गुप्त से प्रकाशमान होता शिवरीनारायण
प्रांजल कुमार
प्रो. अश्विनी केशरवानी छत्तीसगढ़ के जाने-माने लेखक हैं। प्रस्तुत ग्रंथ 'शिवरीनारायण देवालय और परंपराएँ' उनकी दूसरी कृति है। इसके पूर्व 'पीथमपुर के कालेश्वरनाथ' प्रकाशित हुई थी। मूलत: विज्ञान के प्राध्यापक होने के बावजूद साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और परंपराओं पर उनकी गहरी रूचि के परिणाम स्वरूप इन ग्रंथों का प्रकाशन संभव हो सका है।
वे स्वयं मानते हैं कि उन्हें चित्रोत्पलागंगा का संस्कार, भगवान शबरीनारायण का आशीर्वाद और भारतेन्दु कालीन साहित्यकार ठाकुर जगमोहनसिंह, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी और श्री गोविंद साव की प्रेरणा मिली है जिसके कारण ही वे लेखन वृत्ति की ओर प्रवृत्त हुए हैं।
शिवरीनारायण कलचुरि कालीन मूर्तिकला से सुसज्जित है। यहाँ महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी का त्रिधारा संगम प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा नमूना है। इसीलिए इसे ''प्रयाग'' जैसी मान्यता है। स्कंद पुराण में इसे ''श्री नारायण क्षेत्र'' और ''श्री पुरूषोत्तम क्षेत्र'' कहा गया है। प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से यहाँ एक बृहद मेला का आयोजन होता है, जो महाशिवरात्री तक लगता है। इस मेले में हजारों-लाखों दर्शनार्थी भगवान शबरीनारायण के दर्शन करने जमीन में ''लोट मारते'' आते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान जगन्नाथ यहाँ विराजते हैं इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। तत्कालीन साहित्य में जिस नीलमाधव को पुरी ले जाकर भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किया गया है, उसे इसी शबरीनारायण-सिंदूरगिरि क्षेत्र से पुरी ले जाने का उल्लेख 14 वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने किया है। इसी कारण शिवरीनारायण को ‘छत्तीसगढ़ का जगन्नाथ पुरी’ कहा जाता है।
उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम् पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिकाधाम स्थित है लेकिन मध्य में ''गुप्तधाम'' के रूप में शिवरीनारायण स्थित है। इसका वर्णन रामावतार चरित्र और याज्ञवलक्य संहिता में मिलता है। यह नगर सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर, द्वापरयुग में विष्णुपुरी और नारायणपुर के नाम से विख्यात् था जो आज शिवरीनारायण के नाम से चित्रोत्पला-गंगा (महानदी) के तट पर कलिंग भूमि के निकट देदीप्यमान है। यहाँ सकल मनोरथ पूरा करने वाली माँ अन्नपूर्णा, मोक्षदायी भगवान शबरीनारायण, लक्ष्मीनारायण, चंद्रचूढ़ और महेश्वर महादेव, केशवनारायण, श्रीराम लक्ष्मण जानकी, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा से युक्त श्री जगदीश मंदिर, राधाकृष्ण, काली और माँ गायत्री का भव्य और आकर्षक मंदिर है। शिवरीनारायण में अन्यान्य मंदिर हैं जो विभिन्न कालों में निर्मित हुए हैं। चूंकि यह नगर विभिन्न समाज के लोगों का सांस्कृतिक तीर्थ है अत: उन समाजों द्वारा यहाँ मंदिर निर्माण कराया गया है। यहाँ अधिकांश मंदिर भगवान विष्णु के अवतारों के हैं। कदाचित् इसी कारण इस नगर को वैष्णव पीठ माना गया है।
डॉ. जे.पी. सिंहदेव के अनुसार-''इंद्रभूति शबरीनारायण से नीलमाधव को सोनपुर के पास सम्बलाई पहाड़ी में स्थित गुफा में ले गये थे। उनके सम्मुख बैठकर वे तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे। शबरी के इष्टदेव जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता दिलाने का यश भी इंद्रभूति को ही है।'' आसाम के ''कालिका पुराण'' में उल्लेख है कि तंत्रविद्या का उदय उड़ीसा में हुआ और भगवान जगन्नाथ उनके इष्टदेव थे। गोपीनाथ महापात्र के अनुसार ''भगवान शबरीनारायण संवरा लोगों द्वारा पूजित होते थे जो भुवनेश्वर के पास स्थित धौली पर्वत में रहते थे।'' सरला महाभारत के मुसली पर्व के अनुसार ''सतयुग में भगवान शबरीनारायण के रूप में पूजे जाते थे जो पुरूषोत्तम क्षेत्र में प्रतिष्ठित थे।'' लेकिन वासुदेव साहू के अनुसार ''शबरीनारायण न तो भुवनेश्वर के पास स्थित पर्वत में रहते थे, जैसा कि गोपीनाथ महापात्र ने लिखा है, न ही पुरूषोत्तम क्षेत्र में, जैसा कि सरला महाभारत में कहा गया है। बल्कि शबरीनारायण महानदी घाटी का एक ऐसा पवित्र स्थान है जो जोंक और महानदी के संगम से 3 कि.मी. उत्तर में स्थित है। स्वाभाविक रूप से यह वर्तमान शिवरीनारायण ही है। डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र अपनी पुस्तक ''छत्तीसगढ़ परिचय'' में लिखते हैं-''शबर (सौंरा) लोग भारत के मूल निवासियों में एक हैं। उनके मंत्र जाल की महिमा तो रामचरितमानस तक में गायी गयी है। शबरीनारायण में भी ऐसा ही एक शबर था जो भगवान जगन्नाथ का भक्त था।'' आज भी शिवरीनारायण में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिक गुरूओं नगफड़ा और कनफड़ा बाबा की मूर्ति एक गुफा नुमा मंदिर में स्थित है। इसी प्रकार बस्ती के बाहर आज भी नाथ गुफा देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि शिवरीनारायण की महत्ता प्रयाग, काशी, बद्रीनारायण और जगन्नाथपुरी से किसी मायने में कम नहीं है तभी तो कवि गाता है :-
चित्रउत्पला के निकट श्री नारायण धाम,
बसत संत सज्जन सदा शबरीनारायण ग्राम।
होत सदा हरिनाम उच्चारण, रामायण नित गान करै,
अति निर्मल गंग तरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरै।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरे,
जहां जीव चारू बखान बसै सहज भवसिंधु अपार तरे॥
नारायण मंदिर के वायव्य दिशा में एक अति प्राचीन वैष्णव मठ है जिसका निर्माण स्वामी दयारामदास ने नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों से इस नगर को मुक्त कराने के बाद की थी। रामानंदी वैष्णव सम्प्रदाय के इस मठ के वे प्रथम महंत थे। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं और वर्तमान में इस मठ के श्री रामसुन्दरदास जी महंत हैं। खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर के चेदि संवत् 933 के शिलालेख में मंदिर के दक्षिण दिशा में संतों के निवासार्थ एक मठ के निर्माण कराये जाने का उल्लेख है।
हिन्दुस्तान में गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम प्रयागराज में हुआ है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँ अस्थि प्रवाहित करने और पिंडदान करने से 'मोक्ष' मिलता है। लेकिन मोक्षदायी सहोदर के रूप में छत्तीसगढ़ के शिवरीनारायण और राजिम को माना जा सकता है। दोनों सांस्कृतिक तीर्थ चित्रोत्पला गंगा के तट पर क्रमश: महानदी, शिवनाथ और जोंकनदी तथा महानदी, सोढुल और पैरी नदी के साथ त्रिधारा संगम बनाते हैं। यहाँ भी अस्थि विसर्जन किया जाता है, और ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँ पिंडदान करने से मोक्ष मिलता है। शिवरीनारायण में तो माखन साव घाट और रामघाट में अस्थि कुंड है जिसमें अस्थि प्रवाहित किया जाता है। श्री बटुकसिंह चौहान ने श्री शिवरीनारायण सुन्दरगिरि महात्म्य के आठवें अध्याय में अस्थि विसर्जन की महत्ता का बहुत सुंदर वर्णन किया है :-
दोहा शिव गंगा के संगम में, कीन्ह अस पर वाह।
पिण्ड दान वहाँ जो करे, तरो-बैकुण्ठ जाय॥
दोहा क्वांर कृष्णो सुदि नौमि के, होत तहां स्नान।
कोढ़िन को काया मिले, निर्धन को धनवान॥
महानदी गंग के संगम में, जो किन्हे पिण्ड कर दान।
सो जैहैं बैकुण्ठ को, कहीं बुटु सिंह चौहान॥
प्रस्तुत ग्रंथ ''शिवरीनारायण : देवालय और परंपराएँ'' इन्हीं सब भावों को लेकर लिखा गया है। इस ग्रंथ में दो खंड है। पहले खंड में यहाँ के मंदिरों क्रमश: गुप्तधाम, शबरीनारायण और सहयोगी देवालय, अन्नपूर्णा मंदिर, महेश्वरनाथ मंदिर, शबरी मंदिर, जनकपुर के हनुमान और खरौद के लखनेश्वर मंदिर के उपर सात आलेख हैं जिसके माध्यम से यहाँ के सभी मंदिरों के निर्माण से लेकर उसकी महत्ता का विस्तृत वर्णन करने का प्रयास किया है। प्रमुख मंदिर भगवान शबरीनारायण का है शेष सहायक मंदिर हैं जिसके निर्माण के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित है। बदरीनारायण में भगवान नर नारायण की तपस्थली है और शिवरीनारायण में भगवान नर नारायण शबरीनारायण के रूप में गुप्त रूप से विराजमान हैं। भारतेन्दु कालीन साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने जो 'शबरीनारायण माहात्म्य' लिखा है उसका शीर्षक उन्होंने 'श्रीशबदरीनारायण माहात्म्य' दिया है। उन्होंने ऐसा शायद स्कंद पुराण में इस क्षेत्र को 'श्रीनारायण क्षेत्र' के रूप में उल्लेख किये जाने के कारण किया है। यहाँ रामायण कालीन शबरी उध्दार और लंका विजय के निमित्त भ्राता लक्ष्मण की विनती पर श्रीराम ने खर और दूषण की मुक्ति के पश्चात् 'लक्ष्मणेश्वर महादेव' की स्थापना खरौद में की थी। इसीप्रकार औघड़दानी शिवजी की महिमा आज महेश्वरनाथ के रूप में माखन वंश और कटगी-बिलाईगढ़ जमींदार की वंशबेल को बढ़ाकर उनके कुलदेव के रूप में पूजित हो रहे हैं। माँ अन्नपूर्णा की ही कृपा से समूचा छत्तीसगढ़ 'धान का कटोरा' कहलाने का गौरव प्राप्त कर सका है। इस खंड के सभी देवालय लोगों की श्रध्दा और भक्ति का प्रमाण है। तभी तो पंडित हीराराम त्रिपाठी गाते अघाते नहीं हैं :-
होत सदा हरिनाम उच्चारण रामायण नित गान करैं।
अति निर्मल गंगतरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरैं।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरैं।
जहाँ जीव चारू बखान बसैं सहजे भवसिंधु अपार तरैं॥
ग्रंथ के दूसरे खंड में यहाँ प्रचलित परंपराओं को दर्शाने वाले 17 आलेख है। गंगा, यमुना और सरस्वती नदी की तरह चित्रोत्पलागंगा (महानदी) को भी मोक्षदायी माना गया है। 'मोक्षदायी चित्रोत्पलागंगा' में इन्हीं सब तथ्यों का वर्णन है। इस नदी में अस्थि विसर्जन, बनारस के समान महानदी के घाट, भगवान शबरीनारायण के चरण को स्पर्श करती मोक्षदायी रोहिणी कुंड, वैष्णव मठ और महंत परंपरा, महंतों के द्वारा गादी चौरा पूजा, जगन्नाथ पुरी के समान प्रचलित रथयात्रा, तांत्रिक परंपरा, नाटय परंपरा, साहित्यिक परंपरा, प्रसिध्द मेला के साथ शिवरीनारायण के भोगहा, गुरू घासी बाबा, रमरमिहा और माखन वंशानुक्रम, शिवरीनारायण की कहानी उसी की जुबानी और महानदी के हीरे आलेख यहाँ की परंपराओं को रेखांकित करता है।
इस ग्रंथ को पढ़कर आदरणीय पंडित विद्यानिवास मिश्र ने आवश्यक संशोधन करने का सुझाव दिया जिसे पूरा करने के बाद यह ग्रंथ पूर्णता को प्राप्त हुआ। जगन्मोहन मंडल के प्रभृति साहित्यकारों में एक गोविंद साव भी थे जिनका वें छठवीं पीढ़ी के वंशज हैं। भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी और मित्र ठाकुर जगमोहन सिंह शिवरीनारायण में रहकर अनेक ग्रंथों की रचना की है। यही नहीं बल्कि उन्हों 'जगन्मोहन मंडल' के माध्यम से छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर उन्हें लेखन की दिशा प्रदान की थी। छत्तीसगढ़ के अन्यान्य साहित्यकारों के यहाँ आने की जानकारी मिलती है। शिवरीनारायण को साहित्यिक तीर्थ कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा। इस ग्रंथ में बदरीनारायण, प्रयाग और जगन्नाथपुरी से शिवरीनारायण की तुलना की गयी है जिनकी पुष्टि दिये गये तथ्यों से होती है। किसी धार्मिक और सांस्कृतिक नगरों का महत्व उसके साहित्य से ही होता है। इस दिशा में शिवरीनारायण जैसे गुप्तधाम अब गुप्त न होकर प्रकाशमान होगा, ऐसी आशा की जा सकती है।
प्रांजल कुमार
बोरीबली, मुंबई
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