प्रो. अश्विनी केशरवानी का आलेख : शादी के लिए कुंडली नहीं, रक्त समूह मिलाइए
आलेख
शादी के लिए कुंडली की नहीं रक्त की जांच कराइये
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
मेरे एक मित्र हैं-अनंत, जैसा नाम वैसा गुण, धीरज और सभ्यता जैसे उन्हें विरासम में मिला था। घर में अकेले और बड़े होने से उसकी शादी बड़े धूमधाम से एक सुधड़ कन्या से हुआ। लड़की सुशील, सभ्य और गृह कार्य में दक्ष थी। दोनों की जोड़ी को तब सभी ने सराहा था। बड़ी खुशी खुशी दिन गुजरने लगे मगर एक दिन उसका रक्त स्त्राव होने लगा। थोड़े बहुत इलाज से सब ठीक हो गया और बात आई गई हो गई। दिन गुजरने लगा और कभी कभी उसका रक्त स्त्राव हो जाता था, गर्भ ठहरता नहीं था। बार-बार रक्त स्त्राव से गर्भाशय कमजोर पड़ गया। एक बार गर्भ ठहर गया तब सभी कितने खुश हुये थे। सभी उस सुखद क्षण की कल्पना करके खुश हो जाते थे मगर जब वह वक्त आया तो बच्चा एबनार्मल हुआ। थोड़ी देर जीवित रहने के बाद शांत। बड़ी मुश्किल से मां को बचाया जा सकता है। दादा-दादी बनने की इच्छा ने इलाज से टोने टोटके तक ले आया और इस अंध विश्वास ने बेचारी को एक दिन मौत के गले लगा दिया। उस दिन की घटना ने मुझे विवाह सम्बंधी तथ्यों पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की बाध्य कर दिया।
वास्तव में विवाह दो अनजाने व्यक्तियों का मधुर मिलन होता है-दो परिवारों के बीच एक नया सम्बंध। अत: इस संबंध की प्रगाढ़ता के लिये कुछ तथ्यों पर गंभीरता पूर्वक विचार किये जाने की परम्परा होती है। इसके अंतर्गत विवाह पूर्व लड़के और लड़की की कुंडली मिलाया जाता है, कुल गोत्र और पारिवारिक चरित्रावली का अवलोकन किया जाता है। इसके पीछे वंशानुक्रम को जीवित रखने के साथ साथ सुखी और स्वस्थ परिवार की कल्पना होती है। आज इस प्रकार की कितनी शादियां सफल हो पाती हैं वह अलग बात है, मगर इस विधि को कोई छोड़ना नहीं चाहता। यह एक विचारणीय प्रश्न है। बहरहाल कुंडली और राशि की बात महज और थोथी लगती है क्योंकि कुंडली बच्चे के जन्म समय और तिथि के आधार पर बनायी जाती है। मशीनी युग में आपको घड़ी सही समय बतायेगी इस पर संदेह है। वैसे भी आज अधिकांश बच्चे अस्पतालों में पैदा होते है और बच्चे के जन्म के समय डॉक्टर-नर्स सभी डिलीवरी कराने में व्यस्त रहते है। इस समय थोड़ी सी असावधानी जच्चा और बच्चा के जीवन के लिये खतरा बन सकता है, ऐसे वक्त किसका ध्यान समय नोट करने की ओर जायेगा...हां, रजिस्ट्रर में खाना पूर्ति के लिये अवश्य लिखा होता है मगर अंदाज से लिखे इस समय के आधार पर बना कुंडली और राशि कितना सही हो सकता है, इसका अंदाज आप स्वंय लगा सकते हैं।
भारत के अलावा किसी दूसरे देश में कुंडली जैसी कोई चीज नहीं होती। पश्चिम के देशों में विवाह लड़के लड़की के रक्त समूह की जांच करके की जाती है। यहां जाति बंधन नहीं होता। इनसे जन्मे बच्चे स्वस्थ, सुन्दर और उच्च बौद्धिक स्तर के होते हैं। आज ऐसे विवाहों की आवश्यकता हैं जिसमें सादगी और उसका रक्त स्वस्थ हो, तो आइये पहले अपने रक्त के बारे में जान लें।
वास्तव में हमारे शरीर में पाये जाने वाले रक्त की रचना हल्के पीले रंग के द्रव तथा इसमें उतराने वाली कोशिकाओं से होता है। इस द्रव को ''प्लाज्मा'' तथा कोशिकाओं को ''रक्त कणिकाएं'' कहते हैं। ये रक्त कणिकाएं लाल और सफेद कणिकाओं से मिलकर बना होता है। रक्त की 54 से 60 प्रतिशत मात्रा प्लाज्मा तथा चालीस से छियालिस प्रतिशत मात्रा रक्त कणिकाओं की होती है। यह मात्रा परिस्थिति और स्वास्थ्य के अनुसार परिवर्तित होते रहता है।
प्लाज्मा अम्बर के रंग का द्रव भाग है जो निर्जीव होता है। इसमें जल की मात्रा 90 प्रतिशत होती है। अनेक प्रकार की वस्तुएं इसमें घुलकर इसकी रचना को जटिल बना देती है। इसमें से लगभग सात प्रतिशत प्रोटीन्स कोलायडी दशा में 0.9 प्रतिशत लवण और 0.1 प्रतिशत ग्लूकोज होता है। शरीर के एक भाग की प्लाज्मा की रचना दूसरे भाग के प्लाज्मा की रचना से एक ही समय में भिन्न हो सकती है, क्योंकि प्लाज्मा से कुछ पदार्थ निकलकर अंगों में और अंगों से प्लाज्मा में आते जाते रहते है। प्लाज्मा में तीन प्रकार के प्रोटीन्स-फाइब्रिनोजन, सीरम एल्बूमिन तथा सीरम ग्लोबूलिन होती है। इनका संलेषण यकृत में होता है। फाइब्रिनोजन रक्त के जमने में प्रयुक्त होती है। इन्हीं के कारण रक्त में परासरण दाब भी होता है जिससे अपने से कम सांद्रता वाले द्रवों को खींच लेने के क्षमता होती है। इसमें सोडियम, परासरण दाब भी होता है जिससे अपने से कम सांद्रता वाले द्रवों को खींच लेने के क्षमता होती है। इसमें सोडियम, पोटेशियम, कैलिसयम, लोहा और मैंग्निशियम के क्लोराइड, फास्फेट, बाई कार्बोनेंट और सलफेट लवण होते हैं। इसमें से सोडियम क्लोराइड और सोडियम बाई कार्बोनेट बहुत ही आवश्यक लवण है। इसके अलावा आक्सीजन, कार्बन डाईआक्साइड और नाइट्रोजन धुलित अवस्था में होती है। पचे हुए भोजन के अलावा उत्सर्जी पदार्थ, विटामिन तथा अंत: स्त्रावी ग्रंथियों में बने हारमोन्स इसमें घुले रहते हैं। जब कभी रक्त में किसी प्रकार के जीवाणु पहुंच जाते हैं तो इसमें विशेष प्रकार की प्रतिरोधी प्रोटीन बनती है जिसे एंटीबाडी कहते हैं। यह उस जीवाणु को प्रभावहीन कर देती है। ऐसे पदार्थ जो रक्त में एन्टीबाडीज का निर्माण करते है ''एन्टीजेन्स'' कहलाते हैं। ये लाल रक्त कणिकाएं में होती है।
इसी प्रकार रक्त कणिकाएं तीन प्रकार की होती है जिनमें लाल रक्त कणिकाएं, सफेद रक्त कणिकाएं और रक्त प्लेटलेटस। लाल रक्त कणिकाएं वास्तव में हल्के पीले रंग की कणिकाओं का पुंज है और जब ये इकटठी होती हैं तो ये लाल रंग के दिखते हैं। ये लाल रंग इसमें उपस्थित प्रोटीन्स ''हीमोग्लोबिन'' के कारण होती है। यह दो भाग-ग्लोबिन प्रोटीन और प्रोटीन रहित हीम से मिलकर बने होते हैं। इसमें लोहा होता हैं। पुरूषों में हीमोग्लोबिन की मात्रा 11 से 19 ग्राम और स्त्रियों में 14 से 18 ग्राम प्रति मिली लीटर की दर से होती है। इसी प्रकार स्वस्थ पुरुषों में लाल रक्त कणिकाओं की संख्या 5 से 5.5 मिलियन प्रति घन मिली लीटर तथा स्वस्थ स्त्रियों में 4 से 5 मिलियन प्रति घन मिली लीटर होता है। लाल रक्त कणिकाओं की संख्या स्वस्थ मनुष्यों की संख्या से अधिक होने पर ''पालिसाइथिमिया'' तथा कम होने के कारण कणिकाओं का सारा हीमोग्लोबिन उसकी सतह पर फैला रहता है जिससे लाला रक्त कणिकाओं की आक्सीजन वाहन क्षमता दूसरों की तुलना में अधिक होती है। हीमोग्लोबिन आक्सीजन को शरीर के अंगों में पहुँचाती है। एक लाल रक्त कणिका में लाखों हीमोग्लोबिन के अणु होते हैं और चूंकि हीमोग्लोबिन के एक अणु में चार लौह परमाणु होते है अत: एक अणु में चार आक्सीजन परमाणु को ग्रहण करने की क्षमता होती है। हमारे शरीर में प्रतिदिन 6.25 ग्राम हीमोग्लोबिन बनता है।
सफेद रक्त कणिकाएं जिसे ल्यूकोसाइट्स भी कहते हैं। इनकी संख्या लाल रक्त कणिकाओं की संख्या से कम होती है, स्वस्थ मनुष्यों में से लगभग 5000 से 10000 प्रति धन मिली लीटर होता है। इन कणिकाओं का सामान्य से अधिक होना ''ल्यूकोपिेनिया'' नामक बीमारी हो जाती है। इसमें हीमोग्लाबिन नहीं होता। इनका आकार अमीबा जैसे तथा केन्द्रक युक्त होता है। सफेद रक्त कणिकाओं में इओसिनोफिल्स कोशिकाएं होती है। इनकी संख्या सारी सफेद कणिकाओं की संख्या का 3 प्रतिशत होती है। मनुष्यों में इनकी संख्या के बढ़ जाने से ''इओसिनोफिलिया'' नामक बीमारी होती है। सफेद रक्त कणिकाओं का कार्य शरीर में आये हानिकारक जीवाणुओं का भक्षण करना है। इनकी इस प्रवृत्ति के कारण इसे ''भक्षाणु'' (फैगोसाइट्स) कहते हैं।
सबसे आश्चर्य जनक तथ्य यह है कि शरीर के किसी भाग में जख्म लगने से रक्त बहने लगता है मगर थोड़ी देर बाद रक्त जम जाता है। यही रक्त शरीर के अंदर नहीं जमता, क्यों ? यह तीसरे प्रकार की कणिका रक्त प्लेटलेड्स की उपस्थिति के कारण होता है। एक स्वस्थ मनुष्य में रक्त जमने में 2 से 5 मिनट लगता है और कभी कभी रक्त जमता ही नहीं और चोट लगे भाग से रक्त स्त्रावित होते रहता है, यह एक बीमारी है और इसे ''हीमोफिलिया'' कहते हैं। शरीर के अंदर ''हिपेरिन'' नामक पदार्थ की उपस्थिति के कारण रक्त नहीं जमता।
यह तो हुई रक्त की बात रक्त में उपस्थित एंटीबाडीज और एंटीजन्स की उपस्थिति से रक्त चार प्रकार के होते हैं जिन्हें A] B] AB और O रक्त समूह से प्रदर्शित किया जाता है। वह व्यक्ति जिसके रक्त में एन्टीजन्स A और एन्टीबाडी B होता है उसे रक्त समूह A में रखा जाता है। इसी प्रकार जिस रक्त में एन्टीजन्स B और एन्टीबाडी A होता है उसे रक्त समूह B में रखा जाता है और जिसमें एन्टीजन्स A और B होता है परन्तु एन्टीबाडी नहीं होता उसे रक्त समूह AB में रखा जाता है। इसी प्रकार जिसमें कोई एन्टीजन्स नहीं होता लेकिन एन्टीबाडी A और B दोनों होता है तब उसे रक्त समूह O में रखा जाता है। जब शरीर में रक्त की कमी होती है तब रक्त देते समय रक्त समूह की जांच आवश्यक होता है। A रक्त समूह के लोग A और O रक्त समूह से रक्त ग्रहण कर सकता है और A तथा AB समूह को रक्त दे सकता है। इसी प्रकार B रक्त समूह B और O के रक्त को ग्रहण कर सकता है B तथा AB समूह को रक्त दे सकता है। मगर AB रक्त समूह वाले लोग A, B, AB और O रक्त समूह का रक्त ग्रहण कर सकता है लेकिन केवल AB रक्त समूह को ही रक्त दे सकता है। इसके इस प्रवृत्ति के कारण इसे ''यूनिवर्सल रिसेप्टर'' कहते है। इसी प्रकार O रक्त समूह सभी रक्त समूह वाले व्यक्ति को रक्त दे सकता है लेकिन केवल O समूह का यही रक्त को ग्रहण कर सकता है। इसके इस प्रवृत्ति के कारण इसे ''यूनिवर्सल डोनेटर'' कहा जाता है। रक्त देते अथवा लेते समय ऐसा नहीं करने से रक्त जम जाता है और व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। रक्त में Rh फेक्टर भी होता है। यह दो प्रकार का होता है- Rh+ और Rh-। विवाह पूर्व रक्त की जांच करते समय रक्त समूह के साथ साथ Rh Factor को भी देखा जाता है। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि Rh- रक्त वाला लड़का Rh- तथा Rh+ दोनों प्रकार के रक्त वाले रक्त वाले लड़की से शादी कर सकता है मगर Rh+ रक्त वाला लड़का को Rh+ रक्त वाले लड़की से ही शादी करना चाहिये, Rh- वाली लड़की से नहीं अन्यथा लड़की के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। इसी प्रकार लड़कियों के रक्त में अगर Rh- फैक्टर है तो उसका विवाह Rh- फैक्टर वाले लड़के से सफल हो सकता है अन्यथा बच्चा एबनार्मल होता है और डिलीवरी के समय जच्चा, बच्चा दोनों के जीवन को खतरा होता है। इससे होने वाली बीमारी को ''इरिथ्रोब्लास्टोसिस फीटेलिस'' कहते हैं। इससे स्वस्थ बच्चा जनने की आशा नहीं होती। स्वस्थ विवाह के लिये निम्न लिखित चार्ट दिया जा रहा है।
उपर्युक्त रक्त समूह वाले चार्ट से आपको स्वस्थ और सुखी परिवार के लिये लड़का और लड़की ढूंढने में सहयोग मिल सकेगा।
-------------
रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा-495671 (छ.ग.)
आलेख
शादी के लिए कुंडली की नहीं रक्त की जांच कराइये
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
मेरे एक मित्र हैं-अनंत, जैसा नाम वैसा गुण, धीरज और सभ्यता जैसे उन्हें विरासम में मिला था। घर में अकेले और बड़े होने से उसकी शादी बड़े धूमधाम से एक सुधड़ कन्या से हुआ। लड़की सुशील, सभ्य और गृह कार्य में दक्ष थी। दोनों की जोड़ी को तब सभी ने सराहा था। बड़ी खुशी खुशी दिन गुजरने लगे मगर एक दिन उसका रक्त स्त्राव होने लगा। थोड़े बहुत इलाज से सब ठीक हो गया और बात आई गई हो गई। दिन गुजरने लगा और कभी कभी उसका रक्त स्त्राव हो जाता था, गर्भ ठहरता नहीं था। बार-बार रक्त स्त्राव से गर्भाशय कमजोर पड़ गया। एक बार गर्भ ठहर गया तब सभी कितने खुश हुये थे। सभी उस सुखद क्षण की कल्पना करके खुश हो जाते थे मगर जब वह वक्त आया तो बच्चा एबनार्मल हुआ। थोड़ी देर जीवित रहने के बाद शांत। बड़ी मुश्किल से मां को बचाया जा सकता है। दादा-दादी बनने की इच्छा ने इलाज से टोने टोटके तक ले आया और इस अंध विश्वास ने बेचारी को एक दिन मौत के गले लगा दिया। उस दिन की घटना ने मुझे विवाह सम्बंधी तथ्यों पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की बाध्य कर दिया।
वास्तव में विवाह दो अनजाने व्यक्तियों का मधुर मिलन होता है-दो परिवारों के बीच एक नया सम्बंध। अत: इस संबंध की प्रगाढ़ता के लिये कुछ तथ्यों पर गंभीरता पूर्वक विचार किये जाने की परम्परा होती है। इसके अंतर्गत विवाह पूर्व लड़के और लड़की की कुंडली मिलाया जाता है, कुल गोत्र और पारिवारिक चरित्रावली का अवलोकन किया जाता है। इसके पीछे वंशानुक्रम को जीवित रखने के साथ साथ सुखी और स्वस्थ परिवार की कल्पना होती है। आज इस प्रकार की कितनी शादियां सफल हो पाती हैं वह अलग बात है, मगर इस विधि को कोई छोड़ना नहीं चाहता। यह एक विचारणीय प्रश्न है। बहरहाल कुंडली और राशि की बात महज और थोथी लगती है क्योंकि कुंडली बच्चे के जन्म समय और तिथि के आधार पर बनायी जाती है। मशीनी युग में आपको घड़ी सही समय बतायेगी इस पर संदेह है। वैसे भी आज अधिकांश बच्चे अस्पतालों में पैदा होते है और बच्चे के जन्म के समय डॉक्टर-नर्स सभी डिलीवरी कराने में व्यस्त रहते है। इस समय थोड़ी सी असावधानी जच्चा और बच्चा के जीवन के लिये खतरा बन सकता है, ऐसे वक्त किसका ध्यान समय नोट करने की ओर जायेगा...हां, रजिस्ट्रर में खाना पूर्ति के लिये अवश्य लिखा होता है मगर अंदाज से लिखे इस समय के आधार पर बना कुंडली और राशि कितना सही हो सकता है, इसका अंदाज आप स्वंय लगा सकते हैं।
भारत के अलावा किसी दूसरे देश में कुंडली जैसी कोई चीज नहीं होती। पश्चिम के देशों में विवाह लड़के लड़की के रक्त समूह की जांच करके की जाती है। यहां जाति बंधन नहीं होता। इनसे जन्मे बच्चे स्वस्थ, सुन्दर और उच्च बौद्धिक स्तर के होते हैं। आज ऐसे विवाहों की आवश्यकता हैं जिसमें सादगी और उसका रक्त स्वस्थ हो, तो आइये पहले अपने रक्त के बारे में जान लें।
वास्तव में हमारे शरीर में पाये जाने वाले रक्त की रचना हल्के पीले रंग के द्रव तथा इसमें उतराने वाली कोशिकाओं से होता है। इस द्रव को ''प्लाज्मा'' तथा कोशिकाओं को ''रक्त कणिकाएं'' कहते हैं। ये रक्त कणिकाएं लाल और सफेद कणिकाओं से मिलकर बना होता है। रक्त की 54 से 60 प्रतिशत मात्रा प्लाज्मा तथा चालीस से छियालिस प्रतिशत मात्रा रक्त कणिकाओं की होती है। यह मात्रा परिस्थिति और स्वास्थ्य के अनुसार परिवर्तित होते रहता है।
प्लाज्मा अम्बर के रंग का द्रव भाग है जो निर्जीव होता है। इसमें जल की मात्रा 90 प्रतिशत होती है। अनेक प्रकार की वस्तुएं इसमें घुलकर इसकी रचना को जटिल बना देती है। इसमें से लगभग सात प्रतिशत प्रोटीन्स कोलायडी दशा में 0.9 प्रतिशत लवण और 0.1 प्रतिशत ग्लूकोज होता है। शरीर के एक भाग की प्लाज्मा की रचना दूसरे भाग के प्लाज्मा की रचना से एक ही समय में भिन्न हो सकती है, क्योंकि प्लाज्मा से कुछ पदार्थ निकलकर अंगों में और अंगों से प्लाज्मा में आते जाते रहते है। प्लाज्मा में तीन प्रकार के प्रोटीन्स-फाइब्रिनोजन, सीरम एल्बूमिन तथा सीरम ग्लोबूलिन होती है। इनका संलेषण यकृत में होता है। फाइब्रिनोजन रक्त के जमने में प्रयुक्त होती है। इन्हीं के कारण रक्त में परासरण दाब भी होता है जिससे अपने से कम सांद्रता वाले द्रवों को खींच लेने के क्षमता होती है। इसमें सोडियम, परासरण दाब भी होता है जिससे अपने से कम सांद्रता वाले द्रवों को खींच लेने के क्षमता होती है। इसमें सोडियम, पोटेशियम, कैलिसयम, लोहा और मैंग्निशियम के क्लोराइड, फास्फेट, बाई कार्बोनेंट और सलफेट लवण होते हैं। इसमें से सोडियम क्लोराइड और सोडियम बाई कार्बोनेट बहुत ही आवश्यक लवण है। इसके अलावा आक्सीजन, कार्बन डाईआक्साइड और नाइट्रोजन धुलित अवस्था में होती है। पचे हुए भोजन के अलावा उत्सर्जी पदार्थ, विटामिन तथा अंत: स्त्रावी ग्रंथियों में बने हारमोन्स इसमें घुले रहते हैं। जब कभी रक्त में किसी प्रकार के जीवाणु पहुंच जाते हैं तो इसमें विशेष प्रकार की प्रतिरोधी प्रोटीन बनती है जिसे एंटीबाडी कहते हैं। यह उस जीवाणु को प्रभावहीन कर देती है। ऐसे पदार्थ जो रक्त में एन्टीबाडीज का निर्माण करते है ''एन्टीजेन्स'' कहलाते हैं। ये लाल रक्त कणिकाएं में होती है।
इसी प्रकार रक्त कणिकाएं तीन प्रकार की होती है जिनमें लाल रक्त कणिकाएं, सफेद रक्त कणिकाएं और रक्त प्लेटलेटस। लाल रक्त कणिकाएं वास्तव में हल्के पीले रंग की कणिकाओं का पुंज है और जब ये इकटठी होती हैं तो ये लाल रंग के दिखते हैं। ये लाल रंग इसमें उपस्थित प्रोटीन्स ''हीमोग्लोबिन'' के कारण होती है। यह दो भाग-ग्लोबिन प्रोटीन और प्रोटीन रहित हीम से मिलकर बने होते हैं। इसमें लोहा होता हैं। पुरूषों में हीमोग्लोबिन की मात्रा 11 से 19 ग्राम और स्त्रियों में 14 से 18 ग्राम प्रति मिली लीटर की दर से होती है। इसी प्रकार स्वस्थ पुरुषों में लाल रक्त कणिकाओं की संख्या 5 से 5.5 मिलियन प्रति घन मिली लीटर तथा स्वस्थ स्त्रियों में 4 से 5 मिलियन प्रति घन मिली लीटर होता है। लाल रक्त कणिकाओं की संख्या स्वस्थ मनुष्यों की संख्या से अधिक होने पर ''पालिसाइथिमिया'' तथा कम होने के कारण कणिकाओं का सारा हीमोग्लोबिन उसकी सतह पर फैला रहता है जिससे लाला रक्त कणिकाओं की आक्सीजन वाहन क्षमता दूसरों की तुलना में अधिक होती है। हीमोग्लोबिन आक्सीजन को शरीर के अंगों में पहुँचाती है। एक लाल रक्त कणिका में लाखों हीमोग्लोबिन के अणु होते हैं और चूंकि हीमोग्लोबिन के एक अणु में चार लौह परमाणु होते है अत: एक अणु में चार आक्सीजन परमाणु को ग्रहण करने की क्षमता होती है। हमारे शरीर में प्रतिदिन 6.25 ग्राम हीमोग्लोबिन बनता है।
सफेद रक्त कणिकाएं जिसे ल्यूकोसाइट्स भी कहते हैं। इनकी संख्या लाल रक्त कणिकाओं की संख्या से कम होती है, स्वस्थ मनुष्यों में से लगभग 5000 से 10000 प्रति धन मिली लीटर होता है। इन कणिकाओं का सामान्य से अधिक होना ''ल्यूकोपिेनिया'' नामक बीमारी हो जाती है। इसमें हीमोग्लाबिन नहीं होता। इनका आकार अमीबा जैसे तथा केन्द्रक युक्त होता है। सफेद रक्त कणिकाओं में इओसिनोफिल्स कोशिकाएं होती है। इनकी संख्या सारी सफेद कणिकाओं की संख्या का 3 प्रतिशत होती है। मनुष्यों में इनकी संख्या के बढ़ जाने से ''इओसिनोफिलिया'' नामक बीमारी होती है। सफेद रक्त कणिकाओं का कार्य शरीर में आये हानिकारक जीवाणुओं का भक्षण करना है। इनकी इस प्रवृत्ति के कारण इसे ''भक्षाणु'' (फैगोसाइट्स) कहते हैं।
सबसे आश्चर्य जनक तथ्य यह है कि शरीर के किसी भाग में जख्म लगने से रक्त बहने लगता है मगर थोड़ी देर बाद रक्त जम जाता है। यही रक्त शरीर के अंदर नहीं जमता, क्यों ? यह तीसरे प्रकार की कणिका रक्त प्लेटलेड्स की उपस्थिति के कारण होता है। एक स्वस्थ मनुष्य में रक्त जमने में 2 से 5 मिनट लगता है और कभी कभी रक्त जमता ही नहीं और चोट लगे भाग से रक्त स्त्रावित होते रहता है, यह एक बीमारी है और इसे ''हीमोफिलिया'' कहते हैं। शरीर के अंदर ''हिपेरिन'' नामक पदार्थ की उपस्थिति के कारण रक्त नहीं जमता।
यह तो हुई रक्त की बात रक्त में उपस्थित एंटीबाडीज और एंटीजन्स की उपस्थिति से रक्त चार प्रकार के होते हैं जिन्हें A] B] AB और O रक्त समूह से प्रदर्शित किया जाता है। वह व्यक्ति जिसके रक्त में एन्टीजन्स A और एन्टीबाडी B होता है उसे रक्त समूह A में रखा जाता है। इसी प्रकार जिस रक्त में एन्टीजन्स B और एन्टीबाडी A होता है उसे रक्त समूह B में रखा जाता है और जिसमें एन्टीजन्स A और B होता है परन्तु एन्टीबाडी नहीं होता उसे रक्त समूह AB में रखा जाता है। इसी प्रकार जिसमें कोई एन्टीजन्स नहीं होता लेकिन एन्टीबाडी A और B दोनों होता है तब उसे रक्त समूह O में रखा जाता है। जब शरीर में रक्त की कमी होती है तब रक्त देते समय रक्त समूह की जांच आवश्यक होता है। A रक्त समूह के लोग A और O रक्त समूह से रक्त ग्रहण कर सकता है और A तथा AB समूह को रक्त दे सकता है। इसी प्रकार B रक्त समूह B और O के रक्त को ग्रहण कर सकता है B तथा AB समूह को रक्त दे सकता है। मगर AB रक्त समूह वाले लोग A, B, AB और O रक्त समूह का रक्त ग्रहण कर सकता है लेकिन केवल AB रक्त समूह को ही रक्त दे सकता है। इसके इस प्रवृत्ति के कारण इसे ''यूनिवर्सल रिसेप्टर'' कहते है। इसी प्रकार O रक्त समूह सभी रक्त समूह वाले व्यक्ति को रक्त दे सकता है लेकिन केवल O समूह का यही रक्त को ग्रहण कर सकता है। इसके इस प्रवृत्ति के कारण इसे ''यूनिवर्सल डोनेटर'' कहा जाता है। रक्त देते अथवा लेते समय ऐसा नहीं करने से रक्त जम जाता है और व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। रक्त में Rh फेक्टर भी होता है। यह दो प्रकार का होता है- Rh+ और Rh-। विवाह पूर्व रक्त की जांच करते समय रक्त समूह के साथ साथ Rh Factor को भी देखा जाता है। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि Rh- रक्त वाला लड़का Rh- तथा Rh+ दोनों प्रकार के रक्त वाले रक्त वाले लड़की से शादी कर सकता है मगर Rh+ रक्त वाला लड़का को Rh+ रक्त वाले लड़की से ही शादी करना चाहिये, Rh- वाली लड़की से नहीं अन्यथा लड़की के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। इसी प्रकार लड़कियों के रक्त में अगर Rh- फैक्टर है तो उसका विवाह Rh- फैक्टर वाले लड़के से सफल हो सकता है अन्यथा बच्चा एबनार्मल होता है और डिलीवरी के समय जच्चा, बच्चा दोनों के जीवन को खतरा होता है। इससे होने वाली बीमारी को ''इरिथ्रोब्लास्टोसिस फीटेलिस'' कहते हैं। इससे स्वस्थ बच्चा जनने की आशा नहीं होती। स्वस्थ विवाह के लिये निम्न लिखित चार्ट दिया जा रहा है।
उपर्युक्त रक्त समूह वाले चार्ट से आपको स्वस्थ और सुखी परिवार के लिये लड़का और लड़की ढूंढने में सहयोग मिल सकेगा।
-------------
रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा-495671 (छ.ग.)
1 टिप्पणी:
इतने विस्तार से जानकारी प्रदान करने के लिये, और उसे सरल शब्दों में समझाने के लिये आभार
एक टिप्पणी भेजें