गुरुवार, 12 जून 2008

छत्तीसगढ़ और पंडित शुकलाल पांडेय


छत्तीसगढ़ और पंडित शुकलाल पांडेय

प्रो. अश्विनी केशरवानी
भव्य ललाट, त्रिपुंड चंदन, सघन काली मूँछें और गांधी टोपी लगाये साँवले, ठिगने व्यक्तित्व के धनी पंडित शुकलाल पांडेय छत्तीसगढ़ के द्विवेदी युगीन साहित्यकारों में से एक थे.. और पंडित प्रहलाद दुबे, पंडित अनंतराम पांडेय, पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी, गोविंदसाव, पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, वेदनाथ शर्मा, बटुकसिंह चौहान, पंडित लोचनप्रसाद पांडेय, काव्योपाध्याय हीरालाल, पंडित सुंदरलाल शर्मा, राजा चक्रधरसिंह, डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र और पंडित मुकुटधर पांडेय की श्रृंखला में एक पूर्ण साहित्यिक व्यक्ति थे। वे केवल एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि एक संस्था थे। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और छत्तीसगढ़ी भाषा में बहुत सी रचनाएं लिखीं हैं। उनकी कुछ रचनाएं जैसे छत्तीसगढ़ गौरव, मैथिली मंगल, छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया ही प्रकाशित हो सकी हैं और उनकी अधिकांश रचनाएं अप्रकाशित हैं। उनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ियापन की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। छत्तीसगढ़ गौरव में ''हमर देस'' की एक बानगी देखिये :-
ये हमर देस छत्तिसगढ़ आगू रहिस जगत सिरमौर।
दक्खिन कौसल नांव रहिस है मुलुक मुलुक मां सोर।
रामचंद सीता अउ लछिमन, पिता हुकुम से बिहरिन बन बन।
हमर देस मां आ तीनों झन, रतनपुर के रामटेकरी मां करे रहिन है ठौर॥
घुमिन इहां औ ऐती ओती, फैलिय पद रज चारो कोती।
यही हमर बढ़िया है बपौती, आ देवता इहां औ रज ला आंजे नैन निटोर॥
राम के महतारी कौसिल्या, इहें के राजा के है बिटिया।
हमर भाग कैसन है बढ़िया, इहें हमर भगवान राम के कभू रहिस ममिओर॥
इहें रहिन मोरध्वज दानी, सुत सिर चीरिन राजा-रानी।
कृष्ण प्रसन्न होइन बरदानी, बरसा फूल करे लागिन सब देवता जय जय सोर॥
रहिन कामधेनु सब गैया, भर देवै हो लाला ! भैया !!
मस्त रहे खा लोग लुगैया, दुध दही घी के नदी बोहावै गली गली अउ खोर॥
सबो रहिन है अति सतवादी, दुध दही भात खा पहिरै खादी।
धरम सत इमान के रहिन है आदी, चाहे लाख साख हो जावै बनिन नी लबरा चोर॥
पगड़ी मुकुट बारी के कुंडल, चोंगी बंसरी पनही पेजल।
चिखला बुंदकी अंगराग मल, कृष्ण-कृषक सब करत रहिन है गली गली मां अंजोर॥
''छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया'' जो ''कॉमेडी ऑफ इरर'' का अंग्रेजी अनुवाद है, की भूमिका में पांडेय जी छत्तीसगढ़ी दानलीला के रचियता पंडित सुन्दरलाल शर्मा के प्रति आभार व्यक्त करते हुए छत्तीसगढ़ी में लिखने का आह्वान करते हैं। उस समय पढ़ाई के प्रति इतनी अरूचि थी कि लोग पेपर और पुस्तक भी नहीं पढ़ते थे। पांडेय जी तब की बात को इस प्रकार व्यक्त करते हैं- ''हाय ! कतेक दुख के बात अय ! कोन्हो लैका हर कछू किताब पढ़े के चिभिक करे लागथे तो ओखर ददा-दाई मन ओला गारी देथे अउ मारपीट के ओ बिचारा के अतेक अच्छा अअउ हित करैया सुभाव ला नष्ट कर देथे। येकरे बर कहेबर परथे कि इहां के दसा निचट हीन हावै। इहां के रहवैया मन के किताब अउ अखबार पढ़के ज्ञान अउ उपदेस सीखे बर कोन्नो कहे तो ओमन कइथे-
हमन नइ होवन पंडित-संडित तहीं पढ़ेकर आग लुवाट।
ले किताब अउ गजट सजट ला जीभ लमा के तईहर चाट॥
जनम के हम तो नांगर जोत्ता नई जानन सोरा सतरा।
भुखा भैंसा ता ! ता ! ता !! यही हमर पोथी पतरा !!!
''भूल भुलैया'' सन् 1918 में लिखा गया था तब हिन्दी में पढ़ना लिखना हेय समझा जाता था। पंडित शुकलाल पांडेय अपनी पीड़ा को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं-''जबले छत्तिसगढ़ के रहवैया मन ला हिन्दी बर प्रेम नई होवे, अउ जबले ओमन हिन्दी के पुस्तक से फायदा उठाय लाइ नई हो जावे, तबले उकरे बोली छत्तीसगढ़ीच हर उनकर सहायक है। येकरे खातिर छत्तीसगढ़ी बोली मां लिखे किताब हर निरादर करे के चीज नो हे। अउ येकरे बर छत्तीसगढ़ी बोली मां छत्तीसगढिया भाई मन के पास बडे बड़े महात्मा मन के अच्छा अच्छा बात के संदेसा ला पहुंचाए हर अच्छा दिखतय। हिन्दी बोली के आछत छत्तीसगढ़ी भाई मन बर छत्तीसगढ़ी बोली मां ये किताब ला लिखे के येही मतलब है कि एक तो छत्तीसगढ़ ला उहां के लैका, जवान, सियान, डौका डौकी सबो कोनो समझही अउ दूसर, उहां के पढ़े लिखे आदमीमन ये किताब ला पढ़के हिन्दी के किताब बांच के अच्छा अच्छा सिक्षा लेहे के चिभिक वाला हो जाही। बस, अइसन होही तो मोर मिहनत हर सुफल हो जाही...'' वे आगे लिखते हैं- ''मैं हर राजिम (चंदसूर) के पंडित सुन्दरलाल जी त्रिपाठी ला जतके धन्यवाद देवौं, ओतके थोरे हे। उनकर छत्तीसगढ़ी दानलीला ला जबले इहां के पढ़ैया लिखैया आदमी मन पढ़े लागिन हे, तब ले ओमन किताब पढ़े मा का सवाद मिलथे अउ ओमा का सार होथे, ये बात ला धीरे धीरे जाने लगे हावै। येही ला देख के मैं हर विलायत देस के जग जाहीर कवि शेक्सपियर के लिखे ''कॉमेडी ऑफ इरर'' के अनुवाद ल ''भूल भुलैया'' के कथा छत्तीसगढ़ी बोली के पद्य मां लिख डारे हावौं।''
पंडित शुकलाल पांडेय के शिक्षकीय जीवन में उनकी माता का जितना आदर रहा है उतना ही धमधा के हेड मास्टर पंडित भीषमलाल मिश्र का भी था। भूल भुलैया को उन्हीं को समर्पित करते हुए वे लिखते हैं :-
तुहंला है भूल भुलैया नीचट प्यारा।
लेवा महराज येला अब स्वीकारा॥
भगवान भगत के पूजा फूल के साही।
भीलनी भील के कंदमूल के साही॥
निरधनी सुदामा के जो चाउर साही।
सबरी के पक्का पक्का बोइर खाई॥
कुछ उना गुना झन, हाथ ल अपन पसारा।
लेवा महराज, येला अब स्वीकारा॥
ऐसे प्रतिभाशाली कवि प्रवर पंडित शुकलाल पांडेय का जन्म महानदी के तट पर स्थित कला, साहित्य और संस्कार की त्रिवेणी शिवरीनारायण में संवत् 1942 (सन् 1885) में आषाढ़ मास में हुआ था। उनके पिता का नाम गोविंदहरि और माता का नाम मानमति था। मैथिली मंगल खंडकाव्य में वे लिखते हैं :-
प्रभुवर पदांकित विवुध वंदित भरत भूमि ललाम को,
निज जन्मदाता सौरिनारायण सुनामक ग्राम को।
श्री मानमति मां को, पिता गोविंदहरि गुणधाम को,
अर्पण नमन रूपी सुमन हो गुरू प्रवर शिवराम को॥
उनका लालन पालन और प्राथमिक शिक्षा शिवरीनारायण के धार्मिक और साहित्यिक वातावरण में धर्मशीला माता के सानिघ्य में हुआ। उनके शिक्षक पं. शिवराम दुबे ने एक बार कहा था-''बच्चा, तू एक दिन महान कवि बनेगा...।'' उनके आशीर्वाद से कालांतर में वह एक उच्च कोटि का साहित्यकार बना।
सन् 1903 में नार्मल स्कूल रायपुर में प्रशिक्षण प्राप्त कर वे शिक्षक बने। यहां उन्हें खड़ी बोली के सुकवि पं. कामताप्रसाद गुरू का सानिघ्य मिला। उनकी प्रेरणा से वे खड़ी बोली में पद्य रचना करने लगे। धीरे धीरे उनकी रचना स्वदेश बांधव, नागरी प्रचारिणी, हितकारिणी, सरस्वती, मर्यादा, मनोरंजन, शारदा, प्रभा आदि प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी। सन् 1913 में सरस्वती के मई के अंक में ''प्राचीन भारत वर्ष'' शीर्षक से उनकी एक कविता प्रकाशित हुई। तब पूरे देश में राष्ट्रीय जनजागरण कोर् कत्तव्य माना जाता था। देखिये उनकी एक कविता :-
हे बने विलासी भारतवासी छाई जड़ता नींद इन्हें,
हर कर इनका तम हे पुरूषोत्तम शीघ्र जगाओ ईश उन्हें।
पंडित जी मूलत: कवि थे। उनकी गद्य रचना में पद्य का बोध होता है। इन्होंने अन्यान्य पुस्तकें लिखी हैं। लेकिन केवल 15 पुस्तकें ही प्रकाश में आ सकी हैं, जिनमें 12 पद्य में और शेष गद्य में है। उनकी रचनाओं में मैथिली मंगल, छत्तीसगढ़ गौरव, पद्य पंचायत, बाल पद्य पीयुष, बाल शिक्षा पहेली, अभिज्ञान मुकुर वर्णाक्षरी, नैषद काव्य और उर्दू मुशायरा प्रमुख है। छत्तीसगढ़ी में उन्होंने भूल भुलैया, गींया और छत्तीसगढ़ी ग्राम गीत लिखा है। गद्य में उन्होंने राष्ट्र भक्ति से युक्त नाटक मातृमिलन, हास्य व्यंग्य परिहास पाचक, ऐतिहासिक लेखों का संग्रह, चतुर चितरंजन आदि प्रमुख है। उनकी अधिकांश रचनाएं अप्रकाशित हैं और उनके पौत्र श्री रमेश पांडेय और श्री किशोर पांडेय के पास सुरक्षित है।
''छत्तीसगढ़ गौरव'' पंडित शुकलाल पांडेय की प्रकाशित अनमोल कृति है। मध्यप्रदेश साहित्य परिषद भोपाल द्वारा सन् 1972 में इसे प्रकाशित किया गया है। इसकी भूमिका में पंडित मुकुटधर जी पांडेय लिखते हैं:-'' इसमें छत्तीसगढ़ के इतिहास की शृंखलाबद्ध झांकी देखने को मिलती है। प्राचीन काल में यह भूभाग कितना प्राचुर्य पूर्ण था, यहां के निवासी कैसे मनस्वी और चरित्रवान थे, इसका प्रमाण है। छत्तीसगढ़ की विशेषताओं का इसे दर्पण कहा जा सेता है। इसकी गणना एक उच्च कोटि के आंचलिक साहित्य में की जा सकती है। ''हमर देस'' में छत्तीसगढ़ के जन जीवन की जीवन्त झांकी उन्होंने प्रस्तुत की है। देखिये उनकी यह कविता :-
रहिस कोनो रोटी के खरिया, कोनो तेल के, कोनो वस्त्र के, कोनो साग के और,
सबे जिनिस उपजात रहिन है, ककरों मा नई तकत रहिन है।
निचट मजा मा रहत रहिन है, बेटा पतो, डौकी लैका रहत रहिन इक ठौर।
अतिथि अभ्यागत कोन्नो आवें, घर माटी के सुपेती पावे।
हलवा पूरी भोग लगावें, दूध दही घी अउ गूर मा ओला देंव चिभोर।
तिरिया जल्दी उठेनी सोवे, चम्मर घम्मर मही विलोवे,
चरखा काते रोटी पावे, खाये किसान खेत दिशि जावे चोंगी माखुर जोर।
धर रोटी मुर्रा अउ पानी, खेत मा जाय किसान के रानी।
खेत ल नींदे कहत कहानी, जात रहिन फेर घर मा पहिरे लुगरा लहर पटोर।
चिबक हथौरी नरियर फोरे, मछरी ला तीतुर कर डारैं।
बिन आगी आगी उपजारैं, अंगुरि गवा मा चिबक सुपारी देवें गवें मा फोर।
रहिस गुपल्ला वीर इहें ला, लोहा के भारी खंभा ला।
डारिस टोर उखाड़ गड़े ला, दिल्ली के दरबार मा होगे सनासट सब ओर।
आंखी, कांन पोंछ के ननकू, पढ़ इतिहास सुना संगवारी तब तैं पावे सोर।
जब मध्यप्रदेश का गठन हुआ तब सी.पी. के हिन्दी भाषी जिलों में छत्तीसगढ़ के जिले भी सम्मिलित थे। छत्तीसगढ़ गौरव के इस पद्य में छत्तीसगढ़ का इतिहास झलकता है :-
सी.पी. हिन्दी जिले प्रकृति के महाराम से,
थे अति पहिले ख्यात् महाकान्तार नाम से।
रामायण कालीन दण्डकारण्य नाम था।
वन पर्वत से ढका बड़ा नयनाभिराम था।
पुनि चेदि नाम विख्यात्, फिर नाम गोड़वाना हुआ।
कहलाता मध्यप्रदेश अब खेल चुका अगणित जुआ॥
तब छत्तीसगढ़ की सीमा का विस्तार कुछ इस प्रकार था :-
उत्तर दिशि में है बघेल भू करता चुम्बन,
यम दिशि गोदावरी कर पद प्रक्षालन।
पूर्व दिशा की ओर उड़ीसा गुणागार है,
तथा उदार बिहार प्रान्त करता बिहार है।
भंडारा बालाघाट औ चांदा मंडला चतुर गण,
पश्चिम निशि दिन कर रहे आलिंगन हो मुदित मन॥
ऐसे सुरक्षित छत्तीसगढ़ राज्य में अनेक राजवंश के राजा-महाराजाओं को एकछत्र राज्य वर्षो तक था। कवि अपनी कृति इनका बड़ा ही सजीव चित्रण किया है। देखिये उसकी एक बानगी :-
यहां सगर वंशीय प्रशंसी, कश्यप वंशी,
हैहहवंशी बली, पांडुवंशी अरिध्वंशी,
राजर्षितुल्यवंशीय, मौर्यवंशी सुख वर्ध्दन,
शुंगकुल प्रसू वीर, कण्ववंशी रिपु मर्दन,
रणधीर वकाटक गण कुलज, आंध्र कुलोद्भव विक्रमी।
अति सूर गुप्तवंशी हुए बहुत नृपति पराक्रमी॥
था डाहल नाम पश्चिम चेदि का।
यहीं रहीं उत्थान शौर्य की राष्ट्र वेदिका।
उसकी अति ही रन्ध्र राजधानी त्रिपुरी थी।
वैभव में, सुषमा में, मानों अमर पुरी थी।
रघुवंश नृपतियों से हुआ गौरवमय साकेत क्यों।
त्रिपुरी नरपतियों से हुई त्रिपुरी भी प्रख्यात् त्यों॥
कहलाती थी पूर्व चेदि ही ''दक्षिण कोसल''
गढ़ थे दृढ़ छत्तीस नृपों की यहीं महाबल।
इसीलिए तो नाम पड़ा ''छत्तीसगढ़'' इसका।
जैसा इसका भाग्य जगा, जगा त्यों किसका।
श्रीपुर, भांदक औ रत्नपुर थे, इसकी राजधानियां।
चेरी थी श्री औ शारदा दोनों ही महारानियां॥
नदियां तो पुण्यतोया, पुण्यदायिनी और मोक्षदायी होती ही हैं, जीवन दायिनी भी हैं। कदाचित् इसीलिए नदियों के तट पर बसे नगर ''प्रयाग'' और ''काशी'' जैसे संबोधनों से पूजे जाते हैं। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में महानदी के तट पर स्थित अनेक नगर स्थित हैं जिन्हें ऐसे संबोधनों से सुशोभित किये जाते हैं। देखिये कवि की एक बानगी :-
हरदी है हरिद्वार, कानपुर श्रीपुर ही है।
राजिम क्षेत्र प्रयाग, शौरिपुर ही काशी है।
शशिपुर नगर चुनार, पद्मपुर ही पटना है।
कलकत्ता सा कटक निकट तब बसा घना है।
गाती मुस्काती नाचती और झूमती जा रही,
हे महानदी ! तू सुरनदी की है समता पा रही॥
छत्तीसगढ़ में इतना मनमोहक दृश्य हैं तो यहां कवि कैसे नहीं होंगे ? भारतेन्दु युगीन और उससे भी प्राचीन कवि यहां रहे हैं जो प्रचार और प्रचार के अभाव में गुमनाम होकर मर खप गये...आज उसका नाम लेने वाला कोई नहीं है। ऐसी कवियों के नाम कवि ने गिनायें हैं :-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट कवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम मीर मालिक सुकवि॥
तेजनाथ भगवान, मुहम्मद खान मनस्वी।
बाबू हीरालाल, केशवानंद यशस्वी।
श्री शिवराज, शिवशंकर, ईश्वर प्रसाद वर।
मधु मंगल, माधवराव औ रामाराव चिंचोलकर।
इत्यादिक लेखक हो चुके छत्तीसगढ़ की भूमि पर॥
''धान का कटोरा'' कहलाता है हमारा छत्तीसगढ़। यहां की भूमि जितनी उर्वर है, उतना ही यहां के लोग मेहनती भी हैं। इसीलिये यहां के मेला-मड़ई और तीज त्योहार सब कृषि पर आधारित हैं। अन्न की देवी मां अन्नपूर्णा भी यहीं हैं। कवि का एक पद्य पेश है :-
डुहारती थी धान वहन कर वह टुकनों में।
पीड़ा होती थी न तनिक सी भी घुटनों में ।
पति बोते थे धान, सोचते बरसे पानी।
लखती थी वह बनी अन्नपूर्णा छवि खानी।
खेतों में अच्छी फसल हुई है। मेहनती स्त्रियां टुकनों में भरकर धान खलिहानों से लाकर ढाबा में भर देती हैं। उनका मन बड़ा प्रसन्न है, तो संध्या में सब मिलकर नाच-गाना क्यों न हो, जीवन का रस भी तो इसी में होता है :-
संध्या आगम देख शीघ्र कृषि कारक दम्पत्ति।
जाते थे गृह और यथाक्रम अनुपद सम्पत्ति।
कृषक किशोर तथा किशोरियां युवक युवतीगण।
अंग अंग में सजे वन्य कुसुमावलि भूषण।
जाते स्वग्राम दिशि विहंसते गाते गीत प्रमोद से।
होते द्रुत श्रमजीवी सुखी गायन-हास विनोद से॥
पंडित जी ऐसे मेहनती कृषकों को देव तुल्य मानने में कोई संकोच नहीं करते और कहते हैं :-
हे वंदनीय कृषिकार गण ! तुम भगवान समान हो।
इस जगती तल पर बस तुमही खुद अपने उपमान हो॥
इस पवित्र भूमि पर अनेक राजवंशों के राजा शासन किये लेकिन त्रिपुरी के हैहहवंशी नरेश के ज्येष्ठ पुत्र रत्नदेव ने देवी महामाया के आशीर्वाद से रत्नपुर राज्य की नींव डाली।
हैहहवंशी कौणपादि थे परम प्रतापी।
किये अठारह अश्वमेघ मख धरती कांपी।
उनके सुत सुप्तसुम्न नाम बलवान हुये थे।
रेवा तट अश्वमेघ यज्ञ छ: बार किये थे।
श्री कौणपादि निज समय में महाबली नरपति हुये।
सबसे पहिले ये ही सखे ! छत्तीसगढ़ अधिपति हुए॥
बरसों तक रत्नपुर नरेशों ने इस भूमि पर निष्कंटक राज्य किया। अनेक जगहों में मंदिर, सरोवर, आम्रवन, बाग-बगीचा और सुंदर महल बनवाये...अनेक नगर बसाये और उनकी व्यवस्था के लिये अनेक माफी गांव दान में दिये। अपने वंशजों को यहां के अनेक गढ़ों के मंडलाधीश बनाये। आगे चलकर इनके वंशज शिवनाथ नदी के उत्तर और दक्षिण में 18-18 गढ़ के अधिपति हुये और समूचा क्षेत्र ''36 गढ़'' कहलाया। सुविधा की दृष्टि से रायपुर रत्नपुर से ज्यादा उपयुक्त समझा गया और अंग्रेजों ने मुख्यालय रायपुर स्थानांतरित कर दिया। तब से रत्नपुर का वैभव क्रमश: लुप्त होता गया।
रत्नपुर से गई रायपुर उठ राजधानी।
सूबा उनके लगे वहीं रहने अति ज्ञानी।
छत्तीसगढ़ के पूर्व वही सूबा थे शासक।
शांति विकासक तथा दुख औ भीति विनाशक।
आज जब छत्तीसगढ़ राज्य पृथक अस्तित्व में आ गया है तब सबसे पहिले कृषि प्रधान उद्योगों को विकसित किया जाना चाहिये अन्यथा धान तो नहीं उगेगा बल्कि हमारे हाथ में केवल कटोरा होगा...?
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रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा (छ. ग.)

छत्तीसगढ़ के जन्मांध कवि नरसिंहदास

छत्तीसगढ़ के जन्मांध कवि नरसिंहदास
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ का प्राचीन साहित्यिक इतिहास समुन्नत था। उस काल के अनेक साहित्यकार प्रचार प्रसार के अभाव में गुमनाम होकर मर खप गये। आज उनकी रचना संसार पर दृष्टि डालने वाले बहुत कम लोग होंगे। ऐसे अनेक साहित्यकारों के नाम गिनाये जा सकते हैं जो भारतेन्दु युग के पहले, भारतेन्दु के समकालीन और उसके बाद लिखते रहे हैं। लेकिन हिन्दी साहित्य के इतिहास में इनका नामोल्लेख नहीं मिलता। ऐसे स्वनामधन्य साहित्यकारों में पं. प्रहलाद दुबे (सारंगढ़), पं. अनंतराम पांडेय (रायगढ़), पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय (परसापाली-रायगढ़),पं. वेदनाथ शर्मा (बलौदा), पं. मालिकराम भोगहा, पं. हीराराम त्रिपाठी, गोविंदसाव, (सभी शिवरीनारायण), बटुकसिंह चैहान (कुथुर-पामगढ़), पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय (बालपुर), और नरसिंहदास वैष्णव आदि के नाम प्रमुखता से लिये जा सकते हैं। भारतेन्दु युगीन साहित्यकारों में इनके नामोल्लेख नहीं होने के बारे में प्रो.. रामनारायण शुक्ल की टिप्पणी सटिक लगती है ः- ‘‘छत्तीसगढ़ के अनेक समर्थ कवि और साहित्यकार आज तक अनजाने हैं और उपेक्षित भी। इनके प्रमुख कारणों में हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों का उत्तर प्रदेश का निवासी होना है। ऐसा भी हो सकता है कि उन्हें छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों की रचनाएं पढ़ने को न मिली हो और उनका नामोल्लेख नहीं किया जा सका हो ?‘‘ आज ऐसे समर्थ रचनाकारों की आवश्यकता है जो उस काल के गुमनाम साहित्यकारों की रचनाओं को खोज निकालें और प्रकाश में लाने का सद्कार्य कर सकें। यहां के विश्वविद्यालयों में भी ऐसे साहित्यकारों के उपर शोध कार्य कराया जाना चाहिए।
महानदी घाटी का साहित्यिक परिवेश उल्लेखनीय है। क्योंकि महानदी के तटवर्ती नगरों जैसे शिवरीनारायण, खरौद, बालपुर, रायगढ़, सारंगढ़, राजिम, धमतरी, रायपुर, बिलासपुर और रतनपुर में ऐसे लब्ध प्रतिष्ठ साहित्य मनीषियों का जन्म हुआ और उनकी लेखनी से छत्तीसगढ़ की धरा पवित्र हुई। यहां के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर लेखन की एक नई दिशा देने का सद्कार्य शिवरीनारायण के तत्कालीन तहसीलदार और सुप्रसिद्ध भारतेन्दु कालीन कवि और आलोचक ठाकुर जगमोहनसिंह ने किया। वे भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी थे। ‘‘मेघदूत‘‘ के अनुवाद में उन्होंने भारतेन्दु की सहायता ली थी। उनकी रचनाओं में भारतेन्दु का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में कई स्थानों पर भारतेन्दु की कविताओं को उधृत किया है। ‘‘श्यामास्वप्न‘‘ में तो श्यामसुन्दर भारतेन्दु का बड़ा ही घनिष्ठ मित्र जान पड़ता है। ऐसे साहित्यकार के सानिघ्य में छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों ने यहां के प्राकृतिक सौंदर्य को दोहन कर अपनी रचनाओं में समेटने का प्रयास किया है। उन्हीं में से एक जन्मांध कवि श्री नरसिंहदास वैष्णव भी हैं।
छत्तीसगढ़ प्रदेश के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत ग्राम तुलसी में शिवायन, अथ जानकी माय हित विनय और नरसिंह चौंतीसा का सृजन करने वाले जन्मांध कवि श्री नरसिंहदास वैष्णव का रचना संसार साहित्यिक जगत के लिए अपरिचित है। उनकी रचनाओं में तुलसी, सूर और मीरा का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है। जन्म से ही वे अंधे तो थे ही, लेकिन मन की आंखों से उन्होंने देवताओं का श्रृंगारिक वर्णन बड़े अद्भुत ढंग से किया है। उन्हें ‘‘छत्तीसगढ़ का सूरदास‘‘ कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसे भक्त कवि का जन्म जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत ग्राम घिवरा में संवत् 1927 को हुआ। इनकी माता का नाम देवकी और पिता का नाम पिताम्बरदास था। वे स्वयं लिखते हैं ः-
पिता पितांबरदास पद बन्दौ सहित सनेह।
बन्दौ देवकि मातु पद जिन पालेऊ यह देह।।
बचपन से ही उनमें भक्ति भाव समाया हुआ था। माता पिता के भक्ति का संस्कार उनमें कूट कूटकर भरी थी। वे अपने माता पिता के साथ अक्सर शिवरीनारायण जाया करते थे। अतः उनमें महानदी के पवित्र संस्कार भी पड़े। यहां का साहित्यिक परिवेश और भक्तिमय वातावरण से उनकी जीवनधारा ही बदल गयी और वे यहीं रहकर काव्य रचना करने लगे। शिवरीनारायण में वैरागियों का एक वैष्णव मठ है जहां श्री बलरामदास वैरागी रहते थे। उनकी ही प्रेरणा से उनका जीवन भक्तिमय हुआ और वे आजीवन ब्रह्मचर्य रहने का व्रत लेकर राममय होकर काव्य रचना करने लगे। एक प्रकार से बलरामदास उनके गुरू हैं। उन्होंने अपने काव्यों में लिखा है ः-
गुरू बलरामदास बैरागी, राम उपासि परम बड़भागी।
दीन्हें राम मंत्र महराजा, जो है सकल मंत्र सिरताजा।।
वे हमेशा श्रीरामचंद्र जी की भक्ति में लीन रहे और अपने वैराग्यपूर्ण जीवन की रक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते रहे। देखिए उनका एक काव्य ः-
कवि सागर अधधार जल क्रोध लोभ मद काम।
डूबत नरसिंहदास को खैचहुं जानकिराम।।
...और वह अवसर आ ही गया जब उनके वैराग्यमय जीवन को खतरा हो गया। उनके माता-पिता उनकी शादी करना चाहते थे। उनके बहुत अनुनय विनय करने के बाद भी जब उनके माता-पिता उनकी शादी करने पर अड़े रहे तब एक दिन सबको रोते बिलखते छोड़कर वे तुलसी आ गये। यहां के मालगुजार पं. रामलाल शुक्ल अपनी सादगी, दानवृत्ति और आतिथ्य प्रेम के लिए जग प्रसिद्ध थे। नरसिंहदास उन्हीं की शरण में चले गये और वहां वे आजीवन रहे। वे लिखते हैं ः-
पुत्र पिताम्बरदास के, नरसिंहदास है नाम।
जन्मभूमि घिवरा तजे, बसे तुलसी ग्राम।।
यह कहना ज्यादा उचित होगा कि श्री नरसिंहदास तुलसी में आकर भक्ति भाव में लीन हो गये। यहां रहकर उन्होंने अनेक काव्यों की रचना की। एक प्रकार से तुलसी उनकी कार्यस्थली है। ईश्वर से वे हमेशा प्रार्थना किया करते थे ः-
नारायण शर भीषम मारे। मोर भीम प्रभु आपु उबारे।
नरसिंह दास शरण हैं तोर। तुम बिन राम सुनैको मेरे।।
नरसिंहदास शिवरीनारायण और खरौद क्षेत्र में घूम घूमकर श्रीरामचरितमानस का गायन करते थे। वे हमेशा श्रीरामचरितमानस का परायण करने और साधु संतों की संगति प्राप्त कर उनसे राम भक्ति की उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील रहे। इस हेतु वे तीर्थाटन भी किये। यात्राओं और तीर्थाटन से उन्हें जगत और जीवन का व्यापक अनुभव हुआ। उनकी उडि़या रचना तो अनुभवों का सुन्दर पिटारा है। अन्य रचनाओं में भी जीवन के अनुभवों को बड़ी सुन्दरता से उन्होंने व्यक्त किया है। कलिकाल का वर्णन आज की स्थिति का सजीव और मार्मिक चित्रण है। फिर भी नरसिंहदास का मन गोस्वामी तुलसीदास की अमृतमयी मानस रचना में अधिक रमता है। उन्हें श्रीरामचरितमानस, विनय पत्रिका, कवितावली और दोहावली कंटस्थ था। मानस की पंक्तियां और विनय पत्रिका के पद को वे बड़ी श्रद्धा और भक्ति से गाया करते थे। अपनी निरक्षरता और ज्ञान के बारे में उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा है कि मैं कोई बड़ा भक्त नहीं हूं। अंधा, मंद बुद्धि और पाप परायण हूं, निरक्षर हूं और पिंगलशास्त्र थोड़ा भी नहीं पढ़ा हूं। मैं जो कुछ भी जानता हूं वह सीताराम का ही प्रसाद है ः-
पिंगलशास्त्र न पढ़ेऊ कछु, निरक्षर अथ धाम।
अंध मंदमति मूढ़ हों, जानत जानकिराम ।।
नरसिंहदास अत्यंत विनीत, संतोषी, सहिष्णु और गंभीर प्रकृति के थे। उनका मन श्रीराम के चरणों में ही रमा रहता था। वे अंतर्मुखी और आत्म परिष्कार का सतत् प्रयास करते थे। वे पापों से डरते थे और आत्म रक्षा के लिये प्रभु श्रीराम से प्रार्थना करते थे ः-
राम के भक्त कहाइ छलौंजग, वंचक वेष बनाइ लिया।
किंकर काम के, कोह के, कंचन लोभ के कारण चित्त दिया।
नरसिंहदास कहै जग वंचक में, मोहि पामर मुख्य कली ने किया।
धिक है, धिक है, धिक है हमको जो जिवौं जग में बिनु रामसिया।
जन्मांध नरसिंहदास तुलसीदास और सूरदास की कोटि के भक्त थे। मीरा की सहजता भी उनके काव्यों में देखी जा सकती है। इस प्रकार भक्त नरसिंहदास के काव्यों में तुलसी का आत्म समर्पण, सूर का आत्म स्मरण और मीरा का आत्म सायुज्य दिखाई देता है। तुलसी ग्राम में पं. रामलाल शुक्ल और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती जानकी देवी उनसे प्रतिदिन श्रीरामचरितमानस सुना करते थे। आगे चलकर भक्त नरसिंहदास जानकी माई के हितार्थ ‘‘जानकी माई हित विनय‘‘ की रचना किये। जानकी देवी उन्हें अपना गुरू मानती थी। लेकिन इसके बावजूद नरसिंहदास उन्हें ‘‘माई‘‘ ही कहा करते थे ः-
जानकि माई हेतु, विनय रचैं सियराम के।
बंदौं संत सचेत, दया करौ माहि जानि जन।
बंदौं श्री हनुमान कृपा पात्र रघुनाथ के।
देहु भक्ति भगवान, जानकि माई शिष्य उर।
बंदौं सीता मातु, जनक नंदनी राम प्रिय।
करू छाया निज हाथ, जानकि माई शिष्य सिर।।
अपने गुरू नरसिंहदास के बारे में जानकी देवी की श्रद्धा भक्ति भी अनुकरणीय है। देखिये एक काव्यः-
नरसिंहदास नाम सत गुरू के, मोर नाम है जानकी माई।
तुम्हरे चरण शरण तकि आयेंउ राखहु दीन बंधु रघुराई।।
‘‘जानकी माई हित विनय‘‘ में सीता माई से जानकी माई की वार्तालाप का सजीव चित्रण कवि ने किया है ः-
जानकि माई नाम मोर है, तुमहौ जानकी माई।
मेरे पति द्विज रामलला हैं, तुम्हरे पति रघुराई।
तुम्हरे हमरे एक नाम है, हम तुम दोऊ सहनाई।
सोषत जागत सांझ सबेरे, निशि दिन करहु सहाई।
तुम पुनीत मैं पतित कृपणमय, तुम उदार श्रुति गाई।
बहुत नात सिय मातु तोहिं मोहिं, अब न तजहुं बनियाई।
क्षत्री रघुवंशी द्विज पालक, युग युग से चलि आई।
मैं हौं ब्राह्मण तुम क्षत्रिय हौ, कस न पालिहौ माई।
जानकि माई हृदय बसहुं अब, सियाराम दोनों भाई।
सिय तारि चरण शरण होई आयेउं, राखहुं माहि अपनाई।।
नरसिंहदास जी की ‘‘जानकिमाई हितविनय‘‘, ‘‘नरसिंह चैंतिसा‘‘ और ‘‘शिवायन‘‘ तीन प्रकाशित रचनाएं हैं। इसके अतिरिक्त कुछ फुटकर रचनाएं और पद्यात्मक पत्र प्राप्त हुये हैं जो अप्रकाशित हैं। ‘‘जानकिमाई हित विनय‘‘ और ‘‘नरसिंह चैंतिसा‘‘ में तुलसी, सूर और मीरा का प्रभाव परिलक्षित होता है। दोनों का विषय और उद्देश्य एक ही है मगर दृष्टिकोण अलग अलग है। जानकिमाई हित विनय की गणना आत्म निवेदन परक गीतिकाव्य से की जा ससकती है। इसमें 71 गेय मुक्तक पद हैं। प्रत्येक पद के अंतिम दो पंक्तियों में उन्होंने श्रीराम की अनपायनी भक्ति की याचना की है। देखिये उनका एक मुक्तक ः-
नरसिंहदास अंध यहि कारन, करि करि विनय कहत हौं रोई।
जानकिमाई रामलला द्विज, राखहुं राम शराण है दोई।।
उन्होंने यह पद अपने अराध्य श्रीराम को समर्पित किया है। इस ग्रंथ के साथ ‘‘छंद रामायण‘‘ और ‘‘सवैया रामायण‘‘ भी प्रकाशित है। इसमें संक्षिप्त में सातों कांड का वर्णन है। अंत में कलियुग का बड़ा सजीव वर्णन किया गया है ः-
चोरि करे मचावे जुवा तास गंजीपन पासा रे।
देखि कली की रीति बखाने अंधा नरसिंह दासा रे।।
दूसरा ग्रंथ ‘‘नरसिंह चैंतिसा‘‘ है जिसके पहले ही पृष्ठ पर ‘‘भगवत् भजन के निमित्त‘‘ तैयार करने का उल्लेख है। बारहखड़ी अक्षर के क्रम से दोहा, चैपाई और सोरठा आदि छंदों में इसकी रचना की गई है। तीसरा ग्रंथ रामायण की तर्ज पर ‘‘शिवायन‘‘ है। यह उनकी प्रसिद्ध और चर्चित खंडकाव्य है। ‘‘शिव-पार्वती विवाह‘‘ का वर्णन उडि़या और छत्तीसगढ़ी भाषा में किया गया है। छत्तीसगढ़ी भाषा में वर्णित ‘‘शिव बारात‘‘ उनका गौरव स्तम्भ है। यह अत्यंत लोकप्रिय, सरस और हृदयग्राही है। देखिये शिव बारात का एक दृश्यः
आईगे बरात गांव तीर भोला बाबा जी के
देखे जाबो चला गिंया संगी ला जगावा रे।
डारो टोपी, मारो धोती पांव पायजामा कसि,
बर बलाबंद अंग कुरता लगावा रे।
हेरा पनही दौड़त बनही, कहे नरसिंहदास
एक बार हहा करही, सबे कहुं घिघियावा रे।।
कोऊ भूत चढ़े गदहा म, कोऊ कुकुर म चढ़े
कोऊ कोलिहा म चढि़ चढि़ आवत..।
कोऊ बिघवा म चढि़, कोऊ बछुवा म चढि़
कोऊ घुघुवा म चढि़ हांकत उड़ावत।
सर्र सर्र सांप करे, गर्र गर्र बाघ करे
हांव हांव कुत्ता करे, कोलिहा हुवावत।
कहें नरसिंहदास शंभु के बरात देखि,
गिरत परत सब लरिका भगावत।।
दक्षिण पूर्वी रेल्वे जंक्शन चाम्पा से मात्र 8 और नैला रेल्वे स्टेशन से 12 कि. मी. पर पीथमपुर ग्राम स्थित है जहां कलेश्वर महादेव का भव्य मंदिर है। यहां प्रतिवर्ष धूल पंचमी को ‘‘शिवजी की बारात‘‘ निकलती है। संभव है कविवर के मन में शिव बारात की कल्पना इस दृश्य को देखकर उपजी हो ? बहरहाल, पीथमपुर में शिवजी की बारात का दृश्य दर्शकों को अभिभूत कर देता है। इस प्रकार उनके काव्य में भक्तिकाल का दैन्य, रीतिकाल का माधुर्य और आधुनिक काल के समाज सुधार की भावना परिलक्षित होती है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि जन्मांध होने के बावजूद उन्होंने ग्रंथों की रचना की। इसके लेखन का सद्कार्य पं. दयाशंकर बाजपेयी ने किया जो उस समय खरौद के मिडिल स्कूल में प्रधान पाठक थे। ऐसे उच्च कोटि के कवि का गुमनाम होना विचारणीय है। अच्छा होता कि ऐसे गुमनाम साहित्य मनीषियों को प्रकाश में लाया जावे। इससे छत्तीसगढ़ के उज्जवल साहित्यिक परिवेश उजागर होगा और हिन्दी साहित्य के इतिहास में परिवर्तन संभव होगा ?
रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)

बुधवार, 4 जून 2008

कटते पेड़, बंजर जमीन और प्रदूषित नदियां

औद्योगिक क्रांति की भट~ठी में हमने अपना जंगल झोंक दिया है।
पेड़ काट डाले और सड़कें बना डालीं। कुल्हाड़ी-आरी से जंगल काटने में देर
होती थी, तो पावर से चलने वाली आरियां गढ़ डालीं। सन~ 1950 से 2000 के बीच
50 वर्षो में दुनियां के लगभग आधे जंगल काट डाले, आज भी बेरहमी से काटे
जा रहे हैं। जल संगzहण के लिए तालाब बनाये जाते थे जिससे खेतों में
सिंचाई भी होती थी। लेकिन आज तालाब या तो पाटकर उसमें बड़ी बड़ी इमारतें
बनायी जा रही है या उसमें केवल मछली पालन होता है। मछली पालन के लिए कई
प्रकार के रसायनों का उपयोग किया जाता है जिसका तालाबों का पानी अनुपयोगी
हो जाता है। इसी प्रकार औद्योगिक धुओं से वायुमंडल तो प्रदू'िात होता ही
है, जमीन भी बंजर होती जा रही है। इससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा है
और दुष्परिणाम हम भुगत रहे हैं। आखिर जंगल क्यों जरूरी है ? पेड़ हमें ऐसा
क्या देते हैं, जो उन्हें बचाना जरूरी है ? पेड़ हमें फल, फूल, जड़ी-बूटी,
भोजन, र्इंधन, ईमारती लकड़ी, गोंद, कागज, रेशम, रबर और तमाम दुनियां के
अद~भूत रसायन देते हैं। इसलिए हमने उसका दोहन ¼शोषण½ तो किया, पर यह भूल
गये कि वृक्षों के नहीं होने से यह धरती आज वीरान बनती जा रही है। वनों
के इस उपकार का रूपयों में ही हिसाब लगायें तो एक पेड़ 16 लाख रूपये का
फायदा देता है। घने जंगलों से भाप बनकर उड़ा पानी वर्षा बनकर वापस आता है
और धरती को हरा भरा बनाता है। पेड़ पौधों की जड़ें मिðी को बांधे रहती है।
पेड़ों की कटाई से धरती की हरियाली खत्म हो जाती है। धरती की उपजाÅ मिðी
को तेज बौछारों का पानी बहा ले जाती है। पेड़ों की ढाल के बिना पानी की
तेज धाराएं पहाड़ों से उतर कर मैदानों को डुबाती चली जाती है। हर साल बाढ़
का पानी अपने साथ 600 करोड़ टन मिðी बहा ले जता है। मिðी के इस भयावह कटाव
को रोकने का एक ही उपाय है-वृक्षारोपण। मिÍी, पानी और बयार, ये तीन उपकार
हैं वनों के हम पर। इसलिए हमारे देश में प्राचीन काल से पेड़ों की पूजा
होती आयी है।

'संयुक्‍त राष्ट्र संघ के आंकड़ों के अनुसार विकासशील देशों में हर
घंटे 8 से 12 वर्ग कि.मी. वन काटे जा रहे हैं। वैज्ञानिक पृथ्वी को 'हरा
गृह' कहते हैं। हरियाली मानव सभ्यता की मुस्कान है। पृथ्वी की हरियाली
हजारों किस्म की उपयोगी वनस्पतियों के कारण है, लेकिन आज तथाकथित विकास
की अंधी दौड़ ने हमें पागल बना दिया है और हम जंगल काटकर कांक्रीट के जंगल
खड़े कर रहे हैं। परिणामस्वरूप वनस्पतियों की 20 से 30 हजार किस्में धरती
से उठ गयी हैं। यदि हमारे पागलपन की यही स्थिति रही तो इस सदी के अंत तक
हम 50 हजार से भी अधिक वनस्पतियों की किस्मों से हाथ धो बैठेंगे। इस बात
का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इससे 10-12 जातियों के जीवों
का भी लोप हो जायेगा। अत: पृथ्वी की हरियाली न केवल हमारे जीवन की उर्जा
है, अपितु पर्यावरण को संतुलित करने के लिए बहुत जरूरी है।'

पर्यावरण सबसे अधिक वनों से प्रभावित होता है। हवा, पानी, मिðी,
तापमान आदि वनों से प्रभावित होते हैं। शंकुधारी पौधों की प्रजातियां
समुदz तट से लगभग 5000 मीटर की Åंचाई पर पहाड़ों पर पायी जाती है।
शंकुधारी पौधों में जल गzहण क्षमता बहुत अधिक होती है। Åंचे पहाड़ी
क्षेत्रों में शंकुधारी पौधों के साथ साथ चौड़े पŸो वाले वृक्ष भी पाये
जाते हैं। प्राय: इन क्षेत्रों के आसपास पानी का सzोत पाया जाता है। साल
प्रजाती के पौधे अन्य प्रजाति के पौधों की अपेक्षा अधिक ठंडे और आदर्z
होते हैं और इस क्षेत्र में पानी का बहाव हमेशा रहता है। छŸाीसगढ़ प्रदेश
के सरगुजा, रायगढ़, जशपुर, रायपुर, बस्तर, दंतेवाड़ा, बिलासपुर और
राजनांदगांव जिलों के अलावा शहडोल, मंडला और बालाघाट जिले में साल के पेड़
बहुतायत में मिलते हैं। इसी प्रकार हिमालय की चोटी मंेें पूरे वर्ष बर्फ
जमे होने के कारण वहां से निकलने वाली नदियों में हमेशा पानी बहता है।
लेकिन इंदzावती, नर्मदा, सोन, चम्बल, महानदी, रिहंद, केन आदि का उद~गम
बर्फीली पहाड़ियों से नहीं होने के कारण इनमें हमेशा पानी बहता जरूर था।
लेकिन आज इन नदियों के उपर बांध बन जाने से इन नदियों में भी पानी नहीं
रहता। बल्कि इन नदियों में औद्योगिक रसायन युक्त जल छोड़े जाने से नदियां
प्रदू'िात होती जा रही है और नदियों के पुण्यतोया और मोक्षदायी होने में
संदेह होने लगा है। छत्तीसगढ़ प्रदे"ा में साल के वनों के साथ साथ
बाक्साइड, आयरन, कोयला, चूना और डोलामाइट अयस्क की प्रचुर मात्रा उपलब्ध
है, जिसका उत्खनन जारी है। इससे यहां की जल गzहण क्षमता में भी प्रतिकूल
प्रभाव पड़ने लगा है।

वनों के घटने या बढ़ने से वहां की जलवायु प्रभावित होती है। वन
क्षेत्रों में एवं उसके आसपास की जलवायु अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा आदर्z
और ठंडी होती है। जलवायु पर वनों के इस प्रभाव को 'माइकzो क्लाइमेटिक
इफेक्ट' कहते हैं। इस प्रभाव के साथ वनों का पृथ्वी के पूरे वातावरण एवं
पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। यहां यह बताना समीचीन प्रतीत होता है कि
पौधे और वातावरण के साथ हमारा कैसा सम्बंध है। पौधे अपना भोजन बनाने के
लिए सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में पŸिायों में उपस्थित क्लोरोफिल और
वातावरण में उपस्थित कार्बन डाई आक्साइड के साथ रासायनिक प्रतिकिzया करके
अपना भोजन तैयार करते हैं और आक्सीजन छोड़ते हैंं वायुमंडल में कार्बन डाई
आक्साइड और आक्सीजन का एक निश्चित अनुपात होता है। इसमें वायुमंडल में एक
साम्य बना रहता है। लेकिन अगर कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ जाए, तो
यह साम्य टूट जाता है। ऐसा तब होता है, जब पेड़ पौधे कम हों ? इस संतुलन
को बिगाड़ने के लिए औद्योगिकरण बहुत हद तक जिम्मेदार है। गगनचुम्बी
चिमनियों से और जल, थल ओर नभ में बढ़ते यातायात के साधनों के कारण कार्बन
डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ती ही जा रही है, जो पृथ्वी के चारों ओर इकट~ठी
होकर एक चादर का काम करती है। इससे पृथ्वी की गर्मी बाहर नहीं निकल पाती,
जिससे ताप में वृद्धि होती जा रही है। तापमान के बढ़ने की इस प्रक्रिया को
'गzीनहाउस' कहते हैंं वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि अगली शताब्दी के
अंत तक वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा दो गुनी हो जायेगी,
जिससे धzुवी क्षेत्रों का तापमान बढ़ जायेगा। इससे बर्फ पिघलेगी। गर्मी के
दिनों में बाढ़ आयेगी और अवर्षा के दिनों में बर्फ के पिघलने से बारहों
मास बहने वाली नदियां सूख जायेंगी। इससे जमीन का जल स्तर भी नीचे चला
जायेगा और इन नदियों में बनाये गये बांध सूख जायेंगे। इससे चलने वाले
बिजली घर बंद हो जायेंगे। अत: इनसे होने वाले दुष्परिणामों का सहज अनुमान
लगाया जा सकता है।

इसलिए यह विकास प्रकृति के साथ समरस होकर जीने वाले लोगों के लिए
कष्टदायक हो गया है। एक करोड़ पेड़ों को डुबाकर सुदूर वनांचल बस्तर में
बनने वाली बोधघाट वि+द्युत जल परियोजना, भागीरथी टिहरी की घाटी में बसी
हुई 70 हजार की जनसंख्या को विस्थापित कर बनने वाला भीमकाय टिहरी बांध और
इसीप्रकार के अन्य बांध जो कभी भी अपनी पूरी आयु तक जिंदा नहीं रहेंगे,
गंधमर्दन के प्राकृतिक वन को उजाड़कर प्राप्त होने वाले बाक्साइड और दून
घाटी को रेगिस्तान बनाकर प्राप्त होने वाले चूना पत्थर से किसको लाभ होने
वाला है ? इस प्रकार के विकास के आधार पर खड़ी होने वाली अर्थ व्यवस्था
अवश्य ही भोग लिप्सा को भड़का सकती है, क्षेत्रीय असंतुलन पैदा कर सकती
है। इससे पर्यावरण की अपूरणीय क्षति हो सकती है, जिसकी भरपायी किसी भी
कीमत पर नहीं हो सकती। बहुगुणा जी ऐसे विकास के लक्ष्य को भारतीय
संस्कृति के अनुरूप एक कसौटी पर खरा उतरने की बात कहते हैंं। वे गांधी जी
की बातों को याद दिलाते हैं। गांधी जी हमेशा कहते थे-'पृथ्वी प्रत्येक
मनुष्य की आवश्यकता पूरी करने के लिए तो सब कुछ देती है, लेकिन मनुष्य के
लोभ को तृप्त करने के लिए कुछ भी नहीं देती।

आखिर जंगल क्यों जरूरी है ? पेड़ पौधे हमें ऐसा क्या देते हैं, जो
उन्हें बचाना जरूरी है ? पेड़-पौधे हमें फल, फूल, जड़ी-बूटी, भोजन, ईंधन,
इमारती लकड़ी, गोंद, कागज, रेशम, रबर और कई प्रकार के रसायन देते हें।
इसलिए उसका शोषण तो किया गया, पर हम यह भूल गये कि पेड़-पौधो के कारण ही
यह धरती मानव विकास के योग्य बन सकी है। नीलकंठ वृक्षों के कार्बन डाई
आक्साइड का विष पीकर ऐसी कीमियागिरि दिखायी वृक्ष को अमृतोपम फलों में
बदल दिया और उपर से बांट दी प्राण वायु आक्सीजन, जिसके बिना पृथ्वी पर
जीवन की कल्पना की जा सकी। इसलिए आइये हम एक बार पेड़ों के लिए दौड़े.....।

रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,

प्रो. अश्विनी केशरवानी

'राघव', डागा कालोनी,

चांपा-495671 '36 गढ'