ठाकुर जगमोहनसिंह ने सन् 1884 में प्रकाशित अपने सज्जनाष्टक में किया है :-
बन्दो आदि अनन्त शयन करि शबरनारायण रामा। बैठे अधिक मनोहर मंदिर कोटि काम छबिधामा॥ जिनको राग भोग करि निसुदिन सुख पावत दिन रैनू। भोगहा श्री यदुनाथ जू सेवक राम राम रत चैनू॥ है यदुनाथ नाथ यह सांचों यदुपति कला पसारी। चतुर सुजन सज्जन सत संगत सेवत जनक दुलारी॥ दिन दिन दीन लीन मुइ रहतो कृषि कर्म परवीना। रहत परोस जोस तजि मेरे हैं द्विज निपट कुलीना॥
भोगहा जी बड़े सुहृदय, भक्त वत्सल और प्रजा वत्सल थे। सन् 1885 में यहां बड़ा पूरा (बाढ़) आया था जिसमें जन धन की बड़ी हानि हुई थी। इस समय भोगहा जी ने बड़ी मद्द की थी। शिवरीनारायण तहसील के तहसीलदार और कवि ठाकुर जगमोहनसिंह ने तब ''प्रलय'' नाम की एक पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक के 'समर्पण' में वे भोगहा जी के बारे में लिखते हैं :-''भोगहा जी आप वहां के प्रधान पुरूष हो। आपकी सहायता और प्रजा पर स्नेह, जिसके वश आपने टिकरीपारा की प्रजा का प्राणोद्धार ऐसे समय में जब चारों ओर त्राहि त्राहि मची थी, किया था-इसमें सविस्तार वर्णित है। यह कुछ केवल कविता ही नहीं वरन सब ठीक ठाक लिखा है।'' देखिये उनका पद्य :-
पुरवासी व्याकुल भए तजी प्राण की आस त्राहि त्राहि चहुँ मचि रह्यो छिन छिन जल की त्रास छिन छिन जल की त्रास आस नहिं प्रानन केरी काल कवल जल हाल देखि बिसरी सुधि हेरी तजि तजि निज निज गेह देहलै मठहिं निरासी धाए भोगहा और कोऊ आरत पुरवासी॥ 52 ॥ कोऊ मंदिर तकि रहे कोऊ मेरे गेह कोऊ भोगहा यदुनाथ के शरन गए लै देह शरन गए लै देह मरन तिन छिन में टारयौ भंडारो सो खोलि अन्न दैदिन उबारयौ रोवत कोऊ चिल्लात आउ हनि छाती सोऊ कोउ निज धन घर बार नास लखि बिलपति कोऊ॥ 53 ॥
श्री यदुनाथ भोगहा को मालगुजार, माफीदार और पुजारी बताया गया है। बाढ़ के समय उन्होंने बड़ी मद्द की थी। टिकरीपारा (तब एक उनकी मालगुजारी गांव) में स्वयं जाकर वहां के लोगों की सहायता की थी। ठाकुर साहब ने लिखा है :-''ऐसे जल के समय में जब पृथ्वी एकार्णव हो रही थी, सिवाय वृक्षों की फुनगियों के और कुछ दिखाई नहीं देता था और जिस समय सब मल्लाहों का टिकरीपारा तक नौका ले जाने में साहस टूट गया था, आपका वहां स्वयं इन लोगों को उत्साह देकर लिवा जाना कुछ सहज काम नहीं था। यों तो जो चाहे तर्क वितर्क करें पर जिसने उस काल के हाल को देखा था वही जान सकता है।'' एक दोहा में इसका उन्होंने वर्णन किया है :-
पै भुगहा हिय प्रजा दुख खटक्यौं ताछिन आय। अटक्यों सो नहिं रंचहू टिकरी पारा जाय॥ 63 ॥ बूड़त सो बिन आस गुनि लै केवट दस बीस। गयो पार भुज बल प्रबल प्रजन उबारयौ ईश॥ 64 ॥ इस सद्कार्य से प्रभावित होकर ठाकुर जगमोहनसिंह ने इनकी प्रशंसा अंग्रेज सरकार से की थी और उन्हें पुरस्कार भी देने की सिफारिश की थी मगर अंग्रेज सरकार ने ध्यान नहीं दिया था। उन्होंने लिखा है :- ''आपका इस समय हमारी सरकार ने कुछ भी सत्कार न किया-यद्यपि मैंने यथावत् आपकी प्रशंसा अपने अधिकार के सम्बंध में श्रीयुत् डिप्टी कमिश्नर बिलासपुर को लिखी थी तथा सोच का स्थान है कि उस पर भी अद्यापि ध्यान न हुआ-'नगार खाने में तूती की आवाज कौन सुनता है ?' आदि आपकी सहायता, प्रजागण पर स्नेह और उनका उपकार जगत ने स्वीकार किया और उनकी भी प्रीति आप पर निष्कपटता के साथ है तो इससे बढ़ के और पारितोषिक नहीं। क्यों कि 'धनांनि जीवितन्नजैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत तन्निमित्ते वरं त्यागि विनाशे नियते सति' और भी 'विभाति काय: करूणा पराणाम्परोपकारैर्नतु चन्दनेन' ऐसा प्राचीन लोग कह आये हैं।' इस प्रकार उनकी प्रशंसा कर ठाकुर साहब ने उनके सुखी रहने की कामना की है :-
सुखी रहैं ये सब पुरवासी खलगन सुजन सुभाए। श्री यदुनाथ जियै दिन कोटिन यह मन सदा कहाए॥ 109 ॥
पंडित मालिकराम भोगहा का जन्म बिलासपुर जिले (वर्तमान जांजगीर-चांपा जिला) के शिवरीनारायण में संवत् 1927 में हुआ। वे सरयूपारी ब्राह्मण थे। उनके पिता पं. यदुनाथ भोगहा यहां के नारायण मंदिर के प्रमुख पुजारी, मालगुजार और आनरेरी मजिस्ट्रेट थे। जब मालिकराम बहुत छोटे थे तभी उनकी माता का देहावसान हो गया। मातृहीन पुत्र को पिता से माता और पिता दोनों का प्यार और दुलार मिला। उनकी सम्पूर्ण शिक्षा दीक्षा तहसीलदार ठाकुर जगमोहनसिंह के संरक्षण में हुई। संस्कृत, अंग्रेजी और उर्दू के अलावा उन्होंने संगीत, गायकी की शिक्षा ग्रहण की। आगे चलकर मराठी और उड़िया भाषा सीखी। उन्होंने कम समय में ही अलौकिक योग्यता हासिल कर ली। मालिकराम जी धीरे धीरे काव्य साधना करने लगे। पहले उनकी कविता अवस्थानुरूप श्रृंगार रस में हुआ करती थी। बाद में उनकी कविताएं अलंकारिक थी। उनकी कविताएं सरस और प्रसाद गुण युक्त थी। उनकी कुछ कविताओं को ठाकुर जगमोहनसिंह ने अपनी पुस्तकों में सम्मिलित किया है। देखिए उनकी एक कविता : -
लखौं है री मैंने रयन भयै सोवै सुख करी। छकी लीनी बीनी मधुर गीत गावै सुर भरी। मिटावै तू मेरे सकल दुख चाहे छनिक में। न लावै ज्यों बेरी अधर रस सोचे तनिक में॥
मालिकराम जी अपना उपनाम ''द्विजराज'' लिखा करते थे। उनकी अलंकारी भाषा होने के कारण लोग उन्हें ''अलंकारी'' भी कहा करते थे। शिवरीनारायण के मंदिर के पुजारी होने के कारण ''भोगहा'' उपनाम मिला। उनके वंशज आज भी यहां मंदिर के पुजारी हैं।
मालिकराम जी, ठाकुर जगमोहनसिंह के प्रिय शिष्य थे। उसने भोगहा जी को अपने साथ मध्य प्रांत, मध्य भारत, संयुक्त प्रांत और पंजाब के प्रसिद्ध स्थानों की यात्रा करायी जिससे उन्हें यात्रा अनुभव के साथ विद्यालाभ भी हुआ। बाल्यकाल से ही मालिकराम जी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। वे हमेशा धार्मिक ग्रंथों का पठन और मनन किया करते थे। किशोरावस्था में उन्होंने वेद, उपनिषद और दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया। ब्रह्यचर्य रहकर चतुर्मास का पालन करना, पयमान को जीवन का आधार समझना, नित्य एक हजार गायत्री मंत्र का जाप करना, योग धर्म में पथिक होकर भी सांसारिकर् कत्तव्यों से जूझना और अपनी सुशिक्षा तथा सच्चरित्र के द्वारा लोगों में धर्मानुराग उत्पन्न कर परमार्थ में रत रहना वे परम श्रेष्ठ समझते थे। इन्हीं गुणों के कारण मालिकराम जी आदर्श गृहस्थ के पावन पद के अधिकारी हुये। वे अक्सर कहा करते थे-'' ब्रह्यचर्य व्रत और गायत्री मंत्र में ऐसी शक्ति है जिससे मनुष्य देवतुल्य बन सकता है।'' वे स्त्री शिक्षा और पत्नीव्रत पर लाोगें को उपदेश दिया करते थे। उनके इस उनदेश का लोगों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता था। बैसाख पूर्णिमा संवत् 1964 को उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया। इससे उन्हें बहुत धक्का लगा। वे अक्सर कहा करते थे-'' मेरी आध्यात्मिक उन्नति का एक कारण मेरी पत्नी है। उनके सतीत्व और मनोदमन को देखकर मैं मुग्ध हो जाता हूं। उनका वियोग असहनीय होता है :-
मेरे जीवन की महास्थली में तू थी स्निग्ध सलिल स्रोत। इस भवसागर के तरने में तेरा मन था मुझको पोत॥
कहीं पत्नीव्रत में विघ्न उपस्थित न हो और चित्त की एकाग्रता जो दृढ़ अध्यावसाय से प्राप्त हुई है, कहीं विचलित न हो जाये, कुछ तो इस आशंका से और कुछ अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। समय आने पर उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई लेकिन जन्मते ही वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। नवजात पुत्र की मृत्यु से वे बहुत व्यथित हुये। वे अस्वस्थ रहने लगे और सूखकर कांटा हो गये। उपचार से उन्हें कोई विशेष लाभ नहीं हुआ और अंतत: वे 38 वर्ष की अल्पायु में 30 नवंबर सन् 1909 को स्वर्गवासी हुए। यह जानते हुये भी कि शरीर नश्वर है, न अतीव वेदना से भर उठा। उन्हीं के शब्दों में :-
जो जन जन्म लियो है जग में सो न सदा इत रैहैं। जग बजार से क्रय विक्रय कर अंत कूच कर जैहैं। तद्यपि जे सज्जन विद्वज्जन असमय ही उठ जावै। तिनके हेतु जगत रोवत है गुनि गुनि गुण पछतावै।
पंडित लोचनप्रसाद पांडेय उन्हें शोकांजलि देते हुए लिखते हैं :-
हे प्राणियों की प्रकृति जग में मरण यह सब जानते। यह देह है भंगुर इसे भी लोग हैं सब मानते। पर मृत्यु प्रियजन की जलाती हा ! न किसके प्राण है ? किसका न होता प्रिय विरह से भ्रष्ट सारा ज्ञान है ? भवताप तापित प्राण को चिरशांति का जो स्रोत है। भवसिंधु तरने हेतु जिसका हृदय पावन पोत है। चिर विरह ऐसे मित्र का हो सह्य किसको लोक में ? छाती नहीं फटेगी किसकी हाय ! उसके शोक में ? शोकाश्रुप्लावित नेत्र होते हैं रूक जाता गला। कर कांपता है फिर लिखें हम इस दशा में क्या भला ? इस समय तो रोदन बिना हमसे नहीं जाता रहा। हा हन्त मालिकराम ! धार्मिक भक्त ! हा द्विजराज ! हा !
पं. मालिकराम जी एक उत्कृष्ट कवि और नाटककार थे। उन्होंने रामराज्यवियोग, सती सुलोचना और प्रबोध चंद्रोदय (तीनों नाटक), स्वप्न सम्पत्ति (नवन्यास), मालती, सुर सुन्दरी (दोनों काव्य), पद्यबद्ध शबरीनारायण महात्म्य आदि ग्रंथों की रचना की। उनका एक मात्र प्रकाशित पुस्तक रामराज्यवियोग है, शेष सभी अप्रकाशित है। यह नाटक प्रदेश का प्रथम हिन्दी नाटक है। इसे यहां मंचित भी किया जा चुका है। इस नाटक को भोगहा जी ने ठाकुर जगमोहनसिंह को समर्पित किया है। वे लिखते हैं :-'' इस व्यवहार की न कोई लिखमत, न कोई साक्षी और न वे ऋणदाता ही रहे, केवल सत्य धर्म ही हमारे उस सम्बंध का एक माध्यम था और अब भी वही है। उसी की उत्तेजना से मैं आपको इसे समर्पण करने की ढिठाई करता हूं। क्योंकि पिता की सम्पत्ति का अधिकारी पुत्र होता है, विशेष यह कि पिता, गुरू आदि उपमाओं से अलंकृत महाराज के स्थान पर मैं आपको ही जानता हूं। जिस तरह मैंने अपना सत्य धर्म स्थिर रख, प्राचीन ऋण से उद्धार का मार्ग देखा, उसी तरह यदि आप भी ऋणदाता के धर्म को अवलम्ब कर इसे स्वीकार करेंगे तो मैं अपना अहोभाग्य समझूंगा..।''
भोगहा जी के बारे में पं. लोचनप्रसाद पांडेय लिखते हैं :-'' पूज्य मालिकराम मेरे अग्रज पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय के बड़े स्नेही मित्र थे। उनमें बड़ी घनिष्ठता थी। मालिकराम जी हमारे प्रदेश के एक सुप्रसिद्ध और दर्शनीय पुरुष थे। उनकी सच्चरित्रता और धार्मिकता की प्रशंसा हम क्या अंग्रेज अधिकारी और पादरी तक किया करते थे। कई पादरी उनकी आध्यात्मिक उन्नति से मुग्ध होकर उनका मान करते थे। मालिकराम जी का हृदय बालकों के समान कोमल और पवित्र था। वे बालकों के साथ बातचीत करके खुश होते थे। ग्रामीण किसानों और उन आदमियों से जिन्हें हम असभ्य कहकर घिनाते थे, उनसे बड़े प्रेम और आदर के साथ मिला करते थे। वे ग्रामीण भाषा में गीत गाकर और हावभाव के साथ बोला करते थे जिससे हजारों नर नारियां मोहित उठ उठते थे। उनकी साहित्य सेवा और मातृ भाषानुराग आदर्श था। स्वदेश भक्ति तो उनके नस नस में भरी हुई थी। उनकी विद्वता और काव्य शक्ति की प्रशंसा अनेक विद्वानों ने की है। ऐसे आदर्श और गुणवान पुरूष का अल्प अवस्था में उठ जाना हमारे देश का दुर्भाग्य है। उनकी मृत्यु से छत्तीसगढ़ का एक सपूत हमसे छिन गया।'' अस्तु :-
जिसका पवित्र चरित्र औरों के लिये आदर्श है।

वह वीर मर कर भी न क्या जीवित सहस्रों वर्ष है॥
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रचना, लेखन, फोटो और प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)

मंगलवार, 27 नवंबर 2007

छत्तीसगढ़ और पंडित शुकलाल पांडेय


छत्तीसगढ़ और पंडित शुकलाल पांडेय

प्रो. अश्विनी केशरवानी
भव्य ललाट, त्रिपुंड चंदन, सघन काली मूँछें और गांधी टोपी लगाये साँवले, ठिगने व्यक्तित्व के धनी पंडित शुकलाल पांडेय छत्तीसगढ़ के द्विवेदी युगीन साहित्यकारों में से एक थे.. और पंडित प्रहलाद दुबे, पंडित अनंतराम पांडेय, पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी, गोविंदसाव, पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, वेदनाथ शर्मा, बटुकसिंह चौहान, पंडित लोचनप्रसाद पांडेय, काव्योपाध्याय हीरालाल, पंडित सुंदरलाल शर्मा, राजा चक्रधरसिंह, डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र और पंडित मुकुटधर पांडेय की श्रृंखला में एक पूर्ण साहित्यिक व्यक्ति थे। वे केवल एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि एक संस्था थे। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और छत्तीसगढ़ी भाषा में बहुत सी रचनाएं लिखीं हैं। उनकी कुछ रचनाएं जैसे छत्तीसगढ़ गौरव, मैथिली मंगल, छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया ही प्रकाशित हो सकी हैं और उनकी अधिकांश रचनाएं अप्रकाशित हैं। उनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ियापन की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। छत्तीसगढ़ गौरव में ''हमर देस'' की एक बानगी देखिये :-
ये हमर देस छत्तिसगढ़ आगू रहिस जगत सिरमौर।
दक्खिन कौसल नांव रहिस है मुलुक मुलुक मां सोर।
रामचंद सीता अउ लछिमन, पिता हुकुम से बिहरिन बन बन।
हमर देस मां आ तीनों झन, रतनपुर के रामटेकरी मां करे रहिन है ठौर॥
घुमिन इहां औ ऐती ओती, फैलिय पद रज चारो कोती।
यही हमर बढ़िया है बपौती, आ देवता इहां औ रज ला आंजे नैन निटोर॥
राम के महतारी कौसिल्या, इहें के राजा के है बिटिया।
हमर भाग कैसन है बढ़िया, इहें हमर भगवान राम के कभू रहिस ममिओर॥
इहें रहिन मोरध्वज दानी, सुत सिर चीरिन राजा-रानी।
कृष्ण प्रसन्न होइन बरदानी, बरसा फूल करे लागिन सब देवता जय जय सोर॥
रहिन कामधेनु सब गैया, भर देवै हो लाला ! भैया !!
मस्त रहे खा लोग लुगैया, दुध दही घी के नदी बोहावै गली गली अउ खोर॥
सबो रहिन है अति सतवादी, दुध दही भात खा पहिरै खादी।
धरम सत इमान के रहिन है आदी, चाहे लाख साख हो जावै बनिन नी लबरा चोर॥
पगड़ी मुकुट बारी के कुंडल, चोंगी बंसरी पनही पेजल।
चिखला बुंदकी अंगराग मल, कृष्ण-कृषक सब करत रहिन है गली गली मां अंजोर॥
''छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया'' जो ''कॉमेडी ऑफ इरर'' का अंग्रेजी अनुवाद है, की भूमिका में पांडेय जी छत्तीसगढ़ी दानलीला के रचियता पंडित सुन्दरलाल शर्मा के प्रति आभार व्यक्त करते हुए छत्तीसगढ़ी में लिखने का आह्वान करते हैं। उस समय पढ़ाई के प्रति इतनी अरूचि थी कि लोग पेपर और पुस्तक भी नहीं पढ़ते थे। पांडेय जी तब की बात को इस प्रकार व्यक्त करते हैं- ''हाय ! कतेक दुख के बात अय ! कोन्हो लैका हर कछू किताब पढ़े के चिभिक करे लागथे तो ओखर ददा-दाई मन ओला गारी देथे अउ मारपीट के ओ बिचारा के अतेक अच्छा अअउ हित करैया सुभाव ला नष्ट कर देथे। येकरे बर कहेबर परथे कि इहां के दसा निचट हीन हावै। इहां के रहवैया मन के किताब अउ अखबार पढ़के ज्ञान अउ उपदेस सीखे बर कोन्नो कहे तो ओमन कइथे-
हमन नइ होवन पंडित-संडित तहीं पढ़ेकर आग लुवाट।
ले किताब अउ गजट सजट ला जीभ लमा के तईहर चाट॥
जनम के हम तो नांगर जोत्ता नई जानन सोरा सतरा।
भुखा भैंसा ता ! ता ! ता !! यही हमर पोथी पतरा !!!
''भूल भुलैया'' सन् 1918 में लिखा गया था तब हिन्दी में पढ़ना लिखना हेय समझा जाता था। पंडित शुकलाल पांडेय अपनी पीड़ा को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं-''जबले छत्तिसगढ़ के रहवैया मन ला हिन्दी बर प्रेम नई होवे, अउ जबले ओमन हिन्दी के पुस्तक से फायदा उठाय लाइ नई हो जावे, तबले उकरे बोली छत्तीसगढ़ीच हर उनकर सहायक है। येकरे खातिर छत्तीसगढ़ी बोली मां लिखे किताब हर निरादर करे के चीज नो हे। अउ येकरे बर छत्तीसगढ़ी बोली मां छत्तीसगढिया भाई मन के पास बडे बड़े महात्मा मन के अच्छा अच्छा बात के संदेसा ला पहुंचाए हर अच्छा दिखतय। हिन्दी बोली के आछत छत्तीसगढ़ी भाई मन बर छत्तीसगढ़ी बोली मां ये किताब ला लिखे के येही मतलब है कि एक तो छत्तीसगढ़ ला उहां के लैका, जवान, सियान, डौका डौकी सबो कोनो समझही अउ दूसर, उहां के पढ़े लिखे आदमीमन ये किताब ला पढ़के हिन्दी के किताब बांच के अच्छा अच्छा सिक्षा लेहे के चिभिक वाला हो जाही। बस, अइसन होही तो मोर मिहनत हर सुफल हो जाही...'' वे आगे लिखते हैं- ''मैं हर राजिम (चंदसूर) के पंडित सुन्दरलाल जी त्रिपाठी ला जतके धन्यवाद देवौं, ओतके थोरे हे। उनकर छत्तीसगढ़ी दानलीला ला जबले इहां के पढ़ैया लिखैया आदमी मन पढ़े लागिन हे, तब ले ओमन किताब पढ़े मा का सवाद मिलथे अउ ओमा का सार होथे, ये बात ला धीरे धीरे जाने लगे हावै। येही ला देख के मैं हर विलायत देस के जग जाहीर कवि शेक्सपियर के लिखे ''कॉमेडी ऑफ इरर'' के अनुवाद ल ''भूल भुलैया'' के कथा छत्तीसगढ़ी बोली के पद्य मां लिख डारे हावौं।''
पंडित शुकलाल पांडेय के शिक्षकीय जीवन में उनकी माता का जितना आदर रहा है उतना ही धमधा के हेड मास्टर पंडित भीषमलाल मिश्र का भी था। भूल भुलैया को उन्हीं को समर्पित करते हुए वे लिखते हैं :-
तुहंला है भूल भुलैया नीचट प्यारा।
लेवा महराज येला अब स्वीकारा॥
भगवान भगत के पूजा फूल के साही।
भीलनी भील के कंदमूल के साही॥
निरधनी सुदामा के जो चाउर साही।
सबरी के पक्का पक्का बोइर खाई॥
कुछ उना गुना झन, हाथ ल अपन पसारा।
लेवा महराज, येला अब स्वीकारा॥
ऐसे प्रतिभाशाली कवि प्रवर पंडित शुकलाल पांडेय का जन्म महानदी के तट पर स्थित कला, साहित्य और संस्कार की त्रिवेणी शिवरीनारायण में संवत् 1942 (सन् 1885) में आषाढ़ मास में हुआ था। उनके पिता का नाम गोविंदहरि और माता का नाम मानमति था। मैथिली मंगल खंडकाव्य में वे लिखते हैं :-
प्रभुवर पदांकित विवुध वंदित भरत भूमि ललाम को,
निज जन्मदाता सौरिनारायण सुनामक ग्राम को।
श्री मानमति मां को, पिता गोविंदहरि गुणधाम को,
अर्पण नमन रूपी सुमन हो गुरू प्रवर शिवराम को॥
उनका लालन पालन और प्राथमिक शिक्षा शिवरीनारायण के धार्मिक और साहित्यिक वातावरण में धर्मशीला माता के सानिघ्य में हुआ। उनके शिक्षक पं. शिवराम दुबे ने एक बार कहा था-''बच्चा, तू एक दिन महान कवि बनेगा...।'' उनके आशीर्वाद से कालांतर में वह एक उच्च कोटि का साहित्यकार बना।
सन् 1903 में नार्मल स्कूल रायपुर में प्रशिक्षण प्राप्त कर वे शिक्षक बने। यहां उन्हें खड़ी बोली के सुकवि पं. कामताप्रसाद गुरू का सानिघ्य मिला। उनकी प्रेरणा से वे खड़ी बोली में पद्य रचना करने लगे। धीरे धीरे उनकी रचना स्वदेश बांधव, नागरी प्रचारिणी, हितकारिणी, सरस्वती, मर्यादा, मनोरंजन, शारदा, प्रभा आदि प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी। सन् 1913 में सरस्वती के मई के अंक में ''प्राचीन भारत वर्ष'' शीर्षक से उनकी एक कविता प्रकाशित हुई। तब पूरे देश में राष्ट्रीय जनजागरण कोर् कत्तव्य माना जाता था। देखिये उनकी एक कविता :-
हे बने विलासी भारतवासी छाई जड़ता नींद इन्हें,
हर कर इनका तम हे पुरूषोत्तम शीघ्र जगाओ ईश उन्हें।
पंडित जी मूलत: कवि थे। उनकी गद्य रचना में पद्य का बोध होता है। इन्होंने अन्यान्य पुस्तकें लिखी हैं। लेकिन केवल 15 पुस्तकें ही प्रकाश में आ सकी हैं, जिनमें 12 पद्य में और शेष गद्य में है। उनकी रचनाओं में मैथिली मंगल, छत्तीसगढ़ गौरव, पद्य पंचायत, बाल पद्य पीयुष, बाल शिक्षा पहेली, अभिज्ञान मुकुर वर्णाक्षरी, नैषद काव्य और उर्दू मुशायरा प्रमुख है। छत्तीसगढ़ी में उन्होंने भूल भुलैया, गींया और छत्तीसगढ़ी ग्राम गीत लिखा है। गद्य में उन्होंने राष्ट्र भक्ति से युक्त नाटक मातृमिलन, हास्य व्यंग्य परिहास पाचक, ऐतिहासिक लेखों का संग्रह, चतुर चितरंजन आदि प्रमुख है। उनकी अधिकांश रचनाएं अप्रकाशित हैं और उनके पौत्र श्री रमेश पांडेय और श्री किशोर पांडेय के पास सुरक्षित है।
''छत्तीसगढ़ गौरव'' पंडित शुकलाल पांडेय की प्रकाशित अनमोल कृति है। मध्यप्रदेश साहित्य परिषद भोपाल द्वारा सन् 1972 में इसे प्रकाशित किया गया है। इसकी भूमिका में पंडित मुकुटधर जी पांडेय लिखते हैं:-'' इसमें छत्तीसगढ़ के इतिहास की शृंखलाबद्ध झांकी देखने को मिलती है। प्राचीन काल में यह भूभाग कितना प्राचुर्य पूर्ण था, यहां के निवासी कैसे मनस्वी और चरित्रवान थे, इसका प्रमाण है। छत्तीसगढ़ की विशेषताओं का इसे दर्पण कहा जा सेता है। इसकी गणना एक उच्च कोटि के आंचलिक साहित्य में की जा सकती है। ''हमर देस'' में छत्तीसगढ़ के जन जीवन की जीवन्त झांकी उन्होंने प्रस्तुत की है। देखिये उनकी यह कविता :-
रहिस कोनो रोटी के खरिया, कोनो तेल के, कोनो वस्त्र के, कोनो साग के और,
सबे जिनिस उपजात रहिन है, ककरों मा नई तकत रहिन है।
निचट मजा मा रहत रहिन है, बेटा पतो, डौकी लैका रहत रहिन इक ठौर।
अतिथि अभ्यागत कोन्नो आवें, घर माटी के सुपेती पावे।
हलवा पूरी भोग लगावें, दूध दही घी अउ गूर मा ओला देंव चिभोर।
तिरिया जल्दी उठेनी सोवे, चम्मर घम्मर मही विलोवे,
चरखा काते रोटी पावे, खाये किसान खेत दिशि जावे चोंगी माखुर जोर।
धर रोटी मुर्रा अउ पानी, खेत मा जाय किसान के रानी।
खेत ल नींदे कहत कहानी, जात रहिन फेर घर मा पहिरे लुगरा लहर पटोर।
चिबक हथौरी नरियर फोरे, मछरी ला तीतुर कर डारैं।
बिन आगी आगी उपजारैं, अंगुरि गवा मा चिबक सुपारी देवें गवें मा फोर।
रहिस गुपल्ला वीर इहें ला, लोहा के भारी खंभा ला।
डारिस टोर उखाड़ गड़े ला, दिल्ली के दरबार मा होगे सनासट सब ओर।
आंखी, कांन पोंछ के ननकू, पढ़ इतिहास सुना संगवारी तब तैं पावे सोर।
जब मध्यप्रदेश का गठन हुआ तब सी.पी. के हिन्दी भाषी जिलों में छत्तीसगढ़ के जिले भी सम्मिलित थे। छत्तीसगढ़ गौरव के इस पद्य में छत्तीसगढ़ का इतिहास झलकता है :-
सी.पी. हिन्दी जिले प्रकृति के महाराम से,
थे अति पहिले ख्यात् महाकान्तार नाम से।
रामायण कालीन दण्डकारण्य नाम था।
वन पर्वत से ढका बड़ा नयनाभिराम था।
पुनि चेदि नाम विख्यात्, फिर नाम गोड़वाना हुआ।
कहलाता मध्यप्रदेश अब खेल चुका अगणित जुआ॥
तब छत्तीसगढ़ की सीमा का विस्तार कुछ इस प्रकार था :-
उत्तर दिशि में है बघेल भू करता चुम्बन,
यम दिशि गोदावरी कर पद प्रक्षालन।
पूर्व दिशा की ओर उड़ीसा गुणागार है,
तथा उदार बिहार प्रान्त करता बिहार है।
भंडारा बालाघाट औ चांदा मंडला चतुर गण,
पश्चिम निशि दिन कर रहे आलिंगन हो मुदित मन॥
ऐसे सुरक्षित छत्तीसगढ़ राज्य में अनेक राजवंश के राजा-महाराजाओं को एकछत्र राज्य वर्षो तक था। कवि अपनी कृति इनका बड़ा ही सजीव चित्रण किया है। देखिये उसकी एक बानगी :-
यहां सगर वंशीय प्रशंसी, कश्यप वंशी,
हैहहवंशी बली, पांडुवंशी अरिध्वंशी,
राजर्षितुल्यवंशीय, मौर्यवंशी सुख वर्ध्दन,
शुंगकुल प्रसू वीर, कण्ववंशी रिपु मर्दन,
रणधीर वकाटक गण कुलज, आंध्र कुलोद्भव विक्रमी।
अति सूर गुप्तवंशी हुए बहुत नृपति पराक्रमी॥
था डाहल नाम पश्चिम चेदि का।
यहीं रहीं उत्थान शौर्य की राष्ट्र वेदिका।
उसकी अति ही रन्ध्र राजधानी त्रिपुरी थी।
वैभव में, सुषमा में, मानों अमर पुरी थी।
रघुवंश नृपतियों से हुआ गौरवमय साकेत क्यों।
त्रिपुरी नरपतियों से हुई त्रिपुरी भी प्रख्यात् त्यों॥
कहलाती थी पूर्व चेदि ही ''दक्षिण कोसल''
गढ़ थे दृढ़ छत्तीस नृपों की यहीं महाबल।
इसीलिए तो नाम पड़ा ''छत्तीसगढ़'' इसका।
जैसा इसका भाग्य जगा, जगा त्यों किसका।
श्रीपुर, भांदक औ रत्नपुर थे, इसकी राजधानियां।
चेरी थी श्री औ शारदा दोनों ही महारानियां॥
नदियां तो पुण्यतोया, पुण्यदायिनी और मोक्षदायी होती ही हैं, जीवन दायिनी भी हैं। कदाचित् इसीलिए नदियों के तट पर बसे नगर ''प्रयाग'' और ''काशी'' जैसे संबोधनों से पूजे जाते हैं। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में महानदी के तट पर स्थित अनेक नगर स्थित हैं जिन्हें ऐसे संबोधनों से सुशोभित किये जाते हैं। देखिये कवि की एक बानगी :-
हरदी है हरिद्वार, कानपुर श्रीपुर ही है।
राजिम क्षेत्र प्रयाग, शौरिपुर ही काशी है।
शशिपुर नगर चुनार, पद्मपुर ही पटना है।
कलकत्ता सा कटक निकट तब बसा घना है।
गाती मुस्काती नाचती और झूमती जा रही,
हे महानदी ! तू सुरनदी की है समता पा रही॥
छत्तीसगढ़ में इतना मनमोहक दृश्य हैं तो यहां कवि कैसे नहीं होंगे ? भारतेन्दु युगीन और उससे भी प्राचीन कवि यहां रहे हैं जो प्रचार और प्रचार के अभाव में गुमनाम होकर मर खप गये...आज उसका नाम लेने वाला कोई नहीं है। ऐसी कवियों के नाम कवि ने गिनायें हैं :-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट कवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम मीर मालिक सुकवि॥
तेजनाथ भगवान, मुहम्मद खान मनस्वी।
बाबू हीरालाल, केशवानंद यशस्वी।
श्री शिवराज, शिवशंकर, ईश्वर प्रसाद वर।
मधु मंगल, माधवराव औ रामाराव चिंचोलकर।
इत्यादिक लेखक हो चुके छत्तीसगढ़ की भूमि पर॥
''धान का कटोरा'' कहलाता है हमारा छत्तीसगढ़। यहां की भूमि जितनी उर्वर है, उतना ही यहां के लोग मेहनती भी हैं। इसीलिये यहां के मेला-मड़ई और तीज त्योहार सब कृषि पर आधारित हैं। अन्न की देवी मां अन्नपूर्णा भी यहीं हैं। कवि का एक पद्य पेश है :-
डुहारती थी धान वहन कर वह टुकनों में।
पीड़ा होती थी न तनिक सी भी घुटनों में ।
पति बोते थे धान, सोचते बरसे पानी।
लखती थी वह बनी अन्नपूर्णा छवि खानी।
खेतों में अच्छी फसल हुई है। मेहनती स्त्रियां टुकनों में भरकर धान खलिहानों से लाकर ढाबा में भर देती हैं। उनका मन बड़ा प्रसन्न है, तो संध्या में सब मिलकर नाच-गाना क्यों न हो, जीवन का रस भी तो इसी में होता है :-
संध्या आगम देख शीघ्र कृषि कारक दम्पत्ति।
जाते थे गृह और यथाक्रम अनुपद सम्पत्ति।
कृषक किशोर तथा किशोरियां युवक युवतीगण।
अंग अंग में सजे वन्य कुसुमावलि भूषण।
जाते स्वग्राम दिशि विहंसते गाते गीत प्रमोद से।
होते द्रुत श्रमजीवी सुखी गायन-हास विनोद से॥
पंडित जी ऐसे मेहनती कृषकों को देव तुल्य मानने में कोई संकोच नहीं करते और कहते हैं :-
हे वंदनीय कृषिकार गण ! तुम भगवान समान हो।
इस जगती तल पर बस तुमही खुद अपने उपमान हो॥
इस पवित्र भूमि पर अनेक राजवंशों के राजा शासन किये लेकिन त्रिपुरी के हैहहवंशी नरेश के ज्येष्ठ पुत्र रत्नदेव ने देवी महामाया के आशीर्वाद से रत्नपुर राज्य की नींव डाली।
हैहहवंशी कौणपादि थे परम प्रतापी।
किये अठारह अश्वमेघ मख धरती कांपी।
उनके सुत सुप्तसुम्न नाम बलवान हुये थे।
रेवा तट अश्वमेघ यज्ञ छ: बार किये थे।
श्री कौणपादि निज समय में महाबली नरपति हुये।
सबसे पहिले ये ही सखे ! छत्तीसगढ़ अधिपति हुए॥
बरसों तक रत्नपुर नरेशों ने इस भूमि पर निष्कंटक राज्य किया। अनेक जगहों में मंदिर, सरोवर, आम्रवन, बाग-बगीचा और सुंदर महल बनवाये...अनेक नगर बसाये और उनकी व्यवस्था के लिये अनेक माफी गांव दान में दिये। अपने वंशजों को यहां के अनेक गढ़ों के मंडलाधीश बनाये। आगे चलकर इनके वंशज शिवनाथ नदी के उत्तर और दक्षिण में 18-18 गढ़ के अधिपति हुये और समूचा क्षेत्र ''36 गढ़'' कहलाया। सुविधा की दृष्टि से रायपुर रत्नपुर से ज्यादा उपयुक्त समझा गया और अंग्रेजों ने मुख्यालय रायपुर स्थानांतरित कर दिया। तब से रत्नपुर का वैभव क्रमश: लुप्त होता गया।
रत्नपुर से गई रायपुर उठ राजधानी।
सूबा उनके लगे वहीं रहने अति ज्ञानी।
छत्तीसगढ़ के पूर्व वही सूबा थे शासक।
शांति विकासक तथा दुख औ भीति विनाशक।
आज जब छत्तीसगढ़ राज्य पृथक अस्तित्व में आ गया है तब सबसे पहिले कृषि प्रधान उद्योगों को विकसित किया जाना चाहिये अन्यथा धान तो नहीं उगेगा बल्कि हमारे हाथ में केवल कटोरा होगा...?
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रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा (छ. ग.)