शुक्रवार, 23 नवंबर 2007

संतो की धरतीःछत्तीसगढ़



प्रो. अश्विनी केशरवानी
युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्न-'कौन सा मार्ग मनुष्य को अनुसरण करना चाहिए', के जवाब में कहा 'संतो दिक्' अर्थात् संतो के द्वारा बताये गए मार्ग का अनुसरण मनुष्य को करना चाहिए। वस्तुत: संत ही वे दीप हैं जो मनुष्यों का पथ प्रदर्शन करते हैं। उनके द्वारा बताये गये मार्ग उनके ध्येय प्राप्त करने में सहायता करते हैं। 'आत्मनो मोक्षाय, जगत हिताय च' संत मोक्ष की कामना के साथ समाज उद्धार की कामना भी करते हैं। यद्यपि संतों का सर्वप्रथम प्रेम ईश्वर के प्रति होता है इसके बावजूद यह समाज की भलाई और सर्वजन कल्याण की भावना से ओतप्रोत होता है। संतों में ज्ञान और पराभक्ति दोनों होता है। संतों का ज्ञान परमात्मा के विषय में निजी अनुभवों से संपृक्त होता है। वह जगत में सर्वत्र भगवान को देखता है। उसका प्रेम मंदिर में स्थित मूर्ति तक सीमित नहीं होता बल्कि समस्त विश्व में प्रवाहित है। उसका प्रेम विश्वजनीन है। उसमें सर्वोच्च दर्शन, तीव्र भक्ति और संपूर्ण अहंकार शून्यता अंतर्निहित है।छत्तीसगढ़ प्रदेश ऐसे अन्यान्य संतों की जन्मस्थली और कार्यस्थली रही है। सतयुग में महर्षि मतंग ऋषि का गुरूकुल आश्रम शिवरीनारायण क्षेत्र में था। यहाँ शबरी निवास करती थी। उनका उद्धार करने के लिए श्रीराम और लक्ष्मण यहाँ आये थे। उनकी स्मृति में शबरीनारायण बसा है। पंडित मालिकराम भोगहा द्वारा रचित श्री शिवरीनारायण माहात्म्य का एक उध्दरण देखिये :-जो प्रसन्न तुम मो पर रघुवर देहु मोहि वरदान यही मेरे नाम सहित प्रभु जी के नाम उचारें सकल महीकमल नयन ! अब मेरे हित तुम रचहु चिता निज रूचि अनुसार पंचभूत तनु जारि भुवन तुव जाऊं सकल पाप करि छारे॥महानदी की उद्गम स्थल सिहावा में श्रृंगी ऋषि का आश्रम था जहाँ वे अपनी पत्नी शांता के साथ रहते थे :- चंदमुखी शांता सुख दायिनि पतीभक्ति नित प्रति पारायनिसेवा करत सुमति हरषाई श्रृंगी ऋषि की कपट बिहाई(देश) निकट गिरि कंक सुहाई तहां उटज मुनि सुभग बनाईशांता सहित रहत सुखदाई नृप आदिक पूजत तहं जाईते॥ इसी प्रकार महानदी के किनारे कसडोल के पास स्थित तुरतुरिया में महर्षि बाल्मिकी का आश्रम था जहाँ लव और कुश का जन्म हुआ था। प्रसिद्ध तीर्थ राजिम भी महर्षि मुचुकुंद की तपस्थली था जहाँ महाराजा सगर के हजारों पुत्र भस्म हो गये थे। कांकेर में कंक ऋषि का आश्रम था। सरगुजा की पहाड़ी में कालिदास के रहने की पुष्टि होती है। प्रसिद्ध दार्शनिक और बौध्द धर्म की महायान शाखा के संस्थापक नागार्जुन भी यहीं हुए थे। तभी तो कवि शुकलाल पांडेय छत्तीसगढ़ गौरव में गाते हैं :- यहीं हुए भवभूति नाम संस्कृत के कविवरउत्तार रामचरित्र ग्रंथ है जिनका सुंदरवोपदेव से यहीं हुए हैं वैयाकरणीहै जिनका व्याकरण देवभाषा निधि तरणीनागार्जुन जैसे दार्शनिक और सुकवि ईशान सेकोशल विदर्भ के मध्य में हुए उदित शशिभान से।
नागार्जुन :- नागार्जुन को बौध्द धर्म की महायान शाखा का संस्थापक माना जाता है। उन्हें सम्राट कनिष्क और सातवाहन राजवंश के समकालीन माना जाता है। हुएनसांग ने 'भारत भ्रमण वृत्तांत' में नागार्जुन को कोसल निवासी बताया है। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ को प्राचीन काल में दक्षिण कोसल कहा जाता था। राहुल सांकृत्यायन ने भी 'राहुल यात्रावली' में नागार्जुन को दक्षिण कोसल का निवासी माना है। डॉ. दिनेश चंद्र सरकार और पंडित लोचन प्रसाद पांडेय ने उन्हें छत्तीसगढ़ के श्रीपुर का निवासी माना है। नागार्जुन जिस 'महामयूरी' विद्या के साधक थे, उसका उललेख बस्तर के एक लोकगीत में मिलता है :-सिरी परवते मयूर डाके, मयूर डाके।बाई के चलिबो ठोड़िया नाके, ठोड़िया नाके।गोटे जिया माकू देवी, काय बाई गोटे जिया माकू देवी।बाई खाये रेखी रेखी काय बाई खाय रेखी रेखी॥इस लोकगीत में श्री पर्वत मयूर और माकू देवी का उल्लेख है। माकू देवी 'मामकी' का अपभ्रंश है जो रत्नकेतु ध्यानी बुध्द की शक्ति है। मयूर 'महामयूरी' देवी को कहा जाता है। श्रीपर्वत वही स्थान है जहाँ नागार्जुन ने 12 वर्षो तक वट यक्षिणी की साधना करके सिध्दि प्राप्त की थी।श्रीपर्वत (श्रीशैल) बस्तर की सीमा से लगा आंध्र प्रदेश में स्थित है। कदाचित् यह क्षेत्र प्राचीन काल में दक्षिण कोसल अथवा दंडकारण्य का भाग रहा हो। नागार्जुन ने अपने ग्रंथ 'रस रत्नाकर' में इस पर्वत पर सिध्दि प्राप्त करने का उल्लेख किया है :-श्री शैल पर्वत स्थायी सिध्दो नागार्जुनो महान्।सर्व सत्वोपकारी च, सर्व भाग्य समन्वित:॥प्रार्थितो ददते शीघ्र यश्च पश्यति याद्शम्।दृष्टता त्यागं भोगं च सूतकस्य प्रसादत:॥सत्वानां भोजनार्थाय सोधिता वट यक्षिणी।द्वादशानि च वर्षाभि महाक्लेष: कृतोमया॥तत्कात दृष्ट द्रव्याणं दिव्यावाणी मयाश्रुता।अदृष्ट प्रार्थिता पश्चात् दृष्टा त्वंभव साम्प्रतम्॥नागार्जुन एक महान दार्शनिक और प्रखर संत ही नहीं बल्कि रस सिध्दि योगी और आयुर्वेदाचार्य थे। ध्यान के माध्यम से उन्होंने अनेक आध्यात्मिक सिध्दियां प्राप्त की थी। छत्तीसगढ़ में जन्में नागार्जुन को ज्ञान विज्ञान, योग और तंत्र ने अमर बना दिया। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध धार्मिक नगर शिवरीनारायण प्राचीन काल में प्रसिद्ध तांत्रिक पीठ था।
महाप्रभु बल्लभाचार्य :- छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध तीर्थ राजिम के उत्तार में 14 कि. मी. पर चम्पारण्य ग्राम स्थित है जहाँ पंचकोशी यात्रा का एक पड़ाव चम्पकेश्वर महादेव का है। महानदी के तट पर मनोरम दृश्य से परिपूर्ण इस ग्राम में महाप्रभु बल्लभाचार्य का जन्म एक दैवीय घटना थी। उत्तार भारत से दक्षिण भारत जाने का मार्ग शिवरीनारायण, राजिम और चम्पारण्य से गुजरता था। श्री लक्ष्मण भट्ट और उनकी गर्भवती पत्नी इल्लमा इस रास्ते से दक्षिण भारत की यात्रा कर रहे थे। तभी उनके गर्भ से बालक बल्लभ का जन्म हुआ। बच्चा निर्जीव प्रतीत हो रहा था। उसे एक पेड़ के नीचे पत्तों पर लिटाकर ईश्वरोपासना में लीन हो गए। प्रात: उन्होंने देखा कि बालक अपने अंगूठे को चूसता हुआ मुस्कुरा रहा था। यही बालक आगे चलकर वैष्णव भक्ति की शुध्दाद्वैत धारा का प्रवर्तक हुआ जिसे आज पुष्टि मार्ग के नाम से जाना जाता है। यही बालक आगे चलकर महाप्रभु बल्लभाचार्य के नाम से विख्यात् हुआ। उन्होंने वेदांत की तर्क संगत सरल व्याख्या की है। उन्हें भगवान विष्णु का अंशावतार माना जाता है। उन्होंने उत्तार भारत में वैष्णव पंरपरा के मार्ग को पुष्ट किया। चम्पारण्य में ''श्रीमद् बल्लभाचार्य धर्म संस्कृति शोध अन्वेषण संस्थान'' की स्थापना पूज्यपाद गोस्वामी मथुरेश्वर द्वारा की गयी है। कवि शुकलाल पांडेय भी गाते हैं :- जन्मभूमि बल्लभाचार्य की है चम्पाझर बसे शंभू अभ्यंकर प्रयलंकर शंकर॥
बलभद्रदास :- रायपुर के दूधाधारी मठ के संस्थापक महात्मा बलभद्र दास थे। चूंकि वे अन्न जल के बजाय केवल दूध ग्रहण किया करते थे अत: उनका नाम 'दूधाधारी' पड़ गया। हालाँकि उनका जन्म राजस्थान के जोधपुर जिलान्तर्गत आनंदपुर (कालू) में पंडित शंभूदयाल गौड़ के पुत्र के रूप में हुआ था, लेकिन उनकी कार्यस्थली छत्तीसगढ़ का रायपुर था। बचपन से ही वे बड़े चमत्कारी थे। वे भ्रमण करते हुए पहले महाराष्ट्र और फिर छत्तीसगढ़ आ गए। उनके चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेक राजा-महाराजा उनके शिष्य हो गए। भंडारा जिले के पावनी में महंत गरीबदास द्वारा निर्मित श्रीरामजानकी मंदिर में वे बहुत दिनों तक रहे। यहीं उन्होंने गरीबदास को अपना गुरू बनाया और बालमुकुंद से बलभद्रदास हो गए। उनके पास एक शेर और शेरनी था। शेर का नाम नरसिंह और शेरनी का नाम लक्ष्मी था। 17 वीं शताब्दी के आरंभ में वे रायपुर आ गए। तब यहाँ भोंसलों का शासन था। उनकी चमत्कारी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें रायपुर में रहने की प्रार्थना भोंसले राजा ने की और एक मठ का निर्माण सन् 1640 में कराया जिसके वे पहले महंत हुए। इस मठ को 'दूधाधारी मठ' कहा जाता है। लोग उनके संपर्क में आते गये और शिष्य बनते गये। आगे चलकर इस मठ में सेठ दीनानाथ अग्रवाल ने श्रीरामजानकी का भव्य मंदिर बनवाया। छत्तीसगढ़ का यह एकलौता मंदिर है जहाँ श्रीरामजानकी के अलावा लक्ष्मण्, भरत, शत्रुघन और हनुमान की भव्य झांकी है। तब से लेकर आज तक इस मठ के क्रमश: बलभद्रदास, सीतारामदास, अर्जुनदास, रामचरणदास, सरजूदास, लक्ष्मणदास, बजरंगदास, और वैष्णवदास महंत हुए और वर्तमान में राजेश्री रामसुदरदास यहाँ के महंत हैं।
अर्जुनदास :- स्वामी अर्जुनदास जी शिवरीनारायण मठ के ग्यारहवीं पीढ़ी के महंत थे। वे शिवरीनारायण तहसील के आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट भी थे। बिलासपुर जिलान्तर्गत (वर्तमान रायपुर) ग्राम बलौदा में संवत् 1867 में उनका जन्म हुआ। 18 वर्ष की आयु तक विद्याध्ययन किया और फिर वे मठ मंदिर में पुजारी नियुक्त होकर 23 वर्ष की आयु में इस मठ के महंत बने। वे बड़े आस्तिक थे। बचपन से ही नदी से कंकड़, पत्थर लाकर उनकी पूजा किया करते थे। आपको हनुमान जी की बड़ी कृपा मिली थी। श्रीराम की उपासना में सदा दृढ़ रहते हुए रामायणादि और भगवत्कथा के श्रवण में सदा लीन रहते थे। उनके मुख से निकली हुई हर बात सत्य होती थी। उनके आशीर्वाद से संवत् 1927 में अकलतरा के जमींदार श्री सिदारसिंह और लवन के पंडित सुधाराम को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। तत्पश्चात् स्वामी जी की प्रेरणा से सिदारसिंह ने अपने भाई श्री गरूड़सिंह की सहायता से संवत् 1927 में श्रीराम लक्ष्मण और जानकी जी का मंदिर बनवाया। इसी प्रकार पंडित सुधाराम ने भी मठ परिसर में संवत् 1927 में एक हनुमान जी का मंदिर बनवाया। इसी प्रकार श्री रामनाथ साव ने स्वामी जी की प्रेरणा से चंद्रचूड़ महादेव मंदिर के बगल में संवत् 1927 में एक महादेव जी का मंदिर बनवाया। इस मंदिर में भगवान विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति भी है। आज उनके वंशज श्री मंगलप्रसाद, श्री तीजराम और श्री जगन्नाथ प्रसाद केशरवानी इस मंदिर की देखरेख और पूजा-अर्चना कर रहे हैं। स्वामी जी की प्रेरणा से भटगाँव के जमींदार श्री राजसिंह ने मठ प्रांगण में जगन्नाथ मंदिर की नींव संवत् 1927 में डाली, जिसे उनके पुत्र श्री चंदनसिंह ने पूरा कराया और भोग रागादि की व्यवस्था की। इसी समय भटगाँव के जमींदार ने योगी साधु-संतों के निवासार्थ जोगीडीपा में एक भवन का निर्माण कराया जिसे आज जनकपुर के नाम से जाना जाता है। रथयात्रा में आज भी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी एक सप्ताह यहाँ विश्राम करते हैं। संवत् 1928 में यहाँ श्री बैजनाथ साव, चक्रधर, बोधराम और अभयराम ने एक हनुमान जी का भव्य मंदिर बनवाया। महंत अर्जुनदास जी यहाँ एक सुंदर बगीचा लगवाया था। वे यहाँ प्रतिदिन आया करते थे। द्वार पर एक शिलालेख है जिसमें हनुमान मंदिर बनाने का उल्लेख है। उन्होंने संवत् 1923 से 1927 तक नारायण मंदिर के चारों ओर पत्थर से पोख्तगी कराकर मंदिर को मजबूती प्रदान कराया। यही नहीं बल्कि इधर उधर बिखरे मूर्तियों को दीवारों में जड़वाकर सुरक्षित करवा दिया। आज यहाँ का मंदिर परिसर जीवित म्यूजियम जैसा प्रतीत होता है। संवत् 1929 में मठ परिसर में पूर्व महंतों की समाधि में छतरी बनवायी। फाल्गुन शुक्ल पंचमी, संवत् 1944 को रायपुर के छोगमल मोतीचंद ने मठ परिसर में द्वार से लगा एक सूर्य मंदिर का निर्माण कराया। रायपुर के डिप्टी कमिश्नर श्री इलियट साहब ने 12 गाँव की माफी मालगुजारी संवत् 1915 स्वामी जी को दिया। संवत् 1920 में डिप्टी कमिश्नर चीजम साहब की अनुमति से उन्होंने यहाँ एक पाठशाला खुलवाया। यह पाठशाला महानदी के तट पर स्थित माखनसाव के कुलदेव महेश्वर महादेव मंदिर के पास स्थित थी। संवत् 1933 (जनवरी सन् 1877 ई.) में राज राजेश्वरी को महारानी की उपाधि मिलने पर उन्होंने स्वामी जी को एक प्रशंसा पत्र देकर सम्मानित किया था। इस प्रकार 44 वर्ष इस मठ के महंत रहकर 75 वर्ष की आयु में मठ प्रबंधन का सारा भार अपने शिष्य श्री गौतमदास को सौंपकर उन्होंने पौष कृष्ण अष्टमी दिन मंगलवार संवत् 1942 को स्वर्गारोहण किया।
गौतमदास :- शिवरीनारायण मठ के 12 वें महंत स्वामी गौतमदास जी हुए जो स्वामी अर्जुनदास जी के परम शिष्य थे। वे शिवरीनारायण तहसील के आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट थे। गौतमदास जी का जन्म बिलासपुर (वर्तमान रायपुर) जिलान्तर्गत बलौदा ग्राम में श्री गंगादास और श्रीमती सूर्या देवी के पुत्र रत्न के रूप में माघ शुक्ल द्वादशी संवत् 1892 रविवार को अच्युत गोत्रीय वैष्णव कुल में हुआ। बलौदा इनकी गौटियाई गाँव था जहाँ अच्छी खेती होती थी। 9 वर्ष की आयु तक वे अपने माता पिता के पास रहे। उसके बाद दीक्षित होकर विद्याध्ययन करने के लिए शिवरीनारायण आ गये। उनके गुरू स्वामी अर्जुनदास जी ने उनकी शिक्षा की व्यवस्था मठ में ही करा दी। सात वर्ष तक उनको संस्कृत और नागरी भाषा में शिक्षा मिली। तत्पश्चात् गीतादि और कर्मकांड में शिक्षा ग्रहणकर निपुण हुए। संवत् 1910 में महंत अर्जुनदास जी ने अपना सम्पूर्ण कार्यभार उन्हें सौंप दिया, यहाँ तक कि सरकार के दरबार में भी उन्हें जाने का अधिकार उन्होंने दिया। फिर वे मठ की देखरेख करने लगे। महंत अर्जुनदास जी की प्रेरणा से बनने वाले सभी मंदिर उन्हीं की देखरेख में बने। उन्होंने अपने गुरू का 34 वर्ष तक साथ निभाया। उनके मृत्योपरांत 50 वर्ष की अवस्था में वे संवत् 1936 में इस मठ के महंत बने। उन्होंने शिवरीनारायण में रथयात्रा, श्रावणी, झूलोत्सव, और माघी मेला लगाने की दिशा में समुचित प्रयास किया जिसे उनके शिष्य महंत लालदास जी ने व्यवस्थित रूप प्रदान किया। उन्होंने टुन्ड्रा में एक तालाब खुदवाकर सुन्दर बगीचा लगवाया। इसी प्रकार शिवरीनारायण में प्रमुख बाजार से लगा एक सुन्दर बगीचा लगवाया। इसे ''फुलवारी'' के नाम से जाना जाता है। उनका सम्पूर्ण समय ईश्वरोपासना, श्रीराम के भजन और श्रीहरि कथा श्रवण में व्यतीत होता था। धर्म्म व्यवहार में उनकी इतनी दृढ़ता थी कि अस्वस्थ होने पर भी धर्मानुकूल व्यवहार करने में वे कभी नहीं चुकते थे। वे धर्माभिमानी और धर्मात्मा पुरूष थे। प्रयाग, काशी, गया, जगन्नाथपुरी और अयोध्या आदि तीर्थयात्रा उन्होंने की थी। वे सनातन धर्म के रक्षार्थ निरंतर कटिबध्द रहे। शिवरीनारायण में सबसे पहले उन्होंने ही नाटकों के मंचन को प्रोत्साहित किया जिसे महंत लालदास जी ने प्रचारित कराया। उन्होंने अपने भाई श्री जयरामदास के पुत्र श्री लालदास जी को अपना शिष्य बनाकर मठ का महंत नियुक्त किया।
महंत लालदास जी :- शिवरीनारायण मठ के 13 वें महंत स्वामी लालदास जी हुए। बिलासपुर (वर्तमान रायपुर) जिलान्तर्गत ग्राम बलौदा के श्री जयरामदास जी के पुत्र के रूप में आषाढ़ शुक्ल 11, संवत् 1936 में उनका जन्म हुआ। वे महंत गौतमदास जी के भतीजे थे। माघ शुक्ल 5, संवत् 1940 को श्री लालदास का विद्याध्ययन आरंभ हुआ और चैत्र शुक्ल 8, संवत् 1945 को संस्कारित होकर विधिवत दीक्षित हुए। वे संत सेवी, भागवत भक्त और समाज के उत्थान के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे। यहाँ त्योहारों और पर्वो में विशेष धूम उन्हीं के कारण होने लगी थी। सावन में झूला उत्सव, रामनवमीं, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, रथयात्रा, विजियादशमी यहाँ बड़े धूमधाम से मनाया जाता था जिसमें आस पास के गांवों के बड़ी संख्या में लोग सम्मिलित होते थे। यहाँ रामलीला, कृष्णलीला और नाटक का मंचन बहुत अच्छे ढंग से होता था जिसे देखने के लिए राजा-महाराजा, जमींदार और मालगुजार तक आते थे। महंत गौतमदास जी के समय यहाँ एक ''महानद थियेटिकल कम्पनी'' नाम से नाटक मंडली बनी थी जिसके द्वारा धार्मिक नाटकों का मंचन किया जाता था। इस नाटक मंडली को आर्थिक सहायता मठ के द्वारा मिला था। मठ के मुख्तियार श्री कौशल प्रसाद तिवारी ने भी ''बाल महानद थियेटिकल कम्पनी'' के नाम से एक नाटक मंडली बनायी थी। आगे चलकर महानद थियेटिकल कम्पनी और बाल महानद थियेटिकल कम्पनी को एक करके ''महानद थियेटिकल कम्पनी'' बनी। इस कम्पनी के मैनेजर श्री कौशल प्रसाद तिवारी थे। यहाँ मनोरंजन के यही साधन थे। समय समय पर यहाँ संत समागम, यज्ञ आदि भी होते थे। कदाचित् इन्हीं सब कारणों से महंत लालदास जी सबके आदरणीय और पूज्य थे। वे आयुर्वेद के अच्छे ज्ञाता थे। औषधियों का निर्माण वे स्वयं कराते थे और जरूरत मंद लोगों को नि:शुल्क देते थे। उन्होंने शिवरीनारायण को ''व्यावसायिक मुख्यालय'' बनाने के लिए बड़ा यत्न किया। दूर दराज के व्यावसायियों को आमंत्रित कर यहाँ बसाया और सुविधाएं दी, उन्हें व्यापार हेतु प्रोत्साहित किया। प्रमुख बाजार स्थित दुकानें उनकी दूर दृष्टि का ही परिणाम है। यहाँ के माघी मेला जो पूरी तरह व्यवस्थित होती है, इसे व्यवस्थित रूप प्रदान करने का सारा श्रेय महंत लालदास को ही जाता है। मठ के मुख्तियार श्री कौशलप्रसाद तिवारी महंत जी की आज्ञा से महंतपारा की अमराई में मेला के लिए सीमेंट की दुकानें बनवायी जो आज टूटती जा रही है। उन्होंने महानदी के तट पर संत-महात्माओं के स्नान-ध्यान के लिए अलग ''बावाघाट'' का निर्माण कराया। नि:संदेह ऐसे परम ज्ञानी, संत, कुशल प्रशासक और दूर दृष्टा महंत का यह क्षेत्र सदैव ऋणी रहेगा। उन्होंने दूधाधारी मठ रायपुर के महंत श्री वैष्णवदास जी को अपना शिष्य बनाकर इस मठ का महंत नियुक्त किया जो उनके 24 अगस्त सन् 1958 को मृत्योपरांत मठ का कार्यभार सम्हाला। इस प्रकार शिवरीनारायण मठ और रायपुर के दूधाधारी मठ के बीच एक नया संबंध स्थापित हुआ।
गुरूघासीदास :- छत्तीसगढ़ में गुरू घासीदास का आविर्भाव उस समय हुआ जब इस क्षेत्र का धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पूरी तरह दूषित हो गयी थी। एक ओर जहाँ राजनीतिक एकता का अभाव था, सर्वत्र अशांति थी, वहीं दूसरी ओर सामाजिक विघटन और कटुता भरा वातावरण था। मराठा शासन के कारण चारों ओर भय, आतंक असुरक्षा और अशांति थी। शासन के नाम पर मराठा आततायियों तथा उनके स्थानीय उच्च वर्गीय अनुयायियों का अत्याचार अपनी पराकाष्ठा पर था। धार्मिक, आध्यात्मिक तथा सात्विकता की भावना का पूरी तरह आभाव था। सम्पूर्ण क्षेत्र में विषमता, दमन, अराजकता और मिथ्याभिमान विद्यमान था। ऐसी परिस्थितियों में निश्चित रूप से किसी युग पुरूष की आवश्यकता थी जो इस व्यवस्था में सुधार ला सके। ऐसे समय में गुरू घासीदास का जन्म एक वरदान था। उन्होंने अपने अंतर्मन के विश्वास और सतनाम के दिव्य संदेश से सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के दिग्भ्रमित लोगों को सही रास्ता दिखाया।रायपुर जिला गजेटियर के अनुसार गुरू घासीदास का जन्म 18 दिसंबर सन् 1756 को एक श्रमजीवी परिवार में बलौदाबाजार तहसील के अंतर्गत महानदी के किनारे बसे गिरौदपुरी ग्राम में हुआ। यह गाँव छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी शिवरीनारायण से मात्र 11 कि.मी. दूर है। इनके पिता का नाम मंहगू और माता का नाम अमरौतिन बाई था। घासीदास का विवाह सिरपुर के अंजोरी की पुत्री सफुरा बाई से हुआ था। उनके चार पुत्र क्र्रमश: अमरदास, बालकदास, आगरदास, अड़गड़िया दास और एक पुत्री सुभद्रा थी। अपने पाँचों भाईयों में घासीदास मंझले थे। इनके बचपन का नाम घसिया था। वे संत प्रकृति के थे। उनके साथ अनेक अलौकिक घटनाएं जुड़ी हुई है। प्रारंभ से ही घासीदास का मन घरेलू तथा अन्य सांसारिक कार्यो में नहीं लगता था। फिर भी उन्हें अपने पिता के श्रम में भागीदार बनना ही पड़ता था। एक बार इस क्षेत्र में भीषण आकाल पड़ा जिससे उन्हें अपने परिवार के आजीविका के लिये दर दर भटकना पड़ा। अंत में वे परिवार सहित उड़ीसा के कटक शहर पहुंचे। यहाँ वे मजदूरी करने में अपना मन लगा पाते, इसके पूर्व ही उनकी मुलाकात बाबा जगजीवनदास से हुई। बाबा जगजीवनदास उस समय उड़ीसा के सुप्रसिद्ध संत माने जाते थे। घासीदास ने उनसे सतनाम की शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने उनके मन को जगाया और उन्हें बताया कि उनका जन्म सांसारिक कार्यो के लिये बल्कि लोगों को सद्मार्ग दिखाने के लिये हुआ है। कटक से लौटकर घासीदास सोनाखान के बीहड़ वन प्रांतर में जोंक नदी के किनारे तप करने लगे। यहाँ उन्हें सत्य की अनुभूति हुई और उन्हें सिध्दि मिली। इसके पश्चात् वे भंडारपुरी में आश्रम बनाकर सांसारिक भोग विलास का परित्याग कर जन कल्याण में अपना जीवन समर्पित कर दिया।समकालीन विचार कमजोर और पिछड़े वर्ग के जीवन दर्शन को जितना गुरू घासीदास ने प्रभावित किया है, उतना किसी अन्य ने नहीं किया है। उन्होंने केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि देश के अन्य भागों में लोगों को जो सतनाम का संदेश दिया है वह युगों युगों तक चिरस्मरणीय रहेगा। इसके अतिरिक्त उन्होंने समता, बंधुत्व, नारी उद्धार और आर्थिक विषमता को दूर करने के लिये एक समग्र क्रांति का आव्हान किया। वे एक समदर्शी संत के रूप में छत्तीसगढ़ में सामाजिक चेतना लाने में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनका आध्यात्मिक और दार्शनिक व्यक्तित्व के बारे में कहा जाता है कि वे हिमालय की भांति उच्च और महान थे। पंथी गीत में भी गाया जाता है :-श्वेत वरण अंग सो है, सिर कंचन के समान विशाला।श्वेत साफा, श्वेत अंगरखा, हिय बिच तुलसी के माला।एहि रूप के नित ध्यान धरौ, मिटे दुख दारूण तत्काला।श्वांस त्रास जम के फांस मिटावत हे मंहगू के लाला॥
गहिरा गुरू :- छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिलान्तर्गत लैलूंगा के वनों के बीच स्थित गहिरा ग्राम में संवत् 1966 में बुड़कीनंद व सुमित्रा बाई के पुत्र के रूप में जन्में रामेश्वर कंवर ही आगे चलकर गहिरा गुरू के नाम से प्रसिद्ध हुए। अल्पायु में ही अपने पिता के स्नेह से वंचित रामेश्वर बचपन से ही वनों में समाधि लगाने लगा था। वहाँ न तो स्कूल था न ही कोई शिक्षक, अत: शिक्षा-दीक्षा से वंचित रहा। उन्होंने केवल साधना की और सत्य को जाना। तीन दशक तक साधना के बाद जब वे लोगों के बीच आये तब उन्होंने लोगों को मांस, मदिरा का परित्याग कर सामाजिक सेवा करने का उपदेश दिया। वनवासी धीरे धीरे उनके अनुयायी बनते गये। कैलास गुफा उनका निवास और लोगों के लिए एक तीर्थ बन गया। 35 वर्ष की आयु में वे पूर्णिमा के साथ पाणिग्रहण किया। धीरे धीरे उनकी ख्याति चारों ओर फैल गयी और नेता, अभिनेता सभी उनके दर्शन लाभ के लिए गहिरा आश्रम आने लगे। यहाँ संस्कृत विद्यालय खोला गया। सामर बहार, श्री कैलास नाथेश्वर गुफा और श्री कोट में संचालित संस्कृत विद्यालय में लगभग 800 विद्यार्थी अध्ययनरत हैं। सम्प्रति सांकरवार में इस आश्रम का मुख्यालय है। उनकी सेवा के कारण मध्यप्रदेश शासन द्वारा 1986 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2005 में छत्तीसगढ़ शासन द्वारा सामाजिक सेवा पुरस्कार प्रदान किया है।
अवधूत भगवान राम :-बिहार प्रांत के भोजपुर जिलान्तर्गत गुण्डी ग्राम में बैजनाथसिंह के पुत्र के रूप में भाद्र शुक्ल सप्तमी, संवत् 1994 को भगवान का जन्म हुआ। उनके जन्म को उनके पिता ने भगवान का अवतरण समझकर उन्हें ''भगवान'' नाम दिया। उनकी प्रवृत्तिायां बाल्यकाल से ही असामान्य थी। सात वर्ष की आयु में उन्होंने घर का परित्याग कर दिया और भिक्षा मांगकर जीवन यापन करने लगा। 15 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने महरौड़ा श्मशान में अघोरसिध्दि प्राप्त की। उन्होंने अघोरपीठ क्रीं कुंड वाराणसी के पीठाधीश्वर बाबा रामेश्वर राम से दीक्षा ली। एक बार जशपुर के राजा को वे बनारस में श्मशान में मिल गये। उन्होंने बालक भगवान से जशपुर चलने की प्रार्थना की। पहले तो उन्होंने जशपुर जाने से इंकार कर दिया। लेकिन राजा के बहुत अनुनय विनय करने पर वे जशपुर चलने को राजी हो गये और जशपुर रियासत के नारायणपुर में उनका सर्वप्रथम आश्रम बना। प्राचीन औघड़ संतों ने देश और समाज के सामने जो उग्र रूप प्रस्तुत किया था इससे लोगों के मन में अघोर पंथ के प्रति अनेक भ्रांतियां उत्पन्न हो गयी थी जिससे भय का वातावरण निर्मित हो गया था। अवधूत भगवान राम ने समाज के सामने ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया जिससे उनकी न केवल भ्रांतियां दूर हुई बल्कि उनके अनुयायी होते गये। उनके सत्संग से मन के विकार दूर हो जाते और मन को शांति मिलती थी। उन्होंने जीवन के आध्यात्मिक संग्रह को दलित, पीड़ित और शोषित मानवता को समर्पित कर दिया। उनके आशीर्वाद से जशपुर के राजवंश चला। हमारे देश के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री चंद्रशेखर, श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री राजीव गांधी उनके भक्त ही नहीं बल्कि अनुयायी भी थे। आगे चलकर उन्होंने जशपुर के गमरीया और सोगड़ा में अपना आश्रम बनाया। उन्होंने 1961में 'श्री सर्वेश्वरी समूह' और 1962 में 'अवधूत भगवान राम कुष्ठ आश्रम' की स्थापना की। वे अघोरेश्वर थे। वे हमेशा कहते थे-'औघड़ वह भूना हुआ बीज है जो कभी अकुंरित नहीं होता। इसलिए मैं किसी देव का अवतार नहीं हूँ। आप जितना जानते हैं उसी पर अमल करें तो बहुत अच्छा होगा।' इसी उद्धोष के साथ उन्होंने 29 नवंबर 1992 को महानिर्वाण किया।
राजमोहिनी देवी :- सरगुजा का प्राकृतिक सौंदर्य ऋषि-मुनियों की कार्यस्थली के रूप में प्रख्यात् रही है। रामगिरी की पहाड़ी में कालीदास ने अन्यान्य रचनाओं का सृजन किया था। यहीं सरगुजा की माता के नाम से राजमोहिनी देवी ने भी ख्याति प्राप्त की है। सरगुजा जिला मुख्यालय अम्बिकापुर से 85 कि. मी. दूर गोविंदपुर में विवाहोपरांत राजमोहिनी देवी का पदार्पण हुआ। जंगली फल-फूल, कंद मूल आदि के उपर उनका जीवन आधारित था। जंगल से लकड़ी इकठ्ठा करके उसे बाजार में बेचकर जीवन की नैया जैसे तैसे चल रही थी। इसी बीच उनके दो पुत्र बल्देव और मनदेव तथा एक पुत्री राम बाई का जन्म हुआ। पति रणजीतसिंह का 1986 में देहावसान हो गया।दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करते उन्हें दिव्य अनुभूतियां हुई और उनका झुकाव साधना की बढ़ने लगा और उन्हें अंतत: सत्य की प्राप्ति हुई। एक घटना का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि पानी नहीं बरसने के कारण अकाल की स्थिति निर्मित हो गयी। लोग दाने दाने के लिए मोहताज होने लगे। कुछ लोग गाँव से पलायन करने की तैयारी करने लगे। मैं जंगल में लकड़ी इकठ्ठा कर रही थी तभी मुझे एक साधु मिले। कुशल क्षेम पूछने के बाद उन्होंने मुझे कहा कि तुम्हारा जन्म लकड़ी इकठ्ठा करने के लिए नहीं हुआ है, तुम्हे घर घरमें सादगी का अलख जगाना है, मांस-मदिरा से मुक्त समाज बनाना है...इनमें जागृति लाना है। जब तक उनकी बातों को समझ पाती, वे अंतर्ध्यान हो गये। मैं घर न लौटकर गाँव के बाहर एक पेड़ के नीचे बैठकर ध्यानस्थ हो गयी। मेरा ध्यान तब टूटा जब गाँव के सभी स्त्री पुरूष और बच्चे वहाँ इकठ्ठा होकर मुझे गाँव चलने को कह रहे थे, उनमें मेरे बच्चे भी थे। लेकिन मैं तो मोह माया से बहुत दूर हो गयी थी। मेरे मांस-मदिरा का परित्याग और सादगीपूर्ण जीवन जीने की बात कहने पर सबने अकाल से छुटकारा दिलाने की बात कही। ईश्वर की कृपा हुई और झमाझम पानी गिरने लगा और समय आने पर अच्छी फसल हुई। सबने मेरी बात मान ली और मांस मदिरा छोड़कर सादगी से जीवन यापन करने लगे। इस घटना से प्रभावित होकर दूसरे गाँव वाले भी साथ होने लगे। इस प्रकार उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी। गुनपुर गाँव के किसान रामकिशन और रामगहन द्वारा दी गयी तीन एकड़ पच्चीस डिसमिल जमीन में उनका आदिवासी सेवा आश्रम स्थित है। सरगुजा के अलावा रायगढ़, बिलासपुर, शहडोल, पेंड्रारोड, सीधी और छोटा नागपुर के पलामू तक उनके अनुयायी फैले हुए हैं। उन्हें भारत सरकार द्वारा ''पद्मश्री'' की उपाधि प्रदान की गयी है। लोग उन्हें ''माता जी'' के नाम से संबोधित करते हैं। 07 जनवरी 1994 को वह ब्रह्यलीन हो गयी मगर उनका प्रेरणादायी संदेश आज भी उन सबका पथ प्रदर्शन कर रही है।
तपसी बाबा :- उत्तरप्रदेश के ग्राम गुरूद्वारा, जिला देवरिया में 1838 ईसवीं में जन्में बालमुकुन्ददास जी अल्पायु में चमत्कारों से परिपूर्ण थे। बचपन से ही उन्होंने अपने घर का परित्याग कर संतों का सत्संग करने लगे। तीर्थाटन करते हुए वे चांपा आ गए। यहाँ उन्होंने हसदो नदी के तट पर श्मशान में स्थित एक छोटे से मंदिर को अपना निवास बनाया। उस समय यहाँ के जमींदार दादू रूद्रशरणसिंह थे। उनकी चमत्कारों से अन्यान्य लोग प्रभावित हुए और धीरे धीरे उनसे जुड़ने लगे। सर्वप्रथम उन्होंने हनुमान जी का मंदिर श्री नकछेड़ साव के सहयोग से बनवाया। नगर के प्रसिद्ध सेठ जगन्नाथ प्रसाद डिडवानिया तपसी बाबा की प्रेरणा से धर्मशाला, कुंआ, बगीचा और जगमोहन मंदिर का निर्माण कराया। मंदिर में बिना भोग लगे वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे। राय साहब बनवारीलाल को नया जीवन तपसी बाबा से ही मिला था। उन्होंने उनकी प्रेरणा से संत निवास का निर्माण कराया। उनकी प्रेरणा से ही डोंगाघाट का फर्शीकरण संभव हो सका।तपसी बाबा विद्वान, परोपकारी और भविष्य दृष्टा थे। हनुमान और अन्नपूर्णा जी की विशेष कृपा थी। श्रध्दालु भक्त, दर्शनार्थी, भूखे, भूले भटके लोगों को आप अवश्य सहायता करते थे। अन्नपूर्णा जी की कृपा से आपका भंडार कभी खाली नहीं होता था। हनुमान जी का चरणामृत सबके लिए अमृत तुल्य और संजीवनी था। आपके दर्शन लाथ करने वालों में म. प्र. के तत्कालीन मुख्य मंत्री द्वय श्री कैलासनाथ काटजू और श्री भगवंतराव मंडलोई, सांसद श्री अमर सहगल, श्री बिसाहूदास महंत, श्री बलिहास सिंह, जीवनलाल साव आदि थे। तपसी बाबा की प्रेरणा से उन्होंने बापू बालोद्यान का निर्माण कराया। उनका अधिकांश समय ध्यान, योग और भगवत्भजन में व्यतीत होता था। अपने चेले श्री शंकरदास को मंदिर का दायित्व सौंपकर 21 मई 1967 को चिर निद्रा में लीन हो गए। श्रध्दालुओं ने उनकी मूर्ति बनवाकर मंदिर परिसर में स्थापित करायी तथा उनकी समाधि स्थल को केराझरिया के रूप में विकसित कराय जो आज एक पर्यटक के रूप में विकसित होते जा रहा है। ऐसे अन्यान्य संतों ने छत्तीसगढ़ की पावन भूमि को अपनी तपस्थली और कार्यस्थली बनाया है। तभी तो पंडित शुकलाल पांडेय ने 'छत्तीसगढ़ गौरव' में गाते हैं :-धर्मात्मा-हरिभक्त जितेन्द्रिय पर उपकारीयथालाभ संतोष शील मुनिगण पथचारीनिर्लोभी गत बैर ग्राम उपदेशक वन्दितसदाचरण रत शान्त तपस्वी सद्गुण मंडितवाग्मी सुविवेकी नीतिरत मातामर्ष साधव महाछलकपट हीनऔ दम्भगत ब्राह्यण बसते यहाँ ॥ प्रो. अश्विनी केशरवानी राघव, डागा कालोनी,चांपा-495671 (छ.ग.)

3 टिप्‍पणियां:

समय चक्र ने कहा…

बहुत बढ़िया

36solutions ने कहा…

आभार, इसे नेट में होना ही चाहिए था ।

www.aarambha.blogspot.com

Pankaj Oudhia ने कहा…

बहुत-बहुत आभार जानकारी के लिये। वैसे आज पुन्नी मेले पर आलेख का इंतजार था।