बुधवार, 30 अप्रैल 2008

बढ़ते बाल मजदूर

बढ़ते बाल मजदूर

-प्रो. अश्विनी केशरवानी
आज विश्व में लगभग 11 करोड़ बाल मजदूर हैं जो अत्यंत भयावह परिस्थितियों से गुजर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार समिति द्वारा ऐसे बच्चों का सर्वेक्षण किया गया। इस रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि किस प्रकार से विश्व के अविकसित राष्ट्रों में बच्चों का शोषण हो रहा है, और उन्हें अपना व अपने मां-बाप का पेट भरने के लिये जानवरों से भी बदतर जिन्दगी बसर करनी पड़ रही हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार 97 प्रतिशत बाल मजदूर तीसरे विश्व में अर्थात् अविकसित राष्ट्रों में है। इन देशों में बाल मजदूरों की संख्या सबसे अधिक है जहां पर कुपोषण और अशिक्षा अधिक है। जहां पर कुपोषण और अशिक्षा अधिक है। योजना आयोग के एक अनुमान के अनुसार भारत में 5 से 15 वर्ष की आयु के बाल मजदूरों की संख्या गत 3 वर्षों में 1 करोड़ 75 लाख से बढ़कर 2 करोड़ हो गई है। 1981 की जनगणना के अनुसार आंध्रप्रदेश में सबसे ज्यादा बाल मजदूर है। इसके बाद मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार ओर कर्नाटक का नंबर आता है।
बंबई के बाल मजदूर जूते साफ करने, होटलों में बर्तन धोने, कार साफ करने, कूड़ा बीनने आदि का काम करते हैं। इनमें से 25 प्रतिशत बच्चे 6 से 8 वर्ष के होते हैं, 48 प्रतिशत बच्चे 10 से 12 वर्ष के होते हैं तथा 27 प्रतिशत बच्चे 13 से 15 प्रतिशत के होते हैं। यूनिसेफ के एक सर्वेक्षण के अनुसार अकेले भारत में लगभग 2 करोड़ बच्चों को अपने जीवन यापन करने के लिए दिन भर काम करना पड़ता है। ये बच्चे अव्यवस्थित व्यवसायों में लगे हुए हैं जहां इनके मालिक इनका शोषण करते हैं। ये बच्चे पूरी तरह से मालिकों की दया पर जीते हैं। अधिक शारीरिक श्रम और मार खाना इनकी नियति है।
कश्मीर के कालीन यूरोप में बहुत पसंद किए जाते हैं। इन्हें निर्यात करने वाले व्यापारी इन कालीनों में 200 से 300 प्रतिशत तक लाभांश लेते हैं। लेकिन इन्हें बनाने वालों के साथ गुलाम जैसा व्यवहार किया जाता है। कालीन बुनते समय उड़ने वाली धूल और देशों के कण सांसों के साथ शरीर में प्रवेश कर जाते है जिससे इन बच्चों को फेफड़े की बीमारियां हो जाती है।
अफीम की मादकता से सराबोर मंदसौर जिले के स्लेट-पेंसिल उद्योग में दस हजार से भी अधिक मजदूर सिलिकोसिस रोग से पीड़ीत नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। देश के तीन चौथाई बच्चों को किसी भी भाषा की वर्णमाला सिखाने में इस उद्योग में काम करने वाले करीब पच्चीस हजार बच्चे आज स्कूल जाने को तरस रहे हैं। वे अपने माता-पिता का सहारा बनकर या तो स्लेट पत्थर ढो रहे हैं या स्लेट पैक कर रहे हैं, किन्तु कारखाना मालिकों की अधिक धन कमाओं वृत्तिा के कारण मजदूरों के परिवारों की दुर्दशा हो रही है, इस जिले को जितना राजस्व धन अफीम से उपलब्ध होता है उससे कहीं अधिक स्लेट पेंसिल उद्योग से प्राप्त होता है। मंदसौर और मल्हारगढ़ तहसीलों में 60 प्रतिशत मजदूर हैं। कृषि एवं अन्य मजदूरों के बाद सबसे ज्यादा मजदूर इस उद्योग में है। स्लेट पेंसिल की खुदाई से लेकर उसकी कटाई करने तक से उड़ने वाली सिलिकान डाई आक्सॉइड फेफड़ों में प्रवेश करने के कारण मजदूरों को सिलिकोसिस रोग होता है।
बाल मजदूरों पर की जा रही ज्यादतियों का यह मर्ज सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी फैला हुआ है। मोरक्को में 8 से 12 वर्ष तक के बच्चों को सप्ताह में 72 घंटे काम करना पड़ता है तथा उनके काम करने की परिस्थितियां बहुत खराब होती है। स्पेन के कालीन उद्योग में 2.5 लाख मजदूर 14 साल से कम आयु के हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार हमारे देश में परिवार की कुल आमदनी का 23 प्रतिशत हिस्सा बाल मजदूरों की कमाई से आता है। इसके बावजूद भी उन्हें उचित मजदूरी नहीं दी जाती। टयूनीशिया, डकार, स्विस, काहिरा, आबिदजान आदि देशों में तो खुलेआम लड़कियों की भी बाल मजदूर के रूप में खरीद फरोख्त की जाती है। दिन में इन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ती है और रात में अपने मालिक की वासना पूर्ति का शिकार बनना पड़ता है। कोलंबिया और बोलिविया में 3 वर्ष के बच्चों की बिक्री होती है। ब्राजील में भी गरीब मां-बाप अपना कर्ज चुकाने के लिये बच्चों को बेच देते हैं। थाइलैंड में भी यही हालत है। बच्चा बिक जाने के बाद कानूनी तौर पर अपने मालिक की संपत्ति हो जाती है और उसका मालिक मनमाने तरीके से उसका उपयोग करता है। बैंकाक का एक दुकानदार हर साल लगभग 20 हजार बच्चे खरीदता और बेचता है जो 7 से 15 वर्ष की आयु के होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार इन सब परिस्थितियों का बच्चों के मानसिक व शारीरिक विकास पर बहुत बुरा असर पड़ता है।
किसी भी राष्ट्र का भविष्य उसके बच्चों के उपर निर्भर करता है। हमारे देश में 30 करोड़ बच्चों में से 4 करोड़ 44 लाख बच्चे अब तक मजदूर बन चुके हैं और विभिन्न प्रकार के धंधों में लगे हुए हैं। दूसरे शब्दों में हमारे देश का हर सातवां बच्चा बाल मजदूरों की श्रेणी में आता है। केन्द्रीय श्रम मंत्रालय के अनुसार इस समय देश के सभी क्षेत्रों और सेवाओं में कार्यरत बाल मजदूरों में से 63 प्रतिशत किशोर, 22 प्रतिशत उससे कम आयु के और शेष मासूम बच्चे हैं। श्रमिक लड़कियों का अनुपात लड़कों से अधिक हैं।
बाल मजदूरों का शोषण प्राय: उन सभी देशों में हो रहा है जहां उनकी थोड़ी बहुत उपयोगिता की गुंजाइश है। शहरों और महानगरों में घरों से लेकर छोटे-मोटे उद्योगों में जूता, माचिस, बीड़ी, दर्री, कालीन आदि उद्योगों में कपड़े की रंगाई-छपाई और बुनाई मेंर्र्, ईट-भट्ठा, पत्थर खदानों, भवन निर्माण, बर्तन उद्योग, होटलों, सामान उठाने और यहां तक कि भीख मांगने के काम में भी बच्चों को उपयोग किया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार भारत, बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान, इण्डोनेशिया, थाइलैंड, मलेशिया, फिलीपीन्स आदि ऐसे एशियाई देश है जहां बाल मजदूर की संख्या अधिक होने के साथ-साथ उनका शोषण भी अधिक होता है।
'इंटरनेशनल कान्फेडरेशन ऑफ फी ट्रेड यूनियन' की ताजा रिपोर्ट मे बताया गया है कि पिछड़े और विकसशील देशों में भी बाल मजदूर की समस्या है जहां इनका शोषण बदस्तूर जारी है। विकसित राष्ट्रों में कृषि कार्यों में बाल मजदूरों का उपयोग किया जाता है। बावजूद इसके वहां उनको बहुत कम मजदूरी दी जाती है। उसे 12 से 16 घंटे तक काम कराया जाता है। राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि बंबई में कार्यरत बाल मजदूर अपनी कमाई का 23 प्रतिशत राशि अपने घर भेजते हैं। मुंबई में 68.2 प्रतिशत बाल मजदूरों को 100 रूपये मासिक, कलकता में 2.5 प्रतिशत बाल मजदूर ऐसे हैं जिनकी मासिक आय 50 से 100 रूपयों के बीच है। दिल्ली में 50 रूपए मासिक मिलता है। कलकता में 20.6 प्रतिशत बाल मजदूरों को कोई वेतन नहीं मिलता। इन्हें दो से पांच महीने तक प्रशिक्षणकाल मानकर सिर्फ भोजन दिया जाता है। यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि 73.13 प्रतिशत बाल मजदूरों को किसी प्रकार की छुट्टी नहीं मिलती और गलती हो जाने पर मार खानी पड़ती है। अधिक श्रम के कारण ये बच्चे मानसिक रूप से पिछड़ जाते हैं और अभाव व हीनता के कारण अपराधी प्रवृत्तिा के हो जाते हैं।
सरकार ने बाल मजदूरों को शोषण रोकरने के लिये कई कानून बनाए हैं। जिसमें बच्चों से मजदूरी कराने पर पाबंदी लगाई गई है। लेकिन ये सब कानून महज कागजी प्रतीत होते हैं। क्योंकि बाल मजदूरों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। 1948 के भारतीय कारखाना अधिनियम के तहत 14 वर्ष या उससे कम उम्र के बच्चों से काम नहीं लिया जा सकता और 1961 के प्रशिक्षार्थी अधिनियम के तहत् 14 वर्ष या उससे कम उम्र के बच्चों को व्यावसायिक प्रशिक्षण नहीं दिया जा सकता लेकिन हाथ करघा और कुटीर उद्योगों में ऐसे बच्चे कार्यरत हैं।
बाल मजदूर को पूर्ण रूप से समाप्त करने का अर्थ होगा लाखों बच्चों से उनकी रोजी-रोटी को छिन लेना और ये तब अपराध से जुड़ने को मजदूर होंगे। यद्यपि इस समस्या को जड़ से समाप्त नहीं किया जा सकता लेकिन यदि प्रयास किये जाएं तो कुछ सीमा तक हम उन्हे राहत दिला सकते है। बाल मजदूर (निषेध और विनियमन) अधिनियम 1986 में प्रावधान हैं कि ऐसे बच्चों को उनके कार्यावधि को कम करके पढ़ने के लिए सुविधाएं तथा उचित मजदूरी दी जाए।
यूनिसेफ द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट ''विश्व में बच्चों की स्थिति के अनुसार'' विश्व में अस्त्रों और सैनिक व्यवस्था पर छ: सप्ताह में जितना खर्च किया जा रहा है यदि उसे स्त्रियों और बच्चों के समुचित आहार, बच्चे के जन्म से पूर्व मां की देखरेख, बच्चों की प्राथमिक शिक्षा, सफाई आदि पर खर्च किया जाए तो दुनिया के 50 करोड़ स्त्री-बच्चों को राहत मिल सकती है।
वैज्ञानिकों के अनुसार भी इंसान के मस्तिष्क तथा शरीर का 50 प्रतिशत विकास पांच वर्ष की आयु में पूरा होता है। शेष 50 प्रतिशत विकास उसके 15-20 सालों में पूरा होता है। साथ में उसे भरपूर आहार और स्वस्थ वातावरण मिलता रहे। विकास और समृद्धि के लिये न केवल पूंजी और मशीनें चाहिए, न कच्चा माल और मंडियां चाहिए बल्कि चाहिए उसके लिए मजदूरों और कारीगरों के सबल और कुशल हाथ। इसलिए बच्चों के स्वास्थ्य तथा शिक्षण प्रशिक्षण पर कुछ वर्षो में खर्च किये गए रूपये आगे चलकर हजारों गुना ब्याज दे सकते हैं।
वस्तुत: मजदूरों के लिए जितने भी नियम कानून बनाए जाते हैं। उनसे मजदूरों का कुछ भला तो ही नहीं पाता बल्कि मालिक और मजदूरों के बीच के लोगों की कमाई अवश्य हो जाती है। जब तक सरकार और समाज के जागरूक लोग उन बुनियादी मसलों पर गौर करके उसका निराकरण नहीं करेंगे तो बच्चों का शोषण होता रहेगा। यह बात भी सही है कि इस देश में बाल मजदूरों की समस्या जड़ से समाप्त नहीं की जा सकती लेकिन सुविधाएं दी जा सकती है।
---------------------
रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)

गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

शिवरीनारायण में विराजे मां अन्नपूर्णा


शिवरीनारायण में विराजे मां अन्नपूर्णा
प्रो. आश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी चित्रोत्पला गंगा (महानदी) के तट पर स्थित शिवरीनारायण आदिकाल से ऋशि-मुनियों और देवी-देवताओं की सिद्धि स्थली रही है। सतयुग में भगवान श्रीराम और लक्ष्मण यहां श्‍ाबरी के मीठे बेर खाये थे और भाबरी को मोक्ष प्रदान कर भाबरीनारायण की आधार शिला रखे। वे यहां भाबरी की प्रार्थना को स्वीकार करके नारायण रूप में विराजमान हुए। खरौद के दक्षिण द्वार में सौराइन दाई का अति प्राचीन पूर्वाभिमुख मंदिर है। इसके गर्भगृह में श्रीराम और लक्ष्मण के धनुर्धारी मूर्ति है। खरौद के लक्ष्मणे वर महादेव की स्थापना भी श्रीराम ने भाई लक्ष्मण के अनुरोध पर लंका विजय के निमित्त की थी। भगवान जगन्नाथ को शिवरीनारायणसे ही पुरी ले जाया गया है। माघपूर्णिमा को प्रतिवर्श भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं और उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। उनके यहां गुप्त रूप में विराजमान होने के कारण भाबरीनारायण को ''गुप्त तीर्थ`` के रूप में पांचवां धाम माना गया है। ऋशि मुनि इसकी महिमा गाते हैं: :-
शबरीनारायण पुरी क्षेत्र शिरोमणि जान
याज्ञवलक्य व्यासादि ऋशि निज मुख करत बखान।
शिवरीनारायण में वैश्णव परम्परा के भगवान नारायण, के शिवनारायण, लक्ष्मीनारायण और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी के भव्य मंदिर हैं। एक वैष्‍्णव मठ भी यहां हैं। श्रीराम जानकी मंदिर को अकलतरा के जमींदार श्री सिदारसिंह ने महंत अर्जुनदास की प्रेरणा से पुत्ररत्न प्राप्ति के बाद संवत् १९२७ में बनवाया। इसी प्रकार एक अन्य श्रीराम लक्ष्मण जानकी मंदिर का निर्माण क्षेत्रीय केंवट समाज के द्वारा बनवाया गया है। इस मंदिर में भगवान विष्‍्णु के २४ अवतारों की मूर्तियां हैं। इस मंदिर के बगल में बंजारा नायक समाज के द्वारा निर्मित श्रीरामजानकी गुरू नानकदेव मंदिर है। महानदी के तट पर लक्ष्मीनारायण का अति प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर पूर्वाभिमुख है। इस मंदिर प्रांगण में मां अन्नपूर्णा का दक्षिणाभिमुख सौम्य मूर्ति से युक्त भव्य मंदिर है। इस मंदिर के परिसर में समस्त सोलह शक्तियां मेदनीय, भद्रा, गंगा, बहुरूपा, तितिक्षा, माया, हेतिरक्षा, अर्पदा, रिपुहंत्री, नंदा, त्रिनेती, स्वामी सिद्धि और हासिनी मां अन्नपूर्णा के साथ विराजित हैं। ''माता विशालाक्षि भगवान सुन्दरी त्वां अन्नपूर्णे भारण प्रपद्ये`` ऋतुओं के संधिकाल में पड़ने वाले नवरात्रि में किये जाने वाले आध्यात्मिक जप तप अनुश्ठान और समस्त धार्मिक कार्य फलदायी होते हैं। भारदीय वसंत पर्व में मां अन्नपूर्णा प्रत्येक दिन अलग अलग रूपों में सु शोभित होती हैं। पहले दिन मां अन्नपूर्णा महागौरी, दूसरे दिन ज्येश्ठा गौरी, तीसरे दिन सौभाग्य गौरी, चौथे दिन श्रृंगार गौरी, पांचवे दिन वि शालाक्षी गौरी, छठे दिन ललिता गौरी, सातवें दिन भवानी और आठवें दिन मंगलागौरी के रूप में विराजित होेती हैं। छत्तीसगढ़ की महिला समाज द्वारा यहां मंगलागौरी की पूजा और उसका उद्यापन किया जाता है।
त्रेतायुग में श्रीरामचंद्रजी जब लंका पर चढ़ाई करने जाने लगे तब उन्होंने मां अन्नपूर्णा की आराधना करके अपनी बानर सेना की भूख को भाशंत करने की प्रार्थना की थी। तब मां अन्नपूर्णा ने सबकी भूख को शशंत ही नहीं किया बल्कि उन्हें लंका विजय का आशीर्वाद भी दिया। इसी प्रकार द्वापरयुग में पांडवों ने कौरवों से युद्ध शुरू करने के पूर्व मां अन्नपूर्णा से सबकी भूख शशंत करने और अपनी विजय का वरदान मांगा था। मां अन्नपूर्णा ने उनकी मनोकामना पूरी करते हुए उन्हें विजय का आ शीर्वाद दिया था। सृष्‍्टि के आरंभ में जब पृथ्वी का निचला भाग जलमग्न था तब हिमालय क्षेत्र में भगवान नारायण बद्रीनारायण के रूप में विराजमान थे। कालांतर में जल स्तर कम होने और हिमालय क्षेत्र बर्फ से ढक जाने के कारण भगवान नारायण सिंदूरगिरि क्षेत्र के भाबरीनारायण में विराजमान हुए। यहां उनका गुप्त वास होने के कारण भाबरीनारायण ''गुप्त तीर्थ`` के रूप में जगत् विख्यात् हुआ। कदाचित इसी कारण देवी-देवता और ऋशि-मुनि आदि तपस्या करने और सिद्धि प्राप्त करने के लिए इस क्षेत्र में आते थे। उनकी क्षुधा को शशंत करने के लिए मां अन्नपूर्णा यहां सतयुग से विराजित हैं।
भाक्ति से शिव अलग नहीं हैं। अधिष्‍ठान से अध्यस्त की सत्ता भिन्न नहीं होती, वह तो अधिष्‍्ठान रूप ही है। शिव एकरस अपरिणामी है और शक्ति परिणामी हैं। यह जगत परिणामी भाक्ति का ही विलास है। शिव से भाक्ति का आविर्भाव होते ही तीनों लोक और चौदह भुवन उत्पन्न होते हैं और शक्ति का तिरोभाव होते ही जगत अभावग्रस्त हो जाता है।
भाक्ति जातं हि संसारं तस्मिन सति जगत्व्रयम्।
तस्मिन् क्षीणे जगत क्षीणं तच्चिकित्स्य प्रयत्नेत:।।
आनंद स्वरूपा भक्त वत्सला मां भवानी भक्तों के भावनानुसार अनेक रूपों को धारण करती है-दुर्गा, महाकाली, राधा, ललिता, त्रिपुरा, महालक्ष्मी, महा सरस्वती और अन्नपूर्णा। चूंकि शिव से इनकी सत्ता अलग नहीं है अत: इनको ''शिव- शक्ति`` कहते हैं। भगवान शंकराचार्य के अनुसार ''परमात्मा की अश्टाक्त नामावली भाक्ति जिसने समस्त संसार को उत्पन्न किया है, अनादि, अविद्या, त्रिगुणात्मिका और जगत रूपी कार्य से परे है।`` कार्यरूप जगत को देखकर ही शक्तिरूपी माया की सिद्धि होती है। जिस प्रकार बालक माता के गर्भ में नौ माह तक रहकर जन्म लेता है, उसी प्रकार तीनों लोक और चौदह भुवन भाक्ति रूपी माता के गर्भ में स्थित है। मां अन्नपूर्णा हमारा पालन और पो शण करती है। गीता में श्रीकृष्‍्ण जी कहते हैं-' हे अर्जुन ! मेरी भाक्ति रूपी योनि गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतनरूप बीज स्थापित करता हूं। इन दोनों के संयोग से संसार की उत्पत्ति होती है। नेक प्रकार के योनि में जितने शरीरादि आकार वाले पदार्थ उत्पन्न होते हैं, उनमें त्रिगुणमयी भाक्ति तो गर्भ धारण करने वाली माता है और मैं बीज का स्थापन करने वाला पिता हूं।'
''धान का कटोरा`` कहलाने वाला छत्तीसगढ़ का सम्पूर्ण भूभाग मां अन्नपूर्णा की कृपा से प्रतिफलित है। जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से ६० कि.मी., बिलासपुर से ६४ कि.मी. और रायपुर से १२० कि.मी. व्हाया बलौदाबाजार की दूरी पर पवित्र महानदी के पावन तट पर स्थित शिवरीनारायणकी पि चम छोर में रामघाट से लगा लक्ष्मीनारायण मंदिर परिसर में दक्षिण मुखी मां अन्नपूर्णा विराजित हैं। काले ग्रेनाइट पत्थर की ११-१२ वीं भाताब्दी की अन्यान्य मूर्तियों से सुसज्जित इस मंदिर का जीर्णोद्धार महंत हजारगिरि की प्रेरणा से बिलाईगढ़ के जमींदार ने १७वीं भाताब्दी में कराया था। मंदिर परिसर में भगवान लक्ष्मीनारायण के द्वारपाल जय-विजय और सामने गरूण जी के अलावा दाहिनी ओर चतुर्भुजी गणे श जी जप करने की मुद्रा में स्थित हैं। दक्षिण द्वार से लगे चतुर्भुजी दुर्गा जी अपने वाहन से सटकर खड़ी हैं। मंदिर की बायीं ओर आदि शक्ति महागौरी मां अन्नपूर्णा विराजित हैं। इस मंदिर का पृथक अस्तित्व है। मंदिर के जीर्णोद्धार के समय घेराबंदी होने के कारण मां अन्नपूर्णा और लक्ष्मीनारायण मंदिर एक मंदिर जैसा प्रतीत होता है और लोगों को इस मंदिर के पृथक अस्तित्व का अहसास नहीं होता। अन्नपूर्णा जी की बायीं ओर दक्षिणाभिमुख पवनसुत हनुमान जी विराजमान हैं। पूर्वी प्रवेश द्वार पर एक ओर कालभैरव और दूसरी ओर भाीतला माता स्थित है। मां अन्नपूर्णा और भगवान लक्ष्मीनारायण के विषेश कृपापात्र मंदिर के पुजारी और सुप्रसिद्ध ज्योति शाचार्य पंडित वि वे वर नारायण द्विवेदी के कु शल संरक्षण में यहां प्रतिवर्श भारदीय और वासंतिक नवरात्रि में सर्वसिद्धि और मनोकामना ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती है। मां अन्नपूर्णा की कृपा हम सबके उपर सदा बनी रहे, यही कामना है। उन्हें हमारा शत् शत् नमन पंडित लोचनप्रसाद पांडेय के शब्दों में :-
महामाया रूपे परमवि शदे भाक्ति ! अमले !
रमा रम्ये भाशन्ते सरल हृदये देवि ! कमले !
जगन्मूले आद्ये कवि विवुधवन्द्ये श्रुतिनुते !
बिना तेरी दया कब अमरता लोग लहते !!
रचना, आलेख, फोटो एवं प्रस्तुति
प्रो. आश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कोलोनी,
चांपा-४९५६७१ (छत्तीसगढ़)

छत्तीसगढ़ के रमरमिहा




छत्तीसगढ़ के रमरमिहा
प्रो. अश्विनी केशरवानी
महानदी, छत्‍तीसगढ़ की एक पवित्र और पुण्यदायिनी नदी है। इसे चित्रोत्पला गंगा भी कहा जाता है और इसका उल्लेख रामायण और महाभारत कालीन ग्रंथों में मिलता है। गंगा के समान पवित्र इस नदी के तट पर अनेक नगर और मंदिर स्थित हैं। महानदी की पवित्रता के कारण ये नगर सांस्कृतिक तीर्थ कहलाने लगे। इन नगरों में ऋषि-मुनियों प्राचीन काल में अपना आश्रम बनाकर तप किया करते थे। कदाचित् इसी कारण इन्हें सांस्कृतिक तीर्थ कहा जाने लगा। सिहावा, राजिम, सिरपुर, खरौद, शिवरीनारायण, तुरतुरिया, चंद्रपुर और संबलपुर आदि नगर महानदी के तट पर बसे हैं। इस नदी के तटवर्ती क्षेत्रों में रामायण और महाभारत कालीन अवशेष आज भी मिलते हैं। रायपुर जिले के बलौदाबाजार के निकट जंगलों के बीच तुरतुरिया ग्राम स्थित है। रामायण काल में यहां बाल्मिकी आश्रम था, जहां माता सीता ने वनदेवी के रूप में रहकर लव और कुश को जन्म दिया था। मल्हार के पास ग्राम कोसला को माता कौशल्या का मायका और श्रीराम का ननिहाल माना जाता है। सक्ती और सरगुजा की पहाड़ियों में रामायण कालीन अवशेष मिलते हैं। शिवरीनारायण का वास्तविक रूप शबरीनारायण है जो शबरी के जूठे बेर खाने और उसके उद्धार करने के बाद श्रीराम और लक्ष्मण ने दंडकारण्य जाते इस भेंट को चिरस्थायी करने के लिये बनाये थे। श्रीराम का नारायणी रूप यहां प्राचीन काल से गुप्त रूप से विराजमान है। कदाचित् इसी कारण इसे ''गुप्तधाम'' कहा गया है। रामनाम को समर्पित, अपने पूरे शरीर में रामनाम अंकित कराकर केवल राम को भजने वाले रामनामी महानदी के तटवर्ती ग्रामों में बसते हैं। इन्हें रमरमिहा, रामनमिहा और रामनामी कहा जाता है। खरौद को रामायण कालीन खर और दूषण की नगरी माना जाता है। खरौद के दक्षिण द्वार पर शबरी का अति प्राचीन मंदिर है। इसे सौराइन दाई का मंदिर भी कहा जाता है।
महानदी का यह तटवर्ती क्षेत्र धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। सिहावा, सिरपुर, राजिम, मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुर और संबलपुर जहां धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, वहां प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिलने से प्राचीनता की जानकारी मिलती है। राजनीतिक दृष्टि से तब इसे ''ट्रांस महानदी क्षेत्र'' कहा जाता था। महानदी की सहायक नदी जोंक के तट पर गुरू घासीदास का धाम गिरौदपुरी स्थित है। यहीं सतनाम पंथ का जन्म हुआ । इसी प्रकार सरसींवा के पास महानदी का तटवर्ती ग्राम ``उड़काकन'' रामनामी पंथ का एक पवित्र तीर्थधाम है। रामनामी और सतनामी के लिये शिवरीनारायण का वही महत्व है जो दूसरों के लिये प्रयाग और काशी का है। माघी पूर्णिमा से लगने वाले मेला के समय इस पंथ के लोग भी शिवरीनारायण में अपना तंबू लगाकर भजन आदि करते हैं। पूरे शरीर में रामनाम का अंकन लोगों के लिये आकर्षण होता है। मैं भी इन्हें बचपन से देखते आ रहा हंू। मेरे लिये यह उत्सुकता का विषय था। सांवले शरीर में रामनाम को गोदना, सिर पर मोर मुकुट लगाये हाथ में मंजिरा लिये रात दिन रामनाम का भजन करते हैं। उनके शरीर का ऐसा कोई भाग नहीं बचा होता है जहां रामनाम अंकित न हो...यहां तक कि वे जो कपड़े पहनते हैं और जिस तम्बू के नीचे रहते हैं, उसमें भी रामनाम अंकित होता है। छत्‍तीसगढ़ के ग्राम्यांचलों में आज भी प्रात: राम राम कहने का रिवाज है। इससे उनकी दिनचर्या शुभ होती है।
महानदी के तटवर्ती ग्रामों में रमरमिहा लोग निवास करते है। छ>ाीसगढ़ के पांच सीमावर्ती जिलों रायपुर, बिलासपुर, जांजगीर-चांपा, महासमुंद और रायगढ़ के सारंगढ़, घरघोड़ा, जांजगीर, चांपा, मालखरौदा, चंद्रपुर, पामगढ़, कसडोल, बलौदाबाजार और बिलाईगढ़ क्षेत्र के लगभग ३०० गांवों में पांच लाख रमरमिहा निवास करते हैं। रामनामी पंथ अनुसूचित जाति की एक शाखा है जो संत कवि रैदास को अपने पंथ का मूल पुरूष मानते हैं। इन्हें रमरमिहा अथवा रामनमिहा कहा जाता है। रामनाम में सदा तन्मय रहने वाले ये लोग अहिंसक और शाकाहारी होते हैं। मदिरा से वे बहुत दूर होते हैं।
छत्‍तीसगढ़ में रामनामी पंथ की उत्पि>ा के सम्बंध में कहा जाता है कि ये लोग हरियाणा के नारनौल से यहां आये थे। उस काल में तत्कालीन शासकों के दमनात्मक रवैये से त्रस्त होकर ये लोग छत्‍तीसगढ़ के शांत माहौल में आ बसे थे। आज उनकी २० वीं पीढ़ी के वंशज अपनी परंपराओं और विशिष्ट सांस्कृतिक धरोहरों के कारण अलग से पहचाने जाते हैं। पारस्परिक सद्भाव और अद्भूत संगठन क्षमता वाले इस कौम को तोड़ने के लिये तत्कालीन शासकों ने एक चाल चली जिसमें वे सफल हो गये। पूर्व में रामनामी पंथ के लोग भी सतनाम के उपासक थे। उनमें आपसी सद्भाव और भाईचारा था। इससे उनमें अच्छा संगठन था। उनकी इस संगठन शक्ति को क्षीण करने और आपस में फूट डालने के लिये एक नवजात शिशु के माथे पर ''रामनाम'' गुदवा दिया और प्रचारित कर दिया कि यह शिशु राम की इच्छा से इस भूलोक में आया है। अत: राम की इच्छा के अनुरूप रामनाम का अनुसरण करें। इस प्रकार एक शक्तिशाली संगठन दो हिस्सों में बंट गया। आगे चलकर इन दोनों समुदाय के दो भाग और हुये। अलग रहने के बावजूद इनमें सांस्कृतिक साम्यता पायी जाती है।
सांस्कृतिक परंपरा के द्योतक राम नाम :-
श्रीराम को अनेक रूपों में पजा जाता है। शायद ही कोई ऐसा होगा जो श्रीराम के सगुण रूप को नकारता हो? लेकिन महानदी घाटी के ग्राम्यांचलों में बसे रमरमिहा लोग श्रीराम के सगुण रूप को नकार कर उसके निर्गुण रूप के उपासक हैं। हिन्दुस्तान में शायद ही कोई दूसरा पंथ होगा जो रामनाम में इतना रमा जाये कि पूरे शरीर में रामनाम गुदवा ले। लेकिन रमरमिहा लोग पूरे शरीर में राम नाम गुदवाते हैं, यहां तक पहनने-ओढ़ने के कपड़े और तम्बू के कपड़ों में भी राम नाम लिखा होता है। श्रीराम चरित मानस में भी कहा गया है:- ``जय राम रूप अनूप निर्गुण प्रेरक सही `` अर्थात् हे राम! आपकी जय हो। आपके रूप अनुपम है। आप निर्गुण हैं और सत्य ही गुणों के प्रेरक हैं। आगे कहा गया है:-
यद्यपि प्रभु के नाम अनेका, श्रुति कह अधिक एक से एका।
राम सकल नामन्ह ते अधिका, होउ नाथ अघ खग गल बघिका।।
यद्यपि प्रभु के अनेक नाम है और वेद कहते हैं कि वे नाम एक से एक बढ़कर है। तो भी हे नाथ ! रामनाम सबसे बढ़कर हो और पाप रूपी पक्षियों के लिये वह बधित के समान हो। सबसे मजेदार बात तो यह है कि निराकार राम की उपासना करने का अधिकार उन्हें न्यायालय से मिला है।
जांजगीर-चांपा जिले के मालखरौदा विकासखंड के अंतर्गत ग्राम चारपारा के श्री परसराम भारद्वाज को रामनामी पंथ का प्रवर्तक माना जाता है। सन् १९०४ में उन्होंने निराकार ब्रह्म के प्रतीक राम को मानकर एक जन आंदोलन की शुरूवात की थी। उन्होंने सबसे पहले अपने माथे पर रामनाम अंकित कराया था। इसके पूर्व निचली जाति के माने जाने के कारण वे रामायण का पाठ और रामनाम का उच्चारण नहीं करते थे। उनका मंदिरों में प्रवेश निषिद्ध था। अक्सर उनको जातिगत आधार पर अपमान सहना पड़ता था। इसी बीच विदेशी ताकतों ने इस क्षेत्र को अपना कार्यक्षेत्र बनाया और उन्हें ईसाई धर्म मानने के लिये विवश किया। इसके लिये उन्हें हर प्रकार की मद्द दी जाने लगी। इसी समय श्री परसराम भारद्वाज ने रामनामी पंथ के अंतर्गत निराकार ब्रह्म के प्रतीक राम की पूजा अर्चना करने की बात कही, जिसे सबने सहर्ष स्वीकार किया और तब से सब निराकार श्रीराम को अपने घर में पूजने लगे। भविष्य में उच्च जातियों द्वारा पुन: बाधा न डाल सके इसके लिये उन्होंने तत्कालीन मध्य प्रांत और बरार के जिला सत्र न्यायालय से कानूनी अधिकार प्राप्त कर लिया। सत्र न्यायाधीश ने अपने फैसले में लिखा है:-''ये लोग जिस राम के नाम को भजते हैं वे राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम नहीं हैं बल्कि निराकार ब्रह्म के प्रतीक राम हैं।'' ब्राह्मणों के प्रति इनके मन में जबरदस्त विरोध की भावना है। संभव है उनकी यह भावना उनके द्वारा जातिगत आधार पर दी गयी प्रतारणा का प्रतिफल हो ? यही कारण है कि रामनामी पंथ की सामाजिक संरचना में जन्म से लेकर मृत्यु तक और विवाह से लेकर संतानोत्पि>ा तक के सारे संस्कार ऐसे बनाये गये हैं जिसमें ब्राह्मणों की आवश्यकता ही न पड़े। बिलासपुर जिला गजेटियर के अनुसार उनके धार्मिक कार्यो को पंथ के संत सम्पन्न कराते हैं। अगर अति आवश्यक हुआ तो वे ब्राह्मणों को भी आमंत्रित करते हैं।
रेड इंडियन :-
रामरमिहा के गुरू और गोसाई लोग रंगीन मोर पंखों वाले बांस के मुकुट धारण करने वाले होते हैं। इस पर भी रामनाम की काली पट्टी लगी रहती है। पत्रकार श्री सतीश जायसवाल इनकी तुलना रेड इंडियन से करते हैं। अपने एक लेख मंे वे लिखते हैं :- ''इन मुकुटों के कारण ये लोग रंग बिरंगे पंखों की शीश सज्जा करने वाले रेड इंडियनों की तरह नजर आते हैं। वैसे तो भारत में अंडमान द्वीप समूह तथा कुछ आफ्रीकी देशों के जन जातीय कबीलों में वृक्षों की छाल और मिट्टी के नैसर्गिक रंगों से अपने शरीर को चित्रित करने और रंगने की परंपरा है। लेकिन वहां यह सब सजावटी सा होता है। धार्मिक विधि विधान के तौर पर अपने पूरे शरीर में ईश्वर का नाम अंकित करने वाला संभवत: यह दुनिया का एक मात्र समुदाय है। यह समुदाय कोई छोटा मोटा जन जातीय कबीला नहीं बल्कि पांच लाख से भी उपर विशाल जनसंख्या वाले धर्मावलंबियों का एक संगठित पंथ है। जिससे जनतांत्रिक व्यवस्था का सबसे सशक्त अस्त्र अर्थात् मतदान का अधिकार मिला हुआ है।''
आदिवासी परंपरा गोदना :-
सौंदर्य वृद्धि के लिये आदिवासी संस्कृति में अंग लेखन और चित्रांकन की परंपरा गोदना अनेक आस्थाओं से जुड़ा है। गोदना आदिवासी महिलाओं का श्रृंगार ही नहीं बल्कि ऐसा परिधान है जो आजीवन तन से जुड़ा रहता है। मान्यता तो यह भी है कि मृत्योपरान्त तो तन के सारे गहने और कपड़े उतारे जा सकते हैं, लेकिन संग तो गोदना ही जाता है। गोदना को लोग ''चिन्हारी'' के रूप में गुदवाते हैं। ऐसे मंे गोदना अगर रामनाम का हो तो सोने में सुहागा ही होगा। अगर किसी रामरमिहा को ध्यान से देखें तो आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है क्योंकि हाथ, पैर यहां तक कि आंखों की पलकों में रामनाम खुदा रहता है। बचपन में रामनाम माथे पर गोदा जाता है। गोदना गोदते समय भजन कीर्तन होता है जिससे मन रामनाम में लीन हो जाये और पीड़ा का आभास तक न हो ? उम्र के हिसाब से शरीर के दूसरे भाग में गोदने का काम किया जाता है। पहले स्याही से रामनाम लिखा जाता है फिर सुई चुभोई जाती है। गोदना गोदने में दो सुई काम में लाई जाती है और काले रंग को अधिक गहरा तथा पक्का बनाने के लिये उस पर उपर से मिट्टी के तेल से निकला धुंआ लगा लेते हैं। गोदना गोदते समय गीत भी गाये जाते हैं :- धूम कुसंगति कालिख होई। लिखिय पुराण मंजु मति होई।।
गोदना गोदने के बाद उसके उपर हल्दी का लेप लगाया जाता हैं गोदना पकने की बात बहुत कम ही सुनने को मिलती है। छ>ाीसगढ़ में गोदना गोदने का काम देवारिन महिलाएं करती हैंं। गोदना गोदते समय वे अक्सर गाती हैं:
ऐ मोर भूरी दीदी-
घुरूर घुरूर जाता बाजे माली भर पिसा
एक चिरूवा भर दउड़त है किसान।
एक चानी भांटा सोर घइला पानी
तोर धांगरा दारू पी के पड़ गै उतानी।
पंचायत : एक सर्वमान्य संस्था :-
सामाजिक व्यवस्था में जहां चार घर हुये नहीं कि उनमें किसी न किसी बात को लेकर टकराहट अवश्य होती है। रमरमिहा लोग झगड़ों का निपटारा कोर्ट-कचहरी के बजाय अपनी पंचायत में करना ज्यादा पसंद करते हैं। इस पंथ की अपनी पंचायत होती है, जो सर्वमान्य संस्था होती है। रमरमिहा लोगों की सामाजिक पंचायत का गठन पंथ के निर्माण के समय से ही हुआ है। सन् १९६० के पहले तक गुरू प्रथा से पंचों का नामांकन होता था। लेकिन समयानुसार सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन अवश्यसंभावी है। अत: नामांकन प्रथा के बजाय चुनाव प्रक्रिया अपनाया जाने लगा। इस प्रकार सन् १९६० में पहली निर्वाचित पंचायत बनी और उसके बाद से हर वर्ष पंचायत का चुनाव होता है। इस पंचायत में १०० पंच होते हैं। आठ गांव के पीछे एक प्रतिनिधि होता है। ये सब महासभा के प्रतिनिधि कहलाते हैं। इसी महासभा में पदाधिकारियों का निर्वाचन होता है। पंचायत का कार्यक्षेत्र सामाजिक, पारिवारिक झगड़ों का निपटारा करना, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन को मजबूत बनाना और सामूहिक विवाह को सम्पन्न कराना है। लंबे समय तक श्री बोधराम रामनामी पंथ के महामंत्री हैं।
सामूहिक आयोजन : पंथ मेला :-
रामनामी पंथ के दो प्रमुख आयोजन होते हैं- एक, रामनवमीं में संत समागम और दूसरा, पौष एकादशी से त्रयोदशी तक चलने वाला तीन दिवसीय मेला। मेला में सामाजिक वाद विवादों, पारिवारिक झगड़ों आदि का फैसला होता है। इसके अलावा महासभा का आयोजन और सामूहिक विवाह भी होते हें। अगला मेला किस स्थान में लगेगा, इसका निर्णय भी यहीं पर हो जाता है। रामनामी मेला महानदी के तटवर्ती ग्रामों में एक बार महानदी के उ>ार में तो दूसरी बार महानदी के दक्षिण में लगता है।
रामनामी मेला का आयोजन महानदी के तटवर्ती ग्रामों में लगने के बारे में एक लोककथा प्रचलित है। उसके अनुसार आज से ८५-८५ वर्ष पहले सवारियों से भरी एक नाव महानदी को पार करते समय मझधार में फंस गयी। नाविकों न नाव को किनारे लगाने की बहुत कोशिश की मगर सफलता नहीं मिलीं उस समय ईश्वर ही कोई चमत्कार कर सकता था। नाव में सवार सभी यात्रियों ने मिन्नतें मानने लगे लेकिन इससे भी कोई फायदा नहीं हुआ। संयोग से उस नाव में रामनामी पंथ के प्रवर्तक श्री परसराम भारद्वाज और उनके अनुयायी भी सवार थे। सबने उनसे भी मिन्नतें मानने का अनुरोध किया। तब उन्होंने भी मिन्नतें मानी :- ''यदि मझधार में फंसी नाव सकुशल किनारे लग जायेगी तो रामनामी समाज द्वारा महानदी के दोनों किनारों पर रामनाम के भजन-कीर्तन का आयोजन करेगी।'' आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, उनके इस प्रकार मिन्नत मानते ही नाव सकुशल किनारे लग गयी। तब से प्रतिवर्ष महानदी के तटवर्ती ग्रामों में रामनाम का भजन-कीर्तन का आयोजन होने लगा जो आगे चलकर रामनामी सम्मेलन और मेला का रूप ले लिया।
तीन दिवसीय मेला के पहले दिन मेला स्थल में निर्मित जय स्तम्भ के उपर कलश चढ़ाया जाता है। दूसरे दिन रामायण पाठ, रामनाम के भजन-कीर्तन का आयोजन होता है। मेला के अंतिम दिन सामूहिक विवाह और सामूहिक भोजन-भंडारा का आयोजन होता है। मेला स्थल के आस पास जुआ, मांस-मदिरा और वेश्या गमन जैसी कुप्रथा पूर्णत: प्रतिबंधित होता है। रामलीला मेला का प्रमुख आकर्षण होता है। मेला स्थल के मध्य में १३ फीट ऊंचे जय स्तम्भ का निर्माण किया जाता है और चबुतरे में भी रामनाम अंकित होता है। इस चबुतरे पर रामचरित मानस की प्रति रख दी जाती है। फिर रामनाम कीर्तन होता है जिसमें वाद्य यंत्रों के बजाय घुंघरू मंडित लकड़ी के चौके से ध्वनि और ताल निकाला जाता है तथा मयूर पंख से सुसज्जित तंबूरे से वातावरण राममय हो जाता है। विवाह के समय वर-वधू की जय स्तम्भ और रामायण को साक्षी मानकर सात फेरा लेवाया जाता है। फेरा के पूर्व महासभा के समक्ष वर और वधू पक्ष को विधिवत घोषणा पत्र भरना पड़ता है और संस्था का निर्धारित शुल्क ११-११ रूपये देना पड़ता है। दहेज मांगना और तलाक लेना पूर्णत: वर्जित है। हालांकि विधवा महिला के माथे पर रामनाम देखकर कोई व्यक्ति उनसे पुनर्विवाह कर सकता है।
रचना, आलेख, फोटो एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,
चांपा-४९५६७१ (छत्तीसगढ़)