शुक्रवार, 28 मार्च 2008

हसदो नदी के तीर में, कालेश्वरनाथ भगवान (Kalesharnath Shiva)

हसदो नदी के तीर में, कालेश्वरनाथ भगवान (Kalesharnath Shiva)
२६ मार्च को पीथमपुर में शिव बारात के अवसर पर,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ प्रांत में भी ऐसे अनेक ज्योतिर्लिंग सदृश्‍य काल कालेश्‍वर महादेव के मंदिर हैं जिनके दर्शन, पूजन और अभिशेक आदि करने से सब पापों का नाश हो जाता है। जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर जिला मुख्यालय से ११ कि.मी. और दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे के चांपा जंक्शन से मात्र ८ कि.मी. की दूरी पर हसदेव नदी के दक्षिणी तट पर स्थित पीथमपुर का काले वरनाथ भी एक है। जांजगीर के कवि स्व. श्री तुलाराम गोपाल ने ''शिवरीनारायण और सात देवालय'' में पीथमपुर को पौराणिक नगर माना है। प्रचलित किंवदंति को आधार मानकर उन्होंने लिखा है कि पौराणिक काल में धर्म वंश के राजा अंगराज के दुराचारी पुत्र राजा बेन प्रजा के उग्र संघर्श में भागते हुए यहां आये और अंत में मारे गए। चंूकि राजा अंगराज बहुत ही सहिश्णु, दयालु और धार्मिक प्रवृत्ति के थे अत: उनके पवित्र वंश की रक्षा करने के लिए उनके दुराचारी पुत्र राजा बेन के मृत भारीर की ऋशि-मुनियों ने इसी स्थान पर मंथन किया। पहले उसकी जांघ से कुरूप बौने पुरूश का जन्म हुआ। बाद में भुजाओं के मंथन से नर-नारी का एक जोड़ा निकला जिन्हें पृथु और अर्चि नाम दिया गया। ऋशि-मुनियों ने पृथु और अर्चि को पति-पत्नी के रूप में मान्यता देकर विदा किया। इधर बौने कुरूप पुरूश महादेव की तपस्या करने लगा। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव उन्हें दर्शन देकर पार्थिव लिंग की स्थापना और पूजा-अर्चना का विधान बताकर अंतर्ध्यान हो गये। बौने कुरूप पुरूश ने जिस काले वर पार्थिव लिग की स्थापना कर पूजा-अर्चना करके मुक्ति पायी थी वह काल के गर्त में समाकर अदृ य हो गया था। वही कालान्तर में हीरासाय तेली को द र्शन देकर उन्हें न केवल पेट रोग से मुक्त किया बल्कि उसके वंशबेल को भी बढ़ाया। श्री तुलसीराम पटेल द्वारा सन १९५४ में प्रकाशित श्री कालेश्‍वर महात्म्य में हीरासाय के वंश का वर्णन हैं-

तेहिके पुत्र पांच हो भयऊ।
शिव सेवा में मन चित दियेऊ।।
प्रथम पुत्र टिकाराम पाये।
बोधसाय भागवत, सखाराम अरु बुद्धू कहाये।।
सो शिवसेवा में अति मन दिन्हा।
यात्रीगण को शिक्षा दिन्हा।।
यही विघि शिक्षा देते आवत।
सकल वंश शिवभक्त कहावत।।
कहना न होगा हीरासाय का पूरा वंश शिवभक्त हुआ और मंदिर में प्रथम पूजा का अधिकार पाया। श्री प्यारेलाल गुप्त ने भी 'प्राचीन छत्तीसगढ़' में हीरासाय को पीथमपुर के शिव मंदिर में पूजा-अर्चना कर पेट रोग से मुक्त होना बताया हैं। उन्होंने खरियार (उड़ीसा) के राजा को भी पेट रोग से मुक्त करने के लिए पीथमपुर यात्रा करना बताया हैं। बिलासपर वैभव और बिलासपुर जिला गजेटियर में भी इसका उल्लेख हैं। लेकिन जनश्रुति यह है कि पीथमपुर के कालेश्‍वरनाथ (अपभ्रंश कले वरनाथ) की फाल्गुन पूर्णिमा को पूजा-अर्चना और अभिशेक करने से वंश की अवश्‍य वृद़्धि होती है। खरियार (उड़ीसा) के जिस जमींदार को पेट रोग से मुक्ति पाने के लिए पीथमपुर की यात्रा करना बताया गया है वे वास्तव में अपने वंश की वृद्धि के लिए यहां आये थे। खरियार के युवराज और उड़ीसा के सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. जे. पी. सिंहदेव ने मुझे बताया कि उनके दादा राजा वीर विक्रम सिंहदेव ने अपने वंश की वृद्धि के लिए पीथमपुर गए थे। समय आने पर काले वरनाथ की कृपा से उनके दो पुत्र क्रमश: आरतातनदेव और विजयभैरवदेव तथा दो पुत्री कनक मंजरी देवी और भाोभज्ञा मंजरी देवी का जन्म हुआ। वंश वृद्धि होने पर उन्होंने पीथमपुर में एक मंदिर का निर्माण कराया लेकिन मंदिर में मूर्ति की स्थापना के पूर्व ३६ वर्श की अल्पायु में सन् १९१२ में उनका स्वर्गवास हो गया। बाद में मंदिर ट्रस्ट द्वारा उस मंदिर में गौरी (पार्वती) जी की मूर्ति स्थापित करायी गयी।

यहां एक किंवदंति और प्रचलित है जिसके अनुसार एक बार नागा साधु के आशीर्वाद से कुलीन परिवार की एक पुत्रवधू को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। इस घटना को जानकर अगले वर्श अनेक महिलाएं पुत्ररत्न की लालसा लिए यहां आई जिससे नागा साधुओं को बहुत परेशानी हुई और उनकी संख्या धीरे धीरे कम होने लगी। कदाचित् इसी कारण नागा साधुओं की संख्या कम हो गयी है। लेकिन यह सत्य है कि आज भी अनेक दंपत्ति पुत्र कामना लिए यहां आती हैं और मनोकामना पूरी होने पर अगले वर्श जमीन पर लोट मारते द र्शन करने यहां जाते हैं। पीथमपुर के काल काले वरनाथ की लीला अपरम्पार है। छत्तीसगढ़ के भारतेन्दु कालीन कवि श्री वरणत सिंह चौहान ने 'शिवरीनारायण महात्म्य और पंचकोसी यात्रा' नामक पुस्तक में पीथमपुर की महत्ता का बखान किया है :-
हसदो नदी के तीर में, कले वरनाथ भगवान।
दर्शन तिनको जो करे, पावही पद निर्वाण।।
फाल्गुन मास की पूर्णिमा, होवत तहं स्नान।
काशी समान फल पावही, गावत वेद पुराण।।
बारह मास के पूर्णिमा, जो कोई कर स्नान।
सो जैईहैं बैकुंठ को, कहे वरणत सिंह चौहान।।

पीथमपुर के कालेश्‍वरनाथ मंदिर की दीवार में लगे शिलालेख के अनुसार श्री जगमाल गांगजी ठेकेदार कच्छ कुम्भारीआ ने इस मंदिर का निर्माण कार्तिक सुदि २, संवत् १७५५ (सन् १६९८) को गोकुल धनजी मिस्त्री से कराया था। चांपा के पडित छविनाथ द्विवेदी ने सन् १८९७ में संस्कृत में ''कलि वर महात्म्य स्त्रोत्रम'' लिखकर प्रकाशित कराया था। इस ग्रंथ में उन्होंने काले वरनाथ का उद्भव चैत्र कृश्ण प्रतिपदा संवत् १९४० (अर्थात् सन् १८८३ ई.) को होना बताया है। मंदिर निर्माण संवत् १९४९ (सन् १८९२) में शुरू होकर संवत् १९५३ (सन् १८९६) में पूरा होने, इसी वर्श मूर्ति की प्रतिश्ठा हीरासाय तेली के हाथों कराये जाने तथा मेला लगने का उल्लेख है। इसी प्रकार पीथमपुर मठ के महंत स्वामी दयानंद भारती ने भी संस्कृत में ''पीथमपुर के श्री भांकर माहात्म्य'' लिखकर सन् १९५३ में प्रकाशित कराया था। ३६ भलोक में उन्होंने पीथमपुर के शिवजी को काल काले वर महादेव, पीथमपुर में चांपा के सनातन धर्म संस्कृत पाठशला की भाशखा खोले जाने, सन् १९५३ में ही तिलभांडे वर, काशी से चांदी के पंचमुखी शिवजी की मूर्ति बनवाकर लाने और उसी वर्श से पीथमपुर के मेले में शिवजी की शोभायात्रा निकलने की बातों का उल्लेख किया है। उन्होंने पीथमपुर में मंदिर की व्यवस्था के लिए एक मठ की स्थापना तथा उसके ५० वर्शों में दस महंतों के नामों का उल्लेख इस माहात्म्य में किया है। इस माहात्म्य को लिखने की प्रेरणा उन्हें पंडित शिवशंकर रचित और सन् १९१४ में जबलपुर से प्रकाशित ''पीथमपुर माहात्म्य'' को पढ़कर मिली। जन आकांक्षाओं के अनुरूप उन्होंने महात्म्य को संस्कृत में लिखा। इसके १९ वें भलोक में उन्होंने लिखा है कि वि.सं. १९४५, फाल्गुन पूर्णमासी याने होली के दिन से इस भांकर देव स्थान पीथमपुर की ख्याति हुई। इसी प्रकार श्री तुलसीराम पटेल ने पीथमपुर : श्री कालेश्‍वर महात्म्य में लिखा है कि तीर्थ पुरोहित पंडित काशीप्रसाद पाठक पीथमपुर निवासी के प्रपिता पंडित रामनारायण पाठक ने संवत् १९४५ को हीरासाय तेली को शिवलिंग स्थापित कराया था।
तथ्य चाहे जो भी हो, मंदिर अति प्राचीन है और यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि जब श्री जगमाल गांगजी ठेकेदार ने संवत् १७५५ में मंदिर निर्माण कराया है तो अव य मूर्ति की स्थापना उसके पूर्व हो चुकी होगी। ...और किसी मंदिर को ध्वस्त होने के लिए १८५ वर्श का अंतराल पर्याप्त होता है। अत: यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि १८५ वर्श बाद उसका पुन: उद्भव संवत् १९४० में हुआ हो और मंदिर का निर्माण कराया गया होगा जिसमें मंदिर के पूर्व में निर्माण कराने वाले शिलालेख को पुन: दीवार में जड़ दिया गया होगा।

पीथमपुर में काल काले वरनाथ मंदिर के निर्माण के साथ ही मेला लगना भाुरू हो गया था। प्रारंभ में यहां का मेला फाल्गुन पूर्णिमा से चैत्र पंचमी तक ही लगता था, आगे चलकर मेले का विस्तार हुआ और इंपीरियल गजेटियर के अनुसार १० दिन तक मेला लगने लगा। इस मेले में नागा साधु इलाहाबाद, बनारस, हरिद्वार, ऋशिकेश, नासिक, उज्जैन, अमरकंटक और नेपाल आदि अनेक स्थानों से आने लगे। उनकी उपस्थिति मेले को जीवंत बना देती थी। मेले में पंचमी के दिन काल काले वर महादेव के बारात की शोभायात्रा निकाली जाती थी। कदाचित् शिव बारात के इस भाोभायात्रा को देखकर ही तुलसी के जन्मांध कवि श्री नरसिंहदास ने उड़िया में शिवायन लिखा। शिवायन के अंत में छत्तीसगढ़ी में शिव बारात की कल्पना को साकार किया है।
आइगे बरात गांव तीर भोला बबा के,
देखे जाबे चला गियां संगी ल जगाव रे।
डारो टोपी मारो धोती पाय पायजामा कसि,
गल गलाबंद अंग कुरता लगाव रे।
हेरा पनही दौड़त बनही कहे नरसिंह दास,
एक बार हहा करि, सबे कहुं घिघियावा रे।
पहुंच गये सुक्खा भये देखि भूत प्रेत कहें,
नई बांचन दाई बबा प्रान ले भगावा रे।
कोऊ भूत चढ़े गदहा म, कोऊ कुकुर म चढ़े,
कोऊ कोलिहा म चढ़ि, चढ़ि आवत।
कोऊ बघुवा म चढ़ि, कोऊ बछुवा म चढ़ि,
कोऊ घुघुवा म चढ़ि, हांकत उड़ावत,
सर्र सर्र सांप करे, गर्र गर्र बाघ करे।
हांव हांव कुकुर करे, कोलिहा हुहुवावत,
कहे नरसिंहदास भांभू के बरात देखि।

इसी प्रकार पीथमपुर का मठ खरौद के समान भौव मठ था। खरौद के मठ के महंत गिरि गोस्वामी थे, उसी प्रकार पीथमपुर के इस भौव मठ के महंत भी गिरि गोस्वामी थे। पीथमपुर के आसपास खोखरा और धाराशिव आदि गांवों में गिरि गोस्वामियों का निवास था। खोखरा में गिरि गोस्वामी के शिव मंदिर के अवशेष हैं और धाराशिव उनकी मालगुजारी गांव है। इस मठ के पहले महंत श्री भांकर गिरि जी महाराज थे जो चार वर्ष तक इस मठ के महंत थे। उसके बाद श्री पुरूशोत्तम गिरि जी महाराज, श्री सोमवारपुरी जी महाराज, श्री लहरपुरी जी महाराज, श्री काशीपुरी जी महाराज, श्री शिवनारायण गिरि जी महाराज, श्री प्रागपुरि जी महाराज, स्वामी गिरिजानंद जी महाराज, स्वामी वासुदेवानंद जी महाराज, और स्वामी दयानंद जी महाराज इस मठ के महंत हुए। मठ के महंत तिलभांडे वर मठ काशी से संबंधित थे। स्वामी दयानंद भारती जी को पीथमपुर मठ की व्यवस्था के लिए तिलभांडे वर मठ काशी के महंत स्वामी अच्युतानंद जी महाराज ने २०.०२.१९५३ को भेजा था। स्वामी गिरिजानंदजी महाराज पीथमपुर मठ के आठवें महंत हुए। उन्होंने ही चांपा को मुख्यालय बनाकर चांपा में एक 'सनातन धर्म संस्कृत पाठशाला' की स्थापना सन् १९२३ में की थी। इस संस्कृत पाठशाला से अनेक विद्यार्थी पढ़कर उच्च शिक्षा के लिए काशी गये थे। आगे चलकर पीथमपुर में भी इस संस्कृत पाठशाला की एक भाशखा खोली गयी थी। हांलाकि पीथमपुर में संस्कृत पाठशाला अधिक वर्शो तक नहीं चल सकी; लेकिन उस काल में संस्कृत में बोलना, लिखना और पढ़ना गर्व की बात थी। उस समय रायगढ़ और शिवरीनारायण में भी संस्कृत पाठशाला थी। अफरीद के पंडित देवीधर दीवान ने संस्कृत भाशा में विषेश रूचि होने के कारण अफरीद में एक संस्कृत ग्रंथालय की स्थापना की थी। आज इस ग्रंथालय में संस्कृत के दुर्लभ ग्रंथों का संग्रह है जिसके संरक्षण की आव यकता है। उल्लेखनीय है कि यहां के दीवान परिवार का पीथमपुर से गहरा संबंध रहा है।
सम्प्रति पीथमपुर का मंदिर अच्छी स्थिति में है। समय समय पर चांपा जमींदार द्वारा निर्माण कार्य कराये जाने का उल्लेख शिलालेख में है। रानी साहिबा उपमान कुंवरि द्वारा फ र्श में संगमरमर लगवाया गया है। पीथमपुर के आसपास के लोगों द्वारा और क्षेत्रीय समाजों के द्वारा अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया है। काले वरनाथ की महत्ता अपरम्पार है, तभी तो कवि तुलाराम गोपाल का मन गा उठता है :-
युगों युगों से चली आ रही यह पुनीत परिपाटी,
कलियुग में भी है प्रसिद्ध यह पीथमपुर की माटी।
जहां स्वप्न देकर भांकर जी पुर्नप्रकट हो आये,
यह मनुश्य का काम कि उससे पुरा लाभ उठाये।।
रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,चांपा-४९५६७१ (छत्तीसगढ़)

गुरुवार, 20 मार्च 2008

खेलूंगी कभी न होली, उससे जो नहीं हमजोली

खेलूंगी कभी न होली, उससे जो नहीं हमजोली
प्रो. अश्निनी केशरवानी

फागुन का त्योहार होली हंसी-ठिठोली और उल्लास का त्योहार है। रंग गुलाल इस त्योहार में केवल तन को ही नही रंगते बल्कि मन को भी रंगते हैं। प्रकृति की हरीतिमा, बासंती बहार, सुगंध फेलाती आमों के बौर और मन भावन टेसू के फूल होली के उत्साह को दोगुना कर देती है। प्रकृति के इस रूप को समेटने की जैसे कवियों में होड़ लग जाती है। देखिए कवि सुमित्रानंदन पंत की एक बानगी:
चंचल पग दीपि शिखा के घर
गृह भग वन में आया वसंत।
सुलगा फागुन का सूनापन
सौंदर्य शिखाओं में अनंत।
सैरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर उर में मधुर दाह
आया वसंत, भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुन्दरता का प्रवाह।

प्रकृति की इस मदमाती रूप को निराला जी कुछ इस प्रकार समेटने का प्रयास करते हैं :-
सखि वसंत आया
भरा हर्श वन के मन
नवोत्कर्श छाया।
किसलय बसना नव-वय लतिका
मिली मधुर प्रिय उर तरू पतिका
मधुप वृन्द बंदी पिक स्वर नभ सरसाया
लता मुकुल हार गंध मार भर
बही पवन बंद मंद मंदतर
जागी नयनों में वन
यौवनों की माया।
आवृत सरसी उर सरसिज उठे
केसर के केश कली के छूटे
स्वर्ण भास्य अंचल, पृथ्वी का लहराया।

मानव मन इच्छाओं का सागर है और पर्व उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम होते हैं। ये पर्व हमारी भावनाओं को प्रदर्शित करने में सहायक होते हैं। इसीलिए हमारी संस्कृति में शौर्य के लिए द शहरा, श्रद्धा के लिए दीपावली, और उल्लास के लिए होली को उपयुक्त माना गया है। यद्यपि हर्श हर पर्व और त्योहार में होता है मगर उन्मुक्त हंसी-ठिठोली और उमंग की अभिव्यक्ति होली में ही होती है। मस्ती में झूमते लोग फाग में कुछ इस तरह रस उड़ेलते हैं :-
फूटे हैं आमों में बौर
भौंर बन बन टूटे हैं।
होली मची ठौर ठौर
सभी बंधन छूटे हैं।
फागुन के रंग राग
बाग बन फाग मचा है।
भर गये मोती के झाग
जनों के मन लूटे हैं।
माथे अबीर से लाल
गाल सिंदूर से देखे
आंखें हुई गुलाल
गेरू के ढेले फूटे हैं।
ईसुरी अपने फाग गीतों में कुछ इस प्रकार रंगीन होते हैं :-
झूला झूलत स्याम उमंग में
कोऊ नई है संग में।
मन ही मन बतरात खिलत है
फूल गये अंग अंग में।
झोंका लगत उड़त और अंबर
रंगे हे केसर रंग में।
ईसुर कहे बता दो हम खां
रंगे कौन के रंग में।

ब्रज में होली की तैयारी सब जगह जोरों से हो रही है। सखियों की भारी भीड़ लिये प्यारी राधिका संग में है। वे गुलाल हाथ में लिए गिरधर के मुख में मलती है। गिरधर भी पिचकारी भरकर उनकी साड़ी पर छोड़ते हैं। देखो ईसुरी, पिचकारी के रंग के लगते ही उनकी साड़ी तर हो रही है। ब्रज की होली का अपना ढंग होता है। देखिए ईसुरी द्वारा लिखे दृश्‍य की एक बानगी
ब्रज में खेले फाग कन्हाई
राधे संग सुहाई
चलत अबीर रंग केसर को
नभ अरूनाई छाई
लाल लाल ब्रज लाल लाल बन
वोथिन कीच मचाई।
ईसुर नर नारिन के मन में
अति आनंद अधिकाई।
सूरदास भी भक्ति के रस में डूबकर अपने आत्मा-चक्षुओं से होली का आनंद लेते हुए कहते हैं :-
ब्रज में होरी मचाई
इतते आई सुघर राधिका
उतते कुंवर कन्हाई।
हिल मिल फाग परस्पर खेले
भाोभा बरनिन जाई
उड़त अबीर गुलाल कुमकुम
रह्यो सकल ब्रज छाई।
कवि पद्यमाकर की भी एक बानगी पेश है :-
फाग की भीढ़ में गोरी
गोविंद को भीतर ले गई
कृश्ण पर अबीर की झोली औंधी कर दी
पिताम्बर छिन लिया, गालों पर गुलाल मल दी।
और नयनों से हंसते हुए बाली-
लला फिर आइयो खेलन होली।

होली के अवसर पर लोग नशा करने के लिए भांग-धतुरा खाते हैं। ब्रज में भी लोग भांग-धतूरा खाकर होली खेल रहे हैं। ईसुरी की एक बानगी पेश है :-
भींजे फिर राधिका रंग में
मनमोहन के संग में
दब की धूमर धाम मचा दई
मजा उड़ावत मग में
कोऊ माजूम धतूरे फांके
कोऊ छका दई भंग में
तन कपड़ा गए उधर
ईसुरी, करो ढांक सब ढंग में।
तब बरबस राधिका जी के मुख से निकल पड़ता है :-
खेलूंगी कभी न होली
उससे नहीं जो हमजोली।
यहां आंख कहीं कुछ बोली
यह हुई श्‍याम की तोली
ऐसी भी रही ठिठोली।

यूं देश के प्रत्येक हिस्से में होली पूरे जोश-खरोश से मनाई जाती है। किंतु सीधे, सरल और सात्विक ढंग से जीने की इच्छा रखने वाले लागों को होली के हुड़दंग और उच्छृंखला से थोड़ी परेशानी भी होती है। फिर भी सब तरफ होली की धूम मचाते हुए हुरियारों की टोलियां जब गलियों और सड़कों से होते हुए घर-आंगन के भीतर भी रंगों से भरी पिचकारियां और अबीर गुलाल लेकर पहुंचते हैं, तब अच्छे से अच्छे लोग, बच्चे-बूढ़े सभी की तबियत होली खेलने के लिए मचल उठती है। लोग अपने परिवार जनों, मित्रों और यहां तक कि अपरिचितों से भी होली खेलने लगते हैं। इस दिन प्राय: जोर जबरदस्ती से रंग खेलने, फूहड़ हंसी मजाक और छेड़ छाड़ करने लगते हैं जिसे कुछ लोग नापसंद भी करते हैं। फिर भी 'बुरा न मानो होली है...` के स्वरों के कारण बुरा नहीं मानते। आज समूचा विश्‍व स्वीकार करता है कि होली वि व का एक अनूठा त्योहार है। यदि विवेक से काम लेकर होली को एक प्रमुख सामाजिक और धार्मिक अनुष्‍्ठान के रूप में शालीनता से मनाएं तो इस त्योहार की गरिमा अवश्‍य बढ़ेगी।
रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्निनी केशरवानी
' राघव ` डागा कालोनी
चाम्पा-४९५६७१ ( छत्तीसगढ़ )

मंगलवार, 11 मार्च 2008

प्रदेश केसरवानी वैश्य सभा के पदाधिकारियों का शपथ ग्रहण समारोह सम्पन्न



प्रो. अिश्वनी केसरवानी प्रदेश केसरवानी वैश्य सभा के संरक्षक बनाये गये।

प्रदेश केसरवानी वैश्य सभा के पदाधिकारियों का शपथ ग्रहण समारोह सम्पन्न
छत्तीसगढ़ राज्य केसरवानी वैश्य सभा के पदाधिकारियों का शपथ ग्रहण समारोह प्रो. अिश्वनी केसरवानी के मुख्य आतिथ्य और श्री शंकरलाल केसरवानी (बलौदाबाजार) की अध्यक्षता में केसरवानी भवन सारंगढ़ में सम्पन्न हुआ। सर्वप्रथम मंचस्थ अतिथियों के द्वारा गोत्राचार्य महर्षि कश्यप जी की पूजा अर्चना की गयी फिर मंचस्थ अतिथियों का माल्र्यापण से नगर सभा के पदाधिकारियों के द्वारा स्वागत किया गया तत्पश्चात् महिलाओं के द्वारा गुरू वंदना और स्वागत गीत गाये गये। नगर सभा के अध्यक्ष श्री रामचरण केसरवानी ने स्वागत भाषण देते हुए सभी अतिथियों का अभिनंदन किया। नगर महिला अध्यक्ष श्रीमती शोभा केसरवानी ने नगर सभा की गतिविधियों की जानकारी दी। तत्पश्चात् मुख्य अतिथि प्रो. अिश्वनी केसरवानी ने प्रदेश सभा के सभी पदाधिकारियों को बारी बारी से शपथ दिलायी। नवनिर्वाचित अध्यक्ष श्री विजय केसरवानी ने प्रदेश सभा के द्वारा पूर्व में कराये जा रहे कायोZ को आगे बढ़ाते हुए समाज के विकास में अपेक्षानुरूप कार्य करने का आश्वासन दिया। उन्होंने समस्त स्वजातीय बंधुओं से पूर्व की भांति सहयोग देने की अपील की। नवनिर्वाचित प्रदेश महामंत्री श्री अशोक केसरवानी (मनेन्द्रगढ़) ने स्वयं को प्रदेश अध्यक्ष का सारथी बताते हुए समाज हित में कार्य करने की बात कही। मुख्य अतिथि की आसंदी से निवृतमान प्रदेश अध्यक्ष प्रो. अिश्वनी केसरवानी ने कहा कि समाज के हित में कार्य करने के लिए मैंने जो मशाल जलायी थी उसे नवनििर्वाचित प्रदेश अध्यक्ष श्री विजय केसरवानी को सौंप दिया है। अब उस मशाल को जलाये रखने के लिए उन्हें आप सभी के सहयोग की आवश्यकता है। समाज की कुरीतियों को त्यागना आवश्यक है। इसके लिए नवयुवक, बुजुर्ग और महिलाओं को आगे आने की आवश्यकता है। पदाधिकारियों में आपसी सामंजस्य का होना अति आवश्यक है तभी हम विकास की राह पर आगे बढ़ सकेंगे। नगर तरूण सभा के अध्यक्ष ने सभी अतिथियों का आभार प्रदशZन किया। नगर केसरवानी वैश्य सभा के द्वारा सभी अतिथियों को स्मृति चिन्ह प्रदान किया गया। इस कार्यक्रम में रायगढ़, खरसिया, सरसींवा, भटगांव, िशवरीनारायण, केरा, नावागढ़, जांजगीर, चांपा, कोरबा, बिलासपुर, रायपुर, तिल्दा, भाठापारा, बलौदाबाजार, खैरागढ़, मुंगेली, कवर्धा, पेंड्रा, गौरेला, मनेन्द्रगढ़, अंडी, अमरपुर, चिरमिरी, लोरमी, आदि अनेक स्थानों से स्वजातीय बंधु आये थे। कार्यक्रम का सफल संचालन श्री राजेश केसरवानी और श्री रितेश केसरवानी ने किया। छत्तीसगढ़ राज्य केसरवानी वैश्य सभा के पदाधिकारियों की सूची निम्नानुसार है :- संरक्षक :- 1. डॉ. भानू गुप्ता, मुंगेली, 2. डॉ. महावीर प्रसाद गुप्ता, रायपुर, 3. श्री हरिप्रसाद गुप्ता, रायपुर 4. प्रो. अिश्वनी केसरवानी, चांपा।सलाहकार :- प्रदीप केसरवानी, बिलासपुर, एम. एल. बानी, रायपुर, डॉ. विनय गुप्ता, बिलासपुर, रामकुमार केसरवानी, लोरमी, नेमीचंद्र केसरवानी, भटगांव।अध्यक्ष :- विजय केसरवानी, बलौदाबाजार, वरिष्ठ उपाध्यक्ष :- रविन्द्र केसरवानी, बिलासपुरउपाध्यक्ष :- 1. गरीबालाल केसरवानी, भाठापारा, 2. गिरिजाप्रसाद केसरवानी, बिलासपुर, 3. छेदीलाल केसरवानी, रायपुर, 4. बीजेन्द्र केसरवानी, सारंगढ़, 5. प्रकाश केसरी, गौरेला, 6. सुधीर गुप्ता, बिलासपुर।महामंत्री :- अशोक कुमार केसरवानी, मनेन्द्रगढ़, संगठन मंत्री :- महेश केसरवानी, पेंड्रा कोषाध्यक्ष :- जयप्रकाश केसरवानी, कोरबा, सचिव :- 1. कुष्णाप्रसाद गुप्ता, अिम्बकापुर, 2. कमलेश्वर केसरवानी, मंगेली, 3. आनंद गुप्ता, रायपुर, 4. नवीन गुप्ता, दुर्ग, 5. आशीष केसरवानी, िशवरीनारायण,6. अशोक केसरवानी, तिल्दा, 7. राजेश केसरवानी, मंगेली, प्रचार प्रसार सचिव :- उमेश केसरवानी, सारंगढ़, कार्यालय सचिव :- रमेश केसरवानी, चांपा एवं िशवाजीप्रसाद केसरी, भिलााई। अंकेक्षक :- मुकुंदीलाल केसरवानी, रायपुर एवं नगेन्द्र गुप्ता, मुंगेली। सह सचिव :- 1. दुगेZश केसरवानी, कवर्धा, 2. पूरनचंद्र गुप्ता, चिरमिरी, 3. कृष्ण कुमार केसरवानी, रायगढ़, 4. प्रभुलाल केसरवानी, रायपुर, 5. रतनमणि केसरवानी, लोरमी 6. नत्थूलाल केसरवानी, खरसिया।प्रकोष्ठ संयोजक :-1. राजनीतिक प्रकोष्ठ नरेश गुप्ता, रायपुर2. शैक्षणिक प्रकोष्ठ डॉ. जयनारायण केसरवानी, रायपुर3. सांस्कृतिक प्रकोष्ठ राजेश केसरी, कवर्धा4. विधि प्रकोष्ठ अजय केसरवानी, जांजगीर5. उद्योग एवं व्यापार प्रकोष्ठ अशोक केसरवानी, बिलासपुर