21 जनवरी को जयंती के अवसर पर प्रकाशनार्थ
संस्कृतनिष्ठ कवि चिरंजीवदास
प्रो. अिश्वनी केशरवानी
प्रो. अिश्वनी केशरवानी
सभ्यता के विकास में नदियों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। गिरि-कंदराओं से निकलकर धरती के गर्भ को पवित्र करती ये नदियां क्षेत्रों और प्रदेशों को सिंचित ही नहीं करती बल्कि दो या दो से अधिक प्रदेशों की सभ्यता और वहां की सांस्कृतिक परम्पराओं को जोड़ने का कार्य करती है। रायगढ़, छत्तीसगढ़ प्रांत का एक प्रमुख सीमावर्ती जिला मुख्यालय है। इस जिले की सीमाएं बिहार, उड़ीसा और मध्यप्रदेश से जुड़ती है। अत: स्वाभाविक रूप से यहां उन प्रदेशों को प्रभाव परिलक्षित होता है। यहां की सभ्यता, रहन सहन, और सांस्कृतिक परम्पराओं का सामीप्य उड़ीसा से अधिक है। पूर्ववर्ती प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत छत्तीसगढ़ का पूर्वी भाग उिड़या भाषी सम्बलपुर से जुड़ा था। यहां मिश्रित परम्पराएं देखने को मिलती हैं।
केलो नदी के तट पर बसा रायगढ़ पूर्व में छत्तीसगढ़ का एक ``फ्यूडेटरी स्टे्टस`` था। यहां के राजा कला पारखी, संगीत प्रेमी और साहिित्यक प्रतिभा के धनी थे। प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला यहां का गणेश मेला एक उत्सव हुआ करता थाण्ण्ण्और इस उत्सव में हर प्रकार के कलाकार, नर्तक, नाटक मंडली और साहित्यकार आपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करके यथोचित पुरस्कार और सम्मान पाता था। इस प्रकार रायगढ़ सांस्कृतिक और साहिित्यक तीर्थ के रूप में ख्याति प्राप्त किया। संगीत और नृत्य के साथ साथ साहित्य के क्षेत्र में यहां अनेक मूर्धन्य साहित्यकार पुरस्कृत हुए। यहां के राजा चक्रधरसिंह स्वयं एक उच्च कोटि के साहित्यकार और कला पारखी थे। उनकी सभा में साहित्यकारों की भी उतनी ही कद्र होती थी जितनी अन्य कलाकारों की होती थी। उनके राज्य के अनेक अधिकारी और कर्मचारी भी साहिित्यक अभिरूचि के थे। ऐसे साहित्यकारों की लंबी श्रृंखला है। उन्हीं में से एक कड़ी के रूप में श्री चिरंजीवदास भी थे। श्री चिरंजीवदास रायगढ़ के सीमावर्ती ग्राम कांदागढ़ में श्री बासुदेव दास के पुत्ररत्न के रूप में पौष शुक्ल त्रयोदशी संवत् 1977, तद्नुसार 21 जनवरी 1920 ईण् को हुआ। उनका बचपन गांव की वादियों में गुजरा। उनकी शिक्षा दीक्षा रायगढ़ में ही हुई। वे सन् 1938 में नटवर हाई स्कूल से मेट्रीकुलेशन की परीक्षा पास करके 06 अप्रेल 1942 को तत्कालीन रायगढ़ रियासत में लिपिक पद पर नियुक्त हुये। इस पद पर कार्य करते हुए स्वाध्यायी होकर अध्ययन किये। उिड़या उनकी मातृभाषा थी। अत: स्वाभाविक रूप से उिड़या साहित्य में उनकी रूचि थी। इसके अलावा अंग्रेजी, हिन्दी और संस्कृत भाषा में भी उनकी अच्छी पकड़ थी। यहां की प्राकृतिक सुषमा, केलो नदी का झर झर करता प्रवाह, पहािड़यों और वनों की हरियाली उनके कवि मन को जागृत किया और वे काव्य रचना करने लगे। उन्होंने हिन्दी और उिड़या दोनों भाषा में काव्य रचना की है।
10 मार्च सन् 1994 को भारतेन्दु साहित्य समिति बिलासपुर के खरौद ग्रामीण शिविर में मेरा उनका साहिित्यक परिचय हुआ। इस शिविर में मैंने अपना आलेख ``खरौद और शिवरीनारायण का पुराताित्वक महत्व`` पढ़ा था। मेरे इस आलेख से अनेक साहित्यकार प्रभावित होकर प्रसन्नता व्यक्त किये थे। तब मैं श्री चिरंजीवदास की सादगीपूर्ण व्यक्तित्व से अत्यंत प्रभावित हुआ था। श्री स्वराज्य करूण ने उनके व्यक्तित्व को बहुत अच्छे ढंग से रेखांकित किया है-``आडंबर और आत्म प्रचार के अंधे युग में पहुंच के जरिये अपनी पहचान बनाने वालों की भीड़ समाज के लगभग सभी क्षेत्र में हावी है। लेकिन श्री चिरंजीवदास का व्यक्तित्व और कृतित्व इस तरह की भीड़ से एकदम अलग है। अनेक वर्षो से सरस्वती की मौन साधना में लगे श्री चिरंजीवदास अपनी पहचान के संकट से बिल्कुल निश्चिंत नजर आते हैं। दरअसल उनकी तमाम चिंताएं तो विश्व की उस प्राचीनतम भाषा के साथ जुड़ गई है जो सभी भारतीय भाषाओं की जननी होकर भी अपने ही देश में अल्प मत में है।`` डॉण् प्रभात त्रिपाठी लिखते हैं-``संस्कृत साहित्य के रस मर्मज्ञ चिरंजीवदास का सृजनशील व्यक्तित्व अनेकायामी है। हिन्दी के अधिकांश पाठक उन्हें अनुवादक के रूप में जानते हैं। श्री दास के द्वारा किये गये अनुवाद वस्तुत: उनके सृजनात्मक कल्पना के ही प्रतीक हैं। इन अनुवादों के कारण उन्हें सृजन का एक ऐसा संस्कार प्राप्त हुआ है जिसके कारण उन्होंने साहित्य के सौंदर्य और मनुष्य के अस्तित्व के प्रश्नों को कभी अखबारी जल्दबाजी में नहीं देखा। अगर प्रसिद्ध कवि और आलोचक श्री अशोक बाजपेयी का शब्द उधार लेकर कहें तो श्री चिरंजीवदास समकालीनता से मुक्त हैं। उनकी कविता मुख्य रूप से संस्कारधमीZ ललित कल्पना से ही निर्मित है। छायावादोत्तर युग की काव्य भाषा में पौराणिक कल्पनाओं के सजग प्रयोग के साथ उन्होंने इस यंग की असीम सभ्यता को भी गहराई से मूर्त करने की कोशिश की है। उनकी अपनी कविता प्रेम और प्रगति के सबल आधारों पर टिकी है। उसमें परंपरागत प्रबंधात्मकता और प्रासंगिक आधुनिकता के अतिरिक्त निजी अनुभूति का खरापन भी सक्रिय है।``
पूर्वी मध्यप्रदेश में रायगढ़ शहर के वाशिदें चिरंजीवदास उसी संस्कृत भाषा के एकांत साधक और हिन्दी अनुवादक हैं, जो सभी भाषाओं की जननी है। उनके द्वारा किये गये अनुवाद का यदि सम्पूर्ण प्रकाशन हो तो प्राचीनतम संस्कृत भाषा और हिन्दी जगत के बीच एक महत्वपूर्ण संपर्क सेतु बन सकता है। सन 1960 में महाकवि कालिदास के मेघदूत ने उन्हें अनुवाद करने की प्रेरणा दी। हिन्दी और उिड़या भाषा में कविताएं तो वे सन् 1936 से लिखते आ रहे हैं। लेकिन पिछले 34 वर्षो में उन्होंने मेघदूत के अलावा कालिदास के ऋतुसंहार, कुमारसंभव और रघुवंश जैसे सुप्रसिद्ध महाकाव्यों के साथ साथ जयदेव, भतृZहरि, अमरूक और बिल्हण जैसे महाकवियों की संस्कृत रचनाओं का सुन्दर, सरल और सरस पद्यानुवाद भी किया है। उमर खैय्याम की रूबाईयों के फिट्जलैंड द्वारा किये गये अंग्रेजी रूपांतरण का दास जी ने सन् 1981 में उिड़या पद्यानुवाद किया है। प्रकाशन की जल्दबाजी उन्हें कभी नहीं रही। शायद इसीकारण उनके द्वारा 1964 में किया गया ऋतुसंहार का हिन्दी पद्यानुवाद अभी प्रकाशित हुआ है। सिर्फ ऋतुसंहार ही क्यों, सन् 1962 में जयदेव कृत गीतगोविंद, सन् 1972 में महाकवि अमरूक उचित शतक और सन् 1978 में महाकवि बिल्हण कृत वीर पंचाशिका के हिन्दी पद्यानुवाद अभी अभी प्रकाशित हुआ है। इसे दुभाZग्य ही कहा जाना चाहिए कि ऐसे उत्कृष्ट रचनाओं को प्रकाशित करने वाले प्रकाशक हमारे यहां नहीं हैं। इन पुस्तकों को श्री दास ने स्वयं प्रकाशित कराया है। इसी प्रकार सन् 1979 में उन्होंने महाकवि हाल की प्राकृत रचना गाथा सप्तशती का हिन्दी पद्यानुवाद किया है। इसके पूर्व कालिदास के मेघदूत का सन् 1960 में, कुमारसंभव का 1970 में और रघुवंश का 1974 में पद्यानुवाद वे कर चुके थे। उनकी अधिकांश पुस्तकें अभी तक अप्रकाशित हैं। आधी शताब्दी से भी अधिक से सतत जारी अपनी इस साहिित्यक यात्रा में श्री चिरंजीवदास एक सफल आध्याित्मक साहित्यकार और अनुवादक के रूप में रेखांकित होते हैं। अपनी साहिित्यक यात्रा के प्रारंभिक दिनों का स्मरण करते हुये वे बताते हैं-`` जब मैं 15-16 वर्ष का था, तभी से मेरे मन में काव्य के प्रति मेरी अभिरूचि जागृत हो चुकी थी। मैं हिन्दी में कविताएं लिखता था। सन् 1960 में महाकवि कालिदास का मेघदूत को पढ़कर लगा कि संस्कृत के इतने सुंदर काव्य का यदि हिन्दी में सरस पद्यानुवाद होता तो कितना अच्छा होता ? और तभी मैंने उसका पद्यानुवाद करने का निश्चय कर लिया।`` श्री दास ने मुझे बताया कि अनुवाद कर्म में मुझे हिन्दी और उिड़या भाषा ने हमेशा प्रेरित किया। क्योंकि ये दोनों भाषा संस्कृत के बहुत नजदीक हैं। संस्कृत के कवियों में महाकवि कालिदास की रचनाओं ने चिरंजीवदास को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। वे कहते हैं कि कालिदास के काव्य का आयाम बहुत विस्तुत है, विशेषकर रघुवंश में उनकी सम्पूर्ण विचारधारा भारतीय संस्कृति के प्रति उनका अदम्य प्रेम, आर्य परंपरा के प्रति अत्यंत आदर और लगाव स्पष्ट है।
उनकी आरंभिक रचनाओं में छायावादी काव्य संस्कारों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। उनकी कविताओं में शिल्प के पुरानेपन के बावजूद कुछ ऐसे अछूते विषय भी हैं जिन पर कविता लिखने की कोशिश ही उनके अंतिर्नहित नैतिक साहस को प्रदर्शित करता है। ऋग्वेद के यम और यमी पर लिखित उनकी सुदीघZ कविता इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इसके अतिरिक्त कथात्मक आधार पर लिखी गयी ``रति का शाप`` और उड़ीसा की लोकगाथा पर आधारित ``केदार गौरी`` जैसे प्रबंध कविताओं में भी हम स्त्री-पुरूष के अनुराग की ओर उनके गहन संपर्क की रंगारंग अभिव्यक्ति देखते हैं। मुक्त छेद में लिखी गई उनकी अनेक कविताएं इसके प्रमाण हैं। आज से 50 वर्ष पूर्व उनकी कविताओं में प्रगतिशील दृष्टि मौजूद थी। आदिवासी लड़की पर लिखी ``मुंडा बाला`` कविता उनके सौंदर्य बोध और उनकी करूणा को मूर्त करने वाली कविता है। मैं डॉण् प्रभात त्रिपाठी के इस विचार से पूरी तरह सहमत हूं कि ``आधुनिक हिन्दी कविता के संदर्भ में उनकी कविता को पढ़ना इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकती है कि उनकी कविताओं में विस्तृत कर दी गयी शब्दावली के पुनर्वास का सार्थक प्रयास है। संस्कृत के वर्णवृथी के अतिरिक्त उिड़या एवं बंगला के लयात्मक संस्कारों को धारण करने वाली उनकी कविता हमारी जातीय स्मृतियों की जीवंतता को उजागर करती है। केवल शािब्दक चमत्कार के स्तर से गहरे उतरकर वे इस शब्दावली में अपनी कल्पनाशीलता के द्वारा एक नई अर्थवत्ता रचते हैं। अपने व्यक्त रूप में उनकी कविता का आकार पुरातनपंथी सा लग सकता है किंतु यह अनेक आवाजों से बनी कविता है। एक गंभीर हृदय के लिए यह कविता आ अजस्र अवकाश है। काल और कालातीत इतिहास और पुराण लोक और लोाकोत्तर को एक दूसरे से मिलाने की कोशिश करती श्री चिरंजीवदास की कविताएं इन्ही काव्य परंपरा की सार्थक और गंभीर रचना है।``
देशी रियासतों के मध्यप्रदेश में विलीनीकरण हो जाने पर श्री चिरंजीवदास की सेवाएं मण्प्रण्शासन द्वारा गृहित कर ली गई। शासकीय सेवा में कार्य करते हुए उन्होंने अपनी साहिित्यक यात्रा जारी रखी। इस बीच वे संस्कृत साहित्य की ओर उन्मुख हुए। इसी का परिणाम है कि वे सेस्कृत भाषा में लिखित पुस्तकों का हिन्दी पद्यों में अनुवाद किये। इसीलिए उनके काव्यों में संस्कृत शब्दों का पुट मिलता है। 31 जनवरी सन् 1979 को लेखाधिकारी (राजस्व) के पद से सेवानिवृत्त होकर केलो नदी के तट पर स्थित अपने निवास में साहिित्यक साधना में रत रहे। ऐसा कोई साहिित्यक व्यक्ति रायगढ़ में नहीं हैं जो उनसे किसी न किसी रूप में जुड़े हों ? जब भी आप उनके निवास में जाते तो उन्हें अध्ययनरत ही पातेण्ण्ण्समय का सदुपयोग करना कोई उनसे सीखे। उनकी मौन साधना का ही परिणाम है कि अब तक वे दो दर्जन से भी अधिक पुस्तकें लिखी और अनुवाद किया है। उनकी प्रकाशित कृतियों में रघुवंश, ऋतुसंहार, गीतगोविंद, अमरूक शतक, चौर पंचाशिका और संचारिणी प्रमुख है। उनकी अप्रकाशित कृतियों में कुमारसंभव, मेघदूत, रास पंचाध्यायी, श्रीकृष्ण कर्णमृत, किशोर चंदानंदचंपू, भतृZहरि, शतकत्रय रसमंजरी और आर्य सप्रशनी प्रमुख है। उन्होंने फिट्जलैंड की अंग्रेजी रचना का उिड़या में ``उमर खैय्याम`` शीर्षक से पद्यानुवाद किया है।
उनकी रचनाओं में उत्कृष्ट रचनाकार कालिदास की रचनाओं का अनुवाद प्रमुख है। उन्होंने कालिदास को परिभाषित करते हुए लिखा है:- ``कीर्तिरक्षारसंबद्धा स्थिराभवति भूतले`` अथाZत् कालिदास निश्चय ही अक्षरकीर्ति है।
धार्मिक ग्रंथों को छोड़ दे और केवल कला साहित्य की बात करें तो भास आदि नाटककार अवश्य ही कालिदास के पूर्व हुए किंतु काव्य के क्षेत्र में कालिदास अवश्य ही अग्रगण्य हैं और न केवल अग्रगण्य बल्कि आज तक हुए कवियों में सर्वश्रेष्ठ भी। ऐसा विश्वास किया जा सकता है कि जब तक पृथ्वी में साहित्य के प्रति आदर रहेगा तब तक कालिदास को स्मरण किया जाता रहेगा। वे वाग्देवी के अमर पुत्र हैं-शब्द ब्रह्य के सर्वाधिक लाड़लेण्ण्। वे शब्दों से खेले किंतु मानो शब्द ही उनके हाथों पड़ने के लिए तरसते थे। कालिदास ऐसे समय में हुए जब भारत की राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक जीवन में ह्रास और अवमूल्यन के लक्षण स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगे थे। क्रांतिदशीZ कालिदास ने देश की इस दुराव्यवस्था को देखा और उस पर मनन किया। उनके पास राजनीतिक शक्ति नहीं थी, वे धार्मिक नेता भी नहीं थे और न ही सामाजिक ह्रास को रोकने में सक्षम। वे एक कवि थे और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए वे केवल अपने काव्य पर अवलंबित थे। अत: वे माध्यम से भारतीय जनता को जागृत करने करने का बीड़ा उठाया और इसमें वे पूरी तरह सफल भी हुए। श्री चिरंजीवदास का ऐसा मानना है कि कालिदास ने काव्य नहीं लिखा बल्कि उसका दर्शन किया है- ``पश्य देवस्य काव्यं न ऋषेति न विभेति`` प्रसिद्ध टीकाकार मिल्लनाथ लिखते हैं कि उनकी वाणी के सार को स्वयं कालिदास, मां सरस्वती और सृष्टिकत्ताZ ब्रह्या जी ही समझ सके हैं। तब मैं उनकी रचना को समझकर उसका अनुवाद करने वाला कौन होता हूं ? मैंने यह अनुवाद अपनी विद्वता दिखाने के लिए नहीं बल्कि उनकी कृतियों को जन साधारण तक पहुंचाने के लिए किया है। उनका ऐसा करना कितना सार्थक है, इसका निर्णय पाठक करेंगे, ऐसा उन्हें विश्वास है। तब मुझे उनकी ``मुरली बजरी`` कविता की ये पंक्तियां याद आ रही है :-
इन प्राणों की प्यास जता दे,
केलो नदी के तट पर बसा रायगढ़ पूर्व में छत्तीसगढ़ का एक ``फ्यूडेटरी स्टे्टस`` था। यहां के राजा कला पारखी, संगीत प्रेमी और साहिित्यक प्रतिभा के धनी थे। प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला यहां का गणेश मेला एक उत्सव हुआ करता थाण्ण्ण्और इस उत्सव में हर प्रकार के कलाकार, नर्तक, नाटक मंडली और साहित्यकार आपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करके यथोचित पुरस्कार और सम्मान पाता था। इस प्रकार रायगढ़ सांस्कृतिक और साहिित्यक तीर्थ के रूप में ख्याति प्राप्त किया। संगीत और नृत्य के साथ साथ साहित्य के क्षेत्र में यहां अनेक मूर्धन्य साहित्यकार पुरस्कृत हुए। यहां के राजा चक्रधरसिंह स्वयं एक उच्च कोटि के साहित्यकार और कला पारखी थे। उनकी सभा में साहित्यकारों की भी उतनी ही कद्र होती थी जितनी अन्य कलाकारों की होती थी। उनके राज्य के अनेक अधिकारी और कर्मचारी भी साहिित्यक अभिरूचि के थे। ऐसे साहित्यकारों की लंबी श्रृंखला है। उन्हीं में से एक कड़ी के रूप में श्री चिरंजीवदास भी थे। श्री चिरंजीवदास रायगढ़ के सीमावर्ती ग्राम कांदागढ़ में श्री बासुदेव दास के पुत्ररत्न के रूप में पौष शुक्ल त्रयोदशी संवत् 1977, तद्नुसार 21 जनवरी 1920 ईण् को हुआ। उनका बचपन गांव की वादियों में गुजरा। उनकी शिक्षा दीक्षा रायगढ़ में ही हुई। वे सन् 1938 में नटवर हाई स्कूल से मेट्रीकुलेशन की परीक्षा पास करके 06 अप्रेल 1942 को तत्कालीन रायगढ़ रियासत में लिपिक पद पर नियुक्त हुये। इस पद पर कार्य करते हुए स्वाध्यायी होकर अध्ययन किये। उिड़या उनकी मातृभाषा थी। अत: स्वाभाविक रूप से उिड़या साहित्य में उनकी रूचि थी। इसके अलावा अंग्रेजी, हिन्दी और संस्कृत भाषा में भी उनकी अच्छी पकड़ थी। यहां की प्राकृतिक सुषमा, केलो नदी का झर झर करता प्रवाह, पहािड़यों और वनों की हरियाली उनके कवि मन को जागृत किया और वे काव्य रचना करने लगे। उन्होंने हिन्दी और उिड़या दोनों भाषा में काव्य रचना की है।
10 मार्च सन् 1994 को भारतेन्दु साहित्य समिति बिलासपुर के खरौद ग्रामीण शिविर में मेरा उनका साहिित्यक परिचय हुआ। इस शिविर में मैंने अपना आलेख ``खरौद और शिवरीनारायण का पुराताित्वक महत्व`` पढ़ा था। मेरे इस आलेख से अनेक साहित्यकार प्रभावित होकर प्रसन्नता व्यक्त किये थे। तब मैं श्री चिरंजीवदास की सादगीपूर्ण व्यक्तित्व से अत्यंत प्रभावित हुआ था। श्री स्वराज्य करूण ने उनके व्यक्तित्व को बहुत अच्छे ढंग से रेखांकित किया है-``आडंबर और आत्म प्रचार के अंधे युग में पहुंच के जरिये अपनी पहचान बनाने वालों की भीड़ समाज के लगभग सभी क्षेत्र में हावी है। लेकिन श्री चिरंजीवदास का व्यक्तित्व और कृतित्व इस तरह की भीड़ से एकदम अलग है। अनेक वर्षो से सरस्वती की मौन साधना में लगे श्री चिरंजीवदास अपनी पहचान के संकट से बिल्कुल निश्चिंत नजर आते हैं। दरअसल उनकी तमाम चिंताएं तो विश्व की उस प्राचीनतम भाषा के साथ जुड़ गई है जो सभी भारतीय भाषाओं की जननी होकर भी अपने ही देश में अल्प मत में है।`` डॉण् प्रभात त्रिपाठी लिखते हैं-``संस्कृत साहित्य के रस मर्मज्ञ चिरंजीवदास का सृजनशील व्यक्तित्व अनेकायामी है। हिन्दी के अधिकांश पाठक उन्हें अनुवादक के रूप में जानते हैं। श्री दास के द्वारा किये गये अनुवाद वस्तुत: उनके सृजनात्मक कल्पना के ही प्रतीक हैं। इन अनुवादों के कारण उन्हें सृजन का एक ऐसा संस्कार प्राप्त हुआ है जिसके कारण उन्होंने साहित्य के सौंदर्य और मनुष्य के अस्तित्व के प्रश्नों को कभी अखबारी जल्दबाजी में नहीं देखा। अगर प्रसिद्ध कवि और आलोचक श्री अशोक बाजपेयी का शब्द उधार लेकर कहें तो श्री चिरंजीवदास समकालीनता से मुक्त हैं। उनकी कविता मुख्य रूप से संस्कारधमीZ ललित कल्पना से ही निर्मित है। छायावादोत्तर युग की काव्य भाषा में पौराणिक कल्पनाओं के सजग प्रयोग के साथ उन्होंने इस यंग की असीम सभ्यता को भी गहराई से मूर्त करने की कोशिश की है। उनकी अपनी कविता प्रेम और प्रगति के सबल आधारों पर टिकी है। उसमें परंपरागत प्रबंधात्मकता और प्रासंगिक आधुनिकता के अतिरिक्त निजी अनुभूति का खरापन भी सक्रिय है।``
पूर्वी मध्यप्रदेश में रायगढ़ शहर के वाशिदें चिरंजीवदास उसी संस्कृत भाषा के एकांत साधक और हिन्दी अनुवादक हैं, जो सभी भाषाओं की जननी है। उनके द्वारा किये गये अनुवाद का यदि सम्पूर्ण प्रकाशन हो तो प्राचीनतम संस्कृत भाषा और हिन्दी जगत के बीच एक महत्वपूर्ण संपर्क सेतु बन सकता है। सन 1960 में महाकवि कालिदास के मेघदूत ने उन्हें अनुवाद करने की प्रेरणा दी। हिन्दी और उिड़या भाषा में कविताएं तो वे सन् 1936 से लिखते आ रहे हैं। लेकिन पिछले 34 वर्षो में उन्होंने मेघदूत के अलावा कालिदास के ऋतुसंहार, कुमारसंभव और रघुवंश जैसे सुप्रसिद्ध महाकाव्यों के साथ साथ जयदेव, भतृZहरि, अमरूक और बिल्हण जैसे महाकवियों की संस्कृत रचनाओं का सुन्दर, सरल और सरस पद्यानुवाद भी किया है। उमर खैय्याम की रूबाईयों के फिट्जलैंड द्वारा किये गये अंग्रेजी रूपांतरण का दास जी ने सन् 1981 में उिड़या पद्यानुवाद किया है। प्रकाशन की जल्दबाजी उन्हें कभी नहीं रही। शायद इसीकारण उनके द्वारा 1964 में किया गया ऋतुसंहार का हिन्दी पद्यानुवाद अभी प्रकाशित हुआ है। सिर्फ ऋतुसंहार ही क्यों, सन् 1962 में जयदेव कृत गीतगोविंद, सन् 1972 में महाकवि अमरूक उचित शतक और सन् 1978 में महाकवि बिल्हण कृत वीर पंचाशिका के हिन्दी पद्यानुवाद अभी अभी प्रकाशित हुआ है। इसे दुभाZग्य ही कहा जाना चाहिए कि ऐसे उत्कृष्ट रचनाओं को प्रकाशित करने वाले प्रकाशक हमारे यहां नहीं हैं। इन पुस्तकों को श्री दास ने स्वयं प्रकाशित कराया है। इसी प्रकार सन् 1979 में उन्होंने महाकवि हाल की प्राकृत रचना गाथा सप्तशती का हिन्दी पद्यानुवाद किया है। इसके पूर्व कालिदास के मेघदूत का सन् 1960 में, कुमारसंभव का 1970 में और रघुवंश का 1974 में पद्यानुवाद वे कर चुके थे। उनकी अधिकांश पुस्तकें अभी तक अप्रकाशित हैं। आधी शताब्दी से भी अधिक से सतत जारी अपनी इस साहिित्यक यात्रा में श्री चिरंजीवदास एक सफल आध्याित्मक साहित्यकार और अनुवादक के रूप में रेखांकित होते हैं। अपनी साहिित्यक यात्रा के प्रारंभिक दिनों का स्मरण करते हुये वे बताते हैं-`` जब मैं 15-16 वर्ष का था, तभी से मेरे मन में काव्य के प्रति मेरी अभिरूचि जागृत हो चुकी थी। मैं हिन्दी में कविताएं लिखता था। सन् 1960 में महाकवि कालिदास का मेघदूत को पढ़कर लगा कि संस्कृत के इतने सुंदर काव्य का यदि हिन्दी में सरस पद्यानुवाद होता तो कितना अच्छा होता ? और तभी मैंने उसका पद्यानुवाद करने का निश्चय कर लिया।`` श्री दास ने मुझे बताया कि अनुवाद कर्म में मुझे हिन्दी और उिड़या भाषा ने हमेशा प्रेरित किया। क्योंकि ये दोनों भाषा संस्कृत के बहुत नजदीक हैं। संस्कृत के कवियों में महाकवि कालिदास की रचनाओं ने चिरंजीवदास को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। वे कहते हैं कि कालिदास के काव्य का आयाम बहुत विस्तुत है, विशेषकर रघुवंश में उनकी सम्पूर्ण विचारधारा भारतीय संस्कृति के प्रति उनका अदम्य प्रेम, आर्य परंपरा के प्रति अत्यंत आदर और लगाव स्पष्ट है।
उनकी आरंभिक रचनाओं में छायावादी काव्य संस्कारों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। उनकी कविताओं में शिल्प के पुरानेपन के बावजूद कुछ ऐसे अछूते विषय भी हैं जिन पर कविता लिखने की कोशिश ही उनके अंतिर्नहित नैतिक साहस को प्रदर्शित करता है। ऋग्वेद के यम और यमी पर लिखित उनकी सुदीघZ कविता इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इसके अतिरिक्त कथात्मक आधार पर लिखी गयी ``रति का शाप`` और उड़ीसा की लोकगाथा पर आधारित ``केदार गौरी`` जैसे प्रबंध कविताओं में भी हम स्त्री-पुरूष के अनुराग की ओर उनके गहन संपर्क की रंगारंग अभिव्यक्ति देखते हैं। मुक्त छेद में लिखी गई उनकी अनेक कविताएं इसके प्रमाण हैं। आज से 50 वर्ष पूर्व उनकी कविताओं में प्रगतिशील दृष्टि मौजूद थी। आदिवासी लड़की पर लिखी ``मुंडा बाला`` कविता उनके सौंदर्य बोध और उनकी करूणा को मूर्त करने वाली कविता है। मैं डॉण् प्रभात त्रिपाठी के इस विचार से पूरी तरह सहमत हूं कि ``आधुनिक हिन्दी कविता के संदर्भ में उनकी कविता को पढ़ना इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकती है कि उनकी कविताओं में विस्तृत कर दी गयी शब्दावली के पुनर्वास का सार्थक प्रयास है। संस्कृत के वर्णवृथी के अतिरिक्त उिड़या एवं बंगला के लयात्मक संस्कारों को धारण करने वाली उनकी कविता हमारी जातीय स्मृतियों की जीवंतता को उजागर करती है। केवल शािब्दक चमत्कार के स्तर से गहरे उतरकर वे इस शब्दावली में अपनी कल्पनाशीलता के द्वारा एक नई अर्थवत्ता रचते हैं। अपने व्यक्त रूप में उनकी कविता का आकार पुरातनपंथी सा लग सकता है किंतु यह अनेक आवाजों से बनी कविता है। एक गंभीर हृदय के लिए यह कविता आ अजस्र अवकाश है। काल और कालातीत इतिहास और पुराण लोक और लोाकोत्तर को एक दूसरे से मिलाने की कोशिश करती श्री चिरंजीवदास की कविताएं इन्ही काव्य परंपरा की सार्थक और गंभीर रचना है।``
देशी रियासतों के मध्यप्रदेश में विलीनीकरण हो जाने पर श्री चिरंजीवदास की सेवाएं मण्प्रण्शासन द्वारा गृहित कर ली गई। शासकीय सेवा में कार्य करते हुए उन्होंने अपनी साहिित्यक यात्रा जारी रखी। इस बीच वे संस्कृत साहित्य की ओर उन्मुख हुए। इसी का परिणाम है कि वे सेस्कृत भाषा में लिखित पुस्तकों का हिन्दी पद्यों में अनुवाद किये। इसीलिए उनके काव्यों में संस्कृत शब्दों का पुट मिलता है। 31 जनवरी सन् 1979 को लेखाधिकारी (राजस्व) के पद से सेवानिवृत्त होकर केलो नदी के तट पर स्थित अपने निवास में साहिित्यक साधना में रत रहे। ऐसा कोई साहिित्यक व्यक्ति रायगढ़ में नहीं हैं जो उनसे किसी न किसी रूप में जुड़े हों ? जब भी आप उनके निवास में जाते तो उन्हें अध्ययनरत ही पातेण्ण्ण्समय का सदुपयोग करना कोई उनसे सीखे। उनकी मौन साधना का ही परिणाम है कि अब तक वे दो दर्जन से भी अधिक पुस्तकें लिखी और अनुवाद किया है। उनकी प्रकाशित कृतियों में रघुवंश, ऋतुसंहार, गीतगोविंद, अमरूक शतक, चौर पंचाशिका और संचारिणी प्रमुख है। उनकी अप्रकाशित कृतियों में कुमारसंभव, मेघदूत, रास पंचाध्यायी, श्रीकृष्ण कर्णमृत, किशोर चंदानंदचंपू, भतृZहरि, शतकत्रय रसमंजरी और आर्य सप्रशनी प्रमुख है। उन्होंने फिट्जलैंड की अंग्रेजी रचना का उिड़या में ``उमर खैय्याम`` शीर्षक से पद्यानुवाद किया है।
उनकी रचनाओं में उत्कृष्ट रचनाकार कालिदास की रचनाओं का अनुवाद प्रमुख है। उन्होंने कालिदास को परिभाषित करते हुए लिखा है:- ``कीर्तिरक्षारसंबद्धा स्थिराभवति भूतले`` अथाZत् कालिदास निश्चय ही अक्षरकीर्ति है।
धार्मिक ग्रंथों को छोड़ दे और केवल कला साहित्य की बात करें तो भास आदि नाटककार अवश्य ही कालिदास के पूर्व हुए किंतु काव्य के क्षेत्र में कालिदास अवश्य ही अग्रगण्य हैं और न केवल अग्रगण्य बल्कि आज तक हुए कवियों में सर्वश्रेष्ठ भी। ऐसा विश्वास किया जा सकता है कि जब तक पृथ्वी में साहित्य के प्रति आदर रहेगा तब तक कालिदास को स्मरण किया जाता रहेगा। वे वाग्देवी के अमर पुत्र हैं-शब्द ब्रह्य के सर्वाधिक लाड़लेण्ण्। वे शब्दों से खेले किंतु मानो शब्द ही उनके हाथों पड़ने के लिए तरसते थे। कालिदास ऐसे समय में हुए जब भारत की राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक जीवन में ह्रास और अवमूल्यन के लक्षण स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगे थे। क्रांतिदशीZ कालिदास ने देश की इस दुराव्यवस्था को देखा और उस पर मनन किया। उनके पास राजनीतिक शक्ति नहीं थी, वे धार्मिक नेता भी नहीं थे और न ही सामाजिक ह्रास को रोकने में सक्षम। वे एक कवि थे और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए वे केवल अपने काव्य पर अवलंबित थे। अत: वे माध्यम से भारतीय जनता को जागृत करने करने का बीड़ा उठाया और इसमें वे पूरी तरह सफल भी हुए। श्री चिरंजीवदास का ऐसा मानना है कि कालिदास ने काव्य नहीं लिखा बल्कि उसका दर्शन किया है- ``पश्य देवस्य काव्यं न ऋषेति न विभेति`` प्रसिद्ध टीकाकार मिल्लनाथ लिखते हैं कि उनकी वाणी के सार को स्वयं कालिदास, मां सरस्वती और सृष्टिकत्ताZ ब्रह्या जी ही समझ सके हैं। तब मैं उनकी रचना को समझकर उसका अनुवाद करने वाला कौन होता हूं ? मैंने यह अनुवाद अपनी विद्वता दिखाने के लिए नहीं बल्कि उनकी कृतियों को जन साधारण तक पहुंचाने के लिए किया है। उनका ऐसा करना कितना सार्थक है, इसका निर्णय पाठक करेंगे, ऐसा उन्हें विश्वास है। तब मुझे उनकी ``मुरली बजरी`` कविता की ये पंक्तियां याद आ रही है :-
इन प्राणों की प्यास जता दे,
इन सांसों का अर्थ बता दे,
स्वर में मेरे स्पंदन सुलगा,
आहों का प्रज्वलित पता दे।
रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्वनी केशरवानी
रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्वनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें