विवेकानंद जयंती 12 जनवरी पर विशेष
स्वामी विवेकानंद रायपुर में
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
स्वामी विवेकानंद के दो महत्वपूर्ण वर्ष छत्तीसगढ़ प्रदेश की राजधानी रायपुर में गुजरा था। यह समय महत्वपूर्ण इस मायने में है क्योंकि यहां उन्हें अलौकिक भावानुभूति हुई थी। सन् 1877 ई. की यह बात है जब नरेन्द्रनाथ के रूप में वे रायपुर आये थे। तब उनकी उम्र मात्र 14 वर्ष की थी और वे मेट्रोपोलिटन विद्यालय की तीसरी श्रेणी में पढ़ रहे थे। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्ता रायपुर में रहते थे। अधिक समय तक रहने की आशंका से उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों को रायपुर बुलवा लिया था। नरेन्द्रनाथ अपने छोटे भाई महेन्द्रदत्ता, बहन जोगेन्द्र बाला और भुवनेश्वरी देवी के साथ कलकत्ता से रायपुर आये। उस समय कलकत्ता से सीधी रेल लाईन से नहीं जुड़ा था। उस समय रेल गाड़ी कलकत्ता से इलाहाबाद, जबलपुर और नागपुर होकर बम्बई जाती थी। इसी ट्रेन से नरेन्द्रनाथ जबलपुर आये और बैल गाड़ी से अमरकंटक होकर रायपुर पहुंचे थे। रायपुर पहुंचने में उन्हें 15 दिन लगा था। कुछ लोग उन्हें नागपुर से रायपुर आने की बात कहते हैं। मगर स्वयं नरेन्द्रनाथ ने अपनी यात्रा संस्मरण में लिखा है-''उस पथ की शोभा अत्यंत मनोरम थी। रास्ते के दोनों किनारों पर पत्तों और फूलों से लदे हरे वन वृक्ष थे। वन स्थल का अपूर्व सौंदर्य देखकर मुझे किसी प्रकार का क्लेश नहीं हुआ। आयचित होकर भी जिन्होंने पृथ्वी को इस अनुपम वेशभूषा के द्वारा सजा रखा था, उनकी असीम शक्ति और अनंत प्रेम का पहले पहल साक्षात् परिचय प्राप्त कर मेरा हृदय मुग्ध हो गया था।''
उन्होंने लिखा है-'' वन के बीच जाते हुए उस समय जो कुछ भी मैंने देखा और अनुभव किया, वह स्मृति पटल पर सदैव के लिए अंकित हो गया। विशेष रूप से एक दिन की बात, उस दिन हम उन्नत शिखर विंध्याचल के नीचे से गुजर रहे थे। मार्ग के दोनों ओर बीहड़ पहाड़ की चाटियां आकाश को चूमती हुई खड़ी थी। तरह तरह की वृक्ष लताएं, फल और फूल के भार से लदी हुई पर्वत को अपूर्व शोभा प्रदान कर रही थी। अपनी मधुर कलरव से समस्त दिशाओं को गुंजायमान करते हुए रंग बिरंगे पक्षी घूम रहे थे या फिर कभी कभी आहार की खोज में जमीन पर उतर रहे थे। इन दृश्यों को देखते हुए मैं अपने मन में अपूर्व शांति का अनुभव कर रहा था। मंथर गति से चलती हुई बैल गाड़ी एक ऐसे स्थान पर आ पहुंची, जहां पहाड़ की दो चोटियां मानो प्रेमवश आकृष्ट होकर आपस में स्पर्श कर रही हो..? उस समय उन श्रृंगों का विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए मैंने देखा कि पास वाले एक पहाड़ में नीचे से लेकर चोटी तक एक बड़ा सुराख है और उस सूराख को पूर्ण कर मधु मक्खियों के युग युगान्तर के प्रमाण स्वरूप एक प्रकाण्ड मधु चक्र लटक रहा है। विस्मय से मैं उस समय मक्षिका राज्य के आदि एवं अंत की बातें सोचते हुए मेरा मन तीनों जगत के नियन्ता ईश्वर की अनंत उपलब्धियों में इस प्रकार डूब गया कि थोड़ी देर के लिए मेरा सम्पूर्ण वाह्य ज्ञान लुप्त हो गया। कितनी देर तक इस भाव में मग्न होकर मैं बैल गाड़ी में पड़ा रहा, याद नहीं रहा। जब होश आया तो देखा कि उस स्थान को छोड़कर बहुत आगे निकल आया हूं। बैल गाड़ी में मैं अकेला ही था, इसलिए यह बात दूसरा कोई नहीं जान सका।'' भाव समाधि का यह उनका पहला अनुभव था।
रायपुर में तब कोई अच्छा स्कूल नहीं था। अत: वह अपने पिता जी से ही पढ़ा करता था। उनके पिता जी उनसे अनेक विषयों पर चर्चा किया करते थे, यहां तक कि पुत्र के साथ तर्क वितर्क करते और उनसे हार मानकर कभी कुंठित नहीं हुए। वे हमेशा उन्हें प्रोत्साहित किया करते थे। उन दिनों उनके घर में अनेक विद्वानों का आगमन हुआ करता था और विभिन्न सांस्कृतिक तथा सामाजिक विषयों पर चर्चाएं होती थी। नरेन्द्रनाथ बड़े ध्यान से उनकी बातों को सुनते थे और अवसर पाकर अपना विचार प्रकट भी करते थे। उनकी बुद्धिमता और ज्ञान से सभी चमत्कृत हो उठते थे। इसलिए कोई भी उन्हें छोटा समझने की भूल नहीं करते थे। एक दिन ऐसे ही चर्चा के दौरान नरेन्द्र ने बंगला भाषा के एक ख्यातिनाम लेखक के गद्य पद्य के अनेक उध्दरण देकर सबको इतना आश्चर्यचकित कर दिए कि सभी प्रशंसा करते हुए बोल पड़े-''बेटा ! किसी न किसी दिन तुम्हारा नाम हम अवश्य सुनेंगे।'' कहना न होगा कि यह कोई स्नेहसिक्त अत्युक्ति नहीं थी बल्कि वह एक भविष्य वाणी थी।
नरेन्द्रनाथ बालक होकर भी अपना आत्म सम्मान करना जानते थे। अगर कोई उनकी आयु को देखकर उनकी अवहेलना करना चाहता तो वे इसे बरदाश्त नहीं करते थे। बुद्धि की दृष्टि से वे स्वयं को उससे छोटा या बड़ा समझने का कोई कारण नहीं खोज पाते थे और दूसरों को इस प्रकार सोचने का कोई अवसर देना नहीं चाहते थे। एक बार जब उनके पिता के एक मित्र ने बिना कारण उनकी अवहेलना करने लगे तो नरेन्द्र सोचने लगा-''यह कैसा आश्चर्य है मेरे पिता जी भी मुझे इतना तुच्छ नहीं समझते और ये मुझे ऐसा कैसे समझ रहे हैं ?'' अत: आहत होकर उन्होंने दृढ़ स्वर में कहा-''आपके समान ऐसे अनेक लोग हैं जो यह सोचते हैं कि लड़कों में बुद्धि-विचार नहीं होता, किंतु यह धारणा नितांत गलत है।'' जब आगन्तुक सज्जन ने देखा कि नरेन्द्र अत्यंत क्षुब्ध हो उठा है और वह उनसे बात करने को तैयार नहीं है, तब उन्होंने अपनी गल्ती स्वीकार कर ली।
नरेन्द्र में पाक कला के प्रति स्वाभाविक रूचि थी। रायपुर में अपने पिता की सहायता से वे इस कला में निपुण हो गए। यहां वे शतरंज भी खेलना सीख गए और संगीत में भी पारंगत हो गए। वे एक अच्छे गायक भी थे। उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष भी रायपुर में विकसित हुआ। दो वर्ष रायपुर में रहकर विश्वनाथ दत्ता का परिवार कलकत्ता वापस लौट गया। तब नेरन्द्र का शरीर स्वस्थ, सबल और हृष्ट पुष्ट हो गया था और उनमें आत्म विश्वास जागृत हो उठा था। वे ज्ञान में अपने सम वयस्कों की तुलना में बहुत आगे निकल गए थे। किंतु बहुत समय तक नियमित विद्यालय नहीं जाने के कारण शिक्षकगण उन्हें उच्च कक्षा में भर्ती नहीं कर रहे थे। बाद में विशेष अनुमति से उन्हें भर्ती किया गया। सन् 1879 की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में पास होने वाले वे अकेले थे।
नरेन्द्रनाथ के सर्वमुखी विकास में रायपुर का विशेष योगदान के कारण ही ऐसा हुआ। आइये, उनके जीवन के उस पक्ष को भी देखें जब वे स्वामी विवेकानंद के रूप में परिव्रजन करते हुए मध्यप्रदेश के खंडवा नगर में उन्हें कुछ समय तक एक भंगी परिवार के साथ रहना पड़ा। यह पहला अवसर था जब वे समाज के सबसे निम्न समझे जाने वाले लोगों के बीच रहे। स्वामी जी उनकी दयनीय स्थिति और गरीबी में पलता हुआ उनका विशाल हृदय को देखकर अभिभूत हो उठे। ऊंचे कहाने वालों के शोषण और अत्याचार से उनकी दुर्दशा का स्मरण करके वे अत्यंत व्यथित हो उठे। अपने पत्रों में इस वेदना को वे कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं-''इस अंचल में एक बात को देखकर मुझे बहुत दु:ख होता है, वह है संस्कृत और अन्य शिक्षा का अभाव। देश के इस भाग के लोग धर्म के नाम पर जो कुछ जानते हैं उनमें खाना-पीना और नहाना प्रमुख है।'' वे अक्सर कहा करते थे-''यदि मजदूर लोग काम करना बंद कर दें तो उन्हें अन्न, जल और वस्त्र मिलना बंद हो जायेगा। तुम उन्हें नीच जाति का मानकर अपनी संस्कृति का शेखी मारते हो। आजीविका के इस संग्राम में व्यस्त रहने के कारण उन्हें अपने ज्ञान को जागृत करने का अवसर नहीं मिला। वे इतने दिनों तक मानव बुद्धि द्वारा चलने वाले यंत्र के समान सतत काम करते रहे हैं और चतुर समाज ने उनके परिश्रम के फल का सारा अंश ले लिया पर अब जमाना बदल गया है। अब उच्च जाति वाले नीची जाति वालों को और अधिक समय तक दबा नहीं सकते, चाहे वे इसके लिए कितनी ही कोशिश क्यों न करें। उच्च जाति का कल्याण अब इसी में है कि वे निम्न जातियों को उनके यथोचित अधिकार प्राप्त करने में उनकी सहायता करें।''
वे अक्सर कहा करते थे-''भारत वर्ष के इन गरीब, निरीह और निम्न जाति वालों के प्रति हमारे जो भाव हैं उनका विचार करने से मेरे अंत:करण में कितनी पीड़ा होती है। उन्हें कोई अवसर नहीं मिलता, उनके लिए बचने का कोई रास्ता नहीं हैं और उपर चढ़ने का भी कोई मार्ग नहीं है। वे प्रतिदिन अधिकाधिक नीचे डूबते जा रहे हैं। निर्दयी समाज के द्वारा अपने उपर होने वाले आघातों का वे अनुभव तो करते हैं, पर वे नहीं जानते कि ये आघात कहां से हो रहे हैं। वे भी दूसरों के समान मनुष्य हैं, इस बात को वे भूल गए हैं, इसी का परिणाम है गुलामी और दासत्व। विगत कुछ वर्षों के भीतर विचारशील पुरुषों ने इस बात को देख लिया है, पर दुर्भाग्यवश वे इसका दोष हिन्दू के मत्थे मढ़ते हैं और उनको तो सुधार का एक ही उपाय दिखाई देता है कि संसार के इस धर्म को कुचल दिया जाए। मेरे मित्रों ! मेरी बात ध्यान से सुनो, ईश्वर की दया से मैंने रहस्य का पता लगा लिया है। दोष धर्म का नहीं है। इसके विपरीत तुम्हारा धर्म तो यही सिखाता है कि प्रत्येक प्राणी स्वयं तुम्हारी आत्मा का ही अनेक रूपों में विकसित हुआ है, पर दोष है व्यवहारिक आचरण का अभाव। इस स्थिति को दूर करना है- धर्म का नाश करके नहीं बल्कि उनके महान उपदेशों का अनुसरण करके।''
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रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा (छत्तीसगढ़)
स्वामी विवेकानंद रायपुर में
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
स्वामी विवेकानंद के दो महत्वपूर्ण वर्ष छत्तीसगढ़ प्रदेश की राजधानी रायपुर में गुजरा था। यह समय महत्वपूर्ण इस मायने में है क्योंकि यहां उन्हें अलौकिक भावानुभूति हुई थी। सन् 1877 ई. की यह बात है जब नरेन्द्रनाथ के रूप में वे रायपुर आये थे। तब उनकी उम्र मात्र 14 वर्ष की थी और वे मेट्रोपोलिटन विद्यालय की तीसरी श्रेणी में पढ़ रहे थे। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्ता रायपुर में रहते थे। अधिक समय तक रहने की आशंका से उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों को रायपुर बुलवा लिया था। नरेन्द्रनाथ अपने छोटे भाई महेन्द्रदत्ता, बहन जोगेन्द्र बाला और भुवनेश्वरी देवी के साथ कलकत्ता से रायपुर आये। उस समय कलकत्ता से सीधी रेल लाईन से नहीं जुड़ा था। उस समय रेल गाड़ी कलकत्ता से इलाहाबाद, जबलपुर और नागपुर होकर बम्बई जाती थी। इसी ट्रेन से नरेन्द्रनाथ जबलपुर आये और बैल गाड़ी से अमरकंटक होकर रायपुर पहुंचे थे। रायपुर पहुंचने में उन्हें 15 दिन लगा था। कुछ लोग उन्हें नागपुर से रायपुर आने की बात कहते हैं। मगर स्वयं नरेन्द्रनाथ ने अपनी यात्रा संस्मरण में लिखा है-''उस पथ की शोभा अत्यंत मनोरम थी। रास्ते के दोनों किनारों पर पत्तों और फूलों से लदे हरे वन वृक्ष थे। वन स्थल का अपूर्व सौंदर्य देखकर मुझे किसी प्रकार का क्लेश नहीं हुआ। आयचित होकर भी जिन्होंने पृथ्वी को इस अनुपम वेशभूषा के द्वारा सजा रखा था, उनकी असीम शक्ति और अनंत प्रेम का पहले पहल साक्षात् परिचय प्राप्त कर मेरा हृदय मुग्ध हो गया था।''
उन्होंने लिखा है-'' वन के बीच जाते हुए उस समय जो कुछ भी मैंने देखा और अनुभव किया, वह स्मृति पटल पर सदैव के लिए अंकित हो गया। विशेष रूप से एक दिन की बात, उस दिन हम उन्नत शिखर विंध्याचल के नीचे से गुजर रहे थे। मार्ग के दोनों ओर बीहड़ पहाड़ की चाटियां आकाश को चूमती हुई खड़ी थी। तरह तरह की वृक्ष लताएं, फल और फूल के भार से लदी हुई पर्वत को अपूर्व शोभा प्रदान कर रही थी। अपनी मधुर कलरव से समस्त दिशाओं को गुंजायमान करते हुए रंग बिरंगे पक्षी घूम रहे थे या फिर कभी कभी आहार की खोज में जमीन पर उतर रहे थे। इन दृश्यों को देखते हुए मैं अपने मन में अपूर्व शांति का अनुभव कर रहा था। मंथर गति से चलती हुई बैल गाड़ी एक ऐसे स्थान पर आ पहुंची, जहां पहाड़ की दो चोटियां मानो प्रेमवश आकृष्ट होकर आपस में स्पर्श कर रही हो..? उस समय उन श्रृंगों का विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए मैंने देखा कि पास वाले एक पहाड़ में नीचे से लेकर चोटी तक एक बड़ा सुराख है और उस सूराख को पूर्ण कर मधु मक्खियों के युग युगान्तर के प्रमाण स्वरूप एक प्रकाण्ड मधु चक्र लटक रहा है। विस्मय से मैं उस समय मक्षिका राज्य के आदि एवं अंत की बातें सोचते हुए मेरा मन तीनों जगत के नियन्ता ईश्वर की अनंत उपलब्धियों में इस प्रकार डूब गया कि थोड़ी देर के लिए मेरा सम्पूर्ण वाह्य ज्ञान लुप्त हो गया। कितनी देर तक इस भाव में मग्न होकर मैं बैल गाड़ी में पड़ा रहा, याद नहीं रहा। जब होश आया तो देखा कि उस स्थान को छोड़कर बहुत आगे निकल आया हूं। बैल गाड़ी में मैं अकेला ही था, इसलिए यह बात दूसरा कोई नहीं जान सका।'' भाव समाधि का यह उनका पहला अनुभव था।
रायपुर में तब कोई अच्छा स्कूल नहीं था। अत: वह अपने पिता जी से ही पढ़ा करता था। उनके पिता जी उनसे अनेक विषयों पर चर्चा किया करते थे, यहां तक कि पुत्र के साथ तर्क वितर्क करते और उनसे हार मानकर कभी कुंठित नहीं हुए। वे हमेशा उन्हें प्रोत्साहित किया करते थे। उन दिनों उनके घर में अनेक विद्वानों का आगमन हुआ करता था और विभिन्न सांस्कृतिक तथा सामाजिक विषयों पर चर्चाएं होती थी। नरेन्द्रनाथ बड़े ध्यान से उनकी बातों को सुनते थे और अवसर पाकर अपना विचार प्रकट भी करते थे। उनकी बुद्धिमता और ज्ञान से सभी चमत्कृत हो उठते थे। इसलिए कोई भी उन्हें छोटा समझने की भूल नहीं करते थे। एक दिन ऐसे ही चर्चा के दौरान नरेन्द्र ने बंगला भाषा के एक ख्यातिनाम लेखक के गद्य पद्य के अनेक उध्दरण देकर सबको इतना आश्चर्यचकित कर दिए कि सभी प्रशंसा करते हुए बोल पड़े-''बेटा ! किसी न किसी दिन तुम्हारा नाम हम अवश्य सुनेंगे।'' कहना न होगा कि यह कोई स्नेहसिक्त अत्युक्ति नहीं थी बल्कि वह एक भविष्य वाणी थी।
नरेन्द्रनाथ बालक होकर भी अपना आत्म सम्मान करना जानते थे। अगर कोई उनकी आयु को देखकर उनकी अवहेलना करना चाहता तो वे इसे बरदाश्त नहीं करते थे। बुद्धि की दृष्टि से वे स्वयं को उससे छोटा या बड़ा समझने का कोई कारण नहीं खोज पाते थे और दूसरों को इस प्रकार सोचने का कोई अवसर देना नहीं चाहते थे। एक बार जब उनके पिता के एक मित्र ने बिना कारण उनकी अवहेलना करने लगे तो नरेन्द्र सोचने लगा-''यह कैसा आश्चर्य है मेरे पिता जी भी मुझे इतना तुच्छ नहीं समझते और ये मुझे ऐसा कैसे समझ रहे हैं ?'' अत: आहत होकर उन्होंने दृढ़ स्वर में कहा-''आपके समान ऐसे अनेक लोग हैं जो यह सोचते हैं कि लड़कों में बुद्धि-विचार नहीं होता, किंतु यह धारणा नितांत गलत है।'' जब आगन्तुक सज्जन ने देखा कि नरेन्द्र अत्यंत क्षुब्ध हो उठा है और वह उनसे बात करने को तैयार नहीं है, तब उन्होंने अपनी गल्ती स्वीकार कर ली।
नरेन्द्र में पाक कला के प्रति स्वाभाविक रूचि थी। रायपुर में अपने पिता की सहायता से वे इस कला में निपुण हो गए। यहां वे शतरंज भी खेलना सीख गए और संगीत में भी पारंगत हो गए। वे एक अच्छे गायक भी थे। उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष भी रायपुर में विकसित हुआ। दो वर्ष रायपुर में रहकर विश्वनाथ दत्ता का परिवार कलकत्ता वापस लौट गया। तब नेरन्द्र का शरीर स्वस्थ, सबल और हृष्ट पुष्ट हो गया था और उनमें आत्म विश्वास जागृत हो उठा था। वे ज्ञान में अपने सम वयस्कों की तुलना में बहुत आगे निकल गए थे। किंतु बहुत समय तक नियमित विद्यालय नहीं जाने के कारण शिक्षकगण उन्हें उच्च कक्षा में भर्ती नहीं कर रहे थे। बाद में विशेष अनुमति से उन्हें भर्ती किया गया। सन् 1879 की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में पास होने वाले वे अकेले थे।
नरेन्द्रनाथ के सर्वमुखी विकास में रायपुर का विशेष योगदान के कारण ही ऐसा हुआ। आइये, उनके जीवन के उस पक्ष को भी देखें जब वे स्वामी विवेकानंद के रूप में परिव्रजन करते हुए मध्यप्रदेश के खंडवा नगर में उन्हें कुछ समय तक एक भंगी परिवार के साथ रहना पड़ा। यह पहला अवसर था जब वे समाज के सबसे निम्न समझे जाने वाले लोगों के बीच रहे। स्वामी जी उनकी दयनीय स्थिति और गरीबी में पलता हुआ उनका विशाल हृदय को देखकर अभिभूत हो उठे। ऊंचे कहाने वालों के शोषण और अत्याचार से उनकी दुर्दशा का स्मरण करके वे अत्यंत व्यथित हो उठे। अपने पत्रों में इस वेदना को वे कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं-''इस अंचल में एक बात को देखकर मुझे बहुत दु:ख होता है, वह है संस्कृत और अन्य शिक्षा का अभाव। देश के इस भाग के लोग धर्म के नाम पर जो कुछ जानते हैं उनमें खाना-पीना और नहाना प्रमुख है।'' वे अक्सर कहा करते थे-''यदि मजदूर लोग काम करना बंद कर दें तो उन्हें अन्न, जल और वस्त्र मिलना बंद हो जायेगा। तुम उन्हें नीच जाति का मानकर अपनी संस्कृति का शेखी मारते हो। आजीविका के इस संग्राम में व्यस्त रहने के कारण उन्हें अपने ज्ञान को जागृत करने का अवसर नहीं मिला। वे इतने दिनों तक मानव बुद्धि द्वारा चलने वाले यंत्र के समान सतत काम करते रहे हैं और चतुर समाज ने उनके परिश्रम के फल का सारा अंश ले लिया पर अब जमाना बदल गया है। अब उच्च जाति वाले नीची जाति वालों को और अधिक समय तक दबा नहीं सकते, चाहे वे इसके लिए कितनी ही कोशिश क्यों न करें। उच्च जाति का कल्याण अब इसी में है कि वे निम्न जातियों को उनके यथोचित अधिकार प्राप्त करने में उनकी सहायता करें।''
वे अक्सर कहा करते थे-''भारत वर्ष के इन गरीब, निरीह और निम्न जाति वालों के प्रति हमारे जो भाव हैं उनका विचार करने से मेरे अंत:करण में कितनी पीड़ा होती है। उन्हें कोई अवसर नहीं मिलता, उनके लिए बचने का कोई रास्ता नहीं हैं और उपर चढ़ने का भी कोई मार्ग नहीं है। वे प्रतिदिन अधिकाधिक नीचे डूबते जा रहे हैं। निर्दयी समाज के द्वारा अपने उपर होने वाले आघातों का वे अनुभव तो करते हैं, पर वे नहीं जानते कि ये आघात कहां से हो रहे हैं। वे भी दूसरों के समान मनुष्य हैं, इस बात को वे भूल गए हैं, इसी का परिणाम है गुलामी और दासत्व। विगत कुछ वर्षों के भीतर विचारशील पुरुषों ने इस बात को देख लिया है, पर दुर्भाग्यवश वे इसका दोष हिन्दू के मत्थे मढ़ते हैं और उनको तो सुधार का एक ही उपाय दिखाई देता है कि संसार के इस धर्म को कुचल दिया जाए। मेरे मित्रों ! मेरी बात ध्यान से सुनो, ईश्वर की दया से मैंने रहस्य का पता लगा लिया है। दोष धर्म का नहीं है। इसके विपरीत तुम्हारा धर्म तो यही सिखाता है कि प्रत्येक प्राणी स्वयं तुम्हारी आत्मा का ही अनेक रूपों में विकसित हुआ है, पर दोष है व्यवहारिक आचरण का अभाव। इस स्थिति को दूर करना है- धर्म का नाश करके नहीं बल्कि उनके महान उपदेशों का अनुसरण करके।''
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रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा (छत्तीसगढ़)
1 टिप्पणी:
विवेकानंद जयंती पर एक सराहनीय प्रयास। आप साधुवाद के पात्र है कृपया इनके जीवन पर लिखतें रहें जिससे हम जैंसों का उद्धार हो सके।
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