बुधवार, 4 जून 2008

कटते पेड़, बंजर जमीन और प्रदूषित नदियां

औद्योगिक क्रांति की भट~ठी में हमने अपना जंगल झोंक दिया है।
पेड़ काट डाले और सड़कें बना डालीं। कुल्हाड़ी-आरी से जंगल काटने में देर
होती थी, तो पावर से चलने वाली आरियां गढ़ डालीं। सन~ 1950 से 2000 के बीच
50 वर्षो में दुनियां के लगभग आधे जंगल काट डाले, आज भी बेरहमी से काटे
जा रहे हैं। जल संगzहण के लिए तालाब बनाये जाते थे जिससे खेतों में
सिंचाई भी होती थी। लेकिन आज तालाब या तो पाटकर उसमें बड़ी बड़ी इमारतें
बनायी जा रही है या उसमें केवल मछली पालन होता है। मछली पालन के लिए कई
प्रकार के रसायनों का उपयोग किया जाता है जिसका तालाबों का पानी अनुपयोगी
हो जाता है। इसी प्रकार औद्योगिक धुओं से वायुमंडल तो प्रदू'िात होता ही
है, जमीन भी बंजर होती जा रही है। इससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा है
और दुष्परिणाम हम भुगत रहे हैं। आखिर जंगल क्यों जरूरी है ? पेड़ हमें ऐसा
क्या देते हैं, जो उन्हें बचाना जरूरी है ? पेड़ हमें फल, फूल, जड़ी-बूटी,
भोजन, र्इंधन, ईमारती लकड़ी, गोंद, कागज, रेशम, रबर और तमाम दुनियां के
अद~भूत रसायन देते हैं। इसलिए हमने उसका दोहन ¼शोषण½ तो किया, पर यह भूल
गये कि वृक्षों के नहीं होने से यह धरती आज वीरान बनती जा रही है। वनों
के इस उपकार का रूपयों में ही हिसाब लगायें तो एक पेड़ 16 लाख रूपये का
फायदा देता है। घने जंगलों से भाप बनकर उड़ा पानी वर्षा बनकर वापस आता है
और धरती को हरा भरा बनाता है। पेड़ पौधों की जड़ें मिðी को बांधे रहती है।
पेड़ों की कटाई से धरती की हरियाली खत्म हो जाती है। धरती की उपजाÅ मिðी
को तेज बौछारों का पानी बहा ले जाती है। पेड़ों की ढाल के बिना पानी की
तेज धाराएं पहाड़ों से उतर कर मैदानों को डुबाती चली जाती है। हर साल बाढ़
का पानी अपने साथ 600 करोड़ टन मिðी बहा ले जता है। मिðी के इस भयावह कटाव
को रोकने का एक ही उपाय है-वृक्षारोपण। मिÍी, पानी और बयार, ये तीन उपकार
हैं वनों के हम पर। इसलिए हमारे देश में प्राचीन काल से पेड़ों की पूजा
होती आयी है।

'संयुक्‍त राष्ट्र संघ के आंकड़ों के अनुसार विकासशील देशों में हर
घंटे 8 से 12 वर्ग कि.मी. वन काटे जा रहे हैं। वैज्ञानिक पृथ्वी को 'हरा
गृह' कहते हैं। हरियाली मानव सभ्यता की मुस्कान है। पृथ्वी की हरियाली
हजारों किस्म की उपयोगी वनस्पतियों के कारण है, लेकिन आज तथाकथित विकास
की अंधी दौड़ ने हमें पागल बना दिया है और हम जंगल काटकर कांक्रीट के जंगल
खड़े कर रहे हैं। परिणामस्वरूप वनस्पतियों की 20 से 30 हजार किस्में धरती
से उठ गयी हैं। यदि हमारे पागलपन की यही स्थिति रही तो इस सदी के अंत तक
हम 50 हजार से भी अधिक वनस्पतियों की किस्मों से हाथ धो बैठेंगे। इस बात
का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इससे 10-12 जातियों के जीवों
का भी लोप हो जायेगा। अत: पृथ्वी की हरियाली न केवल हमारे जीवन की उर्जा
है, अपितु पर्यावरण को संतुलित करने के लिए बहुत जरूरी है।'

पर्यावरण सबसे अधिक वनों से प्रभावित होता है। हवा, पानी, मिðी,
तापमान आदि वनों से प्रभावित होते हैं। शंकुधारी पौधों की प्रजातियां
समुदz तट से लगभग 5000 मीटर की Åंचाई पर पहाड़ों पर पायी जाती है।
शंकुधारी पौधों में जल गzहण क्षमता बहुत अधिक होती है। Åंचे पहाड़ी
क्षेत्रों में शंकुधारी पौधों के साथ साथ चौड़े पŸो वाले वृक्ष भी पाये
जाते हैं। प्राय: इन क्षेत्रों के आसपास पानी का सzोत पाया जाता है। साल
प्रजाती के पौधे अन्य प्रजाति के पौधों की अपेक्षा अधिक ठंडे और आदर्z
होते हैं और इस क्षेत्र में पानी का बहाव हमेशा रहता है। छŸाीसगढ़ प्रदेश
के सरगुजा, रायगढ़, जशपुर, रायपुर, बस्तर, दंतेवाड़ा, बिलासपुर और
राजनांदगांव जिलों के अलावा शहडोल, मंडला और बालाघाट जिले में साल के पेड़
बहुतायत में मिलते हैं। इसी प्रकार हिमालय की चोटी मंेें पूरे वर्ष बर्फ
जमे होने के कारण वहां से निकलने वाली नदियों में हमेशा पानी बहता है।
लेकिन इंदzावती, नर्मदा, सोन, चम्बल, महानदी, रिहंद, केन आदि का उद~गम
बर्फीली पहाड़ियों से नहीं होने के कारण इनमें हमेशा पानी बहता जरूर था।
लेकिन आज इन नदियों के उपर बांध बन जाने से इन नदियों में भी पानी नहीं
रहता। बल्कि इन नदियों में औद्योगिक रसायन युक्त जल छोड़े जाने से नदियां
प्रदू'िात होती जा रही है और नदियों के पुण्यतोया और मोक्षदायी होने में
संदेह होने लगा है। छत्तीसगढ़ प्रदे"ा में साल के वनों के साथ साथ
बाक्साइड, आयरन, कोयला, चूना और डोलामाइट अयस्क की प्रचुर मात्रा उपलब्ध
है, जिसका उत्खनन जारी है। इससे यहां की जल गzहण क्षमता में भी प्रतिकूल
प्रभाव पड़ने लगा है।

वनों के घटने या बढ़ने से वहां की जलवायु प्रभावित होती है। वन
क्षेत्रों में एवं उसके आसपास की जलवायु अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा आदर्z
और ठंडी होती है। जलवायु पर वनों के इस प्रभाव को 'माइकzो क्लाइमेटिक
इफेक्ट' कहते हैं। इस प्रभाव के साथ वनों का पृथ्वी के पूरे वातावरण एवं
पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। यहां यह बताना समीचीन प्रतीत होता है कि
पौधे और वातावरण के साथ हमारा कैसा सम्बंध है। पौधे अपना भोजन बनाने के
लिए सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में पŸिायों में उपस्थित क्लोरोफिल और
वातावरण में उपस्थित कार्बन डाई आक्साइड के साथ रासायनिक प्रतिकिzया करके
अपना भोजन तैयार करते हैं और आक्सीजन छोड़ते हैंं वायुमंडल में कार्बन डाई
आक्साइड और आक्सीजन का एक निश्चित अनुपात होता है। इसमें वायुमंडल में एक
साम्य बना रहता है। लेकिन अगर कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ जाए, तो
यह साम्य टूट जाता है। ऐसा तब होता है, जब पेड़ पौधे कम हों ? इस संतुलन
को बिगाड़ने के लिए औद्योगिकरण बहुत हद तक जिम्मेदार है। गगनचुम्बी
चिमनियों से और जल, थल ओर नभ में बढ़ते यातायात के साधनों के कारण कार्बन
डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ती ही जा रही है, जो पृथ्वी के चारों ओर इकट~ठी
होकर एक चादर का काम करती है। इससे पृथ्वी की गर्मी बाहर नहीं निकल पाती,
जिससे ताप में वृद्धि होती जा रही है। तापमान के बढ़ने की इस प्रक्रिया को
'गzीनहाउस' कहते हैंं वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि अगली शताब्दी के
अंत तक वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा दो गुनी हो जायेगी,
जिससे धzुवी क्षेत्रों का तापमान बढ़ जायेगा। इससे बर्फ पिघलेगी। गर्मी के
दिनों में बाढ़ आयेगी और अवर्षा के दिनों में बर्फ के पिघलने से बारहों
मास बहने वाली नदियां सूख जायेंगी। इससे जमीन का जल स्तर भी नीचे चला
जायेगा और इन नदियों में बनाये गये बांध सूख जायेंगे। इससे चलने वाले
बिजली घर बंद हो जायेंगे। अत: इनसे होने वाले दुष्परिणामों का सहज अनुमान
लगाया जा सकता है।

इसलिए यह विकास प्रकृति के साथ समरस होकर जीने वाले लोगों के लिए
कष्टदायक हो गया है। एक करोड़ पेड़ों को डुबाकर सुदूर वनांचल बस्तर में
बनने वाली बोधघाट वि+द्युत जल परियोजना, भागीरथी टिहरी की घाटी में बसी
हुई 70 हजार की जनसंख्या को विस्थापित कर बनने वाला भीमकाय टिहरी बांध और
इसीप्रकार के अन्य बांध जो कभी भी अपनी पूरी आयु तक जिंदा नहीं रहेंगे,
गंधमर्दन के प्राकृतिक वन को उजाड़कर प्राप्त होने वाले बाक्साइड और दून
घाटी को रेगिस्तान बनाकर प्राप्त होने वाले चूना पत्थर से किसको लाभ होने
वाला है ? इस प्रकार के विकास के आधार पर खड़ी होने वाली अर्थ व्यवस्था
अवश्य ही भोग लिप्सा को भड़का सकती है, क्षेत्रीय असंतुलन पैदा कर सकती
है। इससे पर्यावरण की अपूरणीय क्षति हो सकती है, जिसकी भरपायी किसी भी
कीमत पर नहीं हो सकती। बहुगुणा जी ऐसे विकास के लक्ष्य को भारतीय
संस्कृति के अनुरूप एक कसौटी पर खरा उतरने की बात कहते हैंं। वे गांधी जी
की बातों को याद दिलाते हैं। गांधी जी हमेशा कहते थे-'पृथ्वी प्रत्येक
मनुष्य की आवश्यकता पूरी करने के लिए तो सब कुछ देती है, लेकिन मनुष्य के
लोभ को तृप्त करने के लिए कुछ भी नहीं देती।

आखिर जंगल क्यों जरूरी है ? पेड़ पौधे हमें ऐसा क्या देते हैं, जो
उन्हें बचाना जरूरी है ? पेड़-पौधे हमें फल, फूल, जड़ी-बूटी, भोजन, ईंधन,
इमारती लकड़ी, गोंद, कागज, रेशम, रबर और कई प्रकार के रसायन देते हें।
इसलिए उसका शोषण तो किया गया, पर हम यह भूल गये कि पेड़-पौधो के कारण ही
यह धरती मानव विकास के योग्य बन सकी है। नीलकंठ वृक्षों के कार्बन डाई
आक्साइड का विष पीकर ऐसी कीमियागिरि दिखायी वृक्ष को अमृतोपम फलों में
बदल दिया और उपर से बांट दी प्राण वायु आक्सीजन, जिसके बिना पृथ्वी पर
जीवन की कल्पना की जा सकी। इसलिए आइये हम एक बार पेड़ों के लिए दौड़े.....।

रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,

प्रो. अश्विनी केशरवानी

'राघव', डागा कालोनी,

चांपा-495671 '36 गढ'

3 टिप्‍पणियां:

बालकिशन ने कहा…

विचारोत्तेजक लेख.
प्रोफेसर साहब मैं आपसे सहमत हूँ.

Udan Tashtari ने कहा…

इसलिए आइये हम एक बार पेड़ों के लिए दौड़े.....बहुत आवश्यक संदेश दिया है आपने. साधुवाद.

ghughutibasuti ने कहा…

आप सही कह रहे हैं। हम तो जहाँ भी जाते हैं नए पेड़ अवश्य लगाते हैं।
घुघूती बासूती