छत्तीसगढ़ के कर्मवीर पंडित किशोरीमोहन त्रिपाठी
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
नदी घाटी सभ्यता के प्रतीक हैं। अत: कहा जा सकता है कि नदी केवल ज़मीनों को सिंचित ही नहीं करती बल्कि एक सभ्यता को जन्म देकर उसका पोषण करती है। कदाचित् इसी कारण जीवन के अवशेष नदियों के तट पर मिलते हैं। सिंधु घाटी, महानदी घाटी, बोराई नदी घाटी की सभ्यता इसके उदाहरण हैं। महानदी छत्तीसगढ़ की पवित्र, प्राचीन और मोक्षदायी नदी है। उसकी पवित्रता से हर कोई लाभान्वित होना चाहता है। ऐसे पवित्र नदी के तट पर स्थित नगर सांस्कृतिक तीर्थ माने गये। क्यों कि यहां पर ऋषि-मुनियों का वास होता है और उनकी तपोभूमि होने के कारण वह पवित्र होता है। सिहावा, राजिम, सिरपुर से लेकर मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुर, बालपुर, पुजारीपाली, संबलपुर, सोनपुर और कटक तक महानदी के तटवर्ती ग्राम सांस्कृतिक तीर्थ माने गये। यहां साहित्यिक प्रतिमाएं के जन्म और कर्म भूमि होने के कारण इसे साहित्यिक तीर्थ भी माना गया। यह मेरा परम सौभाग्य है कि मेरी काया का जन्म भी महानदी के तट पर स्थित सांस्कृतिक और साहित्यिक तीर्थ शिवरीनारायण की पवित्र भूमि में हुआ है. और ऐसे लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकारों की श्रृंखला में अंतिम छोर पर मेरा भी नाम जुड़ा है। मुझसे पहले न जाने कितने साहित्यकारों के नाम है, कहां से शुरू करूं समझ में नहीं आ रहा है। बहरहाल, बालपुर का समूचा पाण्डेय परिवार साहित्य को समर्पित हो गया। लेकिन राजिम, धमतरी, रायपुर, बिलासपुर, खरौद, शिवरीनारायण, सारंगढ़, रायगढ़ भी साहित्य के क्षेत्र में कभी पीछे नहीं रहा है। बल्कि छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोने का सत्कार्य भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी और सुप्रसिद्ध कवि, आलोचक और उपन्यासकार ठाकुर जगमोहनसिंह ही थे। वे सन् 1880 से 1882 तक धमतरी में तथा सन् 1882 से 1889 तक शिवरीनारायण तहसील के तहसीलदार थे। उन्होंने बनारस में ''भारतेन्दु मंडल'' की तर्ज में शिवरीनारायण में ''जगमोहन मंडल'' की स्थापना की थी और इनके माध्यम से उन्होंने यहां के बिखरे साहित्यकारों को जोड़कर लेखन की एक दिशा प्रदान की। एक प्रकार से छत्तीसगढ़ ही उनकी कार्यस्थली थी। महानदी का तटवर्ती अंचल सभ्यता और साहित्य प्रतिभा से सम्पोषित है। उन्हीं में सरिया भी एक उड़िया भाषी कस्बा है जहां पंडित किशोरीमोहन त्रिपाठी का जन्म हुआ। वे साहित्य के कर्मवीर पंडित थे।
सरिया, सारंगढ़ से लगभग 45 कि.मी., रायगढ़ जिला मुख्यालय से 70 कि.मी. और सारंगढ़ होकर लगभग 95 कि.मी. और बरगढ़ से लगभग 75 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहां उड़िया भाषी लोगों का बाहुल्य है। सरिया पूर्व में संबलपुर रियासत का एक अभिन्न अंग था जिसे एक सैन्य सेवा के बदले संबलपुर के राजा द्वारा सन् 1688 ई.में सारंगढ़ के राजा को प्रदान किया गया था। सरिया परगना पूरे सारंगढ़ रियासत में महत्वपूर्ण और सर्वाधिक धान उत्पादक क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। आज यह छत्तीसगढ़ और उड़ीसा प्रांत को जोड़ने वाला महत्वपूर्ण नगर है। यहां 06 नवंबर सन् 1912 (दीपावली की रात) को पंडित किशोरीमोहन त्रिपाठी का जन्म हुआ। बचपन की किलकारियों में माता पिता के स्नेह और वात्सल्य का महत्वपूर्ण योगदान होता है। मगर जन्म के कुछ ही दिन गुजरे होंगे कि उनके पिता पंडित बलभद्रप्रसाद त्रिपाठी का निधन हो गया और वे पिता के स्नेह से वंचित हो गये। लेकिन पूरी सरिया बस्ती बालक किशोरीमोहन को पुत्रवत् स्नेह दिया जिसके संबल पर वे रायगढ़ जिले से स्वतंत्र भारत के प्रथम सांसद बनने का गौरव हासिल किये। यही नहीं बल्कि उनकी साहित्यिक प्रतिभा से पूरा क्षेत्र परिचित हो गया था। तभी तो वे कहा करते थे-''चारों धामों से बढ़कर मेरे लिए सरिया भी एक धाम है। उस गांव की माटी मेरे लिए चंदन है जिसे मैं अपने माथे से लगाये रखना चाहता हूं।''
किशोरीमोहन जी की प्राथमिक शिक्षा दीक्षा सरिया में ही हुई। शुरू से ही वे मेधावी थे। भाषा की शुद्धता के लिए वे एक बार शाला निरीक्षक श्री श्यामलाल पोद्दार से पुरस्कृत भी हुए थे। उनके पिता और दादा जी दोनों शिक्षक थे और इस प्रकार वे भाषा की शुद्धता का संस्कार विरासत में पाये थे। दृढ़ निश्चियी तो वे बचपन से ही थे-एक बार जो सोच लिया उसे वे पूरा करके ही मानते थे। हाई स्कूल की पढ़ाई करने के लिए वे सरिया से रायगढ़ आये तो रायगढ़ के ही होकर रह गये। यहां सन् 1930 में उन्होंने हाई स्कूल की शिक्षा नटवर हाई स्कूल रायगढ़ से पूरी की। मेट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद त्रिपाठी जी की शिक्षा में ठहराव सा आ गया। इस समय आर्थिक विपन्नता के दौर से गुजर रहे थे.. और राजनीतिक कारणों से तत्कालीन राजा चक्रधरसिंह द्वारा प्रदत्त 30 रुपया मासिक की छात्रवृत्ति रद्द कर दी गई थी। तब उन्हें पहली बार अपनी गरीबी पर बहुत दुख हुआ था। उन्होंने अपनी डायरी के पन्नों में लिखा है :-''इस तरह गरीबी ने मेरे भविष्य पर पहला नकारात्मक हमला किया और मैं देख रहा हूं कि आज भी सैकड़ों-हजारों होनहार लोगों का भविष्य पूर्णत: या आंशिक रूप से बरबाद होता चला जा रहा है और दुनिया ऐसी है कि इस गरीबी को दूर करने के लिए या तो चांद सूरज से परामर्श लेने जा रही है या गरीबों को ही समाप्त करती जा रही है, यह पागलपन नहीं तो और क्या है..?'' गरीबी से जूझने के लिए वे कमर कस लेते हैं और तब वे 06 रुपये मासिक वेतन पर खादी भंडार में नौकरी करने लगते हैं। बाद में वे नगरपालिका रायगढ़ के ग्रंथालय में ग्रंथपाल के रूप में नौकरी करने लगते हैं। तब नगरपालिका का ग्रंथालय टाउन हाल के एक भाग में लगता था। सन् 1938 में वे नटवर हाई स्कूल में शिक्षक नियुक्त हुए। एक शिक्षक के रूप में त्रिपाठी जी की उपलब्धियाँ अक्षुण्ण है। वे स्वयं लिखते हैं-''एक शिक्षक के रूप में अपनी उपलब्धि या सफलता का मूल्यांकन करना मेरे लिए उचित नहीं है, इतना कहना यथेष्ट होगा कि आज भी रायगढ़ की जनता ''गुरु'' के रूप में मेरा सम्मान करती है, विधायक या सांसद के रूप में नहीं..।''
रायगढ़ के जनकवि श्री आनंदी सहाय शुक्ल उनके प्रिय शिष्य हैं। त्रिपाठी जी के बारे में वे लिखते हैं-''नपी तुली देहयष्टि, कंचन सी चमकती त्वचा, चश्मे से झाँकती आंखें और आकर्षक हंसी, धवल दंत पंक्ति, न देवता न दैत्य, एक साधारण मनुष्य पर हजारों में एक पुस्तकालय में मैं उन्हें देखा। पढ़ने की इच्छा मुझमें प्रायमरी स्कूल के बाद से ही बलवती हो उठी थी। महज एक लड़का जो पाँचवी कक्षा का एक छात्र था, गुरुदेव त्रिपाठी जी का प्रसाद अनायास पा गया। पुस्तकालय में उनका पुत्रवत् स्नेह और एक साथी की तरह व्यवहार पाकर मैं निसार हो गया। कठोर पहलवान पिता की फौलादी बंदिशों में तड़पता मन जैसे देवदार की गझिन छांव पा गया। गुरुदेव भी मेरी पठन क्षमता पर खुश होते थे। देवकीनंदन खत्री, शरद बाबू, और प्रेमचंद जैसे महारथियों की कृतियां उनकी कृपा से मेरे मानस पटल पर विचरने लगी। टाउन हाल की ऊपरी मंजिल पर स्थित पुस्तकालय मेरी बाल स्मृति में एक मंदिर की भांति छाप छोड़ गया। कुर्सी पर बैठे गुरुदेव उस समय मुझे अलौकिक प्राणी लगते थे। उन वर्षों में मैं उनसे बराबर निर्देश प्राप्त करता रहा। धीरे धीरे कितने सूर्य ढले, कितनी रातें गई, ग्रीष्म, वर्षा, हेमंत और वसंत जलवे दिखाकर जाते आते रहे.. और एक दिन गुरुदेव नटवर हाई स्कूल में शिक्षक होकर आ गये। आठवीं तक उनसे विद्यादान लेता रहा। इससे मेरी साहित्यिक अभिरुचि विकसित हुई और मेरे चक्षु यह जानकर विस्फारित हो गये कि गुरुदेव एक कवि हैं, और श्रद्धा का एक पायदान और बढ़ गया। बाहरी पढ़ाई के कारण मैं स्कूली पढ़ाई में साधारण था, खासकर गणित से तो मेरा जन्मजात बैर था। वैसे किसी भी विषय में मैं औसत ही था और हर शिक्षक मेरी शारीरिक समीक्षा अवश्य करता था। उस समय स्कूली शिक्षा में पिटाई सबसे महत्वपूर्ण था। केवल गुरुदेव ही ऐसे थे जिन्होंने मुझे फूल की छड़ी से भी नहीं छुआ। मुझे क्या, उस युग में उनके द्वारा मैंने किसी छात्र को पिटते नहीं देखा। नाइन्थ के बाद मेरी पढ़ाई छूट गई और मैं कविता लिखने लगा। तब इस क्षेत्र में मुझे किसी ने प्रोत्साहित किया तो वे पंडित किशोरीमोहन त्रिपाठी जी ही थे। उनके ही प्रोत्साहन से मैं आज कविता के इस मुकाम तक पहुंचा हूं।''
त्रिपाठी जी एक क्रांतिकारी भी थे। देश की गुलामी के बारे में वे हमेशा चिंतन किया करते थे। इसी कारण सन् 1945 में शासकीय नौकरी का परित्याग करके वे स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गये। देश आजादी की राह पर था। देश में स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी। संविधान निर्माण समिति में त्रिपाठी जी को भी 17 जुलाई 1947 को शामिल कर लिया गया। इसके बाद उन्हें देश की पहली संसद में संसद सदस्य मनोनीत किया गया। सांसद के रूप में उन्होंने कुछ उल्लेखनीय कार्य किया। सबसे पहले योजना आयोग के गठन का सुझाव त्रिपाठी जी ने ही दिये। इसी प्रकार नागरिकता नियंत्रण कानून आयोग, नये सिक्कों का प्रचलन, लेखा के लिए दशमलव प्रणाली और रिजर्व बैंक के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव रखने वालों में वे प्रमुख थे।
एक स्वाभिमानी और मुखर सांसद के रूप में वे हमेशा चर्चित रहे। ''जिंजर ग्रुप'' नाम से गठित समाजवादी मंच के रूप में आगे बढ़ा, यह उन्हीं की देन थी। हालांकि पार्टी के अंदर कलह के कारण उन्हें 1952 के आम चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। लेकिन 1962 में धरमजयगढ़ विधान सभा क्षेत्र से वे विधायक चुने गये। राजनीतिक जीवन के उतार चढ़ाव से एक प्रकार से वे सामाजिक जीवन से कट से गये थे। अत: सन् 1967 के बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया और 19 मई 1969 से रायगढ़ से प्रथम साप्ताहिक बयार का प्रकाशन शुरू किया। इसके माध्यम से वे जन मानस की समस्याओं की ओर शासन का ध्यान आकर्षित करने लगे। इसी समय उनका कवि मन पुन: जागृत हुआ और वे साहित्यिक गोष्ठियों में आने जाने लगे। ऐसे कई साहित्यिक गोष्ठियों में मैं उनके वक्तव्यों को सुना हूं। उनका स्नेह मुझे यथा समय मिला। एक वाकया मुझे याद आ रहा है। सन् 1987 में मेरी उनसे मुलाकात एक साहित्यिक गोष्ठी हुई, तब राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में मेरी विभिन्न विधाओं में रचनाएं प्रमुखता से प्रकाशित होती थी, इसके बावजूद बहुत कम लोग जानते थे कि मैं ही अश्विनी केशरवानी हूं। दूसरी बार एक साहित्यिक गोष्ठी में मैं हमारे महाविद्यालय के प्राचार्य और लोकप्रिय साहित्यकार डॉ. प्रमोद वर्मा को साथ लेकर गया। कार्यक्रम शुरू होने में समय था, चर्चा के दौरान उन्होंने त्रिपाठी जी से मेरा परिचय कराते हैं :- ''ये अश्विनी केशरवानी हैं, धर्मयुग, नवनीत हिन्दी डायजेस्ट, हिन्दुस्तान, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स के अलावा सभी क्षेत्रीय अखबारों में लिखते हैं.'' उन्होंने मुझे गौर से देखा और मेरा पीठ थपथपाते हुये आशीर्वाद दिया। मुझे उनका स्नेह भाजन बनते सबने देखा और सबने मेरी रचनाओं को सराहा। उनका दर्शन करके मैं अभिभूत हो गया।
पंडित किशोरीमोहन जी उन बिरले लोगों में से हैं जो राजनीति में साहित्यकार और साहित्य में राजनीतिक होने की नियति से अभिशप्त रहे हैं। एक लाइब्रेरियन से टीचर और टीचरी से संसद और फिर मध्यप्रदेश की विधान सभा और अंत में महामाया प्रिंटिंग प्रेस में साप्ताहिक बयार के प्रकाशन में उनका जीवन वृत्त सीमित हो गया। नदी, पहाड़, जंगल और मैदान के इस कंटूर में त्रिपाठी जी की एक अंतर् धारा कविता के रूप में अपने अध्यात्म के साथ साथ सामाजिक चेतना से भी साक्षात्कार करती रही है। पत्रकारिता से सत्ता की गलियारों में छलांग लगाने वाले बहुतों को देखा लेकिन सत्ता के प्रभा मंडल में बहुत करीब से गुजरने के बाद पत्रकारिता को अपनाने वाले एक बिरले उदाहरण हैं। वे स्वयं कहते हैं:-
सेवा का व्रत वरद धर, जीत जगत मैदान।
काल कृपण डर कर करे, तुझे अमरता दान॥
वे हमेशा कर्म के प्रति सजग रहे। उससे उन्होंने कभी मुंह नहीं मोड़ा, इसलिए वे कर्मवीर हैं। देखिए कर्म के बारे में उनके विचार :-
जला कर्म की वन्हि पर, तपा रहा मैं प्राण।
जांच रहा हूं कांच या मैं कंचन द्युतिमान॥
तपकर कंचन निखरता, तप कर रवि द्युतिमान।
नर डर मत तू ताप से, ताप उचित पहचान॥
''...त्रिपाठी जी छायावादी युग में लिखने वाले रहस्यवाद चेतना के मधुर गायक थे। उनके दोहों में प्रेम, सौंदर्य और भक्ति का विनम्र निवेदन है। उनके गीतों में प्रेम का उच्चादर्श, साधना की उच्च तपोभूमि और संगीत की माधुरी दर्शनीय है।'' डॉ. बल्देव के इस विचार से मैं सहमत हूं। छायावाद के उत्तरार्ध में त्रिपाठी जी की कविता कर्म पूरे यौवन पर था। उनकी रचनाएं संगीत की राग रागिनियां में आबद्ध है। उनकी रचनाएं समाज परक और मानवीय पीड़ा को उजागर करने वाली है। उनकी सीख की एक बानगी पेश है :-
कर्मों की गणना क्रमिक, तथा कथित विधि लेख।
उन्नति अवनति को सखे, निज कर्मों में देख॥
पंडित जी की रचनाओं के बारे में पंडित मुकुटधर जी पांडेय के विचार दृष्टव्य है :-''कविवर पंडित किशोरीमोहन त्रिपाठी जी की रचनाओं में कालिदास के शब्दों में वागर्थ की प्रतिपत्ति पायी जाती है। अत्याधुनिक रचनाओं से निकली एक पृथक पहचान स्पष्ट है। उनके दोहों में उनके जीवन व्यापी अनुभवों का सार संक्षेप पाया जाता है। वे बिहार के ''देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर'' को चरितार्थ करते हैं।'' पांडेय जी को ऐसा विश्वास है कि इनसे नई पीढ़ी को अवश्य प्रेरणा मिलेगी। इन दोहों में कवित्तपूर्ण भाषा में सत्कर्म, सेवा, धर्म, सदाचार, परोपकार, भगवत्प्रेम, मातृभूमि का अनुराग पर प्रकाश डाला गया है।
त्रिपाठी जी एक सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले रहस्यवाद के सफल और सार्थक कवि थे। उनके कवि रूप से बहुत कम लोग ही परिचित होंगे। समय और परिस्थितियां उन्हें कई ज़िम्मेदारियाँ सौंपी और वे एक कर्मवीर की भांति उसे निभाते रहे। जीवन के आपाधापी को अपनी कविता के रूप में कागजों में उतारते रहे। उन्होंने काव्य की हर विधा में लेखन किया है। समय के साथ उनकी कविता का रूप बदलता रहा। उनकी कविताओं का एक मात्र संकलन ''मन बैरी मनमीत'' ही प्रकाशित है, शेष अप्रकाशित। उन्होंने 25 सितंबर 1994 को अंतिम सांस ली और हमें बिलखता छोड़ गये। निःसंदेह उनके निधन से साहित्यिक जगत को अपूरणीय क्षति हुई है जिसकी भरपायी संभव नहीं है। उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है...
अथकर दुख का जन्म ने, पाया जग से प्यार।
मृत्यु रही मुंह ताकती, दे दुख से उद्धार॥
शासकीय कन्या महाविद्यालय रायगढ़ का नामकरण पंडित किशोरीमोहन त्रिपाठी के नाम पर किया गया है। यह देर से ही किंतु सही प्रयास है। उनके अवदान का रायगढ़ की जनता ने उचित आकलन करके ऐसा किया है। उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री प्रभात त्रिपाठी सुप्रसिद्ध कवि हैं और श्री सुभाष त्रिपाठी उनके द्वारा शुरू किये गये महामाया प्रिंटिंग प्रेस और साप्ताहिक बयार का सफलता पूर्वक संचालन कर रहे हैं।
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रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)
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